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‘ वास्तविक विकल्प रचनात्मक होना चाहिए , प्रतिक्रियाशील नहीं ’

संगीता प्रीत

नई दिल्ली। कैंपेन अगेंस्ट स्टेट रिप्रेशन ने नई दिल्ली के एचकेएस सुरजीत भवन में 15 मई, 2023 को ‘ भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमले’ पर चर्चा का आयोजन किया। आमंत्रित वक्ताओं ने पत्रकारों और स्वतंत्र मीडिया के खिलाफ भारतीय राज्य द्वारा किए जा रहे हमलों पर व्यापक चर्चा की।
 प्रोफेसर एन सचिन ने रत्नागिरी में एक रिफाइनरी परियोजना के ख़िलाफ़ रिपोर्टिंग करने के लिए हाल ही में मारे गए पत्रकार शशिकांत वारिश को श्रद्धांजलि देकर चर्चा की शुरुआत की। सचिन ने इस बात पर प्रकाश डाला कि पत्रकारिता का संकट में होना समाज के संकट में होने का एक बड़ा लक्षण है। उन्होंने मीडिया के एक ऐसे रूप के ग़ायब होने पर चिंता जताई जो लोगों के मुद्दों पर रिपोर्ट करता है।
मनदीप पुनिया ने मीडिया की उदासीनता और पक्षपातपूर्ण प्रकृति और मीडिया के विभिन्न रूपों के बारे में बात की। उन्होंने कहा कि चाहे वह “गोदी मीडिया” हो या मीडिया के उदारवादी हिस्से, दोनों ऐसे मुद्दों को उठाते हैं जो कॉर्पोरेट-राज्य गठजोड़ के अधीन है। उन्होंने उल्लेख किया कि यह साफ दिखाई दे रहा था जब दिल्ली के उदार मीडिया घरानों ने पंजाब में क्या हो रहा है, इसके बारे में कुछ नहीं बोला। उन्होंने विस्तार से मीडिया के तीसरे रूप के बारे में बताया, जो एक विकल्प प्रस्तुत करता है। पुनिया ने जन पक्ष पत्रकारों को भी अपनी पत्रकारिता के दृष्टिकोण में सक्रियतावादी होने की आवश्यकता की बात को रखा।
भाषा सिंह ने इस बात पर प्रकाश डाला कि कैसे राज्य की हिंदुत्व फ़ासीवादी प्रकृति संसाधनों की कॉर्पोरेट लूट और पूंजी की भूमिका को सूक्ष्मता से छिपाती है। उन्होंने बताया कि कैसे प्रमुख गोदी मीडिया ने हिंदू-मुस्लिम संघर्षों के इर्द-गिर्द केंद्रित आख्यानों को तैयार किया है, श्रमिकों, किसानों और बड़े पैमाने पर चल रही कॉर्पोरेट लूट की दुर्दशा को नज़रअंदाज करते हुए उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि कैसे मणिपुर में संघर्ष को हिंदुत्व परियोजना के लिए तैयार किया गया था। उन्होंने जन पक्ष पत्रकारों में लोगों के बढ़ते विश्वास में उम्मीद जगाई और इन पत्रकारों से बड़े मुद्दों को उजागर करने के लिए अपने तथ्यों को एक साथ जोड़ने का आग्रह किया।
प्रशांत टंडन ने “कॉरपोरेट डेमोक्रेसी” और “कॉस्मेटिक डेमोक्रेसी” के बीच अंतर करने की आवश्यकता के बारे में बात की, विशेष रूप से भारत में जहां अनुच्छेद 19 में यूएपीए जैसे कृत्यों के साथ-साथ न्यायशास्त्र में मौजूद तथाकथित उचित प्रतिबंध हैं जो सक्रिय रूप से कानूनी कटौती के लिए रास्ता बनाते हैं। उन्होंने सुझाव दिया कि भारत को विशेष रूप से प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए एक अम्ब्रेला कानून स्थापित करना चाहिए। उन्होंने सुझाव दिया कि संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोपीय संघ,जो पूरी तरह से आदर्शपूर्ण नहीं हैं,फिर भी ऐसे क़ानून के संदर्भ में वो भी अच्छे उदाहरण पेश करते हैं।
उदय चे ने सोशल मीडिया पर जनपक्ष पत्रकारों के रेवेन्यू के मुद्दों पर बात की। चूंकि सोशल मीडिया के पास विज्ञापनों से परे आय का कोई स्थिर स्रोत नहीं है, इसलिए फेसबुक और यूट्यूब जैसे बड़े कारपोरेशन यह नियंत्रण रखते हैं कि किस प्रकार का मीडिया पैसा कमाता है? उन्होंने कहा कि अन्य विकल्प स्थानीय बड़े व्यवसायों के विज्ञापन हैं जो पूरी तरह से जमींदारों जैसी सामंती ताकतों के स्वामित्व में हैं जो भाजपा और कांग्रेस जैसी पार्टियों के साथ गठबंधन में रहते हैं। कांग्रेस शासित छत्तीसगढ़ का उदाहरण देते हुए कहा कि वहां सैकड़ों पत्रकार आरोपों का सामना कर रहे हैं। उन्होंने इस बात पर प्रकाश डाला कि प्रेस स्वतंत्रता के मामले में भाजपा और कांग्रेस के शासन के बीच बहुत अंतर नहीं है। उन्होंने मांग की कि अगर लोगों के मीडिया को जीवित रखना है, तो इसे लोगों द्वारा समर्थित होना चाहिए और मीडिया के इन रूपों का प्रत्येक शहर में आधार स्थापित करना चाहिए।
वरिष्ठ पत्रकार, संपादक परंजोय गुहा ठाकुरता ने फेसबुक और गूगल के पीछे मेटा और अल्फाबेट जैसे बड़े कॉर्पोरेट्स के हथियार के रूप में सोशल मीडिया की प्रकृति के बारे में विस्तार से बताया, जिन्होंने समाज में नैरेटिव पर क़ब्ज़ा कर लिया है। उन्होंने युवाओं से सोशल मीडिया के जाल को कम करने और भारत में आपातकाल की नई स्थिति के ख़िलाफ़ एक महत्वपूर्ण लड़ाई में शामिल होने का आग्रह किया, जो सर्वव्यापी हो गया है।
‘वर्कर्स यूनिटी’ के संस्थापक संचालक संदीप राउजी ने वर्तमान शासन के तहत प्रेस स्वतंत्रता सूचकांकों में भारत के सामान्य और तेजी से गिरावट पर चर्चा की। उन्होंने विस्तार से बताया कि पूरे भारत में प्रेस की स्वतंत्रता केवल लोकतांत्रिक अधिकारों के व्यापक कटौती के अंतर्गत है। उन्होंने इस बात पर चर्चा की कि पत्रकार रूपेश कुमार सिंह को सिर्फ़ इसलिए कै़द किया गया क्योंकि वो मज़दूरों के लिए समर्पित होकर काम कर रहे थे। उन्होंने सवाल किया कि क्यों वैकल्पिक मीडिया सिर्फ़ भाजपा को हराने के आह्वान तक सीमित है,लेकिन हम कांग्रेस शासन के दिनों को क्यों भूल जाते हैं उन्होंने क्या किया ?
भारतीय समाज में पूंजीवाद की भूमिका को कम करने के लिए कुछ नहीं करता है। उन्होंने लोगों के मीडिया के साथ-साथ श्रमिक संगठनों से श्रमिक वर्ग के मुद्दों को सीधे रिपोर्ट करने के लिए श्रमिक बीट स्थापित करने का आग्रह किया, जो अधिकांश मीडिया प्रवचन में खो गए हैं। उन्होंने ऐसे सभी पत्रकारों से एक साथ आने और सामूहिक रूप से राज्य दमन का मुक़ाबला करने का आग्रह किया।
अंत में, वरिष्ठ संपादक अनिल चमड़िया ने बताया कि कैसे एक जन पत्रकार अपनी यात्रा में अकेला खड़ा होता है। उन्होंने विस्तार से बताया कि कैसे वर्तमान में एक पत्रकार की वैधता इससे जुड़ी हुई है कि उनका मीडिया हाउस कितना बड़ा है, जिस पर बड़े निगमों का स्वामित्व है। उन्होंने बताया कि कैसे मीडिया घरानों के ये रूप ऐसे लेख, समाचार आदि बनाते हैं जो अनिवार्य रूप से बड़े पैमाने पर उपभोग के लिए होते हैं, जो दलितों, आदिवासियों आदि के मुद्दों को सक्रिय रूप से छिपाते हैं। उन्होंने तर्क दिया कि यह पैकेज्ड मीडिया का विरोध कथित वैकल्पिक मीडिया नहीं करती, जैसे द वायर या न्यूज़क्लिक, जो केवल मुद्दों पर प्रतिक्रिया करता है। इसके बजाय, उन्होंने तर्क दिया कि एक वास्तविक विकल्प रचनात्मक होना चाहिए, प्रतिक्रियाशील नहीं जो जनता के प्रासंगिक मुद्दों पर जनता के बीच संवाद को प्रेरित करता है। उन्होंने इस तर्क के साथ निष्कर्ष निकाला कि यदि भारत एक वास्तविक लोकतंत्र स्थापित करने की इच्छा रखता है, तो उसे वर्तमान स्थिति के लिए एक वैकल्पिक मॉडल के साथ आना चाहिए।

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