समकालीन जनमत
कविता

उर्दू-हिंदी की साझा संस्कृति के शायर संजय कुमार कुंदन

ख़ुर्शीद अक़बर


संजय कुमार कुन्दन उर्दू-हिन्दी के ऐसे एकमात्र कवि-शायर हैं , जो साझा- संस्कृति के सशक्त प्रतिनिधि ( नुमाइनदा) की हैसियत रखते हैं और इसी हवाले से हिन्दी-उर्दू साहित्य में यकसां तौर पर जाने-पहचाने जाते हैं । यह शिनाख़्त ब-यक वक़्त उनकी ताक़त भी है और कमज़ोरी भी । ताक़त इस नज़रिये से, कि दो भाषा-साहित्य संस्कारों की धूप-छाँव में उनका सृजन-कर्म पुष्पित और पल्लवित हुआ-सा प्रतीत होता है, परन्तु कमज़ोरी इस दृष्टिकोण से कि अपनी तमामतर जादूबयानी के बावजूद उर्दूवाले इन्हें हिन्दी का और हिन्दीवाले , भाषा-शिल्प और अभिव्यक्ति की सतह पर, इन्हें निख़ालिस उर्दू का शायर समझते हैं । कहने का मतलब यह है कि :

ज़ाहिद ए तंग-नज़र ने मुझे काफ़िर जाना/
और काफ़िर ये समझता है मुसलमाँ हूँ मैं ।
– मुहम्मद इक़बाल 
[ इस मशहूर ए ज़माना शे’र ‘में ज़ाहिद ए तंग-नज़र’ (संकुचित दृष्टि वाला मुल्ला) और ‘काफ़िर’ (ईश्वर-विमुख) का प्रयोग प्रतीकात्मक परिप्रेक्ष्य में किया गया है ]

संजय कुमार कुन्दन तक़रीबन गत चालीस (40) वर्षों से रचनाकर्म को समर्पित हैं और एक सधे हुए फ़नकार की श्रेणी में शुमार होते हैं और व्यक्तिगत रूप से हमारी साहब-सलामत को भी पच्चीस (25) बरस का अर्सा (कालखण्ड) गुज़र चुका है। अब तक इनकी नज़्मों- ग़ज़लों की चार किताबें क्रमश:1. ‘बेचैनियाँ ‘2.’एक लड़का मिलने आता है’ 3. ‘तुम्हें क्या बेक़रारी है’ 4.’भले तुम और भी नाराज़ हो जाओ’  प्रकाशित होकर प्रखर पाठकों से शाबाशियाँ बटोर चुकी हैं। लेकिन आश्चर्य यह है कि अपनी सृजनधर्मिता में अपना शब्द-संसार (डिक्शन) शुद्धतम उर्दू के नफ़ीस ओ बारीक मसालों और नज़ाकत से भरपूर आत्मीय शैली से रचने के बावजूद , उर्दू लिपि में उनका अब तक एक भी शे’री मजमूआ (काव्य-संकलन) का मन्ज़र ए आम (लोकार्पण) पर नहीं आना शायर और क़ारी (पाठक) दोनों फ़रीक़ की उदासीनता का परिचायक है। यकीन है कि संजय कुमार कुन्दन इस पहलू से भी ग़ौर फ़रमायेंगे।

बिहार के सुदूर क़सबाती शह्र में जन्मे, पले-बढ़े और शिक्षित-संस्कारित (प्रौढ़ावस्था तक) संजय कुमार कुन्दन को वस्तुतः हमारी साझी-संस्कृति का माहौल मिला। उनके बचपन के जिगरी दोस्तों में उर्दू के जाने-माने कथाकार रफ़ी हैदर अन्जुम तथा फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ की धरती से ता’ल्लुक़ रखनेवाले कई मित्रों- सहपाठियों की संगति में उनकी रचना-प्रक्रिया परवान चढ़ती हुई आज हमारे दर्म्यान अपने अनोखे विचारों, अनुपम भावों तथा हैरतअंगेज़ शिल्प-शैली के साथ अपनी आकर्षक मौजूदगी का अहसास करा रही है। किसी भी सच्चे रचनाकार की तरह उनकी सृजनात्मक उपस्थिति हमारे इस बेहिस (संवेदनहीन) समय में मानवीय उत्कंठा और जिजीविषा का प्रबल प्रमाण है।

वैसे तो संजय कुमार कुन्दन ने कतिपय कहानियाँ भी लिखी हैं, जो हिन्दी की लब्धप्रतिष्ठ पत्र-पत्रिकाओं में छपी हैं, मगर शायरी अर्थात नज़्म ओ ग़ज़ल उनका असल इलाक़ा है जहाँ उनके इज़हार (अभिव्यक्ति) का आसमान बेहद खुला-धुला तथा उसकी संभावनाएँ असीम हैं। बुनियादी तौर पर वह रूमानपर्वर, हक़ीक़त पसन्द (यथार्थवादी) तबीयत के मालिक हैं लेकिन शिल्प के स्तर पर उनके शायराना लहजे की काट उन्हें अक्सर आधुनिकतावाद (जदीदियत) और उत्तर-आधुनिकतावाद (माबा’द जदीदियत) के साथ समसामयिक साहित्यक धाराओं की बनती-बिगड़ती लहरों की सतत्- परिवर्तनशीलता के रहम ओ करम पर तन्हा भी छोड़ देती है। यही वह मुक़ाम है जहाँ उनकी काव्यात्मक विलक्षणता अपने परों व पंखों को झाड़ कर अपनी मुक्ति/निजात का ऐलान करती हुई महसूस होती है।

‘कुन्दन ‘ की शायरी से गुज़रते हुए ऐसा सहज आभास होता है कि वह जहाँ एक तरफ़ फ़ैज़, फ़िराक़ और मख़दूम की रिवायत के अमीन (परंपरा-रक्षक) नज़र आते हैं, तो दूसरी ओर निराला, मुक्तिबोध तथा दुष्यंत के भी अनुयायी मालूम पड़ते हैं। हालांकि अन्य समकालीन कवियों एवं शायरों से भी उनहोंने अनुकरणीय प्रेरणायें अवश्य हासिल कीं है मगर साथ ही अपने ख़ून ए जिगर की आमेज़िश (सम्मिश्रण) से एक नये तेवर और अद्भुत रंग-रस की शायरी को भी रचने में भी सफलता प्राप्त की है। इसलिए उन के ऊपर मात्र पैरोकार (अनुयायी) होने का आरोप नहीं लगाया जा सकता।
अब चन्द मिसालें उनकी ग़ज़ल के श’रों से :
1.बाहर गलियों में वीरानी अन्दर कमरा सन्नाटा/
हार गया आवाज़ का लश्कर देखो जीता सन्नाटा ।

2. ख़ामोशी के नल से टपकतीं क़तरा-क़तरा आवाज़ें /
दीवारों की सीलन पर है काई जैसा सन्नाटा ।

3. कुछ नए क़दमों को गुमगश्ता ठिकानों की तलाश /
कुछ गुज़श्ता आहटें तय फ़ासला करती हुईं ।

4.इक थोड़ी नासाज़ तबीयत, इक थोड़ा ये सर्द ओ गर्म/
दौड़ते फिरते रहनेवाले ‘कुन्दन ‘ हैं कमरे में बन्द ।

5. तू ने क्या कर दिया, क्या मुदावा किया, दर्द तो और भी बढ़ गया चारागर/
ख़ुद मेरी बेख़ुदी से मुता’स्सिर हुआ, हो के बेख़ुद ये क्या लिख दिया चारागर  !

इन अश्आर की व्याख्या आवश्यक नहीं क्योंकि मर्मज्ञ पाठक इनकी तहों में डूब कर सच्चे मोती स्वयं निकाल सकते हैं। यहाँ पर यह दर्ज करना चाहूँगा कि शायर ने अरूज़ ( छन्द-विधान) से विमुखता , अल्फ़ाज़ की सेहत और कुछ ग़ैरशायराना जुर्रतों के भी सबूत दिये हैं , मसलन:

‘वक़्त के  नाख़ून से यादें  हैं कुछ खुरची हुईंए/क  पुराना सा मकाँ,  दीवारे-जाँ झड़ती हुईं’

————

हम अपने हक़ में नहीं बोलने के हैं क़ाबिल/उसके हैं  .गैज़ो- ग़ज़ब और ताब उसका है’

‘हाकिमे-शह्र से  कहने  गया है ये  ‘कुन्दन’/जो उसने हमको दिया है अज़ाब उसका है’

————

‘शेर कहते रहे उस्ताद सब हुनर के साथ/ बेहुनर लोग थे हम सिर्फ़ शायरी में रहे’

तपाक से मिले जो भी हमें मिला लेकिन/ख़ुद अपने आप से रिश्ता-ए-बेहिसी में रहे

————-

‘कुन्दन’ तो अच्छा शख़्श था कैसा रदीफ़ चुन लिया
हर शेर के अख़ीर में लाज़िम हुआ कहना ख़राब

————-
ये चंद शे’र नज़्र ए सानी (पुनरावलोकन) का तक़ाज़ा
करते हैं ।

उल्लेखनीय है कि ‘कुन्दन’ की ग़ज़लो के मुक़ाबले में उनकी नज़्मों का रचना-संसार कहीँ ज़्यादा व्यापक, गहरा और परिष्कृत है जिसकी संवेदनशीलता,
विचारोत्तेजकता,व्यंग्यात्मकता, शब्दों का चोटिलापन, लहजे की धार, सहज बहाव और जलतरंगों जैसी कर्णप्रिययता आदि एक अलग जहान (संसार) की सैर कराते हैं ।

इस क्रम में: ‘ये इक अजब दौर है’ , ‘हम सब तो खड़े हैं मक़तल में ‘ , ‘ राख को भी जरा तुम कुरेदा करो ‘ , ‘ प्लेटफ़ार्म’ आदि धारदार नज्में क़ाबिल ए तारीफ़ हैं ।
सन् 2015 में बिहार शिक्षा सेवा के उपनिदेशक के पद से सेवानिवृत्त हो कर संजय कुमार कुन्दन पेन्शनयाफ़्ता हो चुके हैं और ‘ केयर इण्डिया ‘ के कन्सल्टेंट के रूप में भी सेवा दे चुके हैं । मौज़ूदा वक़्त में आज़ादाना तौर पर समाज तथासाहित्य की सतत् साधना में व्यस्त हैं।

संजय कुमार कुंदन की ग़ज़लें

1
शाम हुई और दर्द का तारा निकल गया
अपनी ख़ातिर शब का गुज़ारा निकल गया

धीरे – धीरे हर ख़्वाहिश से दूर हुए
दिल में था इक काँटा प्यारा निकल गया

इस बस्ती में कैसे- कैसे लोग मिले
माना था जिस जिसको सहारा निकल गया

हाथ से अपने हैरत है के शख़्स वही
जिसको था जी जाँ से सँवारा निकल गया

उल्फ़त में बस अपना ये ही हाल रहा
इक पैकर था दिल में उतारा निकल गया

उसको नगरी नगरी को वो रास नहीं
सुख के नगर से दर्द का मारा निकल गया

देखो, देखो, तुम उसको ना रोक सके
‘कुन्दन’ जो शाइर था तुम्हारा निकल गया

***

शब- रात्रि, पैकर- आकृति.

2.

कुछ भी न था ख़याल में यादों में कुछ न था
बस एक दर्द था, मेरी ग़ज़लों में कुछ न था

बस राह-रौ ही राह-रौ राहों पे गामज़न
गर्दे-सफ़र थी सिर्फ़, निगाहों में कुछ न था

कुछ क़ायदों को तोड़कर सोचा नया कहें
बस इक ग़ुरूर था,नए लहजों में कुछ न था

वैसे था दिलफ़रेब हवाओं को चूमना
लज़्ज़त न थी गुनाह में, बोसों में कुछ न था

खाएँ हैं जानबूझकर उनका मलाल क्यूँ
वैसे भी ज़िन्दगी तेरे धोखों में कुछ न था

जब ज़िन्दगी की जंग में उतरे तो ये लगा
इक बेसबब सा ख़ौफ़ था, ख़तरों में कुछ न था

‘कुन्दन’ था बेनियाज़ बिसाते-हयात पर
शह से भी कुछ मिला नहीं मातों में कुछ न था
***
राह-रौ- यात्री, गामज़न- गतिशील, बेनियाज़- उदासीन, बिसाते-हयात- जीवन की बिसात

3.

बाहर गलियों में वीरानी अन्दर कमरा सन्नाटा
हार गया आवाज़ का लश्कर देखो जीता सन्नाटा

ख़ामोशी के नल से टपकतीं क़तरा- क़तरा आवाज़ें
दीवारों की सीलन पर है काई जैसा सन्नाटा

गर्म दोपहर में ये सड़कें हद्दे-नज़र तक वीराँ हैं
तेज़ धूप के सारे बदन से बहता पसीना सन्नाटा

मिलना-जुलना, गप्प, ठहाके पल-पल अपने साथ चले
आख़िरी शब सब छूट गए बस इक साथी था सन्नाटा

होठों के पहरेदारों को नींद की देकर एक दवा
दिल के तहख़ाने में हौले-हौले उतरा सन्नाटा

दस्तक देगी ग़ज़ल की मेहमाँ एहतमाम ये उसका है
चाय की प्याली, रात की स्याही, गहरा पसरा सन्नाटा

एक घड़ी भी चुप नहीं बैठा,’कुन्दन’ बोलता रहता था
किसको पता उसमें पिन्हा था जीवन भर का सन्नाटा
***
शब – रात्रि , एहतमाम- प्रबंध, पिन्हा- छुपा हुआ.

4.

वो फूल ही था मगर बाग़ से उजाड़ा हुआ
ख़याल अपनी ही शिद्दत में पारा-पारा हुआ

सुख़न में हो गया दाख़िल वो धीमे क़दमों से
बड़े क़रीने से वो अजनबी हमारा हुआ

किसी बदन की थी ख़ुशबू हर एक रेशे में
मैं इक लिबास अचानक ही था उतारा हुआ

निचोड़ा जिसने था हमको वो था तुम्हारा सितम
सो जो मवादे- सुख़न था वो सब तुम्हारा हुआ

उसी ने फ़त्ह की साज़िश को बेनक़ाब किया
वो आदमी था जो सबकी नज़र में हारा हुआ

कहा था आम न करना ये क़िस्सा-ए-ख़लवत
तो फिर ग़ज़ल में तेरा ज़िक्र इस्तआरा हुआ

सिवाय इसके कोई चारा कहाँ था ‘कुन्दन’
सो बह्रे-ज़ीस्त में गिरदाब ही किनारा हुआ
***
शिद्दत- तीव्रता, पारा-पारा- टुकड़े-टुकड़े, सुख़न- काव्य,मवादे- सुख़न- काव्य की सामग्री,ख़लवत- एकान्त, इस्तआरा- अलंकार, बह्रे-ज़ीस्त- जीवन का सागर,गिरदाब- भँवर.

5.

ये जो पत्थर से हो गए जानाँ
कम नहीं हमने ग़म सहे जानाँ

वक़्ते-रुख़्सत तपाक देखोगे
कैसे दुनिया से हम उठे जानाँ

अपने बारे में कैसे- कैसे हमें
उम्र भर थे मुग़ालते जानाँ

जैसे जैसे भरे मकाँ में जिन्स
वो मकीं छूटते गए जानाँ

मुब्तिला ख़ुद में ये तेरा रहना
और हम दर-ब-दर फिरे जानाँ

हुक्म देकर ये तेरी बेसब्री
हम तो तामील कर रहे जानाँ

किससे किससे मिले है तू ‘कुन्दन’
ख़ामख़्वाह तुम हो पूछते जानाँ
***
मुग़ालता- ग़लतफ़हमी, मकीं- मकान में रहनेवाला, मुब्तिला- ग्रस्त, involved, तामील-पालन.

6.
बड़ी ख़मोशी से झेले हैं ऐसे सदमे भी
के हम पे हँस के गए आज ऐसे वैसे भी

हम अपनी शिद्दतें रिश्ते के नाम कर आए
तुम्हारे पास जिए तुमसे दूर रह के भी

शिकम तो शह्र से, सहरा से दिल लगाव रखे
सो दिन में काम रहा, सारी रात भटके भी

हमारे पास वो हुशियारियाँ कहाँ से रहीं
ये और बात के चौंके, ज़रा-सा संभले भी

जिसे भी देखा तो दिल मामता से भर आया
न जाने दिल में मिले कैसे माँ के जज़्बे भी

बड़े ही चुपके से हम शेर कहते जाते हैं
के हमने वक़्त से कुछ-कुछ चुराए लम्हे भी

कैसे समझोगे मियाँ, तुम नहीं समझोगे उसे
कभी जो हाथ में ‘कुन्दन’ तुम्हारे आए भी
***
शिद्दत- तीव्रता शिकम-पेट, सहरा- मरुभूमि

7.

तूने क्या कर दिया, क्या मुदावा किया, दर्द तो और भी बढ़ गया चारागर
ख़ुद मेरी बेख़ुदी से मुतास्सिर हुआ, हो के बेख़ुद ये क्या लिख दिया चारागर

अब तो ये याद में भी नहीं है रक़म किस घड़ी और कहाँ पर थे बहके क़दम
हर क़दम पर बिछे हैं फ़क़त रास्ते, मंज़िलें ले के गुम तो हुआ चारागर

आसमाँ ने तो धोखे बहुत हैं दिए और ज़मीं ने भी कम तो न नख़रे किए
ज़ख़्म खाकर बहुत उसको ढूँढा किए पर जहाँ में न कोई मिला चारागर

ज़िन्दगी अपनी रौ में ही चलती रही, कुछ लरज़ती रही, कुछ संभलती रही
अपनी जो थी दवा ख़ुद ही करती रही, पास इसके तो कब था रहा चारागर

इक सदा हमको कब से है भरमा रही, पास भी आ रही, दूर भी जा रही
अपने कानों पे हम क्या भरोसा करें तू ही बेहतर ये हमको बता चारागर

आज मख़्दूम की याद आती रही रात भर चाँदनी में नहाती रही
नुस्ख़ा-ए-कीमिया-ए-मुहब्बत न पा आज कितना पशेमाँ हुआ चारागर

अपने ज़ख़्मों पे उसको बड़ा नाज़ था, एक ‘कुन्दन’ का अपना ही अंदाज़ था
अपनी ज़िद में उठा और चला ही गया उसको भी देखता कौन-सा चारागर
***
मुदावा- चिकित्सा, चारागर-चिकित्सक, मुतास्सिर-प्रभावित, रक़म-अंकित, मख़्दूम-एक प्रख्यात शायर, नुस्ख़ा-कीमिया-ए-मुहब्बत- प्रेम के उपचार का नुस्ख़ा, पशेमाँ- लज्जित.

8.
रगों में जो है अन्धेरा हिसाब उसका है
हमारे हिस्से का हर आफ़ताब उसका है

वक़्त से पहले ज़ईफ़ी नसीब में अपने
वक़्त के बाद भी हुस्नो-शबाब उसका है

किताबे-ज़िन्दगी गरचे हमारे नाम से थी
हरूफ़ उसके, वरक़ उसके, बाब उसका है

हमारी ग़फ़लतें हर वक़्त ये बताती रहीं
हमारे हक़ में हैं काँटे, गुलाब उसका है

हम अपने हक़ में नहीं बोलने के हैं क़ाबिल
उसके हैं .गैज़ो- ग़ज़ब और ताब उसका है

हमें न कहना है कुछ सिर्फ़ सुनते जाना है
सवाल भी हैं उसी के जवाब उसका है

हाकिमे-शह्र से कहने गया है ये ‘कुन्दन’
जो उसने हमको दिया है अज़ाब उसका है
***
ज़ईफ़ी- बुढ़ापा,बाब- अध्याय,अज़ाब-कष्ट.

9.
तनहा-तनहा लफ़्ज़ मिलेगा, पारा-पारा तहरीरें
कड़ियाँ जब बिखरेंगी इक दिन, टूटेंगी जब ज़ंजीरें

कौन किसी को पूछनेवाला, कौन किसी का है महरम
तनहाई की नागन आकर डंस जाती सब तक़दीरें

इक कमरा तो भरा हुआ है,इक कमरा वीरान बहुत
इक में ख़्वाबों का कोलाहल, इक से गुम हैं ताबीरें

कोई समझाएगा हमको जीवन भर का क्या हासिल
चारों जानिब एक ख़ला है, कहाँ गईं सब तदबीरें

बंदिश पे तो नाज़ बहुत था नपा-तुला था हर मिसरा
प्रेम के गीत ने तोड़े बंधन नाच उठीं कितनी हीरें

तेरा दर्पण एक जज़ीरा जिसमें बस तेरा ही राज
दर्पण तोड़ो, मिल जाएँगी तुझको हज़ारों जागीरें

“‘कुन्दन जी’ कब चुप रहते हैं,” सब कहते हैं, जाने कौन
उनकी है गुफ़्तार में चुप्पी, ख़ामोशी में तक़रीरें
***
पारा-पारा तहरीरें – टुकड़ा टुकड़ा लेखनी,महरम-अंतरंग, ताबीरें – स्वप्नफल,ख़ला-शून्य मिसरा- पंक्ति, जज़ीरा- टापू, गुफ़्तार- बोली.

10.

इक तख़्तनशीं आज भी इतराया हुआ है
वो ही ख़ुदा है सबको ये समझाया हुआ है

उसके मुसाहिबों की यहाँ भीड़ लगी है
उसके क़सीदाख़्वाँ ने ग़ज़ब ढाया हुआ है

सच बोलने पे पड़ते हैं उसकी जबीं पे बल
परचम अभी तो झूठ का लहराया हुआ है

फ़रमान लिए फिरते सकाफ़त के ठेकेदार
हम पहनेंगे- खाएँगे क्या,लिखवाया हुआ है

हम एक ही जैसे हैं मगर कहिए अलग हैं
उसकी नसीहतों का नशा छाया हुआ है

बाशिन्दे इसी मुल्क के उसके भी थे अजदाद
कहते हैं, वो बाहर कहीं से आया हुआ है

अब शायरी इसको भले कहते न हों ‘कुन्दन’
महसूस किया बस वही फ़रमाया हुआ है
***
मुसाहिब- राजा के नौकर ,क़सीदाख़्वाँ- क़सीदा पढ़नेवाला, चापलूस, सकाफ़त-संस्कृति,अजदाद- पूर्वज .

संजय कुमार कुन्दन की नज़्में

1. ये इक अजीब दौर है

ये इक अजीब दौर है

ख़िज़ाँरसीदा नख्ल हैं
मगर है शोरे-फ़स्ले-गुल
क़सीदे पढ़ रहे सभी
वो बारिशों की शान में
अगरचे तप रही ज़मीं
क़दम जहाँ जहाँ पड़े
यक़ीन है गुमान में
के मक़्र है बयान में
ये इक अजीब दौर है
ये इक अजीब दौर है

ये वहशियों की लह्र है
के बेटियों पे क़ह्र है
क़बाएँ तार-तार हैं
फ़ज़ाएँ शर्मसार हैं
वो शर्म उनमें अब कहाँ
ये कह रहे हैं हुक्मराँ
के बेटियों को है अमाँ
बहुत ही अम्नो-चैन है
न है फ़ुगाँ न बैन है
कभी न था समाज में
वो अम्न उनके राज में
ये इक अजीब दौर है
ये इक अजीब दौर है

जो सच है वो ही झूठ है
जो झूठ है वही है सच
तिलिस्म के असर में सब
न इनके तू फ़ुसूँ से बच
फ़रेब तू भी कोई रच
जो देखता है वो न कह
लबों को बन्द करके रह
अभी हवा के रुख़ पे बह

यही है हुक्मे-रहनुमा
के उसको मान ले ख़ुदा
के उसके जैसा पारसा
कोई नहीं है दूसरा
लो उसके आ गए मुरीद
ये सब गवाहे-चश्मदीद
झुका लिया जो अब न सर
तो सर ये जाएगा उतर
न देर कर न देर कर

भले मुहीब दौर है
बहुत अजीब दौर है
मगर सुने ज़रा न दिल
मगर डरे ज़रा न दिल
क़लम से इसकी दोस्ती
कहे यही लिखे वही
हम इनके दरम्याँ नहीं
है अपना कुछ निशाँ नहीं
***
ख़िज़ाँरसीदा- पतझड़ से युक्त, नख्ल – पेड़, फ़स्ले-गुल- बहार,मक़्र-मक्कारी,क़बा- वस्त्र,अमाँ- आश्रय, फ़ुगाँ- आर्तनाद, बैन- विलाप, फ़ुसूँ- जादू,पारसा- पवित्र,मुहीब- भयानक.

2. हम सब तो खड़े हैं मक़तल में…
हम सब तो खड़े हैं मक़तल में क्या हमको ख़बर इस बात की है
जिस ज़ुल्म को हम सौग़ात कहें सौग़ात वो काली रात की है
हम जिसको मसीहा कह बैठे वो दर्द का चारा क्या करता
उसने तो कुरेदा ज़ख़्मों को वो ज़ख़्म हमारे क्या भरता
हम मेहनत करके मर जाएँ और उसको दुआएँ देते रहें
वो आख़िरी क़तरा भी ले ले हम अपना लहू ख़ैरात करें

पहले भी मसीहा आए थे जो दर्से-मुहब्बत दे के गए
हम सब में रहे, हम सब के हुए, हम सब में जिए, हम सब में मरे
वो धूप जो हमपर तेज़ रही उसमें तो बदन उनका भी जला
जो दर्स हमारी ख़ातिर थे उनपे तो अमल उनका भी हुआ
जो सोचते थे वो बोलते थे, जो बोलते थे वो करते थे
औरों की ख़ातिर जीते थे औरों के लिए वो मरते थे

और आज भी कैसा शोर है ये के कोई मसीहा आया है
दुख-दर्द हमारे ले लेगा ये कैसा भरम फैलाया है
उसके तो बदन पे रेशम है और अपने बदन मुश्किल से ढँकें
उसके तो शिकम में मेवे हैं और अपने शिकम आतिश से जलें
उसके तो हवाई दौरे हैं और रेंग के हमको है जीना
वो बात करे तो फूल झड़े हमको होंठों को है सीना

और आज हमारे सीनों में ये नफ़रत फैल गई कैसी
कल हम जिनसे मिलते थे गले अब उनपे उठाई है बरछी
अलगाव की बातें करने में दिल ख़ुद ही मलामत करता था
अब ज़ह्र भरी इन बातों में ये फ़ख़्र सा होता है कैसा
बेख़ौफ़ सभी से मिलते थे इस बात को तो कुछ दिन ही हुए
और कुछ ही दिन में मिलते हैं हम शक कितने आँखों में लिए

गुमनाम से हैं वो कौन बशर जो भीड़ की सूरत आते हैं
एक पल में बहा मासूम लहू फिर भीड़ में ही खो जाते हैं
और हद है के इस वहशत को कहते हैं बहुत से लोग रवा
क़ातिल तारीख़ के गुम्बद से अब नफ़रत को देते हैं सदा
ये कैसा मसीहा है जिसने बतला ही दिया हम एक नहीं
हम सच्चे हैं वो बातिल हैं हम ही हैं भले वो नेक नहीं

इक दम तो ठहर कर सोचो भी हम तुम ज़िन्दा किस हाल में हैं
हर एक क़दम पे हैं बेबस हम किस जी के जंजाल में हैं
अपने जैसे मजबूरों से मुख़्तार की शह पे लड़ते हैं
हम ख़ाक में लिथड़े रहते हैं वो तख़्त पे बैठे रहते हैं
हैरत है वो समझाते हैं हमलोग समझ भी जाते हैं
अपने जैसों की बस्ती को हम फूँक के वापस आते हैं

इस रंग, नस्ल और मज़हब का हमने तो मज़ा है ख़ूब चखा
इंसाँ होकर इंसानों का हमने तो लहू है ख़ूब पिया
अब अपने मसीहा से पूछें ये क़त्लो-ग़ारत है कबतक
कबतक हैं मुहब्बत पर पहरे आज़ाद है ये नफ़रत कबतक
कबतक वो हमको बाँटेगा कबतक वो हमें बिकवाएगा
दिल उसका भरेगा आख़िर कब कबतक वो सितम ये ढाएगा

हम अब भी अगर ख़ामोश रहें हम देख न पाएँ सच है क्या
गर यूँ ही हमपे छाया रहा उसका वो जादू, उसका नशा
हम सब क़ातिल कहलाएँगे हमसब बातिल कहलाएँगे
ज़िन्दा रहने की जद्दोजहद में हमसब मारे जाएँगे
अब तू ही बता क्या कोई सहर इस काली अँधेरी रात की है
हम सब तो खड़े हैं मक़तल में क्या हमको ख़बर इस बात की है
***
मक़तल- वधस्थल,चारा- चिकित्सा, दर्से-मुहब्बत- प्रेम का उपदेश,शिकम-पेट,आतिश-आग, मलामत-भर्त्सना,फ़ख़्र-गर्व, बशर-व्यक्ति, रवा- उचित, तारीख़-इतिहास,बातिल- झूठा,सहर- सुबह.

3. भेड़िए

आज का दिन अजब सा गुज़रा है

इस तरह
जैसे दिन के दाँतों में
गोश्त का कोई मुख़्तसर टुकड़ा
बेसबब आ के फँस गया सा हो
एक मौजूदगी हो अनचाही
एक मेहमान नाख़रूश जिसे
चाहकर भी निकाल ना पाएँ
और जबरन जो तवज्जो माँगे
आप भी मसनुई तकल्लुफ़ से
देखकर उसको मुस्कुराते रहें

भेड़िए आदमी की सूरत में
इस क़दर क्यों क़रीब होते हैं
***
तवज्जो- ध्यान, मसनुई तकल्लुफ़- कृत्रिम औपचारिकता.

4. राख को भी ज़रा तुम कुरेदा करो

बेबसी का ये क़िस्सा
बहुत हो गया
दम भी घुटने की अब
इन्तहा हो गई
सर झुकाए हुए
दम समेटे हुए
रेंग कर चलते रहना
भी कब तक चले

ज़िल्लतों का
अजब कारख़ाना है ये
जिसमें सुब्ह से शब तक
कई कारीगर
बुनते रहते हैं कोई
सियह पैरहन
और तामील में
अपने आक़ाओं के
बेरहम हुक्म की
ख़ुद पहनते हैं
ज़िल्लत के ये पैरहन
जिसमें इंसानियत का
वो क़द टूट जाए
और आक़ा हँसे
एक वहशी सी धुन
जो मुसलसल बजे
चन्द लोगों की धुन
तर्जुमाँ जो करें
तो यही बस कहे
ये के तू कुछ नहीं

फिर भी कुछ तो,
कहीं तो हैं किरचें बचीं
कुछ सुलगती हुईं
चोट खाई हुईं
आग की किरचियाँ
एक दबी आग है

कारख़ाने के
वहशी तगो-दौ में तुम
इस मशक़्क़त में
इक काम ये भी करो
राख को भी ज़रा तुम कुरेदा करो
राख में तो
अभी भी कोई आग है
***
ज़िल्लत- अपमान,सियह पैरहन- काला वस्त्र, मुसलसल- अनवरत,तर्जुमाँ- अनुवाद.

5. प्लैटफॉर्म
आ.खिरी ट्रेन जा चुकी है अब
फैलता जा रहा है सन्नाटा
प्लैटफारम की धुँधली रौनक़ में
चंद मुबहम से .खाके उभरे हैं
जैसे सदियों से बंद क़ब्रों से
अहदे-कुहना की बदबुएँ लेकर
लम्हे आसेब बन उभरते हों

फ़र्श पे सो रहे तमाम बदन
गठरियों में बदलते जाते हैं
न इनमें .खम, न ज़ाविए, न उभार
कोई चमक, न लताफ़त, न निखार
आ.खिरी इक शिना.ख्त है इनकी
गोश्त ज़िन्दा हैं और .गलीज़ हैं ये
.खूब अर.जाँ हैं, जिंसी चीज़ हैं ये

फ़र्श पे जा-ब-जा हैं पीक के नक़्श
बेख़बर उनपे सो रही है कोई
शायद पागल वो नीम-उरियाँ है
बेख़बर, बेख़बर, वो बेऔसान

इतने जिस्मों के पेचो-ख़म से कोई
साफ़ सुथरा जवाँ मरद गुज़रा
और ज़रा दूर पर अँधेरे में
एक तन्हा, अँधेरा कोना है
अब वो दोनों उधर ही जाते हैं

प्लैटफारम की धुँधली रौनक़ से
मिट गए अब वो .खाका-ए-मुबहम
दरम्याँ इन .गलीज़ जिस्मों के
सो रहे इक सियाह कुत्ते ने
बहुत हल्की सी एक करवट ली
और फिर सट के एक इन्सां से
सो गया और बेख़बर होकर
***
मुबहम- अस्पष्ट, अहदे-कुहना- पुराना युग, आसेब- प्रेत, अर.जाँ- सस्ता, जा-ब-जा- जगह-जगह,
नीम-उरियाँ- अर्द्धनग्न.

(शायर संजय कुमार कुन्दन, बिहार शिक्षा सेवा में कार्यरत रहे,  2015 में उप निदेशक, शिक्षा विभाग, बिहार सरकार के पद से सेवानिवृत्त, 2015-16 केयर इंडिया, अंतरराष्ट्रीय एन जी ओ में कंसल्टेंट रहे। किताबें-ग़ज़लों, नज़्मों की चार किताबें ‘बेचैनियाँ’, ‘एक लड़का मिलने आता है’, ‘तुम्हें क्या बेक़रारी है’ और ‘भले तुम और भी नाराज़ हो जाओ’ प्रकाशित। दलित विचारक कांचा इलैय्या की किताब ‘ ‘पोस्ट हिन्दू इंडिया’ का अनुवाद, सेज़ प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित। कहानियाँ प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित। शिक्षा संबंधी कई पुस्तक निर्माण कार्यशालाओं का आयोजन एवं प्रशिक्षण.

संपर्क: संजय कुमार कुन्दन, 406, मानसरोवर अपार्टमेंट, रोड नं- 12-बी, अर्पणा कॉलनी, रामजयपाल पथ, गोला रोड के सामने, बेली रोड, पटना

मो.नं- 8709042189/9835660910.

टिप्पणीकार ख़ुर्शीद अक़बर, शायर , आलोचक एवं
सम्पादक, उर्दू त्रैमासिक ‘आमद’

सम्पर्क: आरज़ू मन्ज़िल
शीशमहल कालोनी
आलमगंज
पो0 गुलज़ार बाग़
पटना – 800007 (बिहार)
मोबाइल: 9631629952)

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