आर. चेतन क्रांति
गाँव हिंदी कविता का सामान्यतः एक सुरम्य स्मृति लोक रहा है, एक स्थायी नोस्टेल्जिया, जहाँ उसने अक्सर शहर में रहते-खाते-पीते, पलते-बढ़ते लेकिन किसी एक बिंदु पर शहर के सामने निरस्त्र होते समय शरण ली है. वह गाँव जो छूट गया, वह गाँव जिसे छोड़ना पड़ा, वह गाँव जहाँ सब कुछ बचपन की तरह इतना सुंदर था, अक्सर कविता में आता रहा है.
गद्य विधाओं में गाँव जिस तरह देश की राजनीतिक समीक्षा का आधार बना, वैसा कविता में संभवतः नहीं हुआ. इधर के नए कवियों में शहर से मुकाबला करने की, उससे सवाल पूछने की क्षमता तो बढी है लेकिन गाँव को लेकर कोई नया विमर्श नहीं दिखता. इसकी वजह गाँव से उनके सम्पर्क का सीमित होना भी हो सकता है, और व्यापक राष्ट्रीय चेतना के स्तर पर बरती जा रही गाँव की अनदेखी भी. यहाँ दी जा रही इन कविताओं में दो कवितायेँ इस लिहाज से खास तौर पर ध्यान खींचती हैं—‘अचार’ और ‘माटी’. जहाँ तक मेरी जानकारी है माटी हिंदी कविता की भावुकता के पारंपरिक चिन्हों में से एक रही है, लेकिन यहाँ यह कलम उस माटी को अलग नजरिये से देख रही है. माटी की उस सोंधी सी गंध में, जिससे हम लम्बे समय तक मदहोश होते रहे, यहाँ कुछ और भी देखा जा रहा है.
नागर भूगोल में जिन आधुनिक मूल्यों को धार्मिक रूढ़ियों के स्थान पर रोपने का प्रयास किया जाता रहा है, उन्हें बड़ी चुनौती गाँव से ही मिलती है, वह चाहे हमारे भीतर बसा गाँव हो या बाहर. दमन की जिन परम्पराओं से एक उदार और मानवीय मष्तिष्क को अभी और भी लड़ना है, उनकी जड़ें हमारे उस अतीत में हैं जिसकी भूमि गाँव है. वह चाहे स्त्री का दमन हो या दलित का. ‘अचार’ कविता इस गाँव के उस द्वैत को साथ ही साथ रेखांकित करती है जहाँ एक तरफ प्रकृति तो मनुष्यता के खेलने के लिए खुद को एक खुले आँगन के रूप में प्रस्तुत करती है लेकिन खेलने वाले कुछ और ही खेल खेलने लगते हैं. प्रकृति के उसी विराट परिदृश्य में दलित दमन के भी भीषण मानक गढ़े गए और स्त्री-दमन के भी. ये कविताएँ उसकी तरफ इशारा करती हैं और अपने इस अतीत पर अफ़सोस करती हैं.
यह अफ़सोस ‘स्वीकारोक्ति’ शीर्षक कविता में और भी साफ़ ढंग से दीखता है जिसमें स्त्री होने का दुःख दलित-उपेक्षित होने के दुःख से एकाकार होकर वह महसूस करता है जो अन्यथा बाकी पहचानें शायद उसे महसूस न होने देतीं. ‘बोनसाई’ में विरोध उस प्रवृत्ति का है जो प्रकृति को काट-छांट कर उसे अपने संक्षिप्त स्पेस में रख लेना चाहती है लेकिन यह कविता भी प्रकृति-प्रेम के अमूर्त बिम्बों में नोस्टेल्जिया की तरफ न जाकर बोनसाई को स्त्री-अस्तित्व से जोड़ देती है जिसको पुरुष अपने बनाए पैमानों की सीमाओं में ही विकसित होते देखना चाहता है. वे सीमाएं जिन्हें पुरुष-निर्मित सौन्दर्यबोध ने बनाया है. स्त्री देह के दमन का यह उपाय निश्चय ही नागर आविष्कार है. लेकिन ग्रामीण संस्कृति ने अपनी तहों में स्त्री-देह को इस्तेमाल और उपेक्षा के जिन एकतरफा मर्दाना कार्रवाइयों से लगभग खत्म ही कर दिया था, उसके सापेक्ष यह निश्चय ही अगला कदम है जहाँ देह को कम से कम ‘होने’ तो दिया जाता है.
साक्षी मिताक्षरा की नयी कलम हैं और उनकी ये कवितायेँ पाठकों को निश्चय ही एक नयी उम्मीद देंगीं.
अचार
घर से लाए अचार का डिब्बा..
खोलते ही
महक उठती है माँ..
याद आती हैं
मिर्च-मसालों से जलती हुई
उसकी हथेलियाँ
याद आता है
घर का आँगन,
फुदकती हुई गौरय्या
जेठ की दुपहरिया,
आम का बगीचा..
पाँच पर एक आम
मिलने के लालच में
भोर से गोधूलि तक
बगीचे की रखवाली करता
‘कहार’ का बेटा
याद आता है…
पाँच पर एक आम
मिलने के मोह में
आम तोड़नें फुनगी तक चला जाता..
पन्ना ‘कोल’
याद आता है..
याद आता है कि;
रखवारी, तोराई जैसे
ज़्यादा मेहनत, कम मजूरी वाले सब काम
छोट जतिया ही किया करते थे..
और बदले में पाते
पाँच पर एक
कटहिला, दगहा आम
फ़िर शायद,
कहार की माई और पन्नाबहु भी बनाती होंगी अचार,
जलती होंगी उनकी भी हथेलियाँ,
और मन दगहा हो जाता होगा
कटहिले दगहे आम देख कर..!
बोनसाइ
बोनसाइ,
नैसर्गिक वृद्धि-विकास बाधित कर
नष्ट कर वास्तविक स्वरूप और योग्यताएं
वृक्षों को बौने करने की तकनीक…
जंगल बगीचों से हटा
मन चाहा आकार दे
घर में सजा लेने की युक्ति…
बोनसाइ,
बहुत अपनापा सा है तुमसे
देखो ना
तुम्हारा नाम भी जनाना और दशा भी
रची जाती हूँ मैं भी
कुछ-कुछ यूँ ही
नैसर्गिक वृद्धि-विकास रोक कर
वास्तविक योग्यताएं नष्ट कर
शरीर के एक-एक इंच की नाप तय कर
मसलन;
बाल काले और चेहरा सफ़ेद
गर्दन लम्बी और स्तन गोल
कमर पतली और नितम्ब भारी
उमर गुजर जाती है सारी हमारी
सही नाप की स्त्री बननें और बने रहने में
बोनसाइ,
हमें भी मिलता है एक गमला
सीमित मिट्टी
छाँटी जाती हैं हमारी भी जड़ें
वक्त-वक्त पर
फ़िर जो बिल्कुल सही नाप की स्त्री निकलती है
वही बाज़ार में सबसे लाभदायक माल होती है
सबसे मंहगे घर और गमले में सजती है !
स्वीकारोक्ति
मैं स्वीकारती हूं,
तुम्हारी पीड़ा को लिखना और कहना मेरी स्वानुभूति नही है….
तुमने सदियों से जो सहा है
उसका अंश मात्र भी अनुभव नही है मुझे…
मुझे तो आभास भी नही था कि;
मेरे पुरखे-परिजन जो करते आ रहे तुम्हारे साथ,
वह अमानुषिक और अन्याय था…
मैं नही जानती थी कि;
ब्रह्मा के शीष और भुजाओं नें जने थे देव ‘रक्तपायी’…
मगर हाँ अपनी देह
स्त्री का आकार लेती देह के साथ आभास हुआ मुझे
ब्रह्मा के शीष और भुजाओं के कुकर्मों का
और कुछ-कुछ तुम्हारी पीड़ा का भी !!
माटी
सोंधी सी गंध
जो आती है गाँवों की माटी से
वो सिर्फ माटी की गंध नही है
उस माटी में दफ्न हैं
हज़ारों स्त्रियों के स्त्रीलिंगी भ्रूण
अबोध बच्चियों के शरीर
कई नवयौवना वधुएं
कुल्टाएं, डायनें, दुश्चरित्र औरतें
उस सोंधी गंध में शामिल है
इन दफनाई गई स्त्रियों की भी गंध
जो मारी गयी थीं बेमौत और बेवक़्त
अब वो मरी हुई स्त्रियां
महका करती हैं खेतो-खलिहानों-चूल्हों में
अपनी हत्या की गवाहियाँ देती हुई
जिन गवाहियों को सब सूंघते तो हैं
मगर सुनता कोई नही….!!
बेहन
लड़कियाँ, होती हैं फसलों की बेहन
और बाप का घर
कम खाद-पानी लागत खेत
उसी खेत में छीटी रहती हैं बेहन लड़कियाँ
बेहन ज़रा सी बढ़ जाने पर ,
नरम-नरम ही उखड़ेगी
रोपनी के लिए
नए खेत जाएगी
ज़रा सी बढ़ने में लगे खाद-पानी तले दबी
दबी ही रहेगी आजीवन
नए खेत में जड़ जमाएगी, खूब धान पैदा करेगी
पकेगी, काटी जाएगी, पुआल होगी
और पुआल खलिहान में पड़ी बरसात धुप सहती सड़ेगी, मर जाएगी।
( टिप्पणीकार आर. चेतन क्रांति भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार से सम्मानित हैं. समकालीन कविता का जाना माना नाम हैं )
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