कश्मीर शुरू से ही फिल्म निर्माताओं, अभिनेताओं आदि की पसंद रहा है। शम्मी कपूर, राजेश खन्ना की कई यादगार फिल्में इसी की खूबसूरत वादियों में फिल्माई गईं।
फिर धीरे-धीरे इन वादियों में नफरत, हिंसा आदि के विचारों ने अपने पाँव पसारना शुरू कर दिया और फिल्मों में भी कश्मीर अपनी तमाम खूबसूरती के बावजूद इन्हें छूपा न सका।
‘रोजा’, ‘मिशन कश्मीर’, ‘हैदर’ आदि फिल्में इसके उदाहरण हैं।
मगर इन सबके बीच एक फिल्म बड़ी खूबसूरती और खामोशी से आई है जो सिर्फ कश्मीर की वर्तमान परिस्थितियों को स्पर्श करते मगर पृष्ठभूमि में रखते वहाँ की खूबसूरती और उस खूबसूरती में पनपती दो युवा दिलों की मूक प्रेम कहानी की बात करती है।
निर्माता के रूप में सलमान खान द्वारा अपने प्रोडक्शन ‘सलमान खान फिल्म्स’ के माध्यम से प्रस्तुत यह फिल्म शुरुआती तौर पर दो नए चेहरों को फिल्म इंडस्ट्री में पदार्पण करने का माध्यम ही बनती है, मगर इसके लिए किसी अनावश्यक मसाले और तड़क-भड़क का इस्तेमाल न किए जाने से नए चेहरों को अपनी अभिनय क्षमता प्रदर्शित करने का पूरा अवसर मिला है, जिसका उन्होंने लाभ भी उठाया है और भविष्य के लिए एक उम्मीद भी जागते हैं।
इसबार सलमान ने अपने दोस्त के बेटे जहीर इक़बाल और नूतन की पोती तथा मोहनीश बहल की बेटी प्रनूतन बहल को लॉन्च किया है।
थाई फिल्म ‘द टीचर्स डायरी’ पर आधारित ‘नोटबुक’ में एक खामोश प्रेम कहानी है। एक दूसरे से कभी न मिले लोग जिनकी मुलाकात लगभग फिल्म के अंत में ही होती है एक दूसरे को उसकी नोटबुक में लिखे अहसासों से ही कल्पना करने, समझने और प्रेम करने लग जाते हैं। ये प्रेम की बड़ी रूहानी कल्पना है।
भावनाओं की प्रेम में अपनी भूमिका है जिसे प्रेम को अनुभूत किये लोग समझ सकते हैं।
फिल्म में कश्मीर की कुछ समस्याओं को भी स्पर्श करने का प्रयास किया गया है पर स्पर्श ही। वहाँ का तनावपूर्ण माहौल, कश्मीरी हिंदुओं का पलायन और अपनी जड़ों के तलाश की बेचैनी, लड़कियों की आत्मनिर्भरता, बच्चों की शिक्षा पर बाहरी परिस्थितियों का प्रभाव आदि जैसे विषयों की एक झलक मिलती कहीं-कहीं दिख जाती है।
मोबाईल में नेटवर्क मौसम और माहौल पर निर्भर करना, चिनार के पेड़ के पत्ते का जम्मू की मिट्टी से दोस्ती न कर पाने जैसे संवाद भी इस ओर एक इशारा तो करते हैं और फिल्म यह संदेश भी देती है कि बच्चों के हाथों में किताबें ही उन्हें और घाटी को बंदूक से दूर रख सकती है।
शिक्षा को वांछितों तक पहुँचने के प्रयास के रूप में झील के मध्य स्कूल की परिकल्पना आकर्षित करती है। जिन्होंने कश्मीर की वुलर झील को देखा हो वो यहाँ की वस्तुस्थिति को और भी करीब से महसूस कर सकते हैं।
एक फिल्म से किसी समस्या की पूर्णतः प्रस्तुति या उसके हल को प्रस्तुत करने की उम्मीद उचित नहीं कही जा सकती किन्तु यदि फिल्म उनके विषय में आपके अंदर एक उत्सुकता जगाती है कि आप स्वयं उसे महसूस करें और उसे समझने के लिए स्वयं अतिरिक्त प्रयास करें इसके लिए प्रेरित करना भी कम नहीं।
जहीर ठीक हैं, उनकी तैयारी दिखती है; पर उन्हें अपनी पृथक छवि बनाने पर और ध्यान देना चाहिए। पहली फिल्म के होते हुये भी ग्लैमर की जगह अभिनय पर फोकस करतीं प्रनूतन उम्मीद जगाती है कि बौलीवुड में एक अच्छी अभिनेत्री की खाली जगह को भर सके। फिल्म की एक और खासियत इसमें कुछ बच्चों की भागीदारी है। मासूम बच्चों की दिल छू लेने वाली भूमिकाएँ कहीं-कहीं लड़खड़ाती फिल्म में ताजगी ले आती हैं।
फिल्म की सिनेमेटोग्राफी काफी आकर्षक है। कश्मीर की खूबसूरती, शिकारों पर तैरता रोज़मर्रा का जीवन वहाँ के उन इलाकों की खूबसूरती को भी झलकाता है जो श्रीनगर के आगे न बढ़ पाने वाले पर्यटकों की नजरों से छुप जाता है।
कश्मीर की तरह ही थोड़ी धीमी, थोड़ी बिखरी सी भी है ये फिल्म पर मासूम अहसासों से भरी प्रेम कहानी को पसंद करने वालों को अपनी जिंदगी की नोटबुक के भी किसी पन्ने की याद दिला सकती है ये ‘नोटबुक’…
(अभिषेक कुमार मिश्र भूवैज्ञानिक और विज्ञान लेखक हैं. साहित्य, सिनेमा, कला-संस्कृति, विरासत आदि में भी रुचि. विरासत पर आधारित ब्लॉग ‘ धरोहर ’ और गांधी जी के विचारों पर केंद्रित ब्लॉग ‘ गांधीजी ’ का संचालन. मुख्य रूप से हिंदी विज्ञान लेख, विज्ञान कथाएं और हमारी विरासत के बारे में लेखन. Email: abhi.dhr@gmail.com , ब्लॉग का पता – ourdharohar.blogspot.com)