(कथाकार हेमंत कुमार की कहानी ‘ रज्जब अली ’ पत्रिका ‘ पल-प्रतिपल ’ में प्रकाशित हुई है. इस कहानी की विषयवस्तु, शिल्प और भाषा को लेकर काफी चर्चा हो रही है. कहानी पर चर्चा के उद्देश्य से समकालीन जनमत ने 22 जुलाई को इसे प्रकाशित किया था. कहानी पर पहली टिप्पणी युवा आलोचक डॉ. रामायन राम की आई जिसे हमने प्रकाशित किया है, दूसरी टिप्पणी जगन्नाथ दुबे की आई जो डॉ. रामायन राम द्वारा उठाए गए सवालों से भी टकराती है . इस सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए प्रस्तुत है राजन विरूप की यह टिप्पणी । बहस को आगे बढ़ाने के लिए प्रतिक्रिया, टिप्पणी, लेख आमंत्रित हैं. सं ।
-राजन विरूप
“मैं आलोचकों से बहुत कम उम्मीद की बात करता हूं. मैं इस तरह की उम्मीद करने का साहस भी नहीं जुटा पा रहा कि आलोचक दूसरी कृतियों की चीरफाड़ करके फैसला सुनाने से पहले खुद अपनी समझ की चीरफाड़ करके यह पता लगायेगें, कहीं उनकी समझ ही तो उथली, टुच्ची और भ्रमित नहीं है. यह कहना ज्यादती होगा. मैं तो सिर्फ इतनी मांग करता हूं कि वे थोड़ा-सा ‘कामन सेंस’ (सामान्य समझ) इस्तेमाल करें.” – लू सुन
हेमंत कुमार की कहानी ‘रज्जब अली’ पर दो टिप्पणियां ‘समकालीन जनमत’ पर आई हैं. इनमें से पहली टिप्पणी ‘युवा’ आलोचक रामायन राम की – ‘सामंती वैभव के प्रति नॉस्टेल्जिया से ग्रस्त है कहानी ‘रज्जब अली’ और इसका प्रतिउत्तर देते हुए दूसरी टिप्पणी जगन्नाथ दुबे की ‘हेमंत कुमार की कहानी ‘रज्जब अली’ में सामंती वैभव देखना प्रतिक्रियावाद को मजबूत करना है’ – पढ़ीं.
अतएव, ‘रज्जब अली’ कहानी के संदर्भ में पहली टिप्पणी में उठाए गए प्रश्नों के संदर्भ में कुछ ऐसे बिंदु ‘युवा’ आलोचक द्वारा प्रस्तावित किए हैं जिनकी सार्थकता और सामर्थ्य पर कुछ चर्चा आवश्यक प्रतीत होती है. रामायन राम का कहानी ‘रज्जब अली’ के संदर्भ में शुरूआती बयान है कि कहानी ‘इस दौर का प्रमाणिक पाठ’ है, ‘फासीवाद का उभार, समाज में घुसपैठ करने की क्रिया विधि’, व कहानीकार की ‘पैनी नजर जो समाज की हलचलों पर नजर रखती है’, इस कहानी को ‘हमारे समय का दस्तावेज बनाती है.’ इसके आगे ‘युवा’ आलोचक का कहना है कि कहानी की ‘विश्वनीयता संदेह के घेरे में’ है. अब या तो कहानी ‘प्रमाणिक पाठ’ है या ‘अविश्वनीय’, अप्रमाणिक. इन परस्पर विरोधी सम्मतियों से आलोचक का आलोचना व रचना संबंधी बोध संदेहास्पद हो उठता है. कहानी के पाठ के अविश्वसनीय होने का आधार यह कहकर प्रस्तुत किया गया है कि कहानीकार को दलित जीवन की दुश्वारियों का, यथार्थ का समुचित बोध नहीं है क्योंकि कहानीकार दलितों के उत्पीड़न का चित्रण जिस तरह कर रहा है वह ‘बहुत पुराना’ है तथा आज के यथार्थ से उसका कोई संबंध नहीं है. दलित जीवन के यथार्थ के बारे में रामायन राम का यह दावा और तर्क संदेहास्पद है कि ‘लेकिन यह कैसे माना जा सकता है कि उत्तर प्रदेश के किसी गांव में आज की तारीख में कोई दबंग बिना पैसे चुकाए किसी दलित का बकरा खोल ले जाएगा. आज कोई भी ऊंची जाति का आदमी किसी दलित को गाली-गलौज करते हुए काम करने या बेगार करने को नहीं कह सकता है.’ क्या अपनी इस तथ्यात्मक धारणा (जो ऊपर ही ऊपर तथ्यात्मक दिखाई देती है.) को प्रमाणित करने के लिए ‘युवा’ आलोचक ने कोई तथ्य प्रस्तुत किया है? नहीं! क्योंकि वह जानता है कि यह तथ्यात्मक रूप से गलत है. मीडिया और अखबारों में ऐसी तमाम ख़बरें आती रहतीं हैं, जब सवर्ण दबंगों द्वारा बेगार न करने पर दलितों की पिटाई की जाती है. पेशाब पिलाया जाता है.1 यहां तक घुड़सवारी करने पर उनकी हत्या तक कर दी जाती है,2 मूंछें रखने पर उनको पीटा जाता है3 और अपनी बारात4 निकालने के लिए पुलिस सुरक्षा के लिए ‘माननीय न्यायालय’ (?) के पास जाना पड़ता है. हाशिये पर फेंक दी गई जातियों की स्त्रियों के खिलाफ सबसे ज्यादा यौन अपराध होते हैं. आज खबर और तथ्यों के प्रति जिस तरह का पक्षपातपूर्ण चरित्र मीडिया (और पुलिस) का है उसमें बकरी/बकरा खोलने वाली घटनाएं कितना कवरेज पाती होंगी, यह भी विचारणीय प्रश्न है. यह बात सही है दलितों में अपने संवैधानिक अधिकारों के प्रति जागरूकता आई है. उनमें प्रतिरोध की क्षमता बढ़ी है. लेकिन उनके खिलाफ होने वाले जातीय उत्पीड़न में बढ़ोत्तरी हुई है. जिनके आंकड़े आसानी से उपलब्ध हैं. आलोचक ने अपने ही अनुभव जगत की सीमा में सम्पूर्ण यथार्थ के विस्तार को संकुचित करने की चेष्टा की है. उसकी इस चालाकी का संकेत उसके द्वारा “उत्तर प्रदेश” का संदर्भ दिए जाने ही साबित हो जाता है (उत्तर प्रदेश के अलावा भी इस देश में बहुत सारे प्रदेश हैं). अपने ही आस-पास के यथार्थ को, जीवन को, अनुभव को सार्वदेशिक मान लेना यथार्थ के फलक को संकुचित करना है. मात्र उत्तर प्रदेश का संदर्भ देकर आलोचक तथ्यात्मक और अनुभव की अपनी सीमा के लिए छूट लेने की कोशिश ही करता नजर आता है.
कहानीकार के ऊपर यह आरोप है कि वह दलित और मुसलमान लोगों का ‘दीन-हीन, कातर और दोयम’ चित्रण करता है. ‘युवा’ आलोचक द्वारा सामाजिक संरचना के यथार्थ की अभिव्यक्ति, दलित और अल्पसंख्यक समाज के प्रति कहानीकार के सजग मानस को सामंतवादी मानस से ग्रस्त समझना-समझाना मनोगत कुपाठ ही है. ‘रज्जब अली’ के कहानीकार पर इस तरह का आरोप प्रेमचंद की ‘कफन’ कहानी पर तथाकथित दलित विमर्शकारों द्वारा लगाये आक्षेपों के ही मेल में है. एक रचनाकार अपनी रचना में अपने समय-समाज को अभिव्यक्त करता है. सच को पाठक के सामने रखना उसकी जिम्मेदारी होती है. यदि वह उससे मुंह मोड़ता है तो वह सच को, यथार्थ को छिपाने का ही काम करता है. और इसी सच की तरफ पीठ देने की ‘सलाह’ ‘युवा’ आलोचक देता नजर आता है. यह हो सकता है कि कोई रचनाकार दलित-दमित जनता के संघर्ष को केंद्र में रखकर आख्यान रचे अथवा किसी अन्य पहलू को लेकर आख्यान रचे. लेकिन वह एक आलोचक की अपनी व्यक्तिगत इच्छा से संचालित नहीं होता. हाँ, यदि उक्त आलोचक यदि चाहे तो ऐसा आख्यान रचने की कोशिश स्वयं कर सकता है.
कहानीकार और कहानी के संबंध में एक गलत बयानी आलोचक की यह है कि दलित अपनी बस्ती के लिए ‘चमरौटी’ शब्द का इस्तेमाल नहीं करते और न तो वे ‘बबुआन’ शब्द का ही इस्तेमाल करते हैं. ध्यान रखना चाहिए कि ‘मंगरू’ इस शब्द का इस्तेमाल रज्जब अली के साथ बातचीत के दौरान करता है. मंगरू अपनी ही बस्ती के किसी स्वजातीय व्यक्ति के साथ संवाद नहीं कर रहा है. यह बात सही है कि दलित स्वजातीय व्यक्ति के साथ बातचीत में ‘चमरौटी’ शब्द का इस्तेमाल नहीं करते हैं. लेकिन जब वे अपनी जाति से इतर अन्य लोगों से बातचीत करते हैं तो वे इस शब्द का इस्तेमाल करते हैं5. वास्तव में भाषा का भी एक सर्वस्वीकृत रूप होता है. जिसका इस्तेमाल सम्प्रेषणीयता के प्रचलित रूप के संदर्भ में ग्राह्य होता है. हालांकि भाषा के प्रचलित रूप में वर्चस्वशाली वर्ग के मंतव्य और नियमन हावी होते हैं. ग्राम्शी ने अपने प्रसिद्ध ‘प्राधान्य का सिद्धांत’ (Hegemony) में यह स्पष्ट किया कि विचारों के द्वारा भी जनता को शासित किया जाता है. वस्तुतः भाषा भी इसी ‘विचार’ का एक हिस्सा है. जिसे वर्चस्वशाली की स्वीकृति से समाज लागू किया गया है. मंगरू और रज्जब के भाषाई व्यवहार के विश्लेषण में इस नजरिए का उपयोगिता समझनी चाहिए. इसके लिए ‘रज्जब अली’ कहानी से एक उद्धरण देना दिलचस्प होगा- जुलाहों की बस्ती पर ‘सांप्रदायिक राष्ट्रवादियों’ के हमले के समय मनकी नामक पात्र के कथन कि “उनकी बहन-बेटी कोठे की रोटी तोड़ें” की एक व्याख्या यह की जा सकती है कि यह कथन तो स्त्री-विरोधी है. इसलिए, इस आधार पर हम मनकी के पितृसत्तामक मानस की यहाँ व्याख्या रखते हुए ‘सांप्रदायिक राष्ट्र्वादियों’ के प्रति उसकी नफरत को ‘नकली’ या ‘सारहीन’ साबित करते हुए उसे जुलाहों का शत्रु सिद्ध करने में लग जाएं तो यह आलोचना का खतरनाक भटकाव ही होगा. (इस अंतर्विरोध की आलोचना के लिए हमारी आलोचना के तौर तरीके दूसरे ही होंगे. दलित-दमित जनता के इस पितृसत्तामक मानस की व्याख्या भी हम प्रभु वर्गों की सामाजिक-सांस्कृतिक-श्रेणीबद्धताओं के प्रभावशाली संहिता शास्त्र आलोचना करते हुए ही करनी होगी. न कि इसे कहानीकार की साजिश सिद्ध करने लगना.) लिम्बाले की आत्मकथा का नाम ‘अक्करमाशी’ है. लक्ष्मण गायकवाड़ की आत्मकथा का नाम ‘उठाईगीर’, दयापवार की आत्मकथा का नाम ‘अछूत’ है. तो क्या हम इन बुद्धिजीवियों को सवर्ण मानसिकता से ग्रस्त घोषित कर देंगे. दरअसल ये सवर्णों द्वारा प्रदान की गई तिरस्कार-भाषा का ही इस्तेमाल उनकी सामाजिक कुत्सा को दिखाने के लिए करते हैं. जिस तरह शब्द को संदर्भहीनता में रखकर, घटनाओं का मनमाना चयन और यथार्थ का एकांगीकरण करते हुए तथा उसे एकायामी बनाते हुए कहानी के बारे में ‘युवा’ आलोचकीय फतवा जारी किया गया है, उसके लिए मिखाईल लिफिशत्ज के लेख ‘लेनिनवादी आलोचना पद्धति’ से यह कथन उद्धृत करना समीचीन होगा- “भ्रष्ट (‘वल्गर’) समाजशास्त्र के पंडित इसीलिए लेखक को उस वक्त रंगे हाथों पकड़ने की फिराक में रहते हैं जिस वक्त वह कहीं रचना में अकस्मात अपने वर्ग की चेतना की प्रमुख प्रवृत्तियों को उद्घाटित कर देता है. मसलन, अगर शेक्सपीयर की जूलियट नामक नायिका यह कहती है कि ‘टूट ! ऐ मेरे दिल टूट ! मेरे गरीब दिवालिए दिल ! तू एकदम टूट जा !’ तो हमारे चतुर समाजशास्त्री आलोचक महोदय बिना चूके इस बौद्धिक दलील को पेश कर देंगे. कि महान नाटककार का संबंध लंदन के व्यापारिक वर्ग के हितों, व्यापारी अभिजात वर्ग या बुर्जुआ बने भूस्वामी वर्ग’ से रहा होगा.”6 ध्यातव्य है कि ‘परजौटी’ पर कोई आपत्ति नहीं उठाई गई. जबकि ‘परजौटी’ शब्द का प्रयोग भी कहानी में कई बार किया गया है (‘चमरौटी’ शब्द का व्यवहार सोलह बार तो ‘परजौटी’ शब्द का व्यवहार ग्यारह बार कहानी में किया गया है). क्योंकि जिस तर्क पद्धति से शब्द-प्रयोग पर आपत्ति उठाई गई है उस पद्धति से इस शब्द पर भी आपत्ति अवश्य की जानी चाहिए थी. प्रजा होना अपने आप में सामंती समाज व्यवस्था और प्रजा के श्रम व संपत्ति पर शासक वर्ग के अनुचित अधिकारों को व्यक्त करता है.
कहानी में सिर्फ दलित बस्ती से ही युवकों का पलायन नहीं हो रहा है (‘चमरौटी जब तक बबुआन के भरोसे थी, वह भरी हुई थी. अब वह अशक्त बूढ़ों और बच्चों का बसेरा भर रह गयी थी’) बल्कि ‘बबुआन’ में भी ‘कभी इन दरवाजों की शान चारपाइयाँ और पशुओं -बेगारों की संख्या हुआ करती थी, लेकिन अब वहाँ सिर्फ बूढ़ों की कराह’ है. यह जो युवकों का पलायन है वह उत्पादन की पूंजीवादी पद्धति के मौजूं हो जाने और कृषि आधारित श्रम संबंधों की के ख़त्म होते जाने की प्रक्रिया का संकेतक है. ‘सवर्ण पुरुषोचित सेक्युलरिज्म’ जैसे पद भी आपत्तिजनक हैं. इससे सांप्रदायिक राष्ट्रवादियों के पद ‘सूडो सेक्युलरिज्म’ की ध्वनि आती है. जहां तक बात उच्च जातियों के नायकत्व और दलित जातियों के प्रतिरोध की है तो कहानी में जुलाहा बस्ती पर हमले के समय ‘परजौटी-चमरौटी से मर्दों के साथ औरतें भी हांड़ी-गगरी लेकर निकल पड़ीं.’ कहानी में अरिमर्दन सिंह का जो व्यवहार है उसे सिर्फ नायकत्व प्रदान करने के दृष्टिकोण से देखना उचित नहीं है. कहानी में वह खुद स्वीकारता है कि वर्चस्व को लेकर कई गांवों से कई साल तक उसकी दुश्मनी चली. कहानी में इस बात का संकेत है कि जो लोग कभी उसके सामने नतशिर रहते थे आज उन्हीं लोगों का गांव के कुछ लोग दरबार कर रहे हैं. वस्तुतः यहां मामला नायकत्व का नहीं है. यह मामला अपने वर्ग के भीतर के अंतर्विरोधों का है. सत्ताशाली वर्ग के भीतर भी वर्चस्व को लेकर, सत्ता के शीर्ष पर जाने अथवा उससे च्युत होने के खतरे से डरे आशंकों के चलते संघर्ष की स्थितियां जन्म लेती रहती हैं. इसलिए ‘बबुआन’ के ‘नौरंगिया’ विरोधी क्रियाकलाप को सिर्फ ‘नायकत्व’ के चश्में से नहीं देखा जाना चाहिए. कहानीकार के लिए यह करना कठिन नहीं रहा होगा कि दलितों के बीच से एक हीरो को उभार देता जो घटिया हिंदी फिल्मों के ‘माचोमैन’ की तरह सारे ‘खलनायकों’ को ठोंक-पीट कर बराबर कर देता. हो सकता है कि ऐसा कथानक आपको खुश कर दे. प्रतिशोध की भावना का तात्कालिक शमन करे. लेकिन वह अपने-आप में एक फ़िल्मी कथानक बन कर रह जाता. सव्यसाची ने अपनी एक पुस्तिका ‘हिंदी फ़िल्में’ में हिंदी फिल्मों के इसी तरह के ‘सुखांत’ को बरगलाने का शासक वर्गीय तरीका बताया है.
जब 2004 में केंद्र में ‘सांप्रदायिक राष्ट्रवादी’ चेतना की वाहक बीजेपी की सरकार थी तब भारतीय दलित साहित्य अकादमी के अध्यक्ष सोहनपाल सुमनाक्षर ने दिल्ली में प्रेमचंद के उपन्यास ‘रंगभूमि’ की प्रतियां इसी तर्क का प्रयोग करते हुए जलाई कि ‘रंगभूमि’ के पात्र सूरदास के लिए ‘चमार’ शब्द का प्रयोग गर्हित है और यह प्रेमचंद की सामंती मानसिकता का परिचायक है. पाक्षिक पत्र ‘हिमायती’ के जून, 2014 के अंक में प्रकाशित एक साक्षात्कार में सुमनाक्षर महोदय का कहना है कि “रंगभूमि’ उपन्यास का मसाला यह था कि उसमें चालीस बार ‘चमार-चमार’ शब्द आया है. इसमें प्रेमचंद ने हमारे नायक को बार-बार अपमानित किया है.” यह आश्चर्यजनक बात है कि 2004 के भाजपाई दौर में जिस तरह के तर्क प्रेमचंद के लिए उद्धृत किए गए थे उसी तरह की तर्क पद्धति का इस्तेमाल ‘युवा’ आलोचक भी ने किया है और इस समय भी भाजपाई सरकार है. यह अद्भुत आलोचना पद्धति है कि रचनाकार जिस चीज के विरोध में खड़ा है उसे उसी के पक्ष में खड़ा दिखा कर, प्रतिक्रियावादी घोषित करते हुए. प्रतिक्रियावादियों के खेमे में धकेल दिया जाए. यह तो स्वयं हिंदुत्ववादी प्रतिक्रियावादियों के हित में काम करना है. आखिर प्रेमचंद को सामन्ती जातिवादी, हिंदू मानस से ग्रस्त घोषित करके सुमनाक्षर जैसे लोग यही काम तो कर रहे हैं. अभी अगस्त में ही दक्षिणपंथी पत्रिका ‘पांचजन्य’ का प्रेमचंद जयंती के अवसर पर ‘प्रेमचंद : कलम राष्ट्रवादी’ विशेषांक आया है. जिसमें प्रेमचंद को हिन्दुत्ववादी साबित-घोषित करने की जमकर कोशिश की गई है. अतः प्रेमचंद को सामंतवादी, दलित विरोधी घोषित करने वाली आलोचना पद्धति ‘कलम राष्ट्रवादियों’ की ही सहायक है और इस प्रोसेस से ‘रज्जब अली’ का मूल्यांकन उसे ‘माब लीचिंग’ करने वाले गिरोह में फेंक देना है.
-रा
-सन्दर्भ:
1. अप्रैल, 2018 में बदायूं में इस तरह की एक शर्मनाक और घृणित घटना हुई. जिसमें सवर्ण दबंगों का खेत काटने से मना करने पर दलित जाति के एक व्यक्ति को पीटा गया. उसे जूते में पेशाब पिलाया गया.
2. गुजरात के भावनगर में 29 मार्च, 2018 को घोड़े की सावरी करने के चलते दलित युवक की हत्या की गई.
3. गुजरात के अहमदाबाद के कविथा गांव में ऐसी कई घटनाओं की शिकायतें आई हैं.
4.उत्तर प्रदेश के कासगंज जिले में ठाकुरों की दबंगई के चलते दूल्हे को 350 पुलिस कर्मियों की सुरक्षा लेनी पड़ी. इस गांव में अस्सी साल बात किसी दलित व्यक्ति की बारात घोड़े की बग्गी पर निकली. (इस तरह के बहुत सारे उदाहरण और भी दी जा सकते हैं.)
5. कोरांव (इलाहाबाद) के छिवकीकलां गांव के एक मित्र ने इस तथ्य की पुष्टि की. इतना ही नहीं बस्ती में रहने वाले लोग पासी जाति के मोहल्ले को ‘पसियान’, कोल जाति के मोहल्ले को ‘कोलं’, इसी प्रकार ‘बभनौटी’और ‘ठकुरान’बोलते हैं. आलोचक का यह कथन भी गलत है कि दलित जाति के लग सवर्णों के लिए ‘बबुआन’ शब्द का इस्तेमाल नहीं करते हैं. गाजीपुर और उसके आसपास ‘भूमिहार’ जाति मोहल्लों के लिए आज भी ‘बबुआन’ शब्द का प्रयोग प्रचलित है.
6. ‘मार्क्सवाद और साहित्य’, (सं०) शिवकुमार मिश्र, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, पृ०-