“बरसात का पानी बूँद-बँद बढ़ता हुआ दरार के आखिरी मुकाम पर पहुँचकर ठहर जाता, बूँद की एक थैली बना पीछे से बढ़ती आती बूँदों को उसमें जमा करता जाता, किंतु किसी भी पल अपनी बिसात भूलकर एक बूँद जो अधिक भरता कि पूरी थैली फूट जाती और कल्पेश की खोपड़ी पर फिच से टपक जाती।”
प्रस्तुत पंक्तियां गीतांजलि श्री की कहानी दरार से ली गई हैं- यह दिखाने के लिए कि वह एक ही सफे में बनने और बिगड़ने यानी जिंदगी और मौत को आमने-सामने लाकर खड़ा कर देती हैं। वह भाषा के साथ खेलने वाली खिलंदड़ कथाकार हैं। भाषा के साथ ही चलते – फिरते स्वभाविक तरीके से दार्शनिकता भी आ जाती है–“…बेचारा बनने के बाद केवल कीड़ा बनना मुमकिन है।”
भाषा का यह अंदाज, यह भाव और यह दार्शनिकता ‘‘रेत समाधि’‘ में भी समाधि लगाकर बैठी हुई है।
गीतांजंलि श्री के उपन्यास ‘‘रेत समाधि’‘ के अनुवाद टॉम्ब ऑफ सैंड, जिसका अनुवाद डेज़ी रॉकवेल ने किया है, को इस साल का अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार प्राप्त हुआ है। निश्चित रूप से यह सम्मान भारतीय साहित्य का सम्मान है। कथ्य, भाषा और अभिकथन की दृष्टि से गीतांजली श्री विशिष्ट रचनाकार हैं। साथ ही उनकी कई कहानियां अलग होकर भी एक दूसरे से जुड़ी जान पड़ती हैं। ‘रेत समाधि’ में गीतांजली के पूर्व के उपन्यास ‘माई’ और एक कहानी ‘मार्च, माँ और साकुरा’ की परछाईं दिखाई पड़ जाती है। इस अर्थ में गीतांजली श्री विकासशील कथाकार हैं। उनकी कथाएं निरंतर विकास का परिणाम जान पड़ती हैं।
उपन्यास ‘रेत समाधि’ दो महिलाओं और एक औरत की मौत की कहानी है। लेकिन इसमें इसके साथ और भी बहुत कुछ है। यह जिंदगी और मौत का आख्यान है। गौर करने पर पाते हैं कि इस कहानी में समय को लांघने की प्रत्याशा, लुप्त इतिहास को जी लेने की अभिलाषा, अनर्गल सीमाओं की निर्थकता, लिंगों और रिश्तों का दोआब तक शामिल है। गीतांजलि ने ठीक ही लिखा है- “महिलाएं स्वयं कहानियां हैं”। उपन्यास में हम जैसे-जैसे आगे बढ़ते हैं, वैसे-वैसे स्त्री पात्र धीरे-धीरे क्षुद्र ग्रह से ब्रह्मांड बनती चली जाती हैं। जैसे नदियों के मिलने से संगम होता है, वैसे ही कई कहानियों के मिलने से महागाथा तैयार होती चली जाती है।
फ्रेंच साहित्य में एक शब्द बहुत बार प्रयोग होता है – ‘je ne sais quoi.’ यह पदबंध उस साहित्यिक कृति या कलाकृति के लिए उपयोग में लाया जाता है, जो हर किसी की तरह प्रतीत हो, किंतु प्रतीत अर्थ के परे उसका एक विशिष्ट अर्थ भी हो। ‘रेत समाधि’ ऐसा ही उपन्यास है, जो सबके जैसा होते हुए भी सबसे अलग और विशेष है। शैली वैज्ञानिक आलोचक को यह शैली प्रधान उपन्यास जान पड़ता है और उपन्यास में इतिहास ढूँढने वाले को ऐतिहासिक उपन्यास लग सकता है। उपन्यासकार ने लगने और होने के द्वंद्व को मजे में खेला है। कुछ आलोचक इसे विभाजन की त्रासदी से जोड़कर देख सकते हैं। कई लोग इसे रोमानी कथा भी कहें तो कह सकते हैं। इसे स्त्री विमर्श से भी जोड़कर पढ़ा जा सकता है। इसमें सब कुछ है। और सब कुछ के होते हुए भी यह कुछ –कुछ अछूता रह जाता है, पकड़ में नहीं आता। कभी–कभी यह आकाश की तरह विशाल और सीमा रहित लगने लगता है।
उपन्यास की नायिका अस्सी वर्षीय एक माँ है – ‘मार्च, माँ साकुरा’ की माँ की तरह (रेत…की माँ अस्सी साल की है और मार्च…की माँ पछत्तर साल की है)। उपन्यास की नायिका डाँवाडोल है। वह अस्थिर पात्र है। उपन्यास की माँ आम माताओं की स्थिर नहीं, युवा की तरह चंचल है– तमन्नाओं से भरी हुई। माँ कथा को अस्थिर करती है। कथा में अराजकता लाती है। वह जिन पन्नों पर नुमाया होती है, वह पन्ने पगला से जाते हैं। यह पागलपन रोमांचित करता है– माँ को प्यार करने लायक बनाता है। माँ का दोचित्तापन स्थिर पानी में कंकड़ की तरह है, जो लहरों को किनारे तक जाने का सपना देता है। ‘रेत समाधि’ की कहानी खत्म न होने वाली कहानी है। उस रात की तरह है, जिसे खत्म नहीं होना चाहिए। मगर हर रात का विलय दिन में होना सुनिश्चित है। दिन में धूप है, आग है और आँधी है। कथा का समापन एक जिंदादिल सपने की मौत की याद दिलाता है।
ऊपर कहा गया है कि गीतांजलि श्री विकासशील रचनाकार हैं। उनकी एक रचना का पात्र दूसरी रचना में किसी न किसी रूप में दिख जाता है। गीतांजलि श्री के पात्रों से गुजरते हुए लगता है कि हमारा खुद का जीवन उपन्यास जैसा ही है। जितने अच्छे-बुरे हम हैं, उनके उपन्यास के पात्र भी उतने ही अच्छे-बुरे, खूबसूरत-बदसूरत और अपरिभाषित हैं। उपन्यास ‘रेत समाधि’ में एक पात्र है बड़े अर्थात मैन ऑफ दि हाऊस जिसे संक्षेप में मोत (MOTH) कहा गया है, जिसका उच्चारण मौत की तरह जान पड़ता है। इस तरह की भाषाई ध्वनि प्रतीकों से ‘रेत समाधि’ (टॉम्ब ऑफ सैंड) में अर्थ संगुम्फन की बाढ़ सी आई हुई है। बड़े का अपना परिवार है। उसकी पत्नी और और दो बच्चे भी हैं। पति-पत्नी एक दूसरे को ‘डी’ से संबोधित करते हैं। ‘डी’ डॉर्लिंग का संक्षिप्त रूप हो सकता है। बड़े और उसकी पत्नी के बीच का यह संबोधन विवाह के कुछ साल तक डार्लिंग का ही द्योतक लगता है, किंतु कुछ सालों बाद यह संक्षिप्ताक्षर डार्लिंग के विपरित भाव का अर्थात डफर का रूपक हो जाता है। ‘रेत समाधि’ अर्थात डोम ऑफ सैंड में भाषा और भाषाई रूपकों का यह खिलंदड़ापन बहुत रोचक बन पड़ा है। उपन्यास में माँ की एक बेटी भी है। बेटी बोहेमियन किस्म की कलावंत है, जो परिवार की परंपरा के लिए चुनौती है। इन सबके अतिरिक्त एक और पात्र रोजी बुआ है, जिसका लिंग अपरिभाषित है। रोजी बुआ माँ को जिंदगी और पागलपन से जोड़ती/जोड़ता है। गीतांजलि श्री इन सारे पात्रों को समाज से उठाकर उन्हें भाषा और भाव के वैभव से जोड़कर उनमें जादू डालकर दीप्तिमान कर दिया है। इतना ही नहीं, इन पात्रों के संघर्ष और सोच के द्वारा जाति और वर्ग के बीच की खाई का भी बेदाग चित्रण हुआ है।
माँ अपने जीवन के उतार-चढ़ाव और रंगों से उल्लास पाठक को आकर्षित करता है। माँ के किरदार पर अरुंधति रॉय की ‘द गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स’ (1997), मार्केज़ की ‘हंड्रेड इयर्स ऑफ़ सॉलिट्यूड’ (1967) और कृष्णा सोबती की ‘ऐ लड़की’ (1991) का स्पर्श है। माँ खिलंदड़ किरदार है। वह हंसाती और रुलाती है। वह जिस तीव्रता से प्यार करती है उसी तीव्रता से नफ़रत भी कर सकती है। वह दीवार भी है और दरवाजा भी है। निश्चित ही माँ का किरदार उस किरदार की तरह है, जिसे आने वाली पीढ़ियां मुहब्बत करेंगी और आवाज़ देंगी। उसकी मौत पर कुर्बान होंगी। माँ की मौत ‘टोबा टेक सिंह’ की मौत की याद दिलाती है।
माँ अपनी उपस्थिति और कारनामों से कथा को गति देती है। वह पाकिस्तान जाने का फैसला लेकर पाठक को हतप्रभ कर देती है। माँ का यह निर्णय ठहरे पानी में उठने वाले सैलाब की तरह है। ऐसा करके श्री ने मुहब्बत के तलबगार लोगों की इच्छाओं के सीमा का विस्तार किया है और भौगोलिक सीमाओं की अयोग्यता और निरर्थकता को उजागर किया है। वह लिखती हैं, “सीमा एक क्षितिज है। जहां दो दुनिया मिलती है। उसे गले लगाओ। सरहद एक प्यार है…”
श्री अवर्णनीय वर्णन करने में सक्षम कथाकार हैं और ‘रेत समाधि’ अर्थात टॉम्ब ऑफ सैंड उनकी इस पहचान को मुकम्मल करने वाली साबित होती है। हालांकि इसके पहले वह ‘माई’ (1993) और ‘हमारा शहर उस बरस’ (1998) में कल्पनात्मक सौंदर्य को दर्शा चुकी हैं। उनकी यह कथा विशेषता है कि उनके यहां दीवारें, दरवाजे, गुलदाउदी, बेंत और यहां तक कि धूल के कण भी बोलते-बतियाते, उल्लास और दुख जताते जान पड़ते हैं। श्री कहानी को आगे बढ़ाने के लिए अतियथार्थवादी कथा दृष्टि का भी इस्तेमाल करती हैं। बतौर उदाहरण कथा चरित्र अनवर को ले सकते हैं। अनवर नाम का यह आदमी रेत समाधि के पृष्ठ संख्या 225 पर दिखाई देता है, और फिर गायब हो जाता है। कई पृष्ठों के बाद एक बार फिर पृष्ठ संख्या 584 पर प्रकट होता है। पाठक उसकी हरकतों को समझना चाहता है, मगर अनवर अपरिभाषित और अव्यक्त ही रहता है। अनवर कथा का मूक आकर्षण है।
इस तरह जादुई यथार्थ के क्षणों के उपयोग से ‘रेत समाधि’ का कलेवर जादुई हो गया है। इस कथा को तमाम उपलब्धियों के साथ-साथ शैलीगत प्रयोग और उसके बेहतरीन अनुवाद के लिए भी याद किया जाएगा। हम जानते हैं कि सुंदर भाषा किसी जादू से कम नहीं। ऐसी भाषा लोगों को अपना गुलाम बना लेती है। भाषा का यह वैभव अनुवाद के लिए भी जरूरी है। अनुवाद मूल रचना के भावांतरण के साथ-साथ उसे मुक्त भी करता है। डेज़ी रॉकवेल द्वारा ‘रेत समाधि’ का यह अनुवाद वैश्विक दर्शकों के लिए किसी मुक्ति से कम नहीं। एक अच्छा अनुवाद एक क्रांति की तरह होता है। अच्छा अनुवाद भाषा, संस्कृति और पहचान की नई धारणा का सर्जन करता है और एक नई स्वतंत्रता का आविष्कार करता है। न्गुगी वा थिओंगो ने ड्रीम्स इन ए टाइम ऑफ वॉर (2010) में कहा था – “लिखित शब्द भी गा सकते हैं”। ‘रेत समाधि’ और उसके अनुवाद टोंब ऑफ सैंड पर न्गुगी वा थिओंगो का कथन सही साबित होता है।
उपन्यास कला (आर्ट ऑफ़ द नॉवेल-1986) में मिलन कुंदेरा ने कहा है, ” हर प्रश्न के जवाब देने की प्रवृत्ति से लोगों में मूर्खता के कौशल विकास होता है। उपन्यास की उपलब्धि तो यह है कि वह हर जवाब को फिर से प्रश्नांकित कर दे। ‘रेत समाधि’ में आज की टूटी-फूटी दुनिया में जो कुछ भी है उसे देखा गया और उन्हें सवालों से घेरा गया है। उपन्यास ने बड़ी खामोशी से – नफरत, निराशा और मिथकीय पहचान को सवालों से रंग दिया है। यह रचना बहुत प्रभावी रूप से साबित करती है कि घोर अविश्वास के युग में, कुछ लोग ऐसे हैं, जो अभी भी मुहब्बत करते हैं और उस पर यकीन भी करते हैं।