(समकालीन जनमत की प्रबन्ध संपादक और जन संस्कृति मंच, उत्तर प्रदेश की वरिष्ठ उपाध्यक्ष मीना राय का जीवन लम्बे समय तक विविध साहित्यिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक हलचलों का गवाह रहा है. एक अध्यापक और प्रधानाचार्य के रूप में ग्रामीण हिन्दुस्तान की शिक्षा-व्यवस्था की चुनौतियों से लेकर सांस्कृतिक संकुल प्रकाशन के संचालन, साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजनों में सक्रिय रूप से पुस्तक, पोस्टर प्रदर्शनी के आयोजन और देश-समाज-राजनीति की बहसों से सक्रिय सम्बद्धता के उनके अनुभवों के संस्मरणों की श्रृंखला हम समकालीन जनमत के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं. -सं.)
नौकरी को तीन महीने बीत चुके थे। 395/- रु. बेसिक पे था। कुल 450/रु. वेतन मिल रहा था। मैं साइकिल से स्कूल जाने लगी थी। अभी मैं सिंह साहब वाले मकान में ही थी। आर्थिक स्थिति पहले से थोड़ा बेहतर हो गई थी। अब खाने की दिक्कत नहीं थी। समता के लिए दूध भी लेने लगे थे। समता का पास वाले स्कूल में एडमिशन हो गया था। उसको छोड़ते हुए मैं स्कूल निकल जाती। वेतन तीन महीने पर मिलता था। शुरू में दिक्कत हुई। फिर मैंने स्कूल के ही कक्षा-8 के 8 बच्चों को छुट्टी के बाद एक लड़की के घर में ही 20/-महीने पर मात्र गणित और संस्कृत का ट्यूशन देने लगी। जिससे 160/- अतिरिक्त मिल जाता था। ट्यूशन तो और मिल रहा था लेकिन मेरे पास समय नहीं था। धीरे- धीरे आर्थिक स्थिति सामान्य होने लगी।
उस समय बड़ी – बड़ी मीटिगें मेरे यहां ही होती थीं। जिसमें 25-30 लोग तक हुआ करते थे। मीटिंगों में अक्सर सुबह ब्रेड चाय ही नाश्ता रहता था। अंगीठी और स्टोव पर चावल, दाल, सब्जी बना लेती थी। ट्रेनिंग वाला कूकर बड़ा काम दे रहा था। मीटिंग में आये लोग भी खाना बनाने में सहयोग करते थे। जैसे आटा सानने का काम अवधेश प्रधान कर देते थे। मैं रोटी बनाकर ही स्कूल जाती थी। दोपहर खाना खाने के बाद सब लोग अपना बरतन धो देते थे। यहां तक कि खाना बनाने वाला बरतन भी धुला रहता था। अब जो भी धो देते रहे हों। शाम में भी मिलजुल कर ही खाना बनता था। इन मीटिंगों के लिए सामान का पैसा भी मुझे नहीं देना पड़ता था। यह आई पी एफ बनने के पहले का दौर था।
अक्टूबर 1981 में शायद किसान जन मोर्चे की बड़ी रैली लखनऊ में हुई थी। जिसके क्रांतिकुमार और चितरंजन सिंह नेता चुने गए थे। एक समिति बनी थी उसमें मात्र ओ. डी. सिंह और फैजाबाद से सर्वदमन पांडे का ही नाम याद है। जनदिशा नाम से एक पत्रिका भी निकलनी शुरू हुई थी। चितरंजन सिंह उसके संपादक थे। उसके मात्र तीन अंक ही निकल पाए। इस सबके बीच ही आई पी एफ के निर्माण का दौर शुरू हुआ।
1982 में आई.पी.एफ.का स्थापना सम्मेलन हुआ। उसमें समता रामजी राय की गोदी से ही माइक में:-” क्रांति के लिए उठे कदम, क्रांति के लिए जली मशाल। भूख के विरुद्ध भात के लिए, रात के विरुद्ध प्रात के लिए। हम लड़ेंगे हमने ली कसम……” पूरा गीत गाई थी। यह स्थापना सम्मेलन दिल्ली के फिरोज शाह कोटला मैदान में चल रहा था। सम्मेलन के बीच ही शाम को बहुत तेज आंधी -पानी आया, जैसे तूफ़ान आ गया हो। पूरा पंडाल हिलने लगा – अब उखड़ा कि तब उखड़ा। मंच से एलान हुआ- सभी लोग अपनी जगह पर जमे रहें और पंडाल का बांस कस कर पकड़े रहें ताकि पंडाल उड़ने न पाए । लोगों ने ऐसा ही किया। पंडाल को तो नहीं उड़ने दिया गया लेकिन बारिश इतनी तेज थी कि टेंट का कपड़ा पानी का भार संभाल न सका और जगह-जगह से टेंट फटने लगा जिससे अंदर पानी भरने लगा। आंधी कुछ कम हुई और अंत में एनाउसमेंट हुआ कि लग रहा है बारिश बंद न होगी इसलिए आप सभी लोगों को पैदल मार्च करते हुए बहादुर शाह जफर मार्ग पर ( जगह का नाम भूल रहा) चलना पड़ेगा। आप सभी का सामान वहां सुरक्षित पहुंच जाएगा और सभी लोग रात को पैदल मार्च करते, गीत गाते ( जिसमें अन्य जन गीतों के अलावा एक गीत यह भी था:- आइल बयासी के लहरा हो चल दिल्ली क ओर। दिल्ली में राजा, दिल्ली में रानी। दिल्ली मनावे दशहरा हो चल दिल्ली क ओर। आइल बयासी के…..” ) 2.30 बजे गंतव्य स्थल पर पहुंच गये। वहीं कहीं बगल में कांग्रेस पार्टी का भी कार्यक्रम चल रहा था। वहां तो सब भाग गए और नहीं तो लोगों का बहुत सारा सामान चोरी भी चला गया।
सुबह फिर सम्मेलन वहीं शुरू हुआ। लगा ही नहीं कि कल इतना बड़ा तूफान यहां आया था। कार्यक्रम शुरू होते ही एनाउंस किया गया कि कल तूफान में जो भी सामान टेन्ट में पाया गया वह एक घेरे में रखा है आप लोग अपना -अपना सामान पहचानकर ले लें। मुझे नहीं भूलता कि सामानों में एक दस रुपए का नोट भी रखा था। इतनी ईमानदारी शायद और कहीं नहीं होती होगी। ये होता है संगठन। इस पर सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने दिनमान के अपने ‘चर्चे- चरखे’ नामक कालम में “आंधी से आंधी की टक्कर” शीर्षक से एक टिप्पणी लिखी जिसकी काफी चर्चा हुई थी।
इस समय हमलोग राजापुर (बिना शौचालय वाले कमरे) में रह रहे थे। कुछ दिन बाद मेरे पैर में दर्द रहने लगा। डॉक्टर को दिखाने पर पता चला कि साइटिका है। पैदल चलना मुश्किल हो गया था। जबकि साइकिल चलाने पर कम दर्द रहता था। शायद कोई नस दब जाती रही हो। एलोपैथ में बहुत दवा किए। कुछ देशी दवा भी किए। बी एच यू मेंं भी दिखाए। बिजली से सिकाई भी हुई। 6 महीने इधर उधर दिखाते रहे लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। मेरे पिता जी को भी साइटिका था। पिताजी 3 घंटा सुबह और 3 घंटा शाम खेतों में काम करके दर्द कम किए रहते थे। उनका दर्द ठेघुने के नीचे आ गया लेकिन पूरी तरह से आजीवन ठीक नहीं हुआ। एकदिन हम लोग हाईकोर्ट के जाने माने वकील उमेश नारायण शर्मा से मिलने उनके घर गए थे। बातचीत के क्रम में मैंने अपने साइटिका पेन के संबंध में भी बात की। उन्होंने इसी रोग की मरीज अपनी पत्नी का हवाला देते हुए होम्योपैथ के डा. एस.एम.सिंह के बारे में बताया। कहा कि डॉक्टर तो मंहगे हैं लेकिन उनकी दवा असर करती है। साथ ही ये भी कहा कि कहिएगा तो मैं आपके साथ चला चलूंगा या डॉक्टर के नाम एक चिट्ठी लिख दूंगा लेकिन उन्हें आप दिखाइए जरूर। पहली बार चितरंजन सिंह और उमेश भाई के साथ ही मैं डा.एस एम सिंह को दिखाने गई। बोलने में बहुत खड़ूस डॉक्टर लगते थे। उनसे बोलने में डर लगता था। इसलिए मैं अपनी समस्या लिखकर ले जाती थी। हर पांचवें दिन दवा लेने जाना पड़ता था। वो तो उमेश भाई के चलते डॉक्टर ने न फीस लिया और न ही दवा का पैसा, नहीं तो मैं इतना मंहगा इलाज न करा पाती। 3-4 महीने तक कोई फायदा नहीं हुआ। हम तो सोचने लगे कि फ्री में दवा देते हैं तो ऐसे ही मीठी गोली दे देते होंगे। लेकिन उसके बाद दर्द थोड़ा कम होने लगा। एक बार मैंने बोला भी कि एड़ी के ऊपर की हड्डी दिख रही है और उसमें दर्द भी है, कैसे ठीक होगा? बोले पैर काटना पड़ेगा और क्या। मैंने बोला होम्योपैथ में तो आपरेशन नहीं होता। तो बोले, इतना पता है तो धैर्य रखो, सब ठीक हो जाएगा। पूरे नौ महीने मैंने रिगुलर दवा खाई और मेरा साइटिका का दर्द जड़ से खत्म हो गया। बाद के दिनों में मुझे माइग्रेन हुआ वो भी इन्हीं की दवा से ठीक हुआ। 39 साल में ही मेरा पीरियड बंद हो गया। फिर कई तरह की दिक्कत होने लगी। मैं फिर इन्हीं के पास गई और सारी दिक्कतें जो लिखकर ले गई थी उन्हें दे दिया। 6 महीने दवा चली, पीरियड शुरू हो गया और 55 वर्ष की उम्र में बंद हुआ। यहां तक कि हार्निया की भी दवा मैं इन्हीं से लेती थी। बस भारी सामान न उठाने और झुककर काम करने से मना किये थे। 1992 में ही मुझे हार्निया हुआ था और आपरेशन की नौबत आज तक नहीं आई। हालांकि किक वाली गाड़ी मैंने जबसे छोड़ी और सेल्फ स्टार्ट वाली गाड़ी ली, तब से काफी आराम हो गया।
इसी समय पार्टी की राय से एक स्कूल भी चलाने का प्रयोग किया गया। ट्रैफिक चौराहे के पास ‘ताउसी होटल’ से सौ कदम अंदर की तरफ बब्बू राय ( अखिलेंद्र सिंह के मित्र ) के बंगले में ” प्रगति बाल विद्यालय” नाम से स्कूल खोला गया। जिसकी देख रेख उदय कर रहे थे। उसमें दस्ता नाट्य मंच की अल्पना पांडेय, कल्पना पांडेय और अभय सिंह, प्रमोद सिंह भी टीचर रहे। राजापुर की माया यादव और छाया रिगुलर टीचर थीं। एक साल तक स्कूल काफी अच्छा चला। लेकिन अगले साल बब्बू राय खेल खेल गए और सामने पड़े किसी के प्लाट में स्कूल चलवाने का निर्णय लिए। उस प्लाट में टैम्परोरी कक्षाओं का निर्माण कराते समय ही केस हो गया। पुलिस द्वारा सब निर्माण तोड़ दिया गया। और अब बब्बू राय ने भी अपने यहां स्कूल चलाने से मना कर दिया।( इन्होंने पहले ही साल स्कूल के बहाने अपने बंगले की चारो ओर से मरम्मत करवा ली और दूसरे साल मना कर दिए ) पहले साल बंगले के बगल में जिधर स्कूल चलता था उधर की जमीन काफी उबड़ खाबड़ थी। बल्कि स्कूल चलाने के लिए संगठन द्वारा बंगले के चारों ओर की जमीन काफी मेहनत और पैसे से समतल और दुरुस्त की गई थी।
पार्टी के वरिष्ठ साथी शंभू जी ( स्वदेश भट्टाचार्या ) ने एक-दो बार मुझसे कहा भी कि अपने इस स्कूल को आप संभाल लीजिए, इसका आपको अनुभव भी है। मैंने शंभू जी से कहा कि अपने अनुभव का पूरा सहयोग मैं पार्टी के स्कूल को दूंगी, लेकिन मेरी नौकरी परमानेन्ट है, और मुझे जितना मिलता है उतने में चार टीचर स्कूल के लिए मिल जाएंगी। यह तो अच्छा ही हुआ कि मैंने नौकरी नहीं छोड़ी।
एक बार दीपावली में हमलोगों को साधू जी ( हमारे ससुर) के यहां भंडारे में जाना था। सब सामान रख हम लोग तैयार थे। रामजी राय रिक्शा लेने जा ही रहे थे कि दिलीप सिंह और जयप्रकाश जी आ गए और बताए कि मीटिंग है और फिर तो जाना कैंसिल होना ही था। हो भी गया। ऐसी मीटिंगें अक्सर त्योहारों के दिनों में ही होती थीं। कभी -कभी तो बहुत गुस्सा भी लगता था कि छुट्टी खत्म हो जाने के बाद कहां निकल पाएंगे हम। लेकिन यह सोच कर तसल्ली हो जाती कि उसी छुट्टी का उपयोग करके तो नौकरी वाले मीटिंग में आ पाते हैं। उस मीटिंग में पहली बार मैंने शंभू जी को देखा था। रामचेत, आजाद जी, बाबूलाल, अशोक गुप्ता, दिलीप सिंह, शायद लाल बहादुर सिंह और 1-2 पी एस ओ के लड़के भी थे। मीटिंग में शंभू जी पूरी रात बज्राशन की मुद्रा में बैठे रहे। मैंने रामजी राय से पूछा यही वी एम हैं क्या? रात भर एक ही मुद्रा में बैठे रहे। बोले पता नहीं, हो सकता है। रामजी राय कभी भूल कर भी पार्टी की संगठन संबन्धी कोई बात बताते नहीं थे। इसलिए कि पार्टी अन्डर ग्राउण्ड थी। दूसरे दिन रात में सभी लोग चले गए।
अंकुर होने वाले थे। छठे महीने तक मैं साइकिल से ही स्कूल जाती रही। जून में गांव चली गई थी। जुलाई में डॉक्टर को दिखाने पर डॉक्टर ने साइकिल चलाना सख्ती से मना कर दिया और बोलीं कि अगर आप साइकिल चलाईं और कुछ ऊंच – नीच हुआ तो मैं नहीं जानती। मजबूरन मुझे साइकिल चलाना बंद करना पड़ा। उस समय ईश्वरी प्रसाद ( वर्तमान में उत्तर प्रदेश से पार्टी के सेंट्रल कमिटी (सी.सी.) के मेम्बर हैं ) लगभग एक महीने मुझे साइकिल से स्कूल छोड़ने जाते थे और स्कूल से ले भी आते थे। एक दिन ईश्वरी को किसी कारणवश नहीं आना था तो दयाशंकर राय कोशिश किए लेकिन वो बैलेंस न संभाल पाए और मैंने उनके साथ जाने से मना कर दिया और रिक्शे से स्कूल गई। नवां महीना चल रहा था। अब साइकिल से जाने में भी दिक्कत होती थी। अब उदय स्कूटर से स्कूल छोड़ते और ले आते। कभी कभी अभय सिंह भी इस जिम्मेदारी का वहन करते थे। अगस्त का पूरा महीना ऐसे बीता। उसके बाद पब्लिक शौचालय की दिक्कत के कारण शिवकुमार मिश्रा के कमरे पर मैं कटरा रहने आ गई। अभी एक हफ्ता स्कूल जाना था। उदय ही कटरा से स्कूल ले जाते और ले आते। 6 सितंबर तक मैं स्कूल गई। 7 से 10 सितंबर तक स्कूल बंद था। 11 सितम्बर से मैंने मातृत्व अवकाश लिया था। इसी समय पार्टी की कोई बड़ी मीटिंग भी थी। उसमें शंभू जी भी आए थे। 11 की रात कटरा वाले कमरे पर कोई बैठक चल रही थी जिसमें केवल इलाहाबाद के ही लोग थे। अनिल अग्रवाल शायद इलाहाबाद के इंचार्ज थे। मैं अंदर वाले कमरे में बसहट पर समता को लेकर लेटी थी। लाइट भी शाम से ही गायब थी। अंदर और गर्मी लग रही थी। फिर खाना बनाने की बात आई तो मैंने मना कर दिया कि मेरी स्थिति नहीं है कि मैं खाना बनाऊं। खैर एक बार दाल चढ़ा दिए लोग। सीटी पर सीटी बज रही है लोग ध्यान ही नहीं दे रहे थे। मैंने जाकर स्टोव बंद किया। फिर दाल पलटकर कूकर में चावल चढ़ाया गया। बातचीत का लगभग अंत ही होने जा रहा था शायद कि फिर कूकर की सीटी बजती जा रही थी। मैं चाहकर भी नहीं उठ पा रही थी क्योंकि मुझे पेन होने लगा था। आराम मिला तो आवाज दी तो किसी ने स्टोव बंद किया। चावल नीचे जल भी गया था। इस बीच मैं दो टोकरी में सामान तैयार कर ली थी। एक टोकरी में हॉस्पिटल चलते समय ले जाने वाला सामान और दूसरी टोकरी में बच्चा होने पर हॉस्पिटल भेजने वाला सामान। करते करते 12 बजे रामजी राय अंदर सोने आए तो मैंने कहा कि समता को अपने पास सुला लीजिए। मैंने कुछ बताया नहीं कि थोड़ा आराम से सो लें। लेकिन मुझे अब 10-10 मिनट के अंतराल पर दर्द होने लगा। मैंने सोचा कि समता के टाइम 24 घंटे दर्द रहा तो इस बार कम से कम 12 घंटा तो रहेगा ही। 4 बजे रामजी राय को जगाए कि उठिए लगता है हॉस्पिटल जाना पड़ेगा। रामजी राय शिवकुमार को रिक्शा लेने भेजकर लेट गए। मैंने स्टोव पर चाय बनाई। चाय पीने के बाद रामजी राय मेरा दर्द देखकर उदय को बोले जाइए देखिए कहां रह गए शिवकुमार। उदय बाहर निकले तो गली के सामने ही रिक्शा खड़ा था। रिक्शा वाले से पूछे कि कमला नेहरू हॉस्पिटल चलोगे? तो रिक्शा वाला बोला कि रिक्शे पर जो बाबूजी बैठे हैं वो कमला नेहरू हॉस्पिटल जाने के लिए ही तय किए थे लेकिन रिक्शे पर सो गए हैं, उठ ही नहीं रहे हैं। उदय ने देखा कि शिवकुमार मिश्र ही रिक्शे पर सो रहे हैं। तो सो जाने के ऐसे कितने ही किस्से हैं शिवकुमार के। फिर हमको हॉस्पिटल रिक्शे से लेकर शिवकुमार ही गए और उदय स्कूटर से पीछे पीछे। हॉस्पिटल में देख रेख के लिए विनोद श्रीवास्तव की पत्नी थीं। मेरा आर एच निगेटिव होने से खतरा बढ़ गया था। आर एच निगेटिव वाले को बच्चा होने के बाद 24 घंटे के अंदर एक इंजेक्शन लगाना होता है, वो इलाहाबाद में मिला ही नहीं। रातोरात उसे कानपुर से मंगवाना पड़ा। अंकुर को भी मां का दूध लेने के बाद आंख सूज गई। उसे भी 6 इंजेक्शन लगवाना पड़ा। उसका आर एच पाजिटिव था। दस्ता नाट्य मंच के अमरेश मिश्रा मेरी हालत सीरियस होने पर बहुत नाराज़ हुआ था कि यहां क्यों भर्ती कराए आप लोग? मेरी मम्मी किस दिन काम आएंगी। उसकी मम्मी डा.रमा मिश्रा स्वरूप रानी हॉस्पिटल में डॉक्टर थीं। खैर, दस्ता नाट्य मंच के लड़कों ने यह तय किया था कि मैं घर से किसी को न बुलाऊं। सारा काम हम लोग करेंगे। घर वालों के आने से और काम बढ़ जाएगा । उनको भी संभालना पड़ेगा। रामचेत जी की बहन और विनोद श्रीवास्तव की पत्नी ने हॉस्पिटल संभाला। खाना उदय और शिवकुमार बनाते थे, और माधुरी पाठक रोज सुबह आकर ओछवानी बनाती और दूध के साथ देती थी। फिर तो बाद में मैं घर ही चली गई थी। लेकिन संगठन ने यह नई जिम्मेदारी भी अच्छी तरह संभाली। यह अपने किस्म का एक नया अनोखा उदाहरण पेश किया संगठन ने।