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विश्व आदिवासी दिवस: ‘दे और दिल उन को जो न दे मुझ को ज़बाँ और’

राही डूमरचीर


आज से अठारह साल पहले की एक दोपहर, जब मैं सही मायने में इस धरती का सच्चा नागरिक बनने की प्रक्रिया से जुड़ पाया. बात 2003 के मार्च महीने की है. मैं अपनी बारहवीं के इम्तहान ख़त्म कर गाँव वापस आया था. उसी दौरान मेरे एक मामा की शादी थी. उनकी शादी की तैयारियाँ ज़ोर – शोर से ज़ारी थीं. हम बच्चे भी उस तैयारी में हर सम्भव शरीक होने की कोशिश कर रहे थे. वैसे भी शादी एक सामूहिक गतिविधि है, चाहे वह पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था के भीतर ही क्यों न घटित हो रही हो. इसी सिलसिले में शादी के लिए आँगन में मंडप बनाना था. उसके लिए कच्चे बाँस की ज़रूरत थी. मैं एक और मामा के साथ पास के संतालों की बस्ती से बाँस काटकर लाने के लिए निकल पड़ा.

हमारा गाँव संताल परगना में है. जो राजमहल की पहाड़ियों की गोद और खूबसूरत पहाड़ी नदियों के बीच बसा हुआ है. संतालों की आबादी यहाँ ज़्यादा है, इस वजह से यह संताल परगना कहलाया. संतालों के अलावा यहाँ पहाड़िया, कोल और महली आदिवासी समुदाय भी निवास करते हैं. धीरे-धीरे ग़ैरआदिवासी समुदाय भी यहाँ रोटी की तलाश में पहुँचा और यहाँ के प्रभुत्वशाली वर्ग में तब्दील हो गया. मैं भी ऐसे ही एक ग़ैरआदिवासी समुदाय से आता हूँ, जिनके पुरखे रोटी की तलाश में आए और फिर यहाँ के आका बन गए. इसलिए ऐसे ग़ैरआदिवासियों को आदिवासी ‘दिकू’ कहते हैं. दिकू का अर्थ है जो दिक देता है, मतलब परेशान करता है. मैं एक दिकू परिवार में पैदा हुआ और संतालों के बीच रहते हुए भी मेरी पूरी परवरिश बतौर दिकू हुई. जाने-अनजाने घर वालों और मेरे समाज ने पूरा ख़याल रखा कि मैं यहाँ के आदिवासियों की तरह बिल्कुल न हो पाऊँ. मैं उनसे अलग तरह के कपड़े पहनता था, अलग तरह का खाना खाता था, हर तरह से उनसे अलग और ‘श्रेष्ठ’ दिखने की कोशिश करता था. इतना ही नहीं अपने परिवार और समाज की परवरिश के फलस्वरूप मैं उनके पहनावे, उनके खाने की चीज़ों और विशेषकर उनके काले रंग का हर सम्भव माखौल बनाता था. उन्हीं के पहाड़ों,जंगलों के बीच रहते हुए ताज़ी साँस लेता था और उन्हें ही पिछड़ा समझता था. इस तरह से मैं अपने दिकू समाज में काफ़ी सम्मानित भी था क्योंकि इन सारी ‘विशेषताओं’ के साथ मुझे एक अच्छे स्कूल में पढ़ने का मौक़ा मिल गया था. वहाँ भी मेरे अच्छे रिज़ल्ट और मेरे अच्छा दिकू होने की वजह से मुझे विशेष ‘सम्मान’ हासिल था.

इस तरह ज़िंदगी बिल्कुल रवानगी के साथ चल रही थी. वैसे भी खुशफहमी के जीवन का भी अलग ही सुकून होता है. बारहवीं की परीक्षा अच्छी हुई थी. अच्छे परिणाम की भी उम्मीद थी. और बेहतर दिकू बनने के लिए मैं किसी प्रतिष्ठित कॉलेज या विश्वविद्यालय में प्रवेश लेने का सपना देख रहा था. मैं अपने परिवार की चौथी पीढ़ी से था जो संताल परगना में रह रहे थे. सोलह साल अपनी ज़िंदगी के गुज़ार चुका था, पर संतालों से लगाव तो दूर किसी भी प्रकार की सहानभूति तक मेरे अंदर कहीं नहीं थी.

इस तरह सोलह साल का एक दिकू लड़का संताल परगना के पाकुड़ जिले के महेशपूर प्रखंड के अमलादही गाँव में अपने दिकू मामा के साथ ठसक से घर से निकल कर मंडप बनाने के लिए बाँस लेने निकला और फिर कभी घर लौट कर नहीं आ पाया. एक घटना ने मेरे सोचने की दिशा ही बदल दी. अगर उस दिन वह घटना नहीं घटी होती तो मैं कुछ भी होता पर बेहतर मनुष्य कभी नहीं बन पाता (जितना भी आज हूँ).

मैं जब अपने मामा और अपने दोस्त रिमिल टुड़ू के साथ बाँस लेने संतालों की बस्ती की तरफ़ जा रहा था तब तक मैं अपने मामा की शादी की सारी प्रक्रिया को बेहद क़रीब से देख रहा था. होने वाली मामी को पसंद करने की बेहद जटिल प्रक्रिया से लेकर दहेज की जद्दोजहद तक. बहरहाल वापस आते हैं अमलादही गाँव के उस पगडण्डी पर जहाँ मैं और रिमिल टुड़ू मेरे मामा के साथ बेहद उत्साह के साथ बाँस काट कर लाने जा रहे थे. अभी हम संताली बस्ती में प्रवेश करने ही वाले ही थे कि मैंने देखा बेहद सादे तरीक़े का एक संताली मंडप बना हुआ है जहाँ किसी की शादी हो रही थी. पर मैं यह देखकर थोड़ा असमंजस में पड़ गया कि दूल्हे और दुल्हन की जगह वहाँ कोई बुज़ुर्ग दम्पति बैठे हुए थे. मैं कुछ समझ नहीं पाया तो मैंने अपने दोस्त रिमिल से पूछा कि यह क्या हो रहा है ? क्योंकि पहले मुझे लगा था की शादी हो रही है फिर बुज़ुर्ग-दम्पत्ति को बैठे देख कर यह ख़्याल ही उलझ गया. रिमिल ने बिल्कुल सहज तरीक़े से जो बताया वह मुझे असजह कर गया और मेरी सोच को हमेशा-हमेशा के लिए बदल कर रख दिया. रिमिल ने बताया, ‘शादी तो वहाँ पास बैठे लड़के की ही है, पर अभी तक उसके माता-पिता की शादी नहीं हुई है.

संताली प्रथा है कि अपने बच्चों की शादी से पहले उसी मंडप में माता-पिता को शादी करनी पड़ती है.’ यह सुनने के बाद एक पल के लिए तो मैं भौंचक्का रह गया. मुझे पहली बार संतालों की किसी बात पर हँसी नहीं आई, बल्कि होश उड़ रहे थे. मुझे लगा ऐसा हो सकता है क्या? क्योंकि मैंने लगातार अख़बारों और पत्रिकाओं में सह-जीवन को लेकर ख़ूब हल्ला देखा था. शादी किए बिना साथ रहने की बेहद माडर्न कही जा रही प्रथा पर अपने आस-पास के समाज को आहें भरते देखा था. और यहाँ सदियों से यह प्रथा इतने सहज तरीक़े से मौजूद है इसका मुझे इलहाम तक नहीं था. पहली बार लगा कि आदिवासी समाज हमसे बहुत आगे है. उसकी सोच से अभी हम काफ़ी साल पीछे हैं और यह भी कि यहाँ पैदा होकर भी,उनके बीच रहकर भी मैं संतालों के बारे में, आदिवासियों के बारे में कुछ नहीं जानता. इस कुछ नहीं जानने ने एक अजीब तरह की बेचैनी से मुझे भर दिया और मेरे आदिवासियों और दुनिया को देखने की नज़र को ही बदल कर रख दिया.

आज मेरे कई दोस्त हैं जिनके बच्चे स्कूल जाने लगे हैं पर उन्होंने अभी शादी इस वजह से नहीं की है कि उनके माता-पिता की शादी नहीं हुई है. आप सोचिए कि यहाँ दो लोगों का साथ रहना न समाज की नज़र में ग़लत है और न ही उनके बच्चे नाजायज़. मैं ‘नाजायज़’ जैसे हार्श शब्द का इस्तमाल जान-बूझकर कर रहा हूँ. बिना शादी के पैदा हुए संतानों को विकसित से विकसित कहा जाने वाला दिकू समाज कैसे देखता है, इससे हम सब भली-भाँति परिचित हैं. सोचिए जिस शादी को जो समाज जीवन का अल्टिमेट लक्ष्य मानता है और तमाम तिकडम करता है, ठीक उसके पास रह रहा आदिवासी समाज इससे बेख़बर मौज से जीवन जी रहा है. जो समाज शादी से ज़्यादा साथ रहने को महत्त्व दे, वह सचमुच में अनुकरणीय है.

हैरतंगेज़ बात यह है कि ‘वेक अप सिड्’ जैसी फ़िल्म देख कर कि उसमें बिना शादी के एक लड़का और लड़की एक ही फ़्लैट में साथ रहते हैं; आहें भरने वाला समाज संतालों को इसी वजह से पिछड़ा और गुज़री हुई सोच का मानता है. मुझे आज तक यह समझ नहीं आया कि दिकू लोग ऐसी आँखें कहाँ से लाते हैं जो एक ही आँख से एक ही चीज़ को दो तरह से देखता है. दैनिक जागरण के अंतिम पेज पर यह पढ़ कर कि अमेरिका में बिना शादी किए साथ रहना कोई मामला ही नहीं, वह आहें भरने लगता है और वही भला मानुष बिना शादी के साथ रहते हुए मेरे दोस्त और उसकी बच्ची को स्कूल जाते देख कर हिक़ारत से भर उठता है. इसी दो-नज़री ने दिकू समाज का लगातार नुक़सान किया है. दहेज के नाम पर लड़कियाँ मारी गईं, ज़िंदा जलाई गईं. ख़ानदान की इज़्ज़त के नाम पर प्यार में पड़े जोड़े या तो तोड़ दिए गए या तबाह कर दिए गए. शादी को नियम की तरह जीने पर मजबूर हुए पर एक दूसरे के हमसफ़र नहीं बन पाए. आदिवासी समाज में दहेज जैसी प्रथा के न होने को आज हम सब जानते हैं. पर बस जानकर चुप रह जाने में ही भलाई समझते हैं. सहजीविता में विश्वास करने वाला समाज दहेज जैसी सड़ी प्रथा का समर्थक हो भी नहीं सकता. यहाँ जीवन साथी चुन लिया जाता है, थोपा नहीं जाता. प्रकृति की तरह ही यहाँ सब कुछ सहज है.

शादी की बात के क्रम में यह भी जानना दिलचस्प होगा कि कैसे शादी यहाँ साथ रहने और जीने के विश्वास का ही नाम है. इसे भी एक घटना के माध्यम से बताना चाहूँगा. यह घटना भी क़रीब 15 साल पहले की है. मेरे गाँव डूमरचीर में दुर्गा पूजा का मेला था. हमारे यहाँ मेला लालटेन और डिबिया की रोशनी में भी रात भर चलता है. सुबह जब मेले से लोग वापस लौट रहे थे तब मैं बड़ी दिलचस्पी से उन्हें मौज से वापस घर लौटते देख रहा था. तभी मैंने अचानक देखा कि एक लड़की, एक लड़के को चप्पल से पीट रही है और संताली में उसे भला-बुरा भी कहे जा रही है. भीड़ जुट गई और मामले को तभी के लिए शांत किया गया. तय हुआ कि शाम में सभी गाँव वालों के सामने विचार होगा. आदिवासी समाज में किसी भी तरह का निर्णय पूरा समाज मिलकर लेता है, जिसमें दोनों पक्षों की बातों को विस्तार से सुना जाता है. उसके बाद जो फ़ैसला होता है उसे दोनों पक्ष स्वीकार भी करते हैं.

घटना यह थी कि मेले में उस लड़के ने उस लड़की को देखा था और उसे वह पसंद आ गई थी. मेले में बेपरवाह हो रात भर घूमना कुँवारी और अकेली लड़की तक के लिए आदिवासी समाज में कोई मुद्दा नहीं है. एक ही मेले में माता-पिता और बेटी अपने तरीक़े से रात भर बिता सकते हैं. पसंद आने पर लड़के ने लड़की से बात-चीत बढ़ाई. लड़की भी उसमें दिलचस्पी ले रही थी. पर इतनी भी नहीं कि वह उसके साथ उसके घर जाने को तैयार हो जाती. ऐसा होता है संताल समाज में कि अगर किसी लड़की को कोई लड़का पसंद आ जाए तो वह उसके साथ उसके घर जाने को तैयार हो जाती है. उसके घर जाकर रहने लगती है और थोड़े दिनों में उसे यह महसूस होने लगे कि उसका ससुराल या लड़का उसके लायक नहीं हैं या वह वहाँ ख़ुश नहीं रह पाएगी तो अपने घर वापस लौट जाती है. लड़की के ऐसा करने पर लड़का और उसके परिवार को ही बदनामी झेलनी पड़ती है. माना जाता है कि लड़के का परिवार इस लायक नहीं है कि एक लड़की को बहु बना सके. पर यह सब बहुत स्वाभाविक तरीके से होता है. लड़की की आगे की ज़िंदगी या उसकी शादी में इस वजह से कोई रुकावट नहीं आती. दिकु समाज की तरह शादी को यहाँ सात जन्मों का रिश्ता नहीं माना जाता बल्कि मन से मन का मिलन यहाँ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है. जबकि आदिवासियों के बिल्कुल पास रहने वाला दिकू समाज तो बेटी के किसी लड़के द्वारा हाथ पकड़ने तक से मर्माहत हो जाता है और बाक़ी हम सबको पता है. हाँ तो जब वह लड़की उसके साथ उसके घर जाने को तैयार नहीं हुई तो वह उसे ज़बरदस्ती घर चलने की ज़िद करने लगा और इसी क्रम में वह लड़की को अपने घर ले जाने के लिए बाँह पकड़ कर खींचने लगा. बस क्या था, लड़की ग़ुस्सा हो गई और उसे चप्पल से पीट दिया.

बाद में पास वाले गाँव में विचार-सभा बैठी. यह गाँव लड़के का गाँव था. जिसमें लड़के को दोषी माना गया. लड़के ने अपनी ग़लती भी स्वीकार की और उसे जो दंड दिया गया उसे उसने स्वीकार भी किया. दंड के रूप में ज़्यादातर मामलों में कोई शारीरिक दण्ड नहीं दिया जाता बल्कि हैसियत के अनुसार उसे आर्थिक दण्ड दिया जाता है. समाज द्वारा दोषी की भर्त्सना ही सबसे बड़ी सज़ा समझी जाती है. यह आदिवासी समाज में ही सम्भव है कि लड़के के गाँव में, लड़के की पिटाई की विचार सभा में, लड़के को ही दोषी क़रार दिया जाए.

अपने आदिवासी दोस्तों की वजह से जितना आदिवासी समाज को समझ पाया हूँ उनके प्रति सम्मान बढ़ता ही गया है और यह भी कि प्रकृति के साथ उनकी जो सहभागिता है वही उनके जीवन का सार है. जैसे प्रकृति की नज़र में सब समान होते हैं, वैसे ही आदिवासी समाज में भी सभी समान माने जाते हैं. कोई अपने रूप-रंग या क़द-काठी की वजह से श्रेष्ठ नहीं समझा जाता. लिंग के आधार पर भी भेदभाव नहीं होता और सबको काम करना पड़ता है. स्त्री-पुरुष दोनों मिलकर समाज को चलाते हैं. इसलिए यहाँ दिकू समाज के उलट स्त्रियाँ आज़ाद, आत्मनिर्भर और सहज होती हैं. इससे एक ऐसा समरस समाज बनता है जो हर किसी का सपना होना चाहिए. समरसता ऐसी कि शिकार में साथ गए कुत्ते तक को शिकार के बँटवारे में बराबर का हिस्सा मिलता है. कुत्ते की मेहनत और उसकी भागीदारी को भी स्वीकार किया जाता है. ऐसा नहीं कि उसके सामने शिकार किए गए माँस के दो-चार टुकड़े फेंक दिए जाते हैं.

पूरी दुनिया की तरह हमारे यहाँ भी आदिवासीयों को पिछड़ा,मूर्ख और बेकार माना जाता है. उन्हें एक ऐसा समुदाय माना जाता है जिनके पीठ पर पैर रख कर बुलंदी पर चढ़ा जा सकता है और उन्हें फिर भी बेकार समझा जा सकता है. शहर में रहने वाले और आदिवासी इलाक़े से दूर रहने वालों की ऐसी ग़लत धारणा को फिर भी समझा जा सकता है पर जो अब तीन-चार पीढ़ियों से उनके साथ रहते आए हैं उनकी आदिवासियों को बेकार समझने की अवधारणा आज मेरे समझ से बाहर की चीज़ लगती है. पर अपने बचपन को याद करके थोड़ा-बहुत समझ पाता हूँ कि कैसे मुझे पूरा समाज मिलकर बचपन में ही दिकू में तब्दील कर चुका था जिसे संताल अपने काले रंग की वजह से पिछड़े और बेकार लगते थे. भात को ‘दका’ बोलने के कारण बोक्का (मूर्ख) लगते थे.
आज जब पूरी दुनिया पृथ्वी को बचाने को लेकर चिंतित है. जलवायु परिवर्तन को लेकर दुनिया भर में फ़ाइव-स्टार स्तर की गोष्ठियों-सम्मेलनों का आयोजन हो रहा है.

पानी,हवा तक के संकट का समय सामने खड़ा है. पेड़ बचाने, बाघ बचाने की नई-नई स्किमें बनाई जा रही हैं और इस स्कीम से सम्बंधित नए आइडिया लेकर आने वालों को पुरस्कृत भी किया जा रहा है. जो सदियों से प्रकृति की रक्षा कर रहे हैं. जंगल, पहाड़ को जिन्होंने बचाए रखा है, नदियों – झरनों को जिन्होंने ज़िंदा रखा है उन्हें आज विकास-विरोधी कह कर जंगल से खदेड़ा जा रहा है. उनकी ही जमीन से उन्हें विस्थापित किया जा रहा है.

‘एक आदिवासी का जीवन प्रकृति पर आधारित होता है’ ऐसा तमाम आदिवासियों पर आधारित सेमिनारों में सुनने को मिलता है. उन्हें धरती-पुत्र, पर्वत-पुत्री आदि कहा जाता है. पर सवाल यह है कि ग़ैरआदिवासी का जीवन क्या प्रकृति पर आधारित नहीं होता? अगर होता है तो वह क्या कर रहा है प्रकृति को बचाने के लिए बालकनी में गमलों में फल-सब्ज़ियाँ पैदा करने के अलावा? आदिवासी प्रकृति का रक्षक वग़ैरह नहीं है. यह सब तो ग़ैरआदिवासियों की शब्दावली है. वह रक्षक नहीं है, वह तो प्रकृति के साथ जीता है. उसके साथी, पुरखा और भगवान सब कुछ प्रकृति है. आज जहाँ पूरी दुनिया धर्म के नाम पर मरने-मारने को तैयार है. कहीं कोई बौद्ध मुस्लिमों का दुश्मन बना हुआ है तो कहीं मुस्लिम-ईसाई भिड़े हुए हैं तो कहीं हिंदुओं को मुस्लिमों- ईसाइयों से दिक़्क़त है. इसी अफ़रा-तफ़री के बीच आदिवासी प्यार फैला रहे हैं और ऑक्सीजन भी. नहीं तो धर्म के नाम पर लड़कर लोग बाद में मरते पहले साँस अटकने की वजह से मर जाते.

आदिवासी समुदाय पेड़, पहाड़,नदी, सूरज आदि को अपना ईश्वर मानता है. यह कितनी ख़ूबसूरत बात है कि जिनकी वजह से हमारा इस धरती पर वजूद है, हम ज़िंदा रहते हैं, हमें खाना नसीब होता है, हम जश्न मनाते हैं, नाचते -गाते हैं उन्हें ही अपना ईश्वर मानें. प्रकृति है तो हम हैं कि मामूली पर सबसे ज़रूरी समझ आदिवासियों के पास है. अगर हम इस मामूली बात को इतने हज़ार साल की सभ्यता में भी नहीं समझ पाए तो आदिवासियों को कहाँ समझ पाएँगे. इसलिए आदिवासी हमारे लिए अजनबी ही बने रहे और यह प्रकृति या ये धरती जिसे हम माँ कहते हैं, वह दोहन की ही वस्तु बनी रही. एक आदिवासी बुज़ुर्ग ने मुझसे पिछले दिनों एक बात कही जिससे मैं भी पूरा इत्तेफ़ाक रखता हूँ. हमारे गाँव की बाँसलोई नदी के किनारे बैठ कर बतियाते हुए उन्होंने कहा- ‘हम मानव सभ्यता के विनाश की उलटी गिनती शुरू कर चुके हैं’. मुझे दुविधा में पड़े देख और स्पष्ट करते हुए कहा कि ‘दुनिया की सारी मानव-सभ्यताएँ नदियों के किनारे ही विकसित हुईं. अब हम नदियों को ही ख़त्म कर रहे हैं… तो उल्टी गिनती तो हमने शुरू कर ही दी है. अब यह देखना है कि हम वहाँ तक पहुँचते कब हैं.’

 

 

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