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प्रेमचंद आज होते तो ‘ठाकुर का कुआं’ न लिखकर ‘ठाकुर की कुर्सी’ कहानी लिखते

आज़मगढ़

प्रेमचंद जयंती के अवसर पर 31 जुलाई 2023 को आज़मगढ़ के रैदोपुर स्थित राहुल चिल्ड्रेन एकेडमी में एक गोष्ठी का आयोजन हुआ। गोष्ठी का विषय था ‘समावेशी राष्ट्र की परिकल्पना और लिंग, जाति, धर्म का सवाल’ सन्दर्भ, प्रेमचंद।

गोष्ठी की प्रस्तावना रखते हुए जन संस्कृति मंच के उत्तर प्रदेश सचिव दुर्गा सिंह ने कहा, कि आज आजादी के 75 साल पर सत्ता प्रायोजित अमृत काल के अंतर्गत सुनियोजित रूप से आजादी की लड़ाई के दौरान बने आधुनिक, जनतांत्रिक, प्रगतिशील   मूल्यों और सिद्धान्तों को पलट देने या खत्म करने या उसे विद्रूप अर्थ में बदल देने का काम चल रहा है। अमृत काल हिन्दूवादी राष्ट्र की फासिस्ट परियोजना के प्रतीक के रूप में स्थापित कर दिया गया है। एक ऐसा राष्ट्र बनाने की कोशिश हो रही है, जिसमें स्त्री, दलित, अल्पसंख्यक, आदिवासी या अन्य वंचित समूह बहिष्कृत किये जाएंगे या किसी भी तरह के मानवीय मूलभूत अधिकार से वंचित रखे जाएंगे। आज देखिये कि मणिपुर के साथ हिन्दू राष्ट्रवादी क्या कर रहे हैं, कश्मीर में उन्होंने क्या किया है! गुजरात में जो किया 2002 में वही पूरे देश में करना चाह रहे हैं।

महिलाओं के प्रति हिन्दू राष्ट्रवादियों का क्या रवैया है, यह महिला पहलवानों के मुद्दे पर देखा जा सकता है और अभी मणिपुर में जो हुआ, एक प्रशिक्षित हिन्दूवादी भीड़ ने किया सब और सुनियोजित ढंग से किया। ऐसे में प्रेमचंद को याद करने का सन्दर्भ बदल जाता है।

प्रेमचंद जब लिख रहे थे, तो आधुनिक जनतांत्रिक मूल्य, प्रगतिशील मूल्य का निर्माण और इसके विरुद्ध साम्प्रदायिकता का उभार हो रहा था।

धर्म आधारित राष्ट्र या धार्मिक प्रतीकों में ही राष्ट्र को देखने की प्रवृत्ति जोर पकड़ रही थी। साम्प्रदायिक सोच के लोग समाज में विभाजन को स्थापित करने में लगे थे। प्रेमचंद अपने साहित्य में इन सब सवालों से मुखातिब हो रहे थे।

उन्होंने हिन्दी भाषा के अपने पहले ही उपन्यास ‘सेवासदन’ में सुमन के माध्यम से इस बहिष्करण को चिन्हित किया और स्त्री को बतौर मनुष्य, नागरिक मानने के भाव पर जोर दिया।

प्रेमचंद के यहाँ स्त्री जो सम्मान, इज्जत पाती है, वह एक प्रस्तावना की तरह है, कि बनते राष्ट्र में भी तत्व शामिल रहेगा। धर्म आधारित राष्ट्र की किसी भी प्रस्तावना का यह प्रत्याख्यान ही था। इसी तरह से उनके सारे साहित्य में यह बात मौजूद है। उन्होंने 1857 के बाद ब्रिटिश शासकीय इतिहासकारों द्वारा प्रस्तुत मुस्लिम भारत और हिन्दू भारत जैसे झूठे सामराजी विभाजन के छद्म को अपने लेखन से खंडित किया।

गोष्ठी के अगले वक्ता के रूप में जनवादी लेखक संघ के आज़मगढ़ अध्यक्ष अजय गौतम ने कहा कि प्रेमचंद ने अपने लेखों में राष्ट्र की परिकल्पना पर विचार किया है।  साम्राज्यवादी और पूंजीवादी व्यवस्था की आलोचना के साथ वे साम्प्रदायिकता और जातिवाद के सवाल पर मुखर हैं। अपने लेखों में उन्होंने बेलाग ढंग से अपने विचार प्रस्तुत किये हैं।

गोष्ठी में बोलते हुए आफताब आलम ने कहा कि हिन्दी और उर्दू में पुल का काम प्रेमचंद करते हैं। उन्होंने कहा कि आज मुसलमान को हिन्दू उतना ही जानते हैं जितनी उन्हें सरकार और मीडिया बताती है। जबकि दोनों पड़ोसी हैं और आपस में बात करके एक-दूसरे को जान सकते हैं। अब एक शब्द मीडिया ने चलाया ‘गजवाए हिन्द’। बतौर इस्लामी स्कालर मुझे यह शब्द कहीं नहीं मिला। उन्होंने कहा कि लेकिन प्रेमचंद मुसलमान को जानते थे।

उन्होंने एक कहानी लिखी ‘हज्जे अकबर’। हिज्जे अकबर उसको कहा जाता है, जिसे सच्चा हज नसीब होता है। इस कहानी में में एक दाया है, जो हज छोड़ कर बीमार बच्चे की सेवा के लिए लौट आती है। प्रेमचंद उसके लिए लिखते हैं कि उसे हज्जे अकबर नसीब हुआ।

प्रेमचंद ने आचार्य चतुरसेन शास्त्री के लेख ‘इस्लाम का विषवृक्ष’ के विरुद्ध लेख लिखा। आज कौन लेखक है, जो दोनों कौमों को जानता है। हिन्दू लेखक है तो वह लिखेगा, तो हिन्दू माइथाॅलाजी पर चला जाता है। आज हिन्दू लेखक के यहाँ कितने मुसलमान चरित्र हैं।
जनवादी लेखक संघ के आज़मगढ़ सचिव अरुण मौर्य ने कहा कि आज जो हिन्दू राष्ट्र बनाने की बात हो रही है, उसमें दलित, पिछड़ा, मुस्लिम, महिला आदि किस हैसियत में रहेंगे!

समकालीन जनमत के सम्पादक केके पाण्डेय ने गोष्ठी में शिरकत करते हुए कहा कि प्रेमचंद पर आज दो तरह के हमले हैं। एक हिन्दूवादियों की तरफ से दूसरा दलितवादियों की तरफ से। प्रेमचंद ने 1936 तक साहित्य की कसौटी को बदल दिया था। प्रेमचंद ने तब तक साहित्य की जनतांत्रिक चेतना बना दी थी। प्रेमचंद के लिए राष्ट्र जाति का समीकरण नहीं था, बल्कि जाति का विनाश था।

इप्टा आज़मगढ़ के सचिव बैजनाथ यादव ने कहा कि देश की गरीब जनता जब समझेगी कि वह राष्ट्र है, तब वह राष्ट्र बनेगा। लोगों की भावनाओं और पीड़ा से राष्ट्र उपजा। हिन्दू राष्ट्र में आदिवासी की बात नहीं है, उसकी संस्कृति पर बात नहीं है। सांस्कृतिक विविधता पर बात नहीं है। संस्कृति पर अगर दिमाग और दृष्टि स्पष्ट नहीं है, तो राष्ट्र की बात कैसे होगी!

शिब्ली काॅलेज में उर्दू विभाग के अध्यक्ष डाॅ. ताहिर ने कहा कि प्रेमचंद समकालीन सवाल पर बेबाकी से लिखते थे। जिस समाज का सपना वह देख रहे थे, उसके लिए लिख रहे थे। आज टीवी खोलिए तो सिर्फ नफरत की बातें होती हैं। कम से कम ऐसी गोष्ठियों में ऐसे लोग भी हैं, जो नफरत के खिलाफ बातें करते हैं। समाज में विषमता बहुत है। वहशीपन से भरा समाज बन रहा है। मणिपुर में एक औरत का बलात्कार होता है, उसे नंगा किया जाता है, भीड़ के सामने घुमाया जाता है और लोग देखते हैं खड़े होकर। किस समाज की बात की जाए!  प्रेमचंद का साहित्य मनुष्य को बदलता है। प्रेमचंद के यहाँ हिन्दू-मुसलमान का विभाजन नहीं है। इसीलिए वे साम्प्रदायिकता पर बेबाकी से विचार करते हैं। प्रेमचंद को पढ़ने का मतलब है, समाज को बेहतर बनाने के लिए सोचना और उसके लिए काम करना।

एडवोकेट अनिल राय ने कहा कि प्रेमचंद भाषा की शुद्धिकरण की तरफ नहीं बढ़ते हैं। सांप्रदायिकता की स्पष्ट आलोचना प्रेमचंद करते हैं। सामाजिक उत्पीड़न के खिलाफ प्रेमचंद लिखते हैं, जिसमें उनका ध्यान स्त्री और दलित पर रहता है। प्रेमचंद की जो आलोचना दलितवादियों की तरफ से है, वह नवपूंजीवाद से सम्बद्ध दलित मध्यवर्ग है।

जयप्रकाश नारायण ने कहा कि आज 31 जुलाई 2023 में बात करते हुए हम किससे बात कर रहे हैं और किससे टकरा रहे हैं, यह देखना होगा। स्वतंत्रता आंदोलन के पूरे विमर्श को बदल देने का काम फासिस्ट सत्ता अमृत काल में कर रही है। प्रेमचंद आज होते तो ‘ठाकुर का कुआं’ न लिखकर ‘ठाकुर की कुर्सी’ लिखते। जिस कुर्सी पर बैठकर बलात्कार और हत्या का लाइसेंस दिया जा रहा है। नागरिक निर्माण की प्रक्रिया सर के बल खड़ी कर दी गई है।

1936 में ही अम्बेडकर  जाति उन्मूलन और स्वामी सहजानंद  जमींदारी उन्मूलन का ड्राफ्ट पेश करते हैं  और उसी समय प्रेमचंद प्रगतिशील लेखक संघ के स्थापना सम्मेलन की अध्यक्षता कर रहे थे। इसे एक साथ रखकर देखना होगा।

गोष्ठी के अध्यक्ष मंडल से बोलते हुए प्रगतिशील लेखक संघ के आज़मगढ़ अध्यक्ष
राजाराम सिंह ने कहा कि प्रेमचंद के साहित्य में हमारी जड़े हैं। हमें अपनी जड़ों से जुड़े रहना होगा  चीजें वही हैं, रूप बदल गया है।  आज भी सामंती व्यवस्था है, महाजनी सभ्यता भी है, कर्ज की समस्या किसान के सामने आज भी है। ज्यादा से ज्यादा प्रेमचंद को पढ़ना चाहिए। प्रेमचंद हमेशा पढ़े जाने वाले लेखक हैं। प्रेमचंद में आज भी ऐसे नागरिक बनाने की क्षमता है, जो फासीवाद  से लड़ने के लिए खड़ा हो जाएगा।

जनवादी लोकमंच के अध्यक्ष और अध्यक्ष मंडल में शामिल कन्हैया यादव ने कहा कि प्रेमचंद स्वतंत्रता संग्राम के लेखक थे। प्रेमचंद ने जो विषय उठाए वे आज भी मौजूं हैं। सेवा सदन में सुमन के साथ जो होता है क्या वह समाज में आज नहीं हो रहा है। रंगभूमि में सूरदास की जमीन का अधिग्रहण किया जाता है। क्या आज छोटे किसानों की जमीन का अधिग्रहण नहीं किया जा रहा है।

प्रेमाश्रम में मनोहर जमींदार के कारिन्दे की हत्या करत है, तो पूरे गांव के ऊपर मुकदमा हो जाता है। क्या आज यह सत्ता द्वारा नहीं हो रहा है!

इसी तरह से कर्मभूमि में मुन्नी का बलात्कार होता है। आज मणिपुर में देखिए किस तरह से बलात्कार करने के बाद महिला को भीड़  के सामने घुमाया जाता है।  इसी तरह से प्रेमचंद के सारे साहित्य में ऐसी समस्या उठायी गयी है  जो आज भी आपको देखने पर मिलेगी। प्रेमचंद को पढ़ना होगा। प्रेमचंद को पढ़ने से आज के समय की जो लड़ाई है, उसमें  हमको मदद मिलेगी।  उसमें हमको उनके द्वारा दिए गए सूत्र मिलेंगे। प्रेमचंद का जो अधूरा उपन्यास था उसमें वह कहते हैं कि अब लड़ने के लिए हमें अपने जेब में हथियार रखने होंगे! अध्यक्ष मंडल में शामिल जन संस्कृति मंच के प्रदेश उपाध्यक्ष हेमंत कुमार ने कहा कि प्रेमचंद का लेखन आज भी एक कसौटी की तरह है। गोष्ठी का संचालन ‘सामयिक कारवां’ के सम्पादक रविन्द्र राय ने किया।

यह गोष्ठी जनवादी लोकमंच, जसम, जलेस, प्रलेस और इप्टा की तरफ से आयोजित किया गया था। इस आयोजन में लेखक और सांस्कृतिक संगठनों की एकजुटता पर उपस्थित लोगों ने खुशी जाहिर की और आगे भी एकजुट होकर कार्यक्रम करने पर जोर दिया!

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