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किसान आन्दोलनः आठ महीने का गतिपथ और उसका भविष्य-पन्द्रह

जयप्रकाश नारायण 

9 अगस्त, क्रांति दिवस: किसान आंदोलन का आवाहन

किसान आंदोलन का नवीनतम नारा  है, कारपोरेट खेती छोड़ो। तीन काले कृषि कानून वापस, लो या मोदी गद्दी छोड़ दो। अभी तक किसान आंदोलन की मुख्य धारा का चिंतन रहा है, कि हम गैर-राजनीतिक संगठन हैं।

किसान संगठनों का राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है। हमारी यूनियन  पूर्ण रूप से गैर-राजनीतिक है। मुख्यधारा की राजनीति से किसान संगठन हालिया समय तक एक दूरी बना कर चलते थे। लेकिन, घटनाक्रमों के विकास ने किसान आंदोलन की गैर-राजनीतिक वैचारिक  स्थिति से कारपोरेट खेती छोड़ो या मोदी गद्दी छोड़ो की यात्रा बहुत ही दिलचस्प है। हमें इस विकास क्रम को गहराई से समझने की जरूरत है।

आजादी के दौर में भी किसान या मजदूर संगठनों को लेकर  कांग्रेस या हिंदू महासभा जैसे संगठन बार-बार यह दबाव बनाते थे, कि इन संगठनों को आजादी के आंदोलन का हिस्सा न बनाया जाये।

किसान,  नौजवान, छात्र, मजदूर आजादी के आंदोलन में न शामिल हों। कभी-कभी दबाव बनाने के लिए राजनीतिक पहलकदमी अपने हाथ में लेने के लिए उस समय भी छात्रों, नौजवानों, किसानों, मजदूरों से कहा जाता था, कि वह कार्य बहिष्कार करें,  संस्थान छोड़ें और आंदोलन के साथ खड़े हैं ।

1974 के जयप्रकाश आंदोलन में भी हमने यह आवाज सुनी है, कि छात्र, नौजवानों को भ्रष्टाचार के खिलाफ चल रहे आंदोलन में शामिल होना चाहिए और अपने विद्यालय, कॉलेज या शिक्षण संस्थाओं से जरूरत पड़ने पर बाहर आ जाना चाहिए।

साफ बात है, कि आंदोलन के विकास के साथ-साथ आंदोलन की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए नारे सोच-समझ, चिंतन बदलते हैं और एक अवस्था में जाकर उस आंदोलन का जो मूल अंतर्विरोध यानी वे मूल सामाजिक-आर्थिक कारण, जिसके चलते यह संकट खड़ा हुआ है, उसको चिन्हित  किया जाता है और पूरा आंदोलन उस केंद्रीय अंतर्विरोध के इर्द-गिर्द केंद्रित होने लगता है। और संकट को जन्म देने वाली मूल शक्तियां, आंदोलन के निशाने पर आ जाती हैं । ऐसा हमने आजादी के दौर में भी देखा है और उसके बाद भी कई मोड़ो पर हमने आंदोलन की धार को केंद्रित होते देखा है।

आज  हम गैर-राजनीतिक किसान संगठनों को  धीरे-धीरे कृषि संकट के मूल कारण को पहचानते हुए देख रहे हैं। अगर किसान संगठन अपने आंदोलन का मुख्य और केंद्रीय प्रश्न कारपोरेट खेती छोड़ो से जोड़ रहे हैं,  तो बहुत साफ है, कि भारतीय समाज ने संकट की गहराई  समझते हुए कारपोरेट को अपने राजनीतिक निशाने पर ले लिया है। किसान आंदोलन अपने आर्थिक या तात्कालिक हितों  से आगे बढ़कर  राजनीतिक सत्ता के केंद्र, जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भी सक्रिय हैं, उनके खिलाफ निशाना केंद्रित कर रहा है।

हम जानते हैं, 5 जून 2020 को मोदी की सरकार ने कारपोरेट पूंजी के कृषि में प्रवेश के लिए अध्यादेश के द्वारा 3 कृषि कानून ले आयी थी तो किसानों के तरफ से पहली प्रतिक्रिया इस कानून को निरस्त करने की ही थी।

किसान संगठनों ने कहा कि कानून कृषि के खिलाफ हैं ।खेती-किसानी को बर्बाद करेंगे । हमारी खाद्य सुरक्षा पर चोट पहुंचाएंगे। हमें कारपोरेट पूंजी  का गुलाम बना देंगे। इसलिए कानून हमारे व्यापक कृषक समाज के खिलाफ तो है ही, यह   शहरी और ग्रामीण गरीबों की खाद्य सुरक्षा के लिए भी घातक  होंगे।

इसलिए इन्हें वापस लेना चाहिए। किसान आंदोलन पिछले लगभग  साढ़े 8 महीने से जारी है। आंदोलन द्वारा लगातार कृषि कानून वापस लेने की मांग को उठाने के क्रम में किसान नेतृत्व अपने  निष्कर्ष से कैसे यहां तक पहुंचा कि आज जो सरकार चल रही है, वह किसके गिरफ्त में है।

सरकार की नाभि का अमृत कहां है। जहां से इस सरकार को शक्ति और ऊर्जा  प्राप्त हो रही है।

अगर उस पर चोट नहीं किया गया, तो आज के संकट को, यानी तीनों काले कानून और गहराई से संकट में फंसी हुई कृषि और किसान को बचाया नहीं जा सकता।  किसान आंदोलन  के लंबे चलने के क्रम में ही उनके चिंतन में यह विकास हुआ। और मुख्य शत्रु को किसान आंदोलन ने पहचान लिया ।

किसान आंदोलन को चिड़िया की  आंख दिख गयी, जहां निशाना लगाने पर सारे सवाल हल करने की तरफ भारतीय समाज और राजनीति कदम बढ़ा सकती है।

9 अगस्त क्रांति दिवस के अवसर पर किसान आंदोलन का आवाहन  है, कारपोरेट खेती छोड़ो, तीनों कृषि कानून वापस लो या गद्दी छोड़ दो, यह राष्ट्रीय आंदोलन के विरासत से जोड़ने के साथ-साथ 1947 की आजादी  के बाद सत्ता की सारी शक्तियां जिन हाथों में केंद्रित की हुई हैं, उन्हें उन्हें चिन्हित कर लेने का है। भारत में विस्तृत खेतों और मैदानों में फैली हुई उत्पादक श्रम-शक्ति  समूह द्वारा, आजादी के इतने दिनों बाद अपने मुख्य शत्रु को पहचान कर और उस पर निशाना केंद्रित करना किसान आंदोलन में एक बहुत बड़ी छलांग है ।

यही नहीं,  अपने आंदोलन के क्रम में मोदी गद्दी छोड़ो का आवाहन करके किसान संगठनों ने संघर्ष को एक नये मुकाम पर पहुंचा दिया है।

जहां भारतीय लोकतंत्र का आजादी के बाद का सबसे रोमांचक नाटक राजनीतिक  रंगमंच पर खेला जाने वाला है।

भारतीय लोकतंत्र के राजनीतिक आकाश में आने वाले दौर में जो झंझावात  आने वाला है, वह शायद हमारी आजादी के महासंग्राम के बाद सबसे ज्यादा प्रेरणादायी, रचनात्मक और 130 करोड़ भारतीयों के सामाजिक-राजनीतिक जीवन के लिए  निर्णायक होगा। शायद भारत के लोकतांत्रीकरण के लिए  एक प्रेरणादायक, दिलचस्प राजनीतिक छलांग हो। हम लोकतंत्र के एक संवैधानिक ढांचे के अंतर्गत रह रहे हैं।

जहां कोई भी सामाजिक-राजनीतिक, आर्थिक सवाल लोकतांत्रिक संस्थाओं, मंचों और लोकतंत्र के अंदर प्रदत्त राजनीतिक अधिकारों के क्रम में ही हल होने हैं।

असहयोग आन्दोलन शताब्दी वर्ष के समय में किसान आंदोलन ने  जो लक्ष्य निर्धारित किया है, वह बंगाल के पिछले विधानसभा चुनाव से आगे बढ़ते हुए एक नयि ऊंचाई पर जाने के तरफ निर्देशित है। लोकतंत्र में हर संस्था अपने राजनीतिक-आर्थिक सवालों और सत्ता में दावेदारी के सवाल को एक राजनीतिक नारे के तहत ही सूत्रबद्ध करती है। बंगाल के चुनाव से आगे बढ़ते हुए किसान आंदोलन ने कारपोरेट खेती छोड़ो के मंजिल तक अपने संघर्ष के नारे को उन्नत कर राजनीतिक लोकतांत्रिक संघर्षों के सर्वथा नयी मंजिल तक पहुंचाने में सफल हुआ है।

आगे आने वाले वर्षों में भारतीय लोकतंत्र के भविष्य का फैसला इन्हीं संघर्षों की जटिल राह से गुजरने वाला है।
(अगली कड़ी में जारी)

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