समकालीन जनमत
स्मृति

कॉमरेड रमेश सरीन को ख़िराज़-ए-अक़ीदत

अर्जुमंद आरा


कॉमरेड रमेश सरीन का जीवन एक लंबा संघर्ष था। दो-तीन साल के थे जब किसी बीमारी में उनकी आँखें चली गईं। लेकिन बड़े होते-होते इस महरूमी से वे टूटे-बिखरे नहीं। ज़िंदगी के चैलेंजों को मात देने और वक़ार के साथ जीने की एक शदीद लगन उनमें पैदा हो गई और इन्साफ़ के लिए लड़ने को इन्होंने अपना मक़सद बना लिया। जीवन की उनकी परिकल्पना का स्रोत साम्यवाद और यथार्थवाद था। वे किसी ज़मींदार घराने में जन्मे संवेदनशील और जागरूक नौनिहाल नहीं थे जो समाज को बदलने के लिए ख़ुद को क़ुर्बान करने का रूमानी तसव्वुर रखते हों। उन्हें गुज़ारे के लिए रोज़ी भी कमानी थी और समाज के वंचित वर्गों, विशेषत: दृष्टिहीन लोगों के अधिकारों के लिए काम करना था और क़ानून को बेहतर बनवाने के लिए संघर्ष भी करना था.

कॉमरेड रमेश सरीन को मैं ने जब पहली बार देखा तो वो किसी कान्फ़्रैंस के सत्रों का विवरण लिख रहे थे। यह शायद 1998-99 की बात रही होगी। कान्फ़्रैंस रूम के एक कोने में टाइप-राइटर लिए एकाग्र बैठे थे और उनकी उंगलियां तेज़ी से काम कर रही थीं। पहली बार देखने वाला उनकी महारत से प्रभावित हुए बग़ैर नहीं रह सकता था। बाद में तआरुफ़ हुआ कि कॉमरेड सरीन जे.एन.यू. में उन्नीस सौ 80-81 में पोलिटिकल साइंस के शोधार्थी थे। कान्फ़्रैंसों का विवरण लिखना उनका शौक़ नहीं, रोज़ी का एक ज़रीया था। मुझे याद है कि मैं कन्फ्यूज़न का शिकार हो गई थी कि इस तरह के काम को रोज़ी बनाने वाले को नाबीना क्यूँ-कर समझूं। हो सकता है बीनाई कम हो। उनमें जो आत्म-विश्वास और लहजे में जो क़तईयत थी वह उनकी महरूमी पर पर्दा डालती थी.

दूसरी बार उनसे मुलाक़ात ग़ालिबन 2010 के आस-पास हुई जब वो दिल्ली यूनीवर्सिटी के सत्यवती कॉलेज में अध्यापक हुए। तब ग़ालिबन पचपन-छप्पन साल की उम्र रही होगी। इंडियन एयर लाईन्ज़ की किसी मामूली मुलाज़मत से रिटायर होने के बाद उन्हें अध्यापन का ये मौक़ा मिला था जिसके वो बजा तौर पर बहुत पहले से हक़दार थे। कॉमरेड अली जावेद ने उनकी इस कामयाबी की इत्तिला निहायत ख़ुश होते हुए दी थी, और उन्हें डिपार्टमेंट लेकर आए थे। इसके बाद उनसे मुलाक़ातें होती रहीं क्योंकि कॉमरेड सरीन कम्युनिस्ट पार्टी की टीचर्स ब्रांच की बैठकों में पाबंदी से आते थे। यहां उन्हें ज़्यादा क़रीब से जानने का मौक़ा मिला.

पी एचडी में उन्होंने हिन्दोस्तान और अफ़्रीक़ी देशों के दृशी-बाधित समुदाय के हालात, समस्याएँ और सरकारी सहूलतें और क़ानूनी सुरक्षा वग़ैरा का तुलनात्मक अध्ययन किया था और अपने शोध के सिलसिले में अफ़्रीक़ा के कई मुल्कों का सफ़र किया था। इस तहक़ीक़ ने उन्हें हिन्दोस्तान में दृष्टि-बाधित अफ़राद की महरूमियों और मसाइल का माहिर रिसर्चर बना दिया और बाद में अपनी ज़िंदगी का एक हिस्सा उन्होंने नाबीना लोगों को हुक़ूक़ दिलवाने और क़ानून बनवाने की जद्दो-जहद में गुज़ारा। एक ज़माने में पंजाब के एक लम्बी पद-यात्रा पर भी निकले और गांव-गांव घूम कर लोगों में जागरूकता फैलाने का काम किया कि लोग मुख़्तलिफ़ बीमारीयों से अंधा होने से अपने बच्चों को किस तरह बचा सकते हैं.

कॉलेज में पढ़ाने का मौक़ा कॉमरेड सरीन को बे-शक थोड़े ही अर्से के लिए मिला लेकिन इसमें भी उन्होंने पिछड़े और वंचित तबक़ों से आने वाले छात्रों के लिए हिन्दी में पाठ्य-पुस्तकें तैयार करने का काम किया। उनका इरादा था कि रिटायर होने के बाद वे बाक़ी ज़िंदगी छात्रों के लिए किताबें लिखने का ही काम करेंगे। उनके मंसूबे में एक पब्लिशिंग हाउस क़ायम करना भी था। अपने ‘रक्तिम प्रकाशन’ से शायद कोई किताब शाय भी की हो, यकीन से नहीं बता सकती.

सन 2013 में कॉमरेड सरीन ने दिल्ली यूनीवर्सिटी की अकादमिक काउंसल की सदस्यता के लिए इलेक्शन लड़ा तो उनके इलेक्शन कैम्पेन के दौरान वोट मांगने के लिए कई हफ़्तों तक यूनीवर्सिटी के विभिन्न कॉलिजों और विभागों में जाना हुआ। कैम्पेन के लिए हमारी टीम की सरबराही कॉमरेड दिनेश वार्ष्णय करते थे जो साउथ कैम्पस के मोती लाल नहरू कॉलेज में इतिहास पढ़ाते हैं। रोज़ाना के कैम्पेन की योजना वही तैयार करते थे, उम्मीदवार यानी कॉमरेड सरीन के साथ ख़ुद हर-रोज़ मुहिम पर निकलते थे। दूसरे साथियों में कॉमरेड सदाशिव और कॉमरेड अली जावेद वक़्त निकालते थे। मैं तक़रीबन रोज़ाना जाती थी, और हमारा काम हर-रोज़ पाँच-सात कॉलिजों में जाकर अलग-अलग विभागों के टीचर्स से मिलना और अपना स्टैंड रखते हुए उनसे वोट की दरख़ास्त करना होता था। इन मुहिमों में जो वक़्त साथ गुज़ारा उनमें कॉमरेड सरीन के मिज़ाज को समझने का बेहतर मौक़ा मिला.

इलेक्शन मुहिम के ज़माने में ही लंच के वक़्त या शाम को चाय पीते वक़्त या कैम्पस को वापसी के सफ़र में उनकी ज़िंदगी और नज़रियात पर अक्सर बातें होतीं थीं। वे निहायत उसूल-पसंद, ख़ुद्दार, साफ़-गो और अत्यंत हक़ीक़तपसंद इन्सान थे, लेकिन साथ ही कुशादा-दिल, दर्दमंद और संवेदनशील भी। बहुत कम आयु में वे इस नतीजे पर पहुंच गए थे कि भगवान या ख़ुदा का कोई वजूद नहीं है, और ज़िंदगी में जो कुछ करना है अपनी समझ-बूझ और सलाहियतों के बल-बूते पर करना है। यह भी उनके ज़हन में नौजवानी से ही स्पष्ट था कि सिर्फ अपने लिए जीना इन्सान का काम नहीं, उसका काम समाज के लिए अपनी ज़िम्मेदारियाँ निभाना है। चुनांचे उन्होंने अपनी उच्च-शिक्षा की दिशा भी इसी मक़सद की तरफ़ मोड़ दी थी, और उनका शोध-कार्य उनकी समाजी ज़िम्मेदारी का हिस्सा बन गया था.

इलेक्शन कैम्पेन के दौरान एक दिन दोपहर का खाना उनके घर खाया और उनकी पत्नी इंदू से मुलाक़ात हुई। इंदू बड़ी ज़िंदा-दिल और मुहब्बत के साथ ख़ूब बातें करने वाली महिला हैं और किसी बैंक में नौकरी करती हैं। उनसे मिलकर मैं हैरान हुई क्यूंकि वे भी पूरी तरह नाबीना हैं। बाद में मुझसे कॉमरेड सरीन से यह निजी सवाल किए बिना न रहा गया कि इउन्होंने अपनी ही जैसी नाबीना लड़की से शादी क्यों की, इस से तो ज़िंदगी और भी मुश्किल हो गई होगी। उन्होंने बताया कि शुरू से ही वे तय कर चुके थे कि किसी आँखों वाली लड़की से शादी नहीं करेंगे क्योंकि ऐसी शादी को वे बराबरी का रिश्ता नहीं बल्कि हमदर्दी या दयाभाव का रिश्ता समझते थे। वे यह बोझ न तो ख़ुद बर्दाश्त कर सकते थे और न ही उस महिला पर ख़ुद बोझ बनना चाहते थे। इसीलिए वे इंदू से शादी करके ख़ुश थे.

मैं कॉमरेड सरीन से कोई भी ऐसा सवाल करने में झिझकती थी जिससे उनकी माज़ूरी की तरफ़ कोई इशारा हो। लेकिन जल्द ही अंदाज़ा हो गया कि इस सिलसिले में उन्हें अपना स्टैंड रखने में कोई झिझक नहीं है। उन्होंने ख़ुद ही बताया था कि कोई उन पर विशेष तवज्जो दे या हमदर्दी जताए तो उन्हें यह बिलकुल पसंद नहीं आता, क्योंकि वे ख़ुद को किसी भी नॉर्मल इन्सान से कमतर नहीं समझते। एक बार किसी ने यह कहते हुए हमदर्दी जताई थी कि आँखें न होना उनके लिए कितनी बड़ी पीड़ा और माज़ूरी है। कॉमरेड सरीन ने उन्हें ने फ़ौरन जवाब दिया कि इसके बरअक्स वे आँखें न होने को अपनी ताक़त समझते हैं क्योंकि आँखों वालों का ध्यान की एकाग्रता मुख़्तलिफ़ नज़ारों के कारण भंग हो सकती है लेकिन उनका ज़हन कभी भटकाव का शिकार नहीं होता.

कॉमरेड अली जावेद जे.एन.यू. में अपने छात्र-जीवन के ज़माने के जो क़िस्से सुनाते हैं उनमें एक घटना कॉमरेड सरीन से बारे में भी है। वह याह कि 1980 में तत्कालिक प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पहली बार जे.एन.यू. आई थीं। एमरजैंसी के बाद का ज़माना था और उनकी नीतियों पर सवाल करने वाले पुरजोश नौजवानों की कमी नहीं थी। उनकी आमद का विरोध भी हुआ था। बहरहाल मिसेज़ गांधी की तक़रीर जारी थी कि कॉमरेड सरीन और एक और नाबीना कॉमरेड, डाक्टर बलदेव शर्मा ने मिसेज़ गांधी को टोक दिया और पूछा कि वे यह बताएं कि हिन्दोस्तान में उच्च-शिक्षा प्राप्त नाबीना लोगों का ख़ासा बड़ा गिरोह है, उनके लिए उनकी सरकार ने अब तक क्या किया है? मिसेज़ गांधी का एक रोब और दबदबा था जिसकी वजह से उनसे सवाल करने के लिए बड़ा हौसला चाहिए था। पुलिस फ़ौरन ही हरकत में आ गई और कॉमरेड सरीन और बलदेव को घसीटती हुई पिंडाल से बाहर ले गई.

कॉमरेड सरीन शायद 2019 में रिटायर हुए और इसके बाद उनसे ग़ालिबन एक दो बार ही मुलाक़ात हो पाई। लेकिन वे कभी कभी फ़ोन पर, कभी टेक्स्ट मैसेज या ईमेल के ज़रीये राबते में रहते थे। ख़ास तौर से महिला दिवस पर, मार्क्स, लेनिन या भगत सिंह की सालगिरह या बरसी वग़ैरा पर कोई उम्दा सा उम्मीद-अफ़्ज़ा पैग़ाम ज़रूर भेजते या चंद लाईनों की कविता। हमारा ताल्लुक़ सयासी और नज़रियाती बिरादरी का था, इसलिए अकारण फ़ोन कभी नहीं करते थे। 20 अप्रैल 2021 को उनका फ़ोन आया। ख़ैरीयत लेने के बाद मैंने सवालिया लहजा इख़तियार कर लिया, इस आशा में कि अब वे फ़ोन करने का मक़सद बयान करेंगे। उन्होंने फ़ौरन जवाब दिया कि बस यूँही ख़ैरीयत के लिए फ़ोन किया था। मैं ने कहा, हाँ मैं ठीक हूँ, आप तो ठीक हैं ना कॉमरेड! उ न्होंने जवाब में कहा कि ठीक हूँ, और फ़ोन काट दिया। मुझे थोड़ा अजीब लगा कि यूँही फ़ोन किया था तो बात तो करते, लेकिन फिर मैं अपने कामों में मसरूफ़ हो गई और भूल गई। एक बार भी मेरे ज़हन में यह नहीं आया कि वे शायद किसी परेशानी में हों या बीमार हों। 24 अप्रैल को जब कॉमरेड सदाशिव ने फ़ोन पर ख़बर दी कि कोरोना के कारण कल यानी 23अप्रैल को कॉमरेड सरीन का इंतिक़ाल हो गया तो मैं दम-ब-ख़ुद रह गई, और दिल में एक ख़लिश सी पड़ गई कि काश वे कुछ बताते। यही कहते वे अपनी बीमारी के कारण अल-विदा का फ़ोन कर रहे हैं। काश किसी से कोई मदद मांगते! लेकिन फिर ख़याल आया कि वे कॉमरेड सरीन थे। किसी दूसरे के लिए काम बेशक बता दें, निजी काम के लिए किसी को ज़हमत नहीं देते थे। उन्होंने अपने कामरेडों को कभी इमतिहान में नहीं डाला। वे जानते थे कि ये कॉमरेड किस क़दर बे-मसरफ़ मख़लूक़ हैं। अपनी मौत में भी उन्होंने अपने साथियों को इस शर्मिंदगी से बचा लिया कि वे उनकी कोई मदद न कर सके.

22 अप्रैल की सुबह सरीन साहिब ने ईमेल भेजा था जिसके साथ उनकी एक कविता अटैच्ड थी। यह नज़्म मैं ने कई दिन के बाद पढ़ी, क्योंकि मोबाइल पर फ़ाइल खुल नहीं सकी थी। ये नज़्म उन्होंने रामनवमी के मौक़े पर कही थी, अपनी मौत से एक दिन पहले। उनके दिए हुए इस आख़िरी तोहफ़े को यहां आप सबकी भेंट करती हूँ.

“कृष्ण की उंगली क्यों न गली?” इस कविता का शीर्षक है। हिंदू देवमाला के कुछ प्रसंग मेरे लिए समझना मुश्किल थे, इसलिए कविता को समझने के लिए थोड़ी सी रिसर्च भी कर डाली। इस का प्रसंग-बिंदु कुछ यूं है:

इस नज़्म का आधारभूत प्रसंग महाभारत युद्ध की एक घटना है. इस जंग में कौरवों और पांडवों के गुरु, द्रोणाचार्य कौरवों की तरफ़ से लड़ रहे थे. जब तक धनुष उनके हाथ में था, उन्हें कोई नहीं मार सकता था; ऐसे में कृष्ण को यक़ीन था कि द्रोणाचार्य सारे पांडवों को मार डालेंगे. इसलिए उन्होंने पांडवों से कहा कि तुम लोग उनसे झूठ बोलो कि उनका बेटा अश्वत्थामा मारा गया. बेटे के दुख में वे हथियार रख देंगे और तब उन्हें मार कर जंग जीत ली जाएगी. कृष्ण का कहना था कि जंग में झूठ बोलना या धोखा देना पाप नहीं है. इस काम की ज़िम्मेदारी युधिष्ठिर को दी गई, जो सच बोलने के लिए मशहूर थे. जब अफ़वाह फैल गई तो द्रोण ने युधिष्ठिर इस इस ख़बर की तसदीक़ चाही, क्योंकि उनक सच्चाई पर कोई शक नहीं कर सकता था. युधिष्ठिर ने कहा: अश्वत्थामा मारा गया, लेकिन इंसान नहीं, हाथी. (नरो वा कुंजरो). युधिष्ठिर ने अपने जुमले का दूसरा हिस्सा धीरे से कहा और उसी वक़्त कृष्ण ने ज़ोर से शंख बजा दिया जिसकी ऊंची आवाज़ में द्रोणाचार्य युधिष्ठिर की आधी ही बात सुन सके और बेटे को मक़तूल समझ कर उन्होंने हथियार रख दिए और शोक में डूब गए. इसी हालत में उन्हें क़त्ल कर दिया गया. महाभारत की जंग में धोखे और झूठ पर आधारित यह जंगी-तदबीर श्री कृष्ण ने रची थी, जिसे युधिष्ठिर ने पूरा किया. झूठ बोलने और धोखा देने के जुर्म में बाद में युधिष्ठिर को कुछ समय के लिए नर्क में भेजा गया.

कहानी के इस अंजाम पर कुछ बुनियादी सवाल कॉमरेड रमेश सरीन ने अपनी इस नज़्म में उठाए हैं.

कृष्ण की उँगली क्यों न गली

पता चला मैं मर चुका हूँ, दुनिया-ए-फ़ानी से तर चुका हूँ
ले जाया गया धर्मराज के पास मुझे, मेरा निबटारा कराने
चमक मेरे चेहरे की उसके तराज़ू को बेक़ाबू हिला रही थी.

हठात् किसी ने कहा, इस चमक का जवाब दो
नहीं तो
यह तराज़ू ऐसे ही डोलता रहेगा.

धर्मराज चौंके,
ऐसा कौन आ गया
जो मेरा तराजू हिला रहा है?
निर्णय से पहले मुझे कुछ सुना रहा है.
होता तो ऐसा नहीं है,
फिर भी पूछ लेते हैं,
उसके अंदर की तृष्णा का
उत्तर दे, बुझा देते हैं.

मैंने कहा, धर्मराज! यह कैसी धता है?
कृष्ण की उँगली क्यों नहीं गली ज़रा मुझे तो समझाओ!

हमारी मर्ज़ी, लगा दो अर्ज़ी,
जब समय मिलेगा तो
ढूँढ़कर बता देंगे.

तुम तो सर्वज्ञ हो, न्यायप्रिय हो,
फिर भी इतनी देर क्यों?
क्या न्याय करने से पूर्व कुछ हिसाब किताब करना है—
ताकि गढ़े-गढ़ाए उत्तर दे सको.
वे तो सर्वज्ञ थे,
कुछ ग़लत नहीं कर सकते थे तो
उन्हें दंड क्यों?
लगता है यहाँ
समरथ को नहिं दोष गोसाईं
का धंधा चलता है,
लेकिन—
युधिष्ठिर को ग़लती का फल भोगना पड़ता है.
कहते हैं बहुत न्यायप्रिय हो तुम और तुम्हारे ये दिखावे.
जो कहानी को सही ठहराने की दिशा में
हो जाते हैं मुग्ध.
सुना है ये कहानियाँ हैं रूपक,
तथाकथित सत्य बताने का द्योतक हैं ये.
बताते-बताते
यहाँ तक सिद्ध कर देते हैं कि
आँसुओं से पैर धोये जा सकते हैं.
कविता में तो चलेगा पर
जब सामान्य मानव इसे यथार्थ समझ ले तो
वह यथार्थ उसे छलेगा.
क्या है यह इतिहास जहाँ
छल-कपट अमर्यादित व्यवहार
करने वाला कृष्ण
धोखे से मारे जाने के बाद
सीधा परलोक सिधारता है और
उसी के आदेश पर
‘नरो वा कुंजरो’ कहने वाले युधिष्ठिर की
उँगली गल जाती है.
चावल का एक दाना ही बताता है कि
कि वह कच्चा है या पक्का,
केवल टसुवे बहवाने के लिए लिखा गया ग्रंथ,
कहाँ तक है सच्चा?

 

 

(अर्ज़ुमंद आरा दिल्ली विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग में प्रोफ़ेसर हैं। वे वर्तमान समय की प्रसिद्ध लेखिका, आलोचक, अनुवादक तथा सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता हैं। इनकी अब तक कुल 13 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों में इनकी सीधी भागीदारी रहती है। इन्होंने हाल ही में अरुंधती राय की पुस्तक ‘द मिनिस्ट्री ऑफ़ अटमोस्ट हैपीनेस’ का उर्दू अनुवाद किया हैं, जो साहित्यिक जगत में ख़ासी चर्चा का विषय रहा। ये विश्व साहित्य की पत्रिका ‘ज़मीन’ के सम्पादक मंडल से भी जुड़ी हुई हैं।)

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