समकालीन जनमत
स्मृति

अज़ीम कवि एवं फ़िल्मकार बुद्धदेव दासगुप्ता

प्रशांत विप्लवी


जब फ़िल्मों का बहुत ज्यादा इल्म नहीं था तब भी बहुत सारी महत्त्वपूर्ण फिल्में देखने की क्षीण स्मृति है। विकल्पहीनता कई बार वरदान साबित होती है। अस्सी और नब्बे के दशक में दूरदर्शन पर जब कृषि दर्शन और उपभोक्ता फोरम जैसी वार्ता को दिलचस्पी लेकर सुनना पड़ता था, तब मंथन, पार, अंकुश, मैसी साहब या बाघ बहादुर जैसी फिल्में दिखाई गईं तो समझने की भरसक कोशिश की। उन्हीं फ़िल्मों में बाघ बहादुर बहुत गहराई तक उतरी थी। उन दिनों कस्बाई जीवन में इस फ़िल्म को बेहतर अनुभूत कर पा रहा था। कठघोड़वा, बहुरूपिया, नौटंकी जैसी कला का अंत धीरे – धीरे किस क़दर हुआ इसका ज़रा भी भान नहीं हुआ। जब भी पुराने दिनों को याद करता हूं तो लोक कला से जुड़ी हुई तमाम बातें याद आती है। बाघ बहादुर उसी तरह स्मृति में घर कर गयी।

एक बार जब पवन मल्होत्रा को सईद मिर्ज़ा की फ़िल्म “सलीम लंगड़े पर मत रो” देखा तो बाघ बहादुर को पुनः देखने की इच्छा जाग गई। इन दिनों मनपसंद फ़िल्मों को देखना मुश्किल नहीं है। आश्चर्य हुआ जब ये मालूम हुआ कि ये फ़िल्म बुद्धदेव दासगुप्ता द्वारा निर्देशित है। वे एक अध्यापक के साथ-साथ कवि भी थे। अपने चाचा जी के संपर्क में आकर विश्व सिनेमा से परिचित हुए, फिर उन्होंने फ़िल्म में दिलचस्पी ली। पहले तो एक दस मिनट की डाक्यूमेंट्री से शुरुआत की लेकिन उसी वर्ष उन्होंने “दूरत्व” (distance) पहली फीचर फ़िल्म बनाई। बुद्धदेव दासगुप्ता रे, घटक और सेन के बाद की पीढ़ी के सबसे सशक्त फिल्मकार थे। उनकी फ़िल्मों की खूबसूरती इसलिए बढ़ जाती थी क्योंकि उनकी काव्यात्मक क्षमता फ़िल्मों में हमेशा से शामिल रही।

उनका जन्म दक्षिण पुरुलिया के अनारा में 11 फरवरी 1944 में हुआ था। उन्होंने तहादेर कथा, बाघ बहादुर, स्वप्नेर दिन, उत्तरा, दुरत्व, चराचर, काल पुरुष, मंद मेयेर उपाख्यान आदि चर्चित फिल्मों का निर्देशन किया था । कवि के रूप में उनकी उपलब्धि में रोबटेर गान, छाता काहिनी, गभीर आडाले उनकी चर्चित काव्य कृतियां हैं। फिल्मों के लिए वे कई बार देश और विदेशों में पुरस्कृत हुए। उनकी पांच फिल्मों को National Film Award for Best Feature Film मिला जबकि दो बार National Film Award for Best Feature Film in Bengali और निर्देशन के लिए भी National Film Award for Best Director दो बार अवॉर्ड मिला। उनकी फ़िल्मों में काम करने के लिए लोग आस लगाए रहते थे। उनके अवॉर्ड से भी कुछ आलोचक चिढ़े हुए थे और वे कहते थे कि वे फ़िल्म सिर्फ़ अवॉर्ड पाने के लिए करते हैं। जबकि उनकी फ़िल्मों का विषय सबसे अलग और समय को निरूपित करने वाला होता था। फ़िल्म में आने से पहले वे बर्धमान के श्यामसुंदर कॉलेज और कोलकाता के सिटी कॉलेज में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर थे। साहित्य और कला में उनकी रुचि फ़िल्मों में खींच लाई थी। उत्तरा और सोपोनेर दिन में उनकी निर्देशन क्षमता को वैश्विक स्तर पर सराहा गया।

27 मई 2008 में स्पेन इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल , मेड्रिड में उन्हें लाइफ टाइम अचिवमेंट से सम्मानित किया गया। बुद्धदेव दासगुप्ता पहले भारतीय निर्देशक हैं जिनकी पाँच फ़िल्मों को टोरंटो इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल के मास्टर्स सिलेक्शन में रखा गया। इस कारण वे वहाँ शामिल विश्व के प्रथम दस फ़िल्मकारों में एक हैं। वे पहले भारतीय फ़िल्म निर्देशक हैं जिन्हें गोल्डन एथेना अवॉर्ड से सम्मानित किया गया।

उनकी पहली ही फ़िल्म “दूरत्व” ने जता दिया था कि वे एक गंभीर और सक्षम फ़िल्मकार हैं। उनकी इस फ़िल्म में वाम आंदोलन का एक कार्यकर्ता आंदोलन छोड़कर कॉलेज में राजनीति शास्त्र का प्राध्यापक बन जाता है। अपने पुराने साथियों से मिलने-जुलने के क्रम में एक मृत नक्सल कार्यकर्ता की बहन अंजली से प्यार करने लगता है। उन दोनों की शादी हो जाती है किन्तु अंजली पहले से ही गर्भवती है। वो तय करती है कि उसे अपने इस अपराधबोध से मुक्त होना है। जब एक रोज़ वो अपने इस राज़ को उजागर करती है तो उसका पति मंदार अपने को ठगा-सा महसूस करता है। उसकी प्रगतिशीलता धरी की धरी रह जाती है। उसके एक मित्र ने उससे कई बार इस बात के लिए आग्रह किया था कि एक नक्सली युवा को पनाह देना है लेकिन वो हमेशा इस बात टाल देता है।
कभी यही मंदार अपने आस-पास की अराजक व्यवस्था को बदल देना चाहता था। लेकिन कालांतर में उसका यह रूप स्पष्ट नहीं था। अगर स्पष्ट होता तो अपने आस-पास की समस्याओं को समझ पाता। अंजली को पता था कि गर्भ सहित किसी अविवाहिता स्त्री को कोई पुरुष स्वीकार नहीं कर पाएगा। चाहे वो बातों और विचारों से प्रगतिशील हो। अंजली बगैर किसी राजनैतिक सोच या बुद्धिमत्ता के ये तय कर चुकी थी कि उसे किसी भी हाल में इस बच्चे को जीवन देना है। ऐसे भयभीत और कायर पुरुषों के द्वारा निर्मित समाज का प्रतिवाद इस बच्चे को बचा पाने में ही निहित था। इस घटना के बाद अंजली मंदार के ऊपर बोझ नहीं बनना चाहती है, वो घर छोड़कर जाना चाहती है लेकिन मंदार उसे नहीं रोकता है । उन दोनों का डिवोर्स हो जाता है। मंदार को वर्षों बाद जब अपनी भूल का एहसास होता है तो पुनः अंजली से मिलता है। अंजली अपने बेटे के साथ अपने पिता के यहाँ रह रही है। मंदार ग्लानि से भर जाता है , उसकी इतनी हिम्मत नहीं होती है कि वो अंजली से कह सके कि तुम मेरे साथ चलो। ममता शंकर की बेहतरीन अदायगी ने इस फ़िल्म को जीवंत रूप दिया है।
पहली ही फ़िल्म ने बांग्ला सिनेमा के आलोचकों को अचंभित कर दिया। उनकी फ़िल्मों की काव्यात्मकता देखनी हो तो “चराचर” World देखनी चाहिए।

एक चिड़ीमार अविश्वसनीय ढंग से चिड़ियों से प्रेम करता है। पेट की खातिर चिड़िया तो पकड़ता है लेकिन अपनी भावना के अतिरेक में ज्यादातर उड़ा भी देता है। उसकी माली हालत इस कारण से बेहद दयनीय है। उसकी पत्नी “सारी” को यह नागवार गुज़रता है। चिड़ीमार लखा अपने मृत बेटे निताई को भी खूब याद करता है। उसकी संवेदनशीलता चिड़ियों की उन्मुक्ति की बात सोचता है। एक द्वन्द्व उसके मन में हमेशा चलता रहता है कि वो अपनी पत्नी और चिड़िया दोनों को खुश रख सके किन्तु लखा अपनी भावनाओं को दबा नहीं पाता है। एक रोज़ जब एक कोलकाता के चिड़िया व्यवसायी के यहाँ “पाखी पूजो” (पंछी पूजा) के जलसे में उसे शामिल होना पड़ता है और उसके खाने में बत्तख का मांस दिया जाता है तो उसे गहरा आघात पहुंचता है। वो भागकर आता है और सभी चिड़ियों को उन्मुक्त कर देता है। उन चिड़ियों की उन्मुक्ति पर उसकी पत्नी हैरान होती है और तय करती है कि वो अपने प्रेमी के पास चली जाए। लखा अपनी पत्नी को नहीं रोकता है। उसके अकेले घर में सैकड़ों चिड़ियों ने बसेरा बना लिया है। एक चिड़ीमार के हृदय में चिड़ियों के प्रति इतना प्रेम जानकार चिड़िया भी उसके सर्वांग में भयमुक्त फुदकती हुई दिखाई देती है। ऐसी फ़िल्मों की कल्पना कोई कवि ही कर सकता है। रजत कपूर ने चिड़ीमार की भूमिका निभाई है। बंगाल के निर्देशकों के दिमाग में अमूमन बंगाल के कलाकार ही घूमते हैं और जो लाज़िमी भी है। जबकि इस चिड़ीमार की भूमिका में रजत कपूर और बाघ बहादुर की भूमिका में पवन मल्होत्रा को शामिल करना ये दर्शाता है कि बुद्धदेव बाबू भाषा से ज्यादा महत्व कला को देते थे।

उनकी 1989 में बनी फ़िल्म “बाघ बहादुर” भारतीय सिनेमा की अन्यतम फ़िल्मों में से एक है।

उन्होंने बिहार की पृष्ठभूमि पर जिस कदर फ़िल्म को गढ़ा है वो इतना सजीव हो उठा है कि उनकी कल्पनाशीलता पर ताज़्ज़ुब होता है। वैसे ये अविभक्त बिहार में झारखंड की झलक देती गाँव लगती है। नूनपुर गाँव जहाँ साल में एक बार महीने भर के लिए घुनुराम बाघ नाच दिखाने आता है। ग्यारह महीने प्रदेश के विभिन्न इलाकों में मेहनत-मजूरी करता है। नूनपुर गाँव के लोग उसकी कला की बेहद इज़्ज़त करते हैं। नूनपुर में एक शख्स सिबल चाचा उसका बेसब्री से इंतज़ार करते हैं। सिबल चाचा की इकलौती बेटी घुनुराम से प्रेम करती है और इस बार घुनुराम यह तय करके आया है कि इस महीने भर की कमाई से वो इसी गाँव में रहकर कुछ काम-धंधा करेगा और सिबल चाचा की बेटी से शादी कर लेगा। दरअसल सिबल चाचा के ढ़ोल पर ही घुनुराम बाघ नृत्य करता है। उनके ढ़ोल पर घुनुराम की लयबद्धता लोगों को अभिभूत कर देती है। लेकिन इस बार नूनपुर में सिर्फ़ घुनुराम ही बाघ नाच लेकर नहीं आया है बल्कि पटना से सांबा एक चीता और अपनी नौटंकी के साथ भी आया है। नूनपुर के लोगों ने पहली बार जंगली चीता देखा है, औरत को फ़िल्मी गाना गाते हुए सुन है और देखा है सांबा का चीता से मुकाबला। सांबा की टीम ने गाँव के भीड़ को अपनी तरफ खींच लिया है। घुनुराम और सिबल चाचा पहले चिंतित हुए लेकिन उन्होंने प्रयास ज़ारी रखा। यहाँ तक तो घुनुराम को बर्दास्त था लेकिन जब गाँव के एक युवक ने उसके नाच को नकली बताया तो उसका कलेजा फट गया। एक कलाकार जो ग्यारह महीना सिर्फ इसी स्वप्न को ज़िंदा करने के लिए नूनपुर आकर अपनी जान लगा देता है और उसे और उसके कला को नकली बताकर ज़लील किया जाता है, वो भला कैसे बर्दास्त करेगा। और वो तय करता है कि उसे अपना सम्मान पुनः पाना ही होगा। वो नकली नहीं है बल्कि असली बाघ बहादुर है। फिर जो कुछ अंतिम दृश्य में घटित होता है वो हिलाकर रख देता है। सिबल चाचा ढोलक पर अपनी जान झोंक देते हैं और घुनुराम .. । दो मधुर लोकगीत से निर्देशक यह महसूस करा देते हैं कि फ़िल्मों में मौलिकता का कितना महत्व है। ये अद्भुत संयोग है कि हिन्दी फ़िल्म के बंगाली निर्देशक ने संगीत उड़ीसा के शांतनु मोहापात्रा से दिलवाया और गीतकार बिहार के लोक से जुड़ी हुई थी।

बुद्धदेव दासगुप्ता अपनी अस्वस्थ अवस्था के कारण 10 जून 2021 को इस दुनिया से चले गए। उनका जाना भारतीय सिनेमा के लिए एक बड़ी क्षति है।

(प्रशांत विप्लवी-मूलतः कवि एवं भारतीय समानांतर सिनेमा / रीजनल सिनेमा के प्रसंशक और टिप्पणीकार,
पत्र-पत्रिकाओं एवं कुछ ब्लॉग्स में कविताएं छपी हैं| फ़ेसबुक पेज़ : फ़िलिम-विलिम की बातें (फ़िल्म से जुड़ी हुई समीक्षा, टिप्पणी और अन्य जानकारियाँ) शिक्षा : स्नातक, संपर्क : 404, साईं एन्क्लैव, प्रोफेसर कॉलोनी, पटना – 800023
ईमेल : bsatesprashant@gmail.com)

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