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साहित्य-संस्कृति

आजादी के 75 वर्ष और प्रेमचंद के सपने

कल्पनाथ यादव 

प्रेमचंद के समूचे लेखन में उनका तत्कालीन समय किस रंग में प्रतिभासित होता है,  अपने समय के सवालों से कैसे सामना करते हैं और अपनी रचना यात्रा का पथ कैसे निर्धारित करते हैं, यह देखने की जरूरत है।

प्रेमचंद हिंदी साहित्य के पहले रचनाकार हैं, जिन्होंने भारतीय जीवन के विराट फलक को अपने साहित्य में रचने और गहराई से उसकी पड़ताल करने की कोशिश की है।

वृहदाकार भारतीय समाज के अनगिनत क्षेत्रों और कोनों से जीवन की व्यापकता का जो यथार्थ चित्रण प्रेमचंद के यहाँ  मिलता है, अन्य किसी रचनाकार के यहां उस तरह से दुर्लभ है।

प्रेमचंद मनुष्य मात्र के प्रति गहरी आस्था और संवेदनशील निष्ठा से भरपूर एक सजग और इमानदार दृष्टि-संपन्न रचनाकार हैं।

प्रेमचंद  हिंदी साहित्य में जिन जीवन मूल्यों को स्थापित करते हुए अपनी रचना यात्रा पर चलते हैं, उनका उदात्त औचित्य व्यापक वंचित, शोषित, हाशिए के समाज के पक्ष में खड़ा होने की पहल करता है।

पहली बार किसान, मजदूर, गरीब, दलित, वंचित समूह साहित्य का विषय बनता है और प्रेमचंद साहित्य की अलग पहचान निर्मित करते हुए उसे एक मशाल के रूप में आगे चलने वाला आलोक-पुंज सिद्ध करते हैं।

वे मनुष्य के जीवन में विषमता, विसंगति, अन्याय, शोषण और अभाव की पहचान कर उसको अनावृत करते हुए उसके कारकों को चिन्हित करते हैं।

वे इसके निमित्त अपनी रचनाओं में उस युवा पीढ़ी की सृष्टि  करते हैं,  जो अपने समय की असामाजिक, अमानवीय परिस्थितियों और परंपराओं, रुढ़ियों  तथा सत्ता तंत्र से लगातार टकराती है। तथा, एक बेहतर भविष्य के निर्माण के लिए व्यक्ति, समाज और देश का कायाकल्प करने को संकल्पित रहती है।

प्रेमचंद की रचनात्मकता के केंद्र में स्वराज्य की प्राप्ति और भारतीय समाज की बहुलतापूर्ण समावेशी अधिरचना की चिंताएं प्रमुख रही हैं।

प्रेमचंद आजादी का अर्थ केवल ब्रिटिश सत्ता के शासन को हटाने से नहीं करते बल्कि उसके मायने भारतीय समाज में सदियों की गुलामी की विभिन्न संस्थाओं का विनाश करने और एक अधिक मानवीय जनपक्षीय स्थित के सृजन से करते हैं।

इसी के तहत  गुलामी के विभिन्न रूपों का चित्रण उन्होंने अपनी रचनाओं में किया है। किसानों, मजदूरों, दलितों के लिए आजादी विभिन्न स्तरों पर अपेक्षित है। केवल ‘जाॅन’ के स्थान पर ‘गोविंद’ के आ जाने से मेहनतकश जनता अपनी दुश्वारियों से किस हद तक निजात पा जाएगी, इस आजादी का उसके लिए क्या अर्थ होगा, इस पर उन्होंने सवाल उठाया है।

आज आजादी के 75 वर्षों के बाद किसानों, मजदूरों की जीवन स्थित में कितना सकारात्मक परिवर्तन हुआ है, यह देखने की जरूरत है। आजादी की लड़ाई को प्रेमचंद व्यापक जनता की जिस मुक्ति की अवधारणा की दृष्टि से देख रहे थे,  कालांतर में वह किस हद तक प्राप्त हुई है, जिन सवालों से टकराते हुए वह इस आंदोलन में भारतीय जनता के सुनहरे भविष्य की तलाश में उतरते हैं, आज भी वे सवाल जस के तस मौजूद हैं।

गुलामी की ताकतें, राजसत्ता, पितृसत्ता, धर्मसत्ता और वर्णसत्ता अपने निर्लज्ज नंगेपन के साथ आज भी उनके सपनों को छिन्न-भिन्न कर रही हैं।

किसान मजदूर गांवों में महाजनों, जमींदारों, पुरोहितों के मकड़जाल में उलझा हुआ जिस शोषण  का शिकार था,  प्रेमचंद उसकी परतों को उधेड़  कर उसे उद्घाटित  करते हैं।

प्रेमचंद एक सजग दृष्टि-संपन्न रचनाकार थे। विचारों के स्तर पर उन्होंने हमेशा अपने को दुरुस्त करने का काम किया है। अपने समय की व्याख्या करते हुए वे लगातार सवाल उठाते हैं।

आजादी के संघर्ष, उसके परिणाम और उसके भारतीय समाज  की जीवन स्थितियों  में आने वाले परिवर्तन के हर मोड़ पर वह सवालों को सामने लाते हैं और अपने समय की हर हलचल को बड़े गौर से देखते हुए अपनी भूमिका और दृष्टि में परिवर्तन लाते हैं।

गांधी के विचारों  का समर्थन करते हुए उसके साथ आजादी की जंग में शामिल होते हैं,  किंतु उसकी सीमाओं को पहचानते हुए उसकी परिणिति के प्रति चिंतित और सचेत भी होते हैं।

सन् 1930 के आसपास जब देश के परिदृश्य पर आजादी के आंदोलन में गांधी, नेहरू, अंबेडकर, भगत सिंह आदि की मौजूदगी दिखाई देने लगती है, प्रेमचंद्र अपने सवालों के साथ सबसे टकराते हुए दिखाई देते हैं और उनकी रचनाओं में भविष्य की जटिलताओं के संकेत पर्याप्त रूपों में मौजूद होने  लगते हैं।

सांप्रदायिक शक्तियों की उन्हें अच्छी पहचान थी। संस्कृति के सवाल पर वे अपनी आशंका और इसके खतरे को सामने लाते हैं। सांप्रदायिकता की विषैली ताकतों को  संस्कृत के आवरण में भी पहचान लेते हैं।

आज वह विषैला जंतु किस रूप में व्यापक समाज को अपने पंजे में दबोचे है, वह सामान्य ढंग से दृश्यमान है।

प्रेमचंद की रचनाओं में जिस भारतीय समाज का चित्रण है उसकी सबसे बड़ी विशेषता उसकी बहुलता और समावेशी स्वरूप है।

सांप्रदायिकता समाज के इस स्वरूप को छिन्न-भिन्न  करके उसके बीच एक खतरनाक विभाजन पैदा करती है और इसका अपने स्वार्थ में उपयोग करके कुछ खास लोगों का हित साधन करती है।

प्रेमचंद के समय में इसका प्रयोग करते हुए अंग्रेजी सत्ता भारतीय समाज को विभाजित करती है और आजादी के आंदोलन को कमजोर करने और अपने शासन को टिकाए रखने में इसका उपयोग करती है।

आज खतरे का प्रभाव किस रूप में व्यापक हुआ है इस पर बात करने की जरूरत है। कारपोरेट, धर्म और सत्ता ने इस हथियार का किस हद तक उपयोग करते हुए भारत के उस बहुलतावादी  सामाजिक संरचना को किस तरह नुकसान पहुंचाया है, इस पर बात होनी चाहिए।

प्रेमचंद ने आजादी और भारतीय समाज की आत्मा के सवालों को एक दूसरे के पूरक के रूप में रखते हुए दोनों को एक दूसरे के लिए अपरिहार्य और जरूरी समझा है।

स्वतंत्रता के मायने को विस्तार दिया है। जो, भारतीय समाज के सबसे निचले, हाशिये के समाज के लिए सबसे जरूरी चीज है। किसान, मजदूर, दलित और स्त्री के लिए आजादी का बहुआयामी अर्थ-विन्यास  रेखांकित किया है।

उसमें आजादी के विभिन्न रूपों को भी समाविष्ट किया है। इनकी आजादी विभिन्न स्तरों पर बाधित है, जहां से उन्हें मुक्ति की जरूरत है।

राजसत्ता, पितृसत्ता, धर्मसत्ता और वर्णसत्ता सबने इनकी आजादी को अपहृत किया है, जिसे प्रेमचंद अपने साहित्य में उघाड़ते हैं। और, इससे संघर्ष में इनके बहुआयामी संघर्ष को शामिल किया है।

स्त्री शिक्षा, लैंगिक समानता और स्त्री शक्ति के उन्नयन का विचार प्रेमचंद के यहां बहुलता से देखने को मिलता है।

स्त्री के प्रति आदर एवं अधिकार संपन्न समकक्ष नागरिक का भाव उनकी रचनाओं में मिलता है। अपने जीवन में भी वे स्त्री  अधिकार के प्रबल पक्षधर रहे हैं।

स्त्री मुक्ति के एजेंडे पर 75 वर्ष की यात्रा में लिंग अनुपात, नारी सशक्तिकरण से होते हुए बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ तक ही पहुंचे हैं। मुक्ति के सवाल अभी भी भविष्य के गर्भ में है।

किसान मजदूर की मुक्ति के परिदृश्य इधर हाल के समय में हमारे सामने बहुत ही सघन क्रमिकता से उपस्थित हुए हैं।

आजादी ने हमें व्यवस्था के रूप में जिस लोकतंत्र का तोहफा दिया है, उसकी आज की स्थिति  पर बात करते हुए हम लोकतंत्र की वर्तमान में पड़ताल कर सकते हैं।

इस लोकतंत्र के विशाल वृक्ष की छाया में जिन संस्थाओं का संवर्धन एवं पुष्टि लोकतंत्र को मजबूत और सर्व सुलभ, सर्वग्राही बनाने के लिए हुआ, उनकी क्या स्थिति है यह सोचने की बात है।

प्रेमचंद अपने लेखन और जीवन में सदैव प्रश्नों से जूझते हुए, अपनी दृष्टि का परिष्करण करते हुए, व्यापक भारतीय समाज की चिंताओं के साथ जुड़ते हुए अपनी दृष्टि को इस सीमा तक तीक्ष्ण  करते हैं,  कि उनका रचा आज भी उतना ही प्रासंगिक और जरूरी हो गया है, जितना उनके अपने समय में था। शायद उससे भी अधिक।

प्रेमचंद की प्रासंगिकता  और बढ़ती जा रही है।  आज का समय प्रेमचंद के प्रश्नाकुल लेखक का अनुत्तरित प्रश्न बनता जा रहा है!

(कल्पनाथ यादव पेशे से अध्यापक हैं तथा जनसंस्कृति मंच, आज़मगढ़ से जुड़े हैं। उन्होंने आज़मगढ़ में प्रेमचंद पर आयोजित गोष्ठी में यह लेख आधार वक्तव्य के रूप में रखा था।)

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