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रेलवे स्टेशन पर प्रेमचन्द

डॉ. रेखा सेठी


अभी हाल ही में नयी दिल्ली के रेलवे स्टेशन पर मुझे प्रेमचन्द की लोकप्रियता का नया अनुभव हुआ।

स्टेशन के लगभग हर बुक-स्टॉल पर अंग्रेज़ी की खूब बिकने वाली किताबों की भीड़ में जो एक भारतीय लेखक हर जगह अपनी उपस्थिति बनाये हुए था, वे प्रेमचन्द ही थे। उनकी कहानियाँ और उपन्यास आज भी चाव से पढ़े जाते हैं।

अनुभूति की जो तपिश उनके कथा-साहित्य में है वही उनके वैचारिक साहित्य में भी है। परिस्थितियों की विकटता झेलते उनके पात्र लेखकीय सहानुभूति से सिरजे गये हैं।

अपनी कहानियों-उपन्यासों में प्रेमचन्द दीन दुखियों के वकील बनकर आते हैं। अपने वैचारिक साहित्य में भी वे उन्हीं मुद्दों को सामाजिक राजनीतिक स्तर पर उठाते हैं। उनके लिखे लेख, सम्पादकीय टिप्पणियाँ अपने युग के ज्वलन्त सवालों को पूरी प्रखरता के साथ अभिव्यक्त करती हैं। यह प्रेमचन्द की महानता का सबूत है कि उनके चिन्तन और रचनात्मक जगत में एकरूपता दिखाई पड़ती है। गरीब, दमित जनता के प्रति सहानुभूति तथा औपनिवेशिक सामन्तवाद एवं महाजनी सभ्यता का विरोध जिस तरह उनके कथा-साहित्य का प्रमुख स्वर है उनके वैचारिक स्रोत का भी प्रमुख आधार वही है।

‘प्रगतिशील लेखक संघ’ के सभापति पद से भाषण देते हुए प्रेमचन्द ने साहित्यिक सोद्देश्यता को साहित्य-आस्वाद की कसौटी बनाकर प्रतिष्ठित किया। यह चिन्तनधारा साहित्य में युगान्तर प्रस्तुत करती है। उनके ऐसे भाषण, लेख, सम्पादकीय, कहानी संग्रहों की भूमिकाएँ–सब में अनेक ऐसे सन्दर्भ प्रस्तुत हैं जिनमें उनके विचार तत्कालीन समय-समाज और साहित्यिक रूझानों पर ही केन्द्रित नहीं रहते बल्कि परवर्ती युगों की साहित्यिक समझ का आधार भी बनते हैं।
प्रेमचन्द की सम्पादकीय टिप्पणियों में उस युग का प्रामाणिक इतिहास झलकता है। गाँधी जी के अनशन, अंग्रेज़ सरकार के षड्यंत्र, हिन्दू मुस्लिम एकता, राष्ट्रभाषा और राष्ट्रलिपि के प्रश्न, औपनिवेशिक शासन में ज़मींदारों-महाजनों द्वारा गरीब किसानों का शोषण, अछूतों-स्त्रियों के सवाल अर्थात् सामाजिक परिवर्तन के सभी मुद्दे उनके एजेंडे पर हैं। इन विषयों पर उनकी कलम बड़ी तेज़ी से चलती है। उनके लेखन में केवल हालात का तफ़सरा नहीं बल्कि भविष्य का मानचित्र है। प्रेमचन्द द्वारा लिखी गई एक-दो पृष्ठों की उन टिप्पणियों का भी महत्त्व है जो किसी एक विषय पर उनके दृष्टिकोण के विभिन्न पहलुओं को पेश करती हैं, जैसे– अछूतों के मन्दिर प्रवेश का प्रश्न या फि़र स्त्री अधिकारों के सवाल।

इन टिप्पणियों में उनका दलित-विमर्श और स्त्री-विमर्श पढ़ा जा सकता है, जो आज अनेक कारणों से विवादों के घेरे में है।
पिछले कुछ वर्षों से यह बहस चली आ रही है कि क्या प्रेमचन्द वास्तव में दलितों के हितैषी हैं या फि़र उनकी सहानुभूति में दलित जीवन का प्रामाणिक भाव-बोध सिरे से गायब है। हरिजनों के मन्दिर प्रवेश के प्रश्न को लेकर उनकी सम्पादकीय टिप्पणियाँ अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण हैं। प्रेमचन्द के लिए हरिजनों के मन्दिर प्रवेश का प्रश्न दलितों के लिए यह समाज के बन्द दरवाज़े खोलने की पहल है। इस मुद्दे को लेकर उस समय काफ़ी हलचल हुई वाइसराय को डेपुटेशन भेजे गये।

तिलकधाारी हिन्दुओं ने इसका विरोध किया और महात्मा गाँधी ने हरिजनों के अधिकार के लिए कई बार अनशन किये। दलित नेताओं (जिनमें डॉ. अम्बेडकर शामिल थे) ने यह राय रखी कि दलितों के लिए यह ज़्यादा आवश्यक है कि सवर्ण हिन्दू अछूत जातियों से सज्जनता का व्यवहार करें। एक विचार यह भी था कि अछूतों को मन्दिर प्रवेश से अधिक आर्थिक विकास की ज़रूरत है।

प्रेमचन्द इन दलीलों को स्वीकार करते हुए भी इस मसले पर महात्मा गाँधी का अनुसरण करते हैं। उनके अनुसार भारत एक धर्म प्रधान राष्ट्र है और ऐसे देश में हरिजनों को बराबरी का दर्जा देने व उनके प्रति सामाजिक व्यवहार में बदलाव लाने के लिए यह अनिवार्य कदम है। उन्होंने कठोर शब्दों में उस सामाजिक बँटवारे की निन्दा की जो इंसानों के बीच पवित्र-अपवित्र का भेद खड़ा करता है। वे लिखते हैं—“हम स्वीकार करते हैं, शूद्रों के साथ हमने अन्याय किया है। हमने उन्हें जी भरकर रौंदा, कुचला, दला। इस अन्याय ने जिस हृदय को सबसे ज़्यादा दुखी किया, वह उसी तपस्वी का हृदय है, जिसने अपना जीवन दलित भाइयों की सेवा में ही व्यतीत किया है।“

निश्चित है कि प्रेमचन्द दलित-उद्धार के लिए गाँधी जी के महान तप की ओर आँखे लगाये बैठे हैं। वे मानते हैं कि समय आ गया है जब ऊँच-नीच, जात-पात की बेड़ियों को उतार फ़ेंकना होगा, लेकिन उसके समाधान वे गाँधी जी के नैतिक आग्रह तथा राजनीतिक सक्रियता में ही तलाशते हैं।

स्त्री सुधारों को लेकर भी उनके मन की दशा ऐसी ही है। प्रेमचन्द ने स्त्री अधिकारों की पक्षधरता करते हुए पुरुष के ही समान स्त्री को सम्पत्ति में अधिकार, तलाक का हक, विधवाओं को गुज़ारा आदि देने का प्रस्ताव रखा। इन सभी मुद्दों पर वे परिवर्तन के अग्रदूत हैं। वे मानते हैं कि स्त्री को कुलदेवी का दर्जा देकर भी पुरुष जाति ने सदा स्त्रियों पर मनमाने अत्याचार किये हैं। वे सावधान करते हैं कि ‘‘यदि पुरुषों को अब भी उन पर शासन करने का उन्माद हो तो उसे शीघ्र से शीघ्र दूर कर देना चाहिए, क्योंकि वह चाहें दें या न दें देवियाँ अपने स्वत्वों को लेकर ही रहेंगी।“

इतना होने पर भी उनकी सोच अन्तर्विरोधों से मुक्त नहीं है। उन्हें चिन्ता है कि तलाकों की संख्या क्यों बढ़ती जा रही है?

महिला सुधार सभाओं में सन्तान निग्रह के उपायों पर खुलकर बात क्यों की जा रही है? स्त्रियाँ माँ बनने के दायित्व से मुँह क्यों मोड़ना चाहती हैं? आदि।

1934 में उन्होंने एक टिप्पणी लिखी जिसका शीर्षक था– ”क्या स्त्रियों का पजामा पहनना जुर्म है?“ इसमें उन्होंने उस मजिस्ट्रेट की भर्त्सना की जिसने गोरी औरतों की नकल करते हुए एक भारतीय स्त्री द्वारा पजामा पहनने पर उस स्त्री को जुर्माने की सज़ा सुनायी। इसके साथ ही प्रेमचन्द ने यह भी लिखा—“हमें तो काली देवी की कुरुचि पर दया आती है, जो साड़ी जैसी लोचदार चीज को छोड़कर पजामा पहनने चली।“

इस वक्तव्य के पीछे निश्चित तौर पर यह सोच काम कर रही है कि पश्चिम की विलासिता, सिनेमा-स्टारों के अर्धनग्न चित्र भारतीय स्त्रियों को प्रतिकूल दिशा में अग्रसरित न कर दें जिससे नारीत्व का भारतीय आदर्श कहीं खंडित न हो जाए। स्त्री मुक्ति की दिशा में यह दोचित्तापन संभवत: उस युग के राष्ट्रीय आंदोलन में विन्यस्त सामाजिक नैतिक अंतर्द्वंद्व का प्रतिबिम्ब है जिसके अंतर्गत स्त्रियों की मुक्ति व अधिकार के प्रश्न पर एक ख़ास पितृसत्तात्मक ढाँचे में ही विचार होता रहा।

प्रेमचन्द का चिन्तन भारतीयता के प्रति एक खास किस्म की भावुकता के आवरण में लिपटा हुआ है। भारत की पराधीनता उनकी दृष्टि पर छायी रहती है। किसी भी विचार के तटस्थ मूल्यांकन से पहले उनके मन पर यह हावी रहता है कि योरोपीय मॉडल हमारे लिए आदर्श नहीं है चाहे वह साहित्य का हो या जीवन का।

यूरोप का यथार्थवाद उन्हें स्वीकार्य नहीं है, पश्चिम से आती स्त्री स्वाधीनता की आँधी, (जो उनके अनुसार उच्छृंखलता अधिक है) भारतीय समाज में नारीत्व के आदर्श के सम्मुख हेय है। इसी तरह, डेमोक्रेसी का ढाँचा जो वोट और प्रकारान्तर से पैसे पर टिका है प्रेमचन्द की दृष्टि में ग्राह्य नहीं है। ‘पुराना ज़माना: नया ज़माना’ निबन्ध में वे लिखते हैं — ‘‘पुराने ज़माने में सभ्यता का अर्थ आत्मा की सभ्यता और आचार की सभ्यता होता था। वर्तमान युग में सभ्यता का अर्थ है स्वार्थ और आडम्बर।“ प्रेमचन्द के चिन्तन पर उनकी मूल्य दृष्टि का प्रभाव बहुत अधिक है। ऐसा नहीं कि वे आधुनिकता के सकारात्मक पहलुओं को न पहचानते हों। समाजवाद की आहट में ‘बेज़ुबानों की ताकत’और ‘काश्तकारों की हिमायत’ की आवाज़ है — नये युग के इन लक्षणों का वे स्वागत करते हैं लेकिन अन्धा पूँजीवाद, घोर व्यावसायिकता, विलास और वासना पर आधारित सभ्यता मनुष्य के लिए कल्याणकारी नहीं हो सकती, इस बात में उन्हें ज़रा भी सन्देह नहीं है।

 

(डॉ. रेखा सेठी दिल्ली विश्वविद्यालय के इन्द्रप्रस्थ कॉलेज में प्राध्यापक होने के साथ-साथ एक सक्रिय लेखक, आलोचक, संपादक और अनुवादक भी हैं। उनका लेखन मूलत: समकालीन हिन्दी कविता तथा कहानी के विशेष आलोचनात्मक अध्ययन पर केन्द्रित है। 

 पिछले कुछ समय से वे स्त्री रचनाकारों की कविताओं के अध्ययन के माध्यम से साहित्य एवं जेंडर के अंतस्संबंधों को समझने की कोशिश कर रही हैं। 

उनकी प्रकाशित पुस्तकों में प्रमुख हैं–‘विज्ञापन: भाषा और संरचना’, ‘विज्ञापन डॉट कॉम’, ‘व्यक्ति और व्यवस्थाः स्वांतत्रयोत्तर हिन्दी कहानी का संदर्भ’, ‘मैं कहीं और भी होता हूँ: कुँवर नारायण की कविताएँ’ (सं), ‘निबन्धों की दुनिया: प्रेमचंद’ (सं), ‘निबन्धों की दुनिया: हरिशंकर परसाई’ (सं) तथा ‘निबन्धों की दुनिया: बालमुकुन्द गुप्त’(सं), ‘हवा की मोहताज क्यूँ रहूँ’ (इंदु जैन की कविताएँ – सं) आदि। हाल ही में उनके द्वारा अनूदित सुकृता पॉल कुमार की अंग्रेज़ी कविताओं का हिंदी अनुवाद ‘समय की कसक’ शीर्षक से पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ है। उनके लिखे लेख व पुस्तक समीक्षाएँ आदि पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहे हैं। 
ई-मेलः rsethi@ip.du.ac.in

 

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