प्रकाश कान्त
उनसे पहली बार मिलना क़रीब पेैंतालीस साल पहले हुआ था। वे उन दिनों शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय गुना में थे। मैं अपनी एक नौकरी के सिलसिले में वहाँं गया हुआ था। बारिश के दिन थे। जेब में उनके नाम लिखी स्व. कवि नईम जी की चिट्ठी थी। नईम जी मेरे अभिभावक ओैर शिक्षक दोनों रहे थे। मैं अपनी महाविद्यालयीन शिक्षा में उनसे विधिवत पाँच साल तो पढ़ा ही इसके अलावा बाद के तमाम साल भीे सीखता-पढ़ता रहा।
बहरहाल, उन्हीं की कान्ति कुमार जी के नाम लिखी चिट्ठी थी। जब मैंने उन्हें बताया कि गुना जा रहा हूँ तो बोले ‘गुना जा ही रहे हो तो कान्तिकुमार जी से मिलते आना और चिट्ठी दिये आना! वे तुम्हारे रहने-खाने का इन्तजाम करवा देंगे!’ मिलना मैं भी चाहता था। ख़ासकर यह मालूम हो जाने के बाद कि कान्तिकुमार जी गुना ही हैं! इसके पहले उन्हें थोड़ा-बहुत पढ़ रखा था। मिलने की उत्सुकता तो थी ही लेकिन कच्ची-पक्की उम्र की थोड़ी-सी झिझक भी थी। नईम जी की चिट्ठी ने बतोैर बहाना मेरा काम आसान कर दिया। ‘सर, देवास से आया हॅूँ। एक नयी नौकरी ज्वाॅईन की है। नईम जी ने आपके नाम यह चिट्ठी दी हेै।’ मैंने पाँव छूने के बाद चिट्ठी देते हुए कहा।
‘अच्छा-अच्छा, देवास से आये हो, बैठो!’ मैं अपनी भीतर की असहजता को समेटे हुए बैठ गया। अपने बैठने के लिए जितनी कम से कम जगह ले सकता था उतनी कम में! वे चिट्ठी पढ़ रहे थे। मैं उन्हे देख रहा था। थोड़ा-सा इकहरा लम्बा क़द। तीखे नाक-नक़्श। गोरा रंग। पीछे को कढ़े बाल। चिट्ठी पढ़ते वक़्त उनके चेहरे पर हल्की-हल्की मुस्कुराहट तैरती रही थी। ज़ाहिर हैे वह नईम जी के लिखने के अन्दाज़ की वज़ह से रही होगी।जिसके लिए नईम जीे अमूमन जाने जाते थे।
‘तो आप नईम भाई के विद्याार्थी रहे हैं। बढ़िया!’ उसके बाद चाय वग़ैरह आने तक वे सामान्य पूछताछ करते रहे। घर-परिवार, नौकरी-धन्धे, औेर लिखने-पढने के बारे में! जहाँ तक लिखने-पढ़ने का सवाल था, मेरे पास बताने को कुछ ख़ास था नहीं! तब तक ढंग की दो लाईनें भी लिखना नहीं सीख पाया था। सो क्या बताता! बाक़़ी चीज़ें बता दीं। वे पूरी आत्मीयता और गम्भीरता से सुनते रहे। फिर बोले,‘जब तक कहीं ठीक से रहने वगै़ेरह की व्यवस्था नहीं हो जाती तब तक आप यहीं रहें। यहीं से ऑफ़िस जायें-आयें!’
‘मेरे कुछ और साथी भी हैं। उन्हीं के साथ ठहरा हुआ हूँ। अगर कोई दिक़्क़त हुई तो बता दूँगा!’
‘चलो ठीक है। बता ज़रूर देना परेशान मत होते रहना।’ उन्होंने कुछ देर सोचने के बाद कहा।
‘जी!’ मेैंने कहा। और चलते वक़्त एक बार फिर उनके पैेर छुए। वे मुस्कुराये। सिर थपथपाया। ‘आते रहना!’ एक छोटा-सा लेकिन बहुत आत्मीय वाक्य। मैं आ गया। यह मेरी उनसे पहली भेंट थी। उसके बाद भोपाल वग़ैरह के कार्यक्रमोें में छुट-पुट दूर-पास से मिलना-देखना होता रहा।
वे नईम जी से थोड़े-से बड़े थे। और एक तरह से सागर विश्वविद्यालय के गोत्र से जुडे़ हुए थे जिनसे रजनीश के अलावा अशोक वाजपेयी, डॅा. धनंजय वर्मा, डाॅ. विजय बहादुर सिंह, कमलाप्रसाद, आग्नेय जैसे हिन्दी के आज के कई बड़े नाम जुड़े हैं। इनमें से कुछ तो एक-दूसरे एक-दो साल ही आगे पीछे रहे। कान्ति कुमार जी का सागर से काफ़ी गहरा रिश्ता रहा। नब्बे के दशक के शुरू के सालों तक वे वहाँ काम करते रहे। उन्होंने अपने कई संस्मरणों में सागर को ख़ूब डूबकर याद किया है।
नईम जी से उनके बारे में काफ़ी सुना था। नईम जी के पास भी उन दिनों के सागर विश्वविद्यालय के बारे में बताने को बहुत कुछ था। अनौपचारिक चर्चाओं में वे बताते रहते थे। जिन दिनों कान्तिकुमार जी हंस में अपने चर्चित संस्मरण लिख रहे थे तब संस्मरण के कई सन्दर्भ मैं उनकी बातों से ही समझ पाया। ख़ास बात यह थी कि कान्तिकुमार जी अगर सागर ज़िले के गाँव देवरी कलाँ से थे तो नईम जी दमोह ज़िले के मगरादो के! उनके बीच ख़तो-किताबत बरसों बनी रही।
कान्तिकुमार जी अपनी पुस्तकें भी उन्हें भेजते रहे। नईम जी उनका काफ़ी सम्मान करते थे। सिर्फ़ वरिष्ठ जैसा कुछ होने के नाते ही नहीं बल्कि उनके काम और व्यक्तित्व के कारण! जहाँ तक काम का सवाल है, कबीरदास, भारतेन्दु पूर्व गद्य, छायावाद की मैदानी और पहाड़ी शैलियाँ, महागुरु मुक्तिबोध: जुम्मा टैंक की सीढ़ियों पर जैसी दसियों पुस्तकों का लेखन, पुस्तकों-पत्रिकाओं का सम्पादन और मौलिक महत्त्व का मैदानी शोध कार्य किसी भी लिहाज़ से कम नहीं होता। उनके मौलिक लेखन के अलावा उनके शोध कार्य ऐतिहासिक महत्त्व के रहे हैं। वे मुक्तिबोध सर्जनपीठ, माखनलाल चतुर्वेदी सर्जन पीठ पर तो रहे ही, साथ ही बुन्देली शोधपीठ के अध्यक्ष भी रहे। हालाँकि, पीठ या पदों पर रहना उनके क़द को बड़ा नहीं बनाता। असल चीज़ थी उनके किये गये काम! जो उन्होंने ऐतिहासिक महत्त्व के किये। ख़ासकर छत्तीसगढ़ी को लेकर! हमारे यहाँ हिन्दी को लेकर तो काफ़ी चर्चा-चिन्ता होती रहती है लेकिन बोलियों वगै़रह को लेकर आम तौर नहीं होती। जब कि बोलियाँ भी कई तरह के संकटों से गुजर रही ही हैं।
कान्तिकुमार जी का इस मामले में छत्तीसगढ़ की जनपदीय शब्दावली पर किया काम और ’छत्तीसगढ़ी बोली, व्याकरण और कोश’ भाषाशास्त्र के हिसाब से उनका बड़ा योगदान है। यूँ उन्होंने इक्कीसवीं शताब्दी की हिन्दी पर भी लिखा है। और भारतेन्दु पूर्व के हिन्दी गद्य पर भी! लोक संस्कृति और लोक भाषा उनकी चिन्ताओं के विशेष केन्द्र में रहीं।ख़ास कर बुन्देली संस्कृति! ‘ईसरी’ का सम्पादन इसका प्रमाण हो सकता है।
ख़ैेर, मीर, परसाई को लेकर उनका किया काम तो अपनी जगह है ही! उनके लेखन में एक ख़ास तरह की साफ़गोई और वैचारिक स्पष्टता रही है। किसी तरह का घालमेल या रहस्यवादी घुंधलका वहाँ आम तौर पर देखने को नहीं मिलता। उनके संस्मरण और आत्मपरक लेखन में भी इसे देखा जा सकता है।
जहाँ तक उनके संस्मरणों की बात है एक तरह से देखा जाये तो उन संस्मरणों की ख्याति ने एक तरह से उनके बाक़ी पूरे काम को ढाँक लिया। कभी कभी ऐसी दुर्घटनाएँ हो जाया करती हैं। दुष्यन्त कुमार ने जब ग़ज़लें लिखीं तो वे इतनी चर्चित और प्रसिद्ध हुईं कि लोग उनके गद्य-पद्य में किये गये बाक़ी सारे काम को भूल गये। ख़ैर। कान्तिकुमार जी के संस्मरणों का जहाँ तक प्रश्न है उनकी थोड़ी-सी सख़्त किस्म की एक आलोचना यह भी रही कि उन संस्मरणों ने उन्हें चर्चा में ला दिया।
क़िस्सा मुख़्तर, इन संस्मरणों ने क़रीब तीन दशक पहले के हिन्दी संसार में काफ़ी हलचल मचायी थी। सबसे ख़ास बात यह कि अधिकांश संस्मरण रजनीश, शिवमंगल सिंह सुमन इत्यादि जैसे शीर्षस्थ व्यक्तित्वों के बारे में थे। और अपनी कहन में काफ़ी खुले और बाजवक़्त विध्वंसक जैसे भी थे। तथ्यों को लेकर भी कहीं-कहीं सवाल खड़े किये गये थे।
बहरहाल, अब वे नहीं हैं। अपने लेखन में एक पूरे क़द का आदमी! और वे इसी तरह से देखे जाते रहेंगे।
(वरिष्ठ कथाकार प्रकाश कांत का जन्म 26 मई, 1948 को सेंधवा( पश्चिम निमाड़) में हुआ. शिक्षा एम. ए. हिंदी, रांगेय राघव के उपन्यासों पर पीएचडी। कृतियाँ: ‘शहर की आख़िरी चिड़िया’, ‘टोकनी भर दुनिया’, और ‘अपने हिस्से का आकाश’, कहानी-संग्रह: ‘अब और नहीं’, ‘मक़्तल’, ‘अधूरे सूर्यों का सत्य’, और ‘ये दाग़ दाग़ उजाला’, उपन्यासों के अलावा ‘एक शहर देवास’, कवी नईम और मैं’, संस्मरण और कार्ल मार्क्स के जीवन और विचारों पर एक पुस्तक। महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में स्व सौ से अधिक कहानियाँ प्रकाशित। बत्तीस वर्षों तक ग्रामीण क्षेत्रों में अध्यापन के बाद फ़िलहाल स्वतंत्र लेखन।
सम्पर्क: 155, एल. आई. जी., मुखर्जी नगर, देवास, मध्यप्रदेश )