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सदगति : ‘ग़म क्या सिर के कटने का’*

प्रो. सदानन्द शाही


सदगति दलित पात्र दुखी की कहानी है। दुखी ने बेटी की शादी तय की है। साइत विचरवाने के लिए पं0. घासीराम को बुलाने जाता है। जाने के पहले अपनी पत्नी झुरिया से पंडित जी के स्वागत की तैयारी करने के लिए कह जाता है।

स्वागत का अर्थ पंडित जी के बैठने की जगह और ‘सीधा’ आदि की व्यवस्था है। पण्डित घासीराम साईत विचारने के लिए दुखी का अनुरोध मिलते ही दुखी से दरवाजा साफ करने, बैठक लीपने, भूसा ढ़ोने और लकड़ी फाड़ने जैसे कामों की फेहरिश्त पकड़ा देते हैं। इतना सब करते करते शाम हो जाती है।

दुखी को न खाने को मिलता है, न, कुछ पीने को। चीलम सुलगाने के लिए आग मांगने जाता है तो पण्डिताइन उसके सिर पर ही आग फेंक देती हैं। वह जल जाता है जैसे-तैसे दुखी बेगार का सारा काम कर देता है,लेकिन लकड़ी उसके फाड़े नहीं फटती। थक कर सो जाता है।

पण्डित जी उसे सोता देखकर कोसते हैं और लकड़ी फाड़ने के लिए ललकारते हैं। दुखी चमार पर भर्त्सना और ललकार का जादुई असर होता है। न जाने कहाँ की शक्ति आ जाती है और वह लकड़ी की उस गांठ को फाड़ देता है। जैसे ही लकड़ी फटती है-दुखी चक्कर खाकर गिर पड़ता है और मर जाता है।

कहानी में एक और पात्र है चिखुरी गोंड। वह दुखी पर हो रहे अत्याचार से आहत है। कहानी के बीच में भी वह दुखी के साथ खड़ा होता है। दुखी की मृत्यु के बाद वह(चिखुरी गोंड) दुखी के घर के लोगों को भड़का देता है कि वे लोग लाश उठाने न जायें। वह पुलिस का डर भी दिखा देता है। घरवाले पंडित घासीराम के दरवाजे से दुखी की लाश नहीं उठाते हैं। पंडित जी के टोले पर हाहाकार मच जाता है। अन्ततः पंडित घासीराम दुखी की लाश के पैर में रस्सी का फन्दा फॅसाते हैं  और उसे घसीट कर गांव के बाहर खेत में गीदड़, गिद्ध,कुत्ते और कौए के नोचने के लिए छोड़ देते हैं। कहानी यहीं खत्म हो जाती है।

दुखी की इस नियति पर कहानी के अन्त में प्रेमचन्द एक वाक्य जोड़ देते हैं-‘यही जीवन-पर्यत्न की भक्ति, सेवा और निष्ठा का पुरस्कार था।’

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इस अन्तिम वाक्य से जोड़कर देखने पर कहानी के शीर्षक ‘सद्गति’ का अर्थ खुलता है। हिन्दू धर्म में मृत्यु के बाद मुक्ति की कामना रहती है। अन्तिम संस्कार के विधि,विधान के पीछे मुक्ति की यह चाह ही होती है। जीवित रहते मनुष्य को जो भी भाव-अभाव झेलना पड़ा हो, मृत्यु के बाद उसे सद्गति चाहिए। इस सद्गति की गारण्टी अंतिम संस्कार के कर्मकाण्ड में होती है। मृतात्मा की सदगति के लिए उसके परिजन वे सारी चीजें दान करते हैं जो वे चाहते हैं कि उसके प्रियजनों को स्वर्ग में मिलें।

हिन्दू धर्म के दायरे में यह मान्यता भी है कि जो आदमी यह जीवन भक्ति,सेवा और निष्ठापूर्वक व्यतीत करता है उसका अन्तिम संस्कार अच्छी तरह होता है और उसे सद्गति मिलती है। इसे समझने के लिए उन गालियों को याद कर सकते हैं जो अन्याय और शोषण का शिकार व्यक्ति अन्यायी व्यक्ति को देता है। इसकी लाश सड़े, कीड़ा पड़े, उसे चील कौए खाँए। यानी इस व्यक्ति ने जीते जी इतने दुष्कर्म किए हैं कि न तो उसका अन्तिम संस्कार संभव है और न ही उसकी सद्गति।

सद्गति तभी होगी जब अन्तिम संस्कार होगा,अन्यथा नहीं। लेकिन सद्गति कहानी में लोकमान्यता के उलट घटित हो रहा है। दुखी जीवन पर्यन्त भक्ति सेवा और निष्ठा परायण रहा है लेकिन विडम्बना यह है कि उसका अन्तिम संस्कार नहीं हो पाता। उसकी लाश चील कौए खा रहे हैं। फिर उसकी सद्गति कैसे होगी ?

सद्गति के लिए सत्कर्म ही जरूरी नहीं है। अन्तिम संस्कार भी जरूरी है। कहानी हमें जितना बताती है उसमें दुखी का अन्तिम संस्कार ही नहीं हो पाता, फिर उसे सदगति क्या मिलेगी ?

लेकिन यहीं आकर कहानी कई तरह के सवाल खड़े करती है। दुखी जैसे भक्त और सेवा परायण व्यक्ति की सद्गति क्यों नहीं होती ? पंडित घासीराम जो धर्म के ढकोसले करता है और इस आड़ में एक निरीह, निर्दोष आदमी की जान तक ले लेता है-क्या उसे सद्गति प्राप्त होगी? जो घासीराम इतना छुआछूत मानता है, छूना कौन कहे जिसे सुबह-सुबह चमार को देखना तक गंवारा नहीं, उसे चमार की लाश घसीट कर ले जानी पड़ती है। क्या उसकी सद्गति हो सकेगी ? सद्गति की पात्रता अन्यायी अत्याचारी किन्तु ताकतवर को हासिल है या निरीह को ! ऐसे अनेक सवालों के बीहड़ में यह कहानी हमें ले जाती है।

दूसरे नजरिए से देखें तो यह कहानी अन्तिम संस्कार के औचित्य पर ही सवाल उठाती है।

प्रेमचन्द की ऐसी कई कहानियाँ हैं जिनमें वे अन्तिम संस्कार पर सवाल उठाते हैं। कफन ऐसी ही कहानी है। कफन कहानी तो अन्तिम संस्कार का ही अन्तिम संस्कार करती है। सदगति कफन से पहले की कहानी है। कालक्रम की दृष्टि से तो है ही, अन्तिम संस्कार को लेकर प्रेमचन्द के चिंतन में घटित हो रहे बदलाव की दृष्टि से भी। अन्तिम संस्कार की धारणा का पाखण्ड हो रहा है। सद्गति का जो वास्तविक हकदार है- उसे जीते जी सद्गति के तथाकथित पाण्डे और पुरोहित नोच खा रहे हैं और उसकी लाश चील कौवे नोच रहे हैं। सद्गति की धारणा, सद्गति का दर्शन ही एक विडम्बना है जिसे यह कहानी मूर्त करती है।

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कहानी के कुल चार हिस्से हैं। पहिले हिस्से में कहानीकार उस वातावरण को सामने लाता है जिसमें कथा नायक दुखी रहने को अभिशप्त है। बेटी की शादी तय हुई है। पंडित को साईत विचारने के लिए आना है। पण्डित के बैठने की जगह शुद्ध होनी चाहिए। दुखी की पत्नी झुरिया ठकुराने से खटिया मागने की बात करती है। दुखी को सत्य का ज्ञान है, वह झुरिया को लगभग झिड़कते हुए कहता हैः

“तू तो कभी-कभी ऐसी बात कर देती है कि देह जल जाती है। ठकुराने वाले मुझे खटिया देंगे। आग तक तो घर से निकलती नहीं, खटिया देंगे। कैथाने में जाकर एक लोटा पानी मांगू तो न मिले। भला खटिया कौन देगा ! हमारे उपले सेठें, भूसा लकड़ी थोड़े ही हैं कि जो चाहे उठा ले जायँ।”

याद करें, लगभग इसी शब्दावली में ठाकुर का कुंआ कहानी का हरखू गंगी से यही बात कहता है। ‘हाथ पाँव तुड़वां आयेगी और कुछ न होगा। बैठ चुपके से। ब्राह्मण देवता आशीर्वाद देंगे, ठाकुर लाठी मारेंगे,साहूजी एक के पाँच लेंगे। गरीबों का दर्द कौन समझाता है। हम तो मर भी जाते हैं तो कोई दुआर पर झांकने नहीं आता, कंधा देना तो बड़ी बात है। ऐसे लोग कुएँ से पानी भरने देंगे।’ दुखी और हल्कू दोनों चरित्रों को इसका अहसास है।

दोनों के कथन में उस सामाजिक संरचना में अंतनिहित अन्याय का पता मिलता है। इन वाक्यों में हमारी अमानवीय सामाजिक संरचना का अक्श उभरता है। आग और पानी बेहद जरूरी चीजें हैं। आग और पानी पर जीवन का अस्तित्व टिका हुआ है। मजे की बात यह कि इनका कोई मूल्य भी नहीं,लेकिन दुखी और उसके वर्ग के लिए दोनों ही चीजें अनुपलब्ध हैं।

ऐसा नहीं है कि ठाकुर या कायस्थ या ब्राह्मण आग और पानी किसी को देते नहीं होंगे। घरों में आग इसीलिए जिला कर रखी जाती थी कि वक्त जरूरत उसे दूसरे  को दिया जा सके। एक तरह से यह पुण्य का काम था। जैसे कि पानी पिलाना कुंए, तालाब, बावड़ी खुदवाना बड़े पुण्य का काम था। यही ठाकुर, बाभन कायस्थ अनजाने राहगीरों के लिए गर्मी के दिनों में पानी की टाल लगवाने का पाखण्ड करते हैं, दूसरी ओर दलित जनों को आग और पानी देने में भी उनकी हेठी होती है।

दुखी और झुरिया की मनःस्थिति इसके बिल्कुल उलट है। पण्डित घासीराम के‘नेम धरम’ का दोनों को कैसा ख्याल है ?बैठने की जगह कितनी शुद्ध होनी चाहिए, ‘सीधा’ कितना भरपूर और ‘पवित्तर’ होना चाहिए- इसका पूरा विवरण कहानी के पहले अंश में मिलता है।

‘सीधा’ देना है पर वह अपने हाथ से छू न जाय इसका पूरा ख्याल। पण्डित घासीराम  के नेम धरम का ही नहीं उनके लोभ का भी पूरा ख्याल रखा गया है। बाबाजी की सेवा में खाली हाथ कैसे जाया जाय। इसलिए नजराने के तौर पर घास का एक गठ्ठर लेकर निकलता है। कहानी की शुरूआत में ही पण्डित जी और दुखी के बीच का जो भेद है वह अत्यन्त नाटकीय ढंग से प्रकट होता है। अकारण नहीं कि प्रेमचन्द की जिन कहानियों की सर्वाधिक नाट्य प्रस्तुति हुई है, सद्गति उनमें से एक है। दुखी और झुरिया को पण्डित जी के नेम धरम की कीमत किस हद तक निभानी होती है, इसका पता यहीं मिल जाता है।

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कहानी के पहले अंश में दुखी के दुख की जो नाटकीय शुरूआत होती है उसका विस्तार दूसरे अंश में मिलता है। पहले अंश में जिस घासीराम की रूपरेखा मिलती है,वे दूसरे अंश में साक्षात प्रकट होते हैं। एक पैराग्राफ में पण्डित घासीराम की तेजस्वी मूर्ति उनकी दिनचर्या और ईश्वर भक्ति का विवरण मिल जाता है। ‘पं0. घासीराम ईश्वर के परम भक्त थे नीद खुलते ही ईशोपासन में लग जाते। मुँह-हाथ धोते और आठ बजते, तब असली पूजा शुरू होती जिसका पहला भाग भंग की तैयारी थी। उसके बाद आधा घण्टे तक चन्दन उड़ाते, फिर आइने के सामने तक तिनके से माथे पर तिलक लगाते। चन्दन की दो रेखाओं के बीच लाल रोरी की बिन्दी होती थी। फिर छाती पर, बाहों पर चन्दन की गोल-गोल मुद्रिकाएं बनाते। फिर ठाकुर जी की मूर्ति निकालकर उसे नहलाते, चन्दन लगाते, फूल चढ़ाते, आरती करते, घंटी बजाते, दस बजते-बजते वह पूजन से उठते और भंग छान कर बाहर आते। तब तक दो-चार जजमान द्वार पर आ जाते। ईशोपासन का तत्काल फल मिल जाता। वही उनकी खेती थी।’ ईशोपासन का पहला भाग भांग की तैयारी, दूसरा भाग चन्दन और तिलक का लेपन और जजमान के रूप में तुरंत फल की प्राप्ति। पण्डित घासीराम प्रेमचन्द की कहानियों में मिलने वाले टिपिकल पात्र हैं वे कभी घासीराम के रूप में तो कभी मोटेरामशास्त्री के रूप में प्रकट होते हैं। ब्राह्मणवाद का लोकप्रचलित चेहरा पौरोहित्य में ही दिखायी पड़ता हैं। प्रेमचन्द के पण्डित घासीराम या मोटेरामशास्त्री इसी के प्रतिनिधि हैं। इनकी शकल बहुत कुछ कबीर के पाण्डे से मिलती है। रामचन्द्र शुक्ल ने कबीर की आलोचना करते हुए कहा है कि कबीर की भेंट किसी पढ़े लिखे विद्वान ब्राह्मण से नहीं हुई थी। कबीर जिस पाण्डे की आलोचना करते हैं वह औसत दर्जे का कर्मकाण्डी ब्राह्मण है। रामचन्द्र शुक्ल की यह बात सही है कि इस तरह के कर्मकाण्डी पण्डित घासीराम को ब्राह्मण वैदुष्य का प्रतिनिधि नहीं माना जा सकता है। लेकिन कबीर और प्रेमचन्द की भेंट इसी कर्मकाण्डी पौरोहिती ब्राह्मण से होती है। सच पूछिए तो यह कर्मकाण्डी ब्राह्मण ही ब्राह्मणत्व को शोषण का हथियार बनाता है और दुखी जैसे भक्तों का जीना मुहाल किए रहता है। तुलसीदास ने भी पौरोहिती कर्म को ‘अतिमन्दा’ कहा है। कबीर और प्रेमचन्द इस पौरोहिती कर्म की भर्त्सना करते हैं तो इसीलिए कि यही ब्राह्मण लोक प्रत्यक्ष है। बाकी का जो वैदुष्य है वह इसे वैचारिक आधार देता है। प्रेमचन्द को नामकरण कला का उस्ताद कहा गया है। वे अपने पात्रों का नामकरण इतना सटीक करते हैं कि उनका आधा काम वहीं हो जाता है। कभी कभी तो प्रेमचन्द का दिया नाम उस पात्र का चरित्र लक्षण सा प्रतीत होता है। पण्डित घासीराम के लिए दुखी नजराने के तौर पर घास का गठ्ठर ले जाता है। लेकिन पण्डित घासीराम की नजर में दुखी की हैसियत घास से ज्यादा नहीं है। यहीं पर दुखी के नाम पर विचार कर लें। निराला याद आते हैं-दुख ही जीवन की कथा रही, क्या कहें आज जो नहीं कही।’दुखी के जीवन की कथा निरन्तर दुखते हुए जीवन की कथा है। प्रेमचन्द केवल उस दुख का नामकरण करते हैं और नामकरण करके उसे प्रत्यक्ष कर देते हैं।

पंडित घासीराम दुखी को देखकर मन ही मन प्रसन्न होते हैं। घास का गठ्ठर गाय के सामने डलवा देते हैं और फिर उसे कामों की पूरी फेहरिश्त पकड़ा देते हैं- ‘इसे गाय के सामने डाल दे और जरा झाड़ू लेकर द्वार तो साफ कर दे। यह बैठक भी कई दिन लीपी नहीं गई। उसे भी गोबर से लीप दे । तब तक मैं भोजन कर लूँ। फिर आराम से चलूँगा। हाँ यह लकड़ी भी चीर देना। खलिहान में चार खांची भूसा पड़ा है। उसे भी उठा लाना और भुसौली में रख देना’दुखी काम निपटाने में जुट जाता है। सारा काम जैसे तैसे निपट जाता है, लेकिन वह लकड़ी की गांठ। उसके लिए भारी पड़ती है। प्रेमचन्द लिखते हैं कि लकड़ी चीरने का उसका अभ्यास न था। घास होती तो उसकी खुरपी के आगे सिर नवा देती। जिस काम का उसे न इल्म था न अभ्यास उसे वही करना पड़ रहा है। क्यों ? क्योंकि अगर उसने सभी काम न किए तो साईत ठीक से न विचारी जायेगी और साईत ठीक से न विचारी गई तो फिर बेटी का अनिष्ट हो जायेगा। यह इतना बड़ा डर है जिसके आगे दुखी पस्त है।

पं0 घासीराम केवल काम की फेहरिश्त ही नहीं पकड़ाते, बल्कि बीच-बीच में आकर काम का मुआयना भी करते हैं। धौंस भी देते हैं पर उसे खाने पीने के लिए कुछ नहीं देते। पण्डिताइन से चर्चा जरूर होती है पर सिर्फ चर्चा से ही वे अपने अपराध बोध का मार्जन कर लेते हैं। भूख और प्यास से टूटती शरीर और सामने कडियल गांठ। दुखी को भूख प्यास का एक ही विकल्प सूझता है चीलम। जैसे तैसे तम्बाकू जुगाड़ता है। उसे उम्मीद है कि इतना काम कर रहे हैं जो आग तो मिल ही जायेगी। आग मिली भी लेकिन किस उपेक्षा और अपमान के साथ। पण्डिताइन आग इस तरह फेंकती हैं कि वह जल ही जाती है।

जलने के बाद दुखी को क्रोध ग्लानि नहीं,ग्लानि होती। वह इसे अपने ही अपराध का दण्ड मानता है पवित्तर ब्राह्मण के घर को अपवित्तर करने का दंड क्या विडम्बना है ?वास्तविक अपराध करने वाले को किसी तरह का अपराध बोध नहीं लेकिन जो अपराध का शिकार है उसी के हिस्से अपराध बोध भी आता है। ब्राह्मण का वर्चस्व किस हद तक फैला हुआ है- प्रेमचन्द इसे दिखाते है। दुखी को इस बात का पूरा एहसास है कि सबके रुपये मारे जाते है, बाभन के रुपये भला कोई मार तो ले। घर भर का सत्यानाश हो जाय, पाँव गल-गलकर गिरने लगे।’

इस अंश में हम दुखी को ऐसे समूह के प्रतिनिधि के रूप में पाते हैं जो ब्राह्मण की इस महिमा से अभिभूत है। शोषण और अत्याचार का शिकार बन कर भी। उससे पूरी तरह अनजान रामचन्द्र शुक्ल ने भक्ति को श्रद्धा और प्रेम का योग बताया है,लेकिन यहाँ भक्ति में श्रद्धा और भय का योग दिखाई पड़ रहा है। जो ब्राह्मण खाने पीने की कौन कहे चीलम पीने के लिए आग नहीं दे सकता-वह अनिष्ट का शाप ही दे सकता है।

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चिखुरी गोड़ कहानी का ऐसा पात्र है जो कथा से सीधे सम्बन्धित नहीं है पर उसकी उपस्थिति कथा  को परिप्रेक्ष्य देती है। कहानी में चिखुरी वे सवाल उठाता है जो दुखी के मन में नहीं उठ रहे हैं। शोषण और अन्याय का शिकार दुखी है लेकिन वह शोषकों की धारणा में इस तरह गिरफ्तार है कि उसे इसका इल्म ही नहीं है। चिखुरी में शोषक तंत्र के चरित्र की समझ है और शोषण के शिकार हो रहे दुखी के प्रति गहरी सहानुभूति। वह दुखी को समझाना चाहता है। दुखी के भीतर कहीं गहरे दबे बैठे न्याय बोध को उद्बुद्ध करना चाहता है और अपने हक की मांग के लिए उकसाता भी है। पूरी कहानी में वह तीन बार आता है। एक बार दुखी को तंबाकू पीने की तलब होती है तब उसे गोंड की याद आती है। उसके पास वह तंबाकू और चीलम के लिए जाता है। दूसरी बार वह दुखी के पास आता है। बिना खाये पीये उसे लकड़ी चीरते हुए देख उसे दया भी आती है और क्रोध भी होता है वह दुखी से पूछता है कि कुछ खाने पीने को मिला भी या यों ही काम किए जा रहे हो। इस अवसर पर गोंड और दुखी के बीच यह बातचीत होती है-

‘दुखी-कैसी बात करते हो चिखुरी, ब्राह्मण की रोटी हमको पचेगी।’

गोंड- पचने  को तो पच जायेगी, पहले मिले तो मूँछों पर ताव देकर भोजन किया और आराम से सोये, तुम्हें लकड़ी फाड़ने का हुक्म लगा दिया। जमीदार भी कुछ खाने को देता है। हाकिम भी बेगार लेता है,तो थोड़ी बहुत मजूरी देता है। यह उनसे भी बढ़ गये उस पर धर्मात्मा बनते हैं।’

दुखी के भीतर दबे हुए मनुष्य को और स्वाभिमान को सक्रिय करने की कोशिश करता है। यहीं हमें इस बात का पता चलता है कि दुखी जाता जागता इंसान है कोई मिट्टी का लोदा नहीं हैं। वह कहता है-‘धीरे-धीरे बोलो भाई, कहीं सुन लें तो आफत आ जाय।’ यानी गोंड की बात के औचित्य को दुखी मन ही मन स्वीकार कर रहा है, केवल इस स्वीकार को प्रकट करने का साहस नहीं हैं उसके पास। आखिरी बार दुखी की मृत्यु के बाद चिखुरी चमरौने में जाकर सबको खबरदार करता हुआ दिखाई पड़ता है। इस तरह देखें तो कहानी में चिखुरी गोंड भविष्य का पात्र है। वह कहानी में प्रतिरोध की आवाज है। प्रतिरोध की यह आवाज प्रेमचन्द के समय में भले ही न रही हो भविष्य के गर्भ में पल रही थी जिसे प्रेमचन्द ने सुना और उसे अपने साहित्य के माध्यम से व्यक्त किया।

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यह कहानी विवाह संस्कार के सवाल से शुरू होती है और अन्तिम संस्कार के सवाल पर खत्म होती है। जिस विवाह की साईत विचरने से कहानी शुरू होती है, वह विवाह तो कहानी में सम्पन्न नहीं होता,दुखी का अन्तिम संस्कार भी नहीं होता।

दलित जन के जीवन की त्रासदी के मूल में वर्णाश्रमी मूल्य और संस्कार को देखते हैं। गांधी और अम्बेडकर की दृष्टि में बुनियादी फर्क यह है कि गांधी हिन्दू धर्म में सुधार की गुंजाइश देखते हैं जबकि अम्बेडकर का मानते हैं कि समस्या विकृति में नहीं प्रकृति में है इसलिए वे आमूल परिवर्तन के आग्रही हैं।

प्रेमचन्द की निगाह हिन्दू समाज की अमानवीय परम्पराओं और संस्कारों पर है। वे इन संस्कारों की भयावहता से परिचित है। प्रेमचन्द इन संस्कारों पर ही प्रहार करते हैं। हाँलाकि संस्कारों से मुक्ति एक बेहद कठिन काम है, क्योंकि इसका सम्बंध दिमागी गुलामी से है। प्रेमचन्द को जैसे-जैसे यह बोध गहन होता है वैसे-वैसे वे संस्कारों के विरुद्ध युद्ध छेड़ देते हैं।

सद्गति और कफन जैसी कहानियाँ ही नहीं स्वयं गोदान उपन्यास में भी अन्तिम संस्कार का अन्तिम संस्कार किया गया है। होरी के अन्तिम छुआछूत के नियमों की जितनी चिन्ता दुखी को है उतनी स्वयं पंडित घासीराम को नहीं है। दुखी या दुखी जैसों की मुक्ति तब तक संभव नहीं है जब तक उन्हें इन संस्कारों से मुक्ति न मिल जाय।

सदगति के लिए अंतिम संस्कारों की जकड़न से मुक्ति। इन संस्कारों की आलोचना का एक सहज पाठ हमें भोजपुरी लोक में मिलता है जिसमें घासीराम जैसे कर्मकाण्डी ब्राह्मणों के प्रति अन्तर्निहित हिकारत को प्रकट करने के लिए कहा जाता है कि जीअतो खइहें मुअतो खइहें।’

प्रेमचन्द के समक्ष यह हिकारत का भाव मूर्त रूप से उपस्थित है और वे संस्कारों के अन्तिम संस्कार का विधान रचते हैं। प्रेमचन्द के यहाँ मृत्यु को कथा तकनीक की तरह प्रयुक्त किया गया है। यहाँ दुखी की मृत्यु भी तकनीक है। लकड़ी की गांठ को चीरते-चीरते दुखी की मृत्यु हो जाती है। यह लकड़ी की गांठ संस्कारों की गांठ है। यह जाति का संस्कार है, वर्ण का संस्कार हैं, जिस पर प्रहार करते करते करते बुद्ध चले गये, कबीर चले गये, गाँधी, अम्बेडकर और न जाने कितने विद्रोही और मनीषी चले गये लेकिन यह गांठ जस की तस बनी हुई है।दुखी की कुल्हाड़ी उसी गांठ पर पड़ रही है। जीते जी दुखी उस गांठ का कुछ नहीं बिगाड़ पाया। दुखी की मृत्यु के साथ ही गांठ फटती है। उसकी मृत्यु भी उस गांठ पर प्रहार है। ग़ालिब का शेर है :

हुआ जब गम से यों बेहिस तो गम क्या सिर के कटने का/न होता गर जुदा तन से तो जानू पे धरा होता।

ऐसा जीवन। दुख से, यातना से, उत्पीड़न से, निराशा से भरा जीवन। उससे तो बेहतर है कि मर जायें। दुखी की मृत्यु भी अपने आप में एक सद्गति है। लेकिन सद्गति का दूसरा पहलू वह है जिसमें पंडित घासीराम दुखी की लाश को ठिकाने लगाते हैं-‘पंडित जी ने एक रस्सी निकाली। उसका फन्दा बनाकर मुरदे के पैर में डाला और फन्दे को खींच कर कस दिया। अभी कुछ कुछ धुँधलका था। पंडित जी ने रस्सी पकड़कर लाश को घसीटना शुरू किया और गांव के बाहर घसीट ले गये। वहां से आकर तुरंत स्नान किया। दुर्गापाठ पढ़ा और घर में ‘गंगाजल छिड़का’।’

क्या दुखी की सदगति इस बात में निहित है कि एक कर्मकाण्डी ब्राह्मण उसकी लाश को ठिकाने लगाता है ?

चाहे जो मजबूरी हो एक कर्मकाण्डी ब्राह्मण को दलित की सड़ती हुई लाश को हटना पड़ता है। कहानी हमें यह तो बताती है कि पंडित जी ने स्नान किया। दुर्गा सप्तशती का पाठ किया और गंगाजल का छिड़काव किया लेकिन यह नहीं बताती कि स्वयं पण्डित घासीराम पर इस पूरी घटना का क्या असर पड़ा। उन्हें अपने कृत्य पर कोई ग्लानि हुई या नहीं। यह सवाल इसलिए भी मन में आया कि सदगति कहानी में अंतिम संस्कार का जो प्रश्न उठ खड़ा हुआ है वह बाद मे हमें यू.आर. अनन्तमूर्ति के उपन्यास संस्कार में दिखाई पड़ता है।

एक क्षण में पूरे गांव भर में खबर हो गयी। पुरवे में ब्राह्मणों की ही बस्ती थी। केवल एक घर गोंड का था। लोगों ने इधर का रास्ता छोड़ दिया। कुंए का रास्ता उधर ही से था, पानी कैसे भरा जाय। चमार की लाश के पास से होकर पानी भरने कौन जाय। एक बुढ़िया ने पण्डित जी से कहा अब मुर्दा फेंकते क्यों नहीं ? कोई गाँव में पानी पियेगा या नहीं संस्कार उपन्यास में ब्राह्मण के पुरवे में ब्राह्मण की ही लाश पड़ी हुई हैं लेकिन वह धर्मभष्ट ब्राद्मण है। यहाँ दलित की लाश है पर समस्या एक जैसी है, अन्तिम संस्कार कैसे हो ?’

फर्क इतना है कि यहाँ सदगति में पं0.घासीराम कैसे कर्मकाण्डी पंडित है। जबकि संस्कार उपन्यास में प्राणेशाचार्य जैसे संस्कारवान और ज्ञानी ब्राह्मण है। कबीर की आलोचना करते हुए रामचन्द्र शुक्ल जिस तत्वदर्शी ब्राह्मण को याद करते हैं प्राणेशाचार्य वैसे ही हैं। लेकिन प्रणेशाचार्य का सारा तत्वज्ञान उपस्थित समस्या के सामने अवाक् है।

उपन्यास के उत्तरार्ध में प्राणेशानचार्य जैसा तत्वदर्शी ब्राह्मण ब्राह्मण संस्कारों की कैद में झटपटाहट महसूस करता है। सद्गति के घासीराम में ऐसी छटपटाहट है या नहीं कहानी इसका पता नहीं देती, लेकिन ब्राह्मण संस्कारों की गिरफ्त में पड़ा पं0.घासीराम किस तरह हैरान हैं हम यह देख पाते हैं। अभिप्राय यह है कि ये ब्राह्मण संस्कार केवल दुखी का ही जीवन नरक नहीं किये हैं- वे उसी के साथ ब्राह्मण का जीवन भी नरक किए हुए हैं। दुखी की लाश को ठिकाने लगाते हुए स्वयं घासीराम को जो एहसास हुआ होगा वह किसी मुक्ति या सदगति से कम नहीं है।

प्रेमचन्द बड़े या महान कथाकार केवल इसलिए नहीं है कि उन्होंने किसी समस्या को उठाया और एक पक्षीय या एक रेखीय ढ़ंग से उसको कहानी में बदलकर रख देते हैं। वे बड़े कौशल से उन संस्कारों का अंतिम संस्कार करते दिखाई पड़ते हैं जो मनुष्य के जीवन पर दोहरी मार करते हैं। वे दुखी का जीवन नरक किए हुए हैं तो उन्हीं के कारण पं0.घासीराम जैसा जीता जागता ईंसान पशु से भी बदतर हो गया है। सद्गति की सार्थकता इस बात में है कि वह अमानवीय बनाने वाले जाति के, वर्ण के, धर्म के संस्कारों का अंतिम संस्कार करती है।

* ग़ालिब का शेर-

हुआ जब गम से यों बेहिस तो गम क्या सिर के कटने का/न होता गर जुदा तन से तो जानू पे धरा होता। 

(भोजपुरी अध्ययन केंद्र के संस्थापक, समन्वयक लेखक-आलोचक सदानंद शाही बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी के प्रोफ़ेसर हैं ।)

Email: sadanandshahi@gmail.com

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