कमलानंद झा
“मुझे इस बात का जरा भी आभास नहीं है कि इस साल मुझे यह सम्मान दिया जा रहा है। यह सम्मान टीम के काम से मिला है और इसके लिए मैं अपने सहयोगियों का आभारी हूं। ” विज्ञान की खोज या आविष्कार व्यक्तिगत कम, सामूहिक अधिक होते हैं। किसी एक ही चीज की खोज कुछ पीढ़ियों से और समानांतर भी चलती रहती है। इसलिए सफलता मिलने के बाद उस खोज में लगे सभी वैज्ञानिकों का योगदान रेखांकन योग्य होता है। इस वक्तव्य हम उनके इस व्यापक वैज्ञानिक-दृष्टि को हम देख सकते हैं।
रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) में लंबे समय तक काम करते हुए उनकी कई उपलब्धियां गिनाई जा सकती हैं। यह उनका दायित्वबोध भी था, जिसे उन्होंने पूरी जिम्मेदारी और नवोन्मेष के साथ निभाया और यश प्राप्त किया। लेकिन उन्होंने सेवा निवृत्ति के बाद जो दूसरी शानदार पारी खेली, वह प्रेरणादायी है। जिस प्रकार से उन्होंने पूरी ताकत से अपने आपको मिथिला के बच्चों में वैज्ञानिक चेतना को विकसित करने और वैज्ञानिक समाज बनाने के लिए झोंक दिया, उनके व्यक्तित्व का यह दुर्लभ आयाम सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।
सेवानिवृत्ति के बाद, अपने आलीशान और भव्यतम ज़िंदगी की छोड़-छाड़कर वे मिथिला के बच्चों को विज्ञान और वैज्ञानिक दृष्टि से समृद्ध करने के लिए पैतृक गांव लौट आए। फिर शुरू हुई उनकी दूभर और कांटों भरी जिंदगी। जिस उम्र में आकर लोग शिथिल हो जाते हैं और टिपिकल धार्मिक पोथियों में रम जाते हैं, उससे भी अधिक धार्मिक-शुभासित वचन बोलने लगते हैं, डॉ वर्मा ने गांवों का तूफानी दौर किया, लोगों के साथ बैठकें कीं, उनसे अपनी परिल्पना साझा कीं और कार्यक्रम का ब्लू प्रिंट तैयार किया। किसी ने इसे हास्य में लिया तो किसी ने गंभीरता से। कुछ ने साथ छोड़ दिया तो कुछ ने अंत तक साथ दिया। मिथिला में विज्ञान और वैज्ञानिक चेतना के प्रसार लिए जो कुछ भी किया जा सकता था, उन्होंने किया। कभी सरकार की मदद से तो कभी व्यक्तिगत और निजी संस्थाओं की सहायता से।
वैज्ञानिक यशपाल की तरह डॉ मानस बिहारी वर्मा की चाहत आमजन में विज्ञान को लोकप्रिय बनाना था। मानस बिहारी वर्मा का जाना सिर्फ एक वैज्ञानिक का जाना नहीं है, बल्कि एक ऐसे व्यक्तित्व का जाना है जो निरन्तर समाजोन्मुख विज्ञान और विज्ञानोन्मुख समाज बनाने के भागीरथी प्रयास में लगा था।
वे बराबर इस बात को रेखांकित करते कि देश में सभी अपने बच्चों को विज्ञान पढ़ाना चाहते तो हैं किंतु वैज्ञानिक दृष्टि नहीं देना चाहते। बच्चों के आगे समाज ही नहीं बल्कि शिक्षा की पूरी संरचना ही विज्ञान विरोधी है। उनके लिए विज्ञान शिक्षा का मतलब सभी तरह की संकीर्णताओं, मनुष्य विरोधी रूढ़ियों, अंधविश्वासों और क्षुद्रताओं को एक सिरे से अस्वीकार करना था। देश विशेषकर मिथिला की विडंबना यह है कि ‘सत्यनारायण कथा’ में आस्था ही नहीं बल्कि पूरा विश्वास रखने वाले अधिकांश विज्ञान शिक्षकों के रहमो करम पर विज्ञान-शिक्षा टिकी हुई है। विज्ञान शिक्षा ही नहीं बल्कि शिक्षा का मतलब ही प्रदत्त संकीर्णताओं के बरक्स अर्जित नवीन जीवन दृष्टि का स्वीकार है। इसके लिए कई बार समाज और परिवार से ही नहीं बल्कि खुद से लड़ना पड़ता है, जूझना पड़ता है। ऐसे माहौल में डॉ वर्मा की दुश्वारियों का अनुमान लगाया जा सकता है।
मानस बिहारी वर्मा मिथिलांचल में स्त्री शिक्षा के प्रति बहुत चिंतित रहते। वर्षों पहले उन्होंने दरभंगा में वीमेंस इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी की स्थापना और उसके विकास लिए काफी प्रयास किया। तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम उक्त संस्थान के उद्घाटन के लिए दरभंगा आए हुए थे। अपने व्याख्यान में मानस बिहारी वर्मा ने महामहिम को शुक्रिया अदा करते हुए पारंपरिक मिथिला में स्त्री शिक्षा की आवश्यकता और अनिवार्यता पर जोर देते हुए कहा यह संपूर्ण देश में ऐसे अनोखे संस्थान के रूप में जाना जाएगा जो लड़कियों को विज्ञान के क्षेत्र में खुला आकाश मुहैय्या कराएगा।
यद्यपि उन्होंने जिस गुणवत्तापूर्ण संस्थान की परिकल्पना की थी वह तो संभव नहीं हो पाया लेकिन मिथिला में लड़कियों के लिए यह इंजिनयरिंग कॉलेज बहुत मायने रखता है। जब विज्ञान और शोध में गहरी रुचि रखने वाले प्रो. मोहम्मद नेहाल WIT के निदेशक हुए तो वे एक सर्जनात्मज अकादमिक व्यक्ति की नियुक्ति से बेहद खुश हुए थे।
डॉ वर्मा की परियोजना, मोबाइल साइंस लैब (MSL), जो 2010 में शुरू की गई थी, राज्य में विज्ञान शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए एक लंबा रास्ता तय कर चुकी है। परियोजना के तहत सूबे के गरीब और दलित बच्चों के लिए भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान और जीवन विज्ञान प्रयोगशालाओं से सुसज्जित तीन वैन विशेष रूप से पटना, दरभंगा और मधुबनी के ग्रामीण क्षेत्रों में स्कूलों के चक्कर लगाती हैं। उनका एनजीओ, विकास भारत फाउंडेशन, बैंगलोर स्थित एक एनजीओ अगस्त्य इंटरनेशनल फाउंडेशन के समर्थन से एमएसएल कार्यक्रम चलाता है।
मिथिला समाज में जाति-भेद, वर्ण के प्रति श्रेष्ठता-बोध, स्त्री-शिक्षा के प्रति उदासीनता एवं धार्मिक संकीर्णता और असहिष्णुता को लेकर उनकी चिंता बहुत गहरी थी। उन्होंने अपने कई औपचारिक और अनौपचारिक उद्बोधन में अत्यंत दुःख के साथ इसे व्यक्त किया था। उनका पक्का विश्वास था कि मिथिला का वास्तविक विकास इन संकीर्णताओं से मुक्ति के बाद ही संभव है।
वे लगातार स्कूली बच्चों, शिक्षकों और अभिभावकों से संवाद करते। अपने इस संवाद में वे बराबर जोर डालते कि ” अभिभावक एवं शिक्षक बच्चों पर अपनी इच्छा न थोपें। बच्चों में अलग-अलग प्रतिभा होती है। बच्चों को रूचिकर क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए वे प्रेरित करें।” प्रत्येक बच्चों में छिपी हुई यूनिक प्रतिभा को तलाशना वे एक अच्छे शिक्षक का सर्वोत्तम गुण मानते थे।
दरभंगा जिला के घनश्यामपुर थाना क्षेत्र अंतर्गत बाउर गांव में 29 जुलाई 1943 को पैदा हुए डॉ मानस बिहारी वर्मा की स्कूली शिक्षा मधेपुर के जवाहर हाई स्कुल से पूरी हुई थी। इसके बाद राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान पटना और कलकत्ता विश्वविद्यालय से उन्होंने अपना अध्यन पूरा किया था। 35 वर्षों तक रक्षा अनुसंधान विकास संगठन (DRDO) में बतौर वैज्ञानिक उन्होंने अपनी सेवा दी। उन्होंने बैंगलोर, नई दिल्ली और कोरापुट में स्थापित विभिन्न वैमानिकी विभागों में भी काम किया। बाद में, उन्हें तेजस विमान यांत्रिक प्रणाली के डिजाइन का दायित्व सौंपा गया था। वे वैमानिक विकास अभिकरण में लाइट कॉम्बैट एयरक्राफ्ट (LCA) की डिजाइन टीम का हिस्सा बने। डॉ वर्मा ने तेजस विमान के 700 इंजीनियर टीम का बतौर निर्देशक नेतृत्व किया। उन्हें पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा ‘साइंटिस्ट ऑफ द ईयर’ पुरस्कार और पूर्व पीएम मनमोहन सिंह द्वारा ‘प्रौद्योगिकी नेतृत्व पुरस्कार’ भी प्रदान गया था। 2005 में एयरोनॉटिकल डेवलपमेंट एजेंसी के निदेशक के रूप में भी भी उन्होंने अपनी सेवा दी थी । सेवा से मुक्त होने के बाद बिहार के बच्चों में विज्ञान के प्रसार जैसे गंभीर कार्य की सुधि बिहार सरकार ने भी ली और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी उन्हें सम्मानित किया। ऐसे ही लोगों की अधिकता से दुनिया खूबसूरत बनती है , साथ ही उम्मीद और उजास से भर जाती है। इसके विपरीत जब किसी समाज से ऐसे लोग कम होने लगते हैं तो वहां रहना दूभर हो जाता है। मिथिला और बिहार ही नहीं बल्कि पूरे देश को आप पर गर्व है।