कवि शमशेर बहादुर सिंह के 114 वें जन्मदिन पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के शामली जिले में स्थित एलम में नौजवान भारत सभा, जन संस्कृति मंच और चल चित्र अभियान ने मिलकर कड़कती ठण्ड में शानदार सांस्कृतिक आयोजन किया। एलम जिसे स्थानीय लोग ऐल्लम के नाम से पुकारते हैं, शमशेर जी का गाँव भी है। इसलिए इस आयोजन का महत्त्व और भी बढ़ जाता है। इस महत्त्व को रेखांकित करते हुए आयोजन के पहले प्रोग्राम को ‘अमन का राग’ नाम से संयोजित किया गया।
गोष्ठी में इलाहाबाद वि वि हिंदी विभाग के अध्यक्ष वरिष्ठ आलोचक प्रणय कृष्ण ने कहा कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पूरी दुनिया में उस युद्ध के विरुद्ध अमन और शांति के लिए आंदोलन चल रहा था। दुनिया भर की अमन पसंद अवाम इसके लिए प्रयास कर रही थी। अमन का राग उसी जन आकांक्षा को स्वर देती है। उन्होंने कहा कि आज भी दुनिया में दो बड़े युद्ध रूस और युक्रेन, इसरायल और फिलिस्तीन के बीच चल रहे हैं। यह कविता उस पूरे वैश्विक फलक को सामने रखती है। वाह्य के साथ साथ यह कविता आंतरिक यानी अपने देश में अन्याय, गैरबराबरी और शोषण के खिलाफ भी अपने समय की सबसे सशक्त कविता है।
उन्होंने कहा कि शमशेर बहादुर सिंह अपनी कविता और व्यक्तित्व में जितने कोमल और नाज़ुक हैं उतने ही सख्त जान भी हैं। यह मजबूती और ताकत उन्हे इस अंचल की शौर्य गाथाओं और किसानों के जीवन संघर्ष से मिलती है। इस संदर्भ में उन्होंने शमशेर की बैल कविता का ज़िक्र किया। यह कविता किसानो के अदम्य जिजीविषा को प्रतिबिंबित करती है। यह जिजीविषा वर्तमान दौर में किसान आंदोलन मे दिखती है।
नौजवान भारत सभा के अमरपाल ने कहा कि शमशेर सौंदर्य से लेकर समाजवाद तक के कवि हैं। उन्होंने शमशेर की ग़ज़लों के जरिये युवा वर्तमान दौर में सांप्रदायिक विभाजन, किसानो के शोषण, युवाओं की हताशा और बेरोजगारी के खिलाफ शमशेर की कविता का जनवादी पाठ प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि अपने दौर में देश के साधारण जन, किसानों और मेहनतकश की जो छवि शमशेर ने बनाई आज भी वह पूरी तरह प्रासंगिक है। किसान पत्रिका के संपादक प्रवीण कुमार ने शमशेर की कविता ‘काल तुझसे होड़ है मेरी’ का ज़िक्र करते हुए कहा कि यह कविता मृत्यु से अपराजित रहने की चेतना से लैस है। यह जनता की ताकत और उसकी अपराजित जीवन शक्ति को रूपायित करती है। उन्होंने कहा कि मुक्तिबोध की मृत्यु पर शमशेर जी ने अपने लेख मे जिस तरह मुक्तिबोध को याद किया है वह अपनी भाषा का एक बड़ा कवि दूसरे बड़े कवि को कैसे याद करता है, यह उसका सबसे आत्मीय उदाहरण है।
बुलंदशहर से आईं लेखिका पायल भरद्वाज ने शमशेर जी को आधुनिक कविता की परंपरा में विभिन्न आलोचकों की निगाह से देखा। और शमशेर और उनके दौर की प्रगतीशील कविता के परिदृश्य पर अपनी बात रखी।
गोष्ठी के अध्यक्षीय भाषण में समकालीन जनमत के प्रधान संपादक और ‘ मुक्तिबोध :स्वदेश की खोज’ के लेखक रामजी राय ने ठीक ही कहा कि ‘यह बहुत ख़ास है कि 2011 में शमशेर की सौ वीं जयंती पर उनके गाँव में कोई आयोजन नहीं हुआ लेकिन आखिरकार संस्कृतिकर्मी 2024 में उनके गाँव आये और अब यह सिलसिला हर साल होना चाहिए। ‘ कहा कि लोग शमशेर को सौंदर्य का कवि कहते हैं लेकिन उनका सौंदर्य बोध किसान जीवन का सौंदर्य बोध है। चित्रकला ने उन्हें भाषा में नये अनुभवों को अभिव्यक्त करने का सामर्थ्य भी दिया और कुछ हद तक सीमा भी बनी। उन्होंने आधुनिक तमाम माध्यमों से शब्द की शक्ति का संधान किया।
पुराने ढब के ऊँची छतों और पीले रंग वाले एलम इंटर कालेज को कैंपस की शुरुआत से लेकर हॉल के मंच तक शमशेर की काव्य पंक्तियों से सजाया गया था जिसमें गार्गी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित किये गए शमशेर के पोस्टर बेहद आकर्षक थे और शमशेर जिस सुरुचि की बात करते थे उस सुरुचि से सम्पन्न थे।
कड़ाके की ठंड के बावजूद प्रोग्राम की शुरुआत सिर्फ आधे घंटे की देरी से हुई। शमशेर कला मंच और नौजवान भारत सभा की गाने की टोलियों के गायन के बाद शमशेर के काव्य और जीवन को जानने के लिहाज से पायल भारद्वाज, प्रवीण कुमार, प्रणय कृष्ण और अमरपाल ने बहुत तैयारी के साथ अपने भाषण दिए जिसका बहुत आत्मीय सञ्चालन प्रोग्राम के प्रमुख कार्यकर्त्ता और नौजवान भारत सभा के नेता परमिंदर जी ने किया। बातें दूसरी गोष्ठियों की तरह इधर उधर की नहीं बल्कि सटीक थीं और सभी वक्ताओं ने बेहद तैयारी के साथ अपनी बात रखी जिस वजह से 200 की उपस्थिति वाला हॉल पूरे समय बना रहा।
कड़ाके की ठंड में शमशेरियत की निरंतरता बेहद आत्मीय तरह से खिलाये गए लंच ने पूरी की। उत्तर भारत के गाँवों के भोज की लोकप्रिय थाली यानी कद्दू की खट्टी मीठी सब्जी , आलू मटर की तीखी रसे की सब्जी और कड़ाही से निकलती हुई गरम पूड़ियाँ। हाँ , घी को निपटाने के लिए स्टील के बड़े गिलास में खुले हाथों से बंट रहा बूंदी वाला छाछ भी था। जाहिर है मीठे के रूप में इलाके के ताजे गुड़ की डली को ही जगह मिलनी थी।
लंच के बाद का सेशन कवियों के लिए था जिसमें राजेश चौधरी, अनुपम सिंह, रवि प्रकाश, विपिन चौधरी, आर चेतन क्रांति, चंद्रभूषण पंकज श्रीवास्तव, सुशीलनाथ कुमार शामिल थे। कवि सम्मेलन का संचालन मृत्युंजय ने किया। एलम गाँव के लोक कवि वीरेंद्र मास्टर साहब ने रागिनी गाया जिसपर लोगों ने जम कर तालियां बजाईं।
आयोजन की एक ख़ास बात गार्गी प्रकाशन और नवारुण द्वारा लगाए बुक स्टाल थे जिनकी वजह से हॉल में जाने का रास्ता किताबों के कॉरिडोर जैसा बन गया था। सुबह से लेकर आयोजन ख़त्म होने या स्टालों के संचालकों द्वारा अपने पैकेट बाँधते समय तक लोग किताबें पलटते रहे और काफ़ी युवाओं ने खरीददारी भी की।
अँधेरा होते -होते हॉल को चल चित्र अभियान के साथियों ने सिनेमा हॉल में बदल दिया। नकुल सिंह साहनी की किसान आंदोलन पर बनने वाली दस्तावेजी फिल्म का 20 मिनट का ट्रेलर और लघु फिल्म ‘पंडित उस्मान’ के प्रदर्शन से ‘शमशेर स्मृति आयोजन’ की समाप्ति हुई।
ये शायद शमशेर के काव्य की ताकत थी कि सुबह छाया घना कोहरा दुपहर तक तीखी धूप में बदल चुका जिसकी सुन्दर तस्दीक हॉल के मंच पर ऊँची छत के रौशनदानों से आ रही रौशनी की बीम से हो रही थी।
दिल्ली और बाहर से आये सारे मेहमान न सिर्फ कविता की वापसी से खुश थे बल्कि सबको भेंट में मिली 2 किलो गुड़ की पोटली इस वापिसी को मीठा भी बना रही थी।