समकालीन जनमत
साहित्य-संस्कृति

‘ प्रेमकथा एहि भाँति बिचारहु ’

 

(संत वैलेन्टाइन की तरह प्रेम के पक्षधर मगर कई मामलों में उनसे भिन्न संत रविदास थे। उनकी  रचना जगत में प्रेम एक विराट भाव है. रैदास की प्रेम परिकल्पना व्यापक धरातल पर प्रतिष्ठित है .14 फ़रवरी अर्थात प्रेम दिवस भी निकट है आइए संत रविदास की जयंती पर प्रेम के वैशिष्ट्य को व्याख्यायित करता बजरंग बिहारी तिवारी का यह निबन्ध फ़िर से पढ़ें) -सम्पा.

 

प्रेम की सामर्थ्य देखनी हो तो संतों का स्मरण करना चाहिए| संतों में विशेषकर रविदास का. प्रेम की ऐसी बहुआयामी संकल्पना समय से बहुत आगे है. उनके समकालीनों में वैसा कोई नहीं दिखता. आधुनिक आलोचक भी उस प्रेम के समग्र स्वरूप को समझने में चूके. उसके मर्म तक पहुँच नहीं सके. प्रखर प्रेमाभा में आसानी से दृश्यमान एक-दो चीजों को देखकर उसे ही सब कुछ समझ लिया| आगे नहीं बढ़े| जो देखा उसी के दूसरे पहलू पर दृष्टि नहीं गई|

मसलन रविदास की विनम्रता चर्चा में रही. इस विनम्रता को नख-दन्त-विहीन अबोध लचीलापन समझ लिया गया. जितनी विनम्रता उतनी दृढ़ता. मृदुभाषी मगर सत्याग्रही. मितभाषी किंतु एक-एक शब्द वजनदार. जिनकी बानी की मधुरता तिक्त औषधि पर मीठे लेपन की तरह है. ठीक बौद्ध महाकवि अश्वघोष के कथनानुरूप- “पातुं तिक्तमिवौषधं मधुयुतं हृदयं कथं स्यादिति|” ऐसी ही उदग्र ‘मधुवाणी’ वाला कवि डंके की चोट पर कह सकता है- ‘साधो का सास्त्रन सुनि कीजै|’ जो सभी धर्मग्रंथों को समान रूप से असहज पाता है- ‘बेद-कतेब, कुरान-पुराननि सहजि एक नहिं देखा|’ इसीलिए उसका सुझाव है- ‘थोथो जिनि पछोरो रे कोई| पछोरो जामे निज कन होई||’ ‘निज कन’ अर्थपूर्ण पद है| यह अन्न कण तो है ही, निजत्व का, आत्म का संकेतक भी है| जिस दर्पण में अपना चेहरा न दिखाई दे वह दर्पण किस काम का! जिस वाङ्मय में स्वानुभव (निज कन) न हो वह थोथा ही है| इस ‘निज कन’ की प्रतीति कैसे हो? ज्ञान से? ध्यान से ? मगर ज्ञान-ध्यान तो अबूझ भी हो सकते हैं ? किस पर भरोसा करें, किससे अबूझ का अर्थ बूझ संत रैदास का समाधान है कि प्रेम ही वह माध्यम है जो इस उलझाव से निकाल सकता है| प्रेम रस ही ‘निज कन’ की प्रतीति करा सकता है-

ज्ञान ध्यान सबही हम जान्यो, बूझों कौन सों जाई|
हम जान्यो प्रेम प्रेमरस जाने, नौ बिधि भगति कराई||

वर्ण-जाति मनुष्य से उसका स्वत्व, निजत्व छीन लेते हैं| इसके बदले में वे जो पहचान देते हैं वह आत्महीनता को ढंकने का काम करती है| अपने ‘होने’ का बोध ही असंभव बनाती है| ऐसे मरुस्थल में लाके छोड़ती है जहां प्यासे ही मरना है| रैदास को मालूम है कि वर्ण-जाति के जंजाल से पार पाने की पद्धतियाँ उनके पूर्ववर्तियों ने अपने-अपने ढंग से खोजीं हैं| उनके समकालीन भी अपने-अपने तरीके से ऐसी पद्धति तलाश रहे हैं| वे इन पद्धतियों की सफलता और सीमा से परिचित भी हैं| वर्णवादी हिंसा से निपटने के लिए प्रतिहिंसा का सहारा लिया जाता है| जातिवादी मानसिकता जो ओछापन थोपती है उसकी प्रतिक्रिया में आक्रामकता को ढाल बनाया जाता है| यह प्रतिहिंसा और आक्रामकता मुख्यतः भाषा में अभिव्यक्त होती है| इसके व्यवहर्ता को एकबारगी ऐसा लग सकता है कि उसने जातिवादी प्रतिपक्षी को उसी के असलहों से परास्त कर दिया है| वस्तुतः होता इसके विपरीत है| प्रतिहिंसा और आक्रामकता जातिवाद की खुराक है| इसी खुराक के दम पर वह अपने को बनाए-बचाए रखती है| यह स्थिति उसके विरोधी को हताश उदास बनाती है| उसे अपना संघर्ष संदिग्ध लगने लगता है| ऐसे संघर्ष को उम्मीदभरी नज़रों से देखने वाला जनसमुदाय वर्ण-जाति की ‘सनातनता’ के दावे के समक्ष आत्मसमर्पण करने लगता है| इससे प्रभुत्व की संरचना को नवजीवन मिलता है| यह गुत्थी सबकी समझ में नहीं आती|

समूचे मध्यकाल में संभवतः रविदास ही अकेले ऐसे चिंतक-रचनाकार हैं जो वर्ण-जाति के नैरन्तर्य की यह पहेली बूझते हैं| वही अकेले संत हैं जो इस संरचना के उन्मूलन में प्रेम की भूमिका समझते हैं| वे प्रत्याक्रमण से उपजी उदासी को, प्रतिहिंसा के विषण्ण उत्पाद को चीन्हते हैं| उनकी प्रेम में डूबी भक्ति भ्रम-पाश का उच्छेद इसीलिए कर पाती है-

अनेक जतन करि टारिये, टारे न टरै भ्रम पास|
प्रेम भगति नहिं ऊपजै, ताते जन रैदास उदास ||

रविदास की साधना-पद्धति में प्रेम को उच्च स्थान मिला हुआ है. इसे अष्टांग साधन कहा जाता है. गुरु-परंपरा-क्रम से प्राप्त आठ अंगों वाली इस साधना में शुरू के तीन वाह्य अंग है, बाद के तीन भीतरी अंग हैं और अंतिम दो उच्चतम अवस्था या पूर्ण संतावस्था के- 1.गृह, 2.सेवा, 3.संत, 4.नाम, 5.ध्यान, 6.प्रणति, 7.प्रेम और 8.विलय| रविदास की बानियों में जो विनम्रता व्याप्त है वह प्रेम की इसी केन्द्रीयता के चलते| उनकी उदात्तता का यही हेतु है| प्रेम उनके यहाँ साधन से बढ़कर है| यह पूर्णता का पर्याय है| स्नेहपूरित भाषा का सिद्ध प्रयोक्ता कवि जानता है कि मनुष्य के अंतरतम तक कैसे पहुंचा जा सकता है| और, यह भी कि कैसे मूल्यवान कथ्य तिक्त भाषा की संगति पाकर उल्टा असर कर देता है-

मूरिख मुख कमान है, कटुक बचन भयो तीर|
सांचरी मारे कान महि, साले सगल सरीर||

कबीर साहब अगर रविदास को सच्चे मार्ग का पता बताने वाला कहते हैं तो इस कथन के गूढ़ार्थ पर ध्यान जाना चाहिए| अपनी श्रद्धा प्रकट करते हुए कबीर ने उन्हें ‘संतनि में रविदास संत हैं ’ कहा| ‘भक्तमाल’ में नाभादास ने लिखा है कि रविदास के चरणों की धूलि की वंदना लोग अपने वर्णाश्रमादि का अभिमान त्याग कर भी किया करते थे| रविदास की विमल वाणी संदेह की गुत्थियों को सुलझाने में परम सहायक है| स्वयं रविदास का साक्ष्य है- ‘अब बिप्र परधान तिहि करहि डंडउति’ (-इस रविदास को अब मुखिया ब्राह्मण भी दंडवत करते हैं)

संत रविदास के प्रेम का वैशिष्ट्य क्या है ? इस प्रेम के अवधारणा में अन्तर्निहित तत्व कौन-से हैं ? इस प्रेम की क्रियाशीलता कैसी है जिससे संदेह दूर होता है और मति निर्मल हो जाती है ? रविदास के रचना जगत में प्रेम एक विराट भाव है| उसके सभी अंगों-उपांगों को एक साथ देख पाना सरल नहीं है. जैसे जाति की जटिलता को समझ पाना मुश्किल है वैसे इस जटिलता को हटाने वाले प्रेम के तंतुओं को एक संश्लिष्ट इकाई के तौर पर अनुभूत करना कठिन है. जाति के रहते एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से जुड़ नहीं सकता- ‘ रैदास न मानुष जुड़ सके जौ लौं जात न जात|’ अगर प्रेम को जोड़ने का दायित्व निभाना है तो उसकी कतिपय पूर्वशर्तें और पश्चात अपेक्षाएं होंगीं|

रविदास की प्रेम संकल्पना का वितान फिर इस तरह बनता दिखाई देता है-प्रेम के लिए स्वाधीनता अनिवार्य पूर्वशर्त है| पराधीन पर दया की जा सकती है, प्रेम नहीं किया जा सकता| प्रेम दो (या दो से अधिक) स्वाधीन लोगों के बीच ही हो सकता है| प्रेम पाना है तो स्वाधीन होना पड़ेगा| प्रेम करना है तो पहले स्वतंत्रता का वरण करना होगा| जाति व्यवस्था पराधीन बनाने वाली व्यवस्था है| जाति से मुक्ति पराधीनता से मुक्ति है| पराधीनता से छुटकारा प्रेम का पथ प्रशस्त करता है| परतंत्र व्यक्ति अपने जाति-बाड़े में कैद होता है| न वह किसी से उन्मुक्त होकर मिल पाता है और न ही प्रेम करने या पाने की सोच पाता है| जिस समाज में दो व्यक्तियों का आपसी परिचय एक दूसरे की जाति जानने की बाध्यता से शुरू होता हो वहां खालिस मनुष्य-मनुष्य के रूप में पारस्परिक भरोसा कैसे पैदा होगा? इस भरोसे या प्रतीति के अभाव में प्रीति पनपेगी कैसे! पाप पुण्य जैसे पारंपरिक प्रत्ययों को अप्रत्याशित परंतु परम प्रभावशाली-गौरवपूर्ण अर्थ देते हुए संत रविदास कहते हैं-

पराधीनता पाप है जानि लेहु रे मीत 
रैदास दास प्राधीन सों कौन करे है प्रीत

मेरी सीमित जानकारी में समूचे आदिकाल और मध्यकाल में स्वाधीन पराधीन जैसे पदों का इस अर्थ में प्रयोग अपवाद स्वरूप ही हुआ है| ‘मीत’ संबोधन में निहित व्यंजकता गौर करने लायक है| यह कवि के लैंगिक रूप से संवेदनशील होने का प्रमाण है| प्रीति और पराधीनता का सहभाव संभव नहीं| इस तथ्य को अधीनस्थ तबकों से बेहतर कौन समझ सकता है? दलित और स्त्री ऐसे ही तबके हैं| जाति के नियम गैर अधीनस्थ तबकों को ही कहाँ बख्शतें हैं! वे अपने से नीचे वालों का दोहन कर सकते हैं, उन पर अपनी इच्छा लाद सकते हैं मगर प्रेम नहीं कर सकते| गैर बराबरी यह संभव नहीं होने देगी| पराधीनता में प्रेम का अवकाश नहीं बनेगा| पराधीन व्यक्ति हीन समझा जाता है| हीनता में पड़े हुए को कोई प्रेम नहीं करता| धर्माचरण या सदाचरण स्वातंत्र्य का अनुगामी है| जिसे स्वतंत्रता ही नहीं हासिल है उसके लिए सदाचरण का प्रश्न बेमानी है-

पराधीन को दीन क्या, पराधीन बेदीन|
रैदास दास प्राधीन को, सबहीं समझै हीन||

कबीर के यहाँ प्रेम पर पर्याप्त बल है लेकिन प्रेम और स्वाधीनता के अंतस्संबंध पर ख़ामोशी है| तुलसीदास के यहाँ पराधीनता की चर्चा है और ठीक उस अर्थ में जो रविदास को अभीष्ट है| पराधीन को सुख नहीं मिलता –ऐसा तुलसी अपने एक स्त्री पात्र से कहलवाते हैं| एक वर्ग के रूप में नारी इसीलिए सुख से वंचित है क्योंकि वह पराधीन है- “कत बिधि सृजी नारि जग मांहीं / पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं ” सुख का स्रोत है प्रेम –यह समझ उस समय के रचनाकारों में है| मंझन रचित प्रबंध ‘मधुमालती’ की पहली पंक्ति है- ‘प्रेम प्रीति सुखनिधि के दाता .’ पराधीनता-अप्रीति-असदाचरण-दुख की शृंखला का विवेक रविदास देते हैं| तुलसी अपने पराधीनता वाले प्रसंग के लिए रविदास के ऋणी हैं| स्त्री पराधीनता का मुद्दा रेखांकित करने के लिए तुलसी की उचित प्रसंसा करने वाले विद्वान इस विचार के स्रोत की तरफ ध्यान नहीं देते| वे कभी नहीं बताते कि पराधीनता का यह प्रश्न पहले रविदास ने उठाया था| लोक में यह समझदारी है| वह रविदास के प्रति तुलसी की श्रद्धा जाहिर करने के लिए कथा गढ़ लेती है| इस कथा के अनुसार गुरु की तलाश में मीरां ने तुलसीदास से संपर्क किया था| अपनी तजबीज के अनुरूप तुलसी ने रविदास को गुरु बनाने की सलाह दी थी| मीरां ने उनकी सलाह पर अमल भी किया था|

दासता को जन्म देने वाले कारणों की आलोचना होनी चाहिए| जिसे दासता की जंजीरों में जकड़ दिया गया है, उसकी निंदा क्योंकर की जाए ? रविदास में यह विरल विवेक है| वे इसीलिए नारी-निंदा में प्रवृत्त नहीं होते| मीरां के सामने और भी विकल्प थे मगर उन्होंने रविदास को ही अपना दीक्षा गुरु चुना| यह चुनाव अनायास नहीं है|

भक्ति कविता के अध्येताओं को यह जांचना चाहिए कि सगुण (कृष्ण) भक्त मीरां जब अपने परवर्ती काल में रामभक्ति धारा से जुड़ती हैं तो उनकी कविता की अंतर्वस्तु में क्या फर्क आता है| मीरां की अंतर्मुखी आत्मकेंद्रित कविता यदि जीवन-जगत के सरोकारों से बाद के दिनों में थोड़ा जुड़ती है तो इसका कुछ श्रेय उनके दीक्षा गुरु को जाता है| मीरां ने खुले मन से गुरु के प्रति, उनका नाम लेकर अपनी कृतज्ञता व्यक्त की है- “गुरु मिलिया रैदास जी दीन्हीं ज्ञान की गुटकी|” तथा “रैदास संत मिले मोहि सतगुरु दीन्हा सुरत सहदानी”| अगर रविदास स्त्री को कमतर मानने वाले कवि होते, उनके यहाँ स्त्री अवमानना की अभिव्यक्तियाँ होतीं तो मीरां जैसी स्वाधीनचेता स्त्री उनकी शिष्या हरगिज न बनती| उनकी शिष्याओं में एक ‘झालीरानी’ का भी उल्लेख मिलता है| इस तरह और भी बहुत-सी स्त्रियां संत रविदास को अपना गुरु, प्रेरणास्रोत मानती होंगी| साक्ष्य न होने से हम सिर्फ अनुमान कर सकते हैं| इस अनुमान को लोकमत का पुख्ता आधार प्राप्त है| रविदास के चिंतन का स्वरूप लोकमत का निर्माता है.

संत रविदास अगोचर रहस्य में ज्यादा नहीं रमते| कुण्डलिनी जागरण में उनकी रुचि नहीं प्रतीत होती. सहस्रार चक्र के वेधन में उनकी साधना नहीं लगती. इड़ा-पिंगला-सुषुम्ना-अनहदनाद जैसी शब्दमाला उनके यहाँ बमुश्किल व्यवहृत होती है. शून्य शिखर पर विराजने की उनकी मंशा शायद नहीं थी. उनका चिंतन शास्त्रवाद से छुटकारा दिलाना चाहता है. एक शास्त्रवाद से निकलकर दूसरे शास्त्रवाद में चले जाने से वे बचते हैं. अमूर्त अगम में विचरने की बजाए वे ठेठ दुनियावी मसले उठाते हैं. वे भूख की समस्या से टकराते हैं. भूख और दरिद्रता स्वाधीनता के लिए संकट है. स्वाधीनता का अभाव प्रेम की गुंजाइश ख़तम करता है. प्रेम भाव की कविता लिखने वाला कवि उस भौतिक परिवेश की भी परवाह करता है जिसमें यह भाव मुमकिन है. वह इसीलिए राजनीति का भी स्पर्श करता है. प्रजा को अन्न उपलब्ध कराना राज्य का जिम्मा है, ऐसी मान्यता निम्न दोहे से ध्वनित होती है-

ऐसा चाहूँ राज मैं मिले सबन को अन्न |
छोट बड़ो सभ संग बसैं रैदास रहें प्रसन्न||

बाद के दिनों में तुलसीदास ने भुखमरी को कर्मफलवाद से अलग रखकर उसे राजसत्ता का दायित्व बताया. उनके ‘पाइ सुराज सुदेस सुखारी’, ‘सुखी प्रजा जिमि पाइ सुनाजा’ जैसे कथनों में रविदास के उक्त सरोकार की अनुगूंज है. लेकिन एक महत्वपूर्ण बिंदु पर रविदास बहुत आगे दिखते हैं. यह है श्रम के महत्व का रेखांकन. स्वावलंबन स्वाधीनता के लिए अपरिहार्य है और और स्वावलंबन श्रम के बल पर निर्मित होता है. बेहद संवेदनशील स्वर में रविदास सलाह देते हैं- ‘ रैदास स्रम करि खाइए जौ लौं पार बसाय ’.  सुख-चैन ही स्वाधीनता है. यह श्रम के दम पर सुनिश्चित की जाती है| श्रम ही नेक कमाई का साधन है| बंगाल में दलितों के महानायक, मतुआ धर्म के संस्थापक श्री श्री हरिचांद ठाकुर ने नारा दिया था- ‘हाथे काम, मुखे नाम|’ श्रम करते हुए नाम स्मरण करना चाहिए| रविदास बहुत पहले कह चुके थे- ‘जिह्वा सों ओंकार जप, हत्थन सों कर वार|’ हाथ चलाते हुए ओंकार जपो|

महात्मा गांधी सत्य को ईश्वर कहते थे| रविदास उनसे कहीं ज्यादा ठोस और क्रांतिकारी प्रस्ताव करते हैं| वे श्रम को ईश्वर बताते हैं| इसे संभवतः पूर्व-आधुनिक युग की कम्युनिस्ट वैचारिकी कहा जा सकता है-

स्रम को ईसर जानि कै जउ पूजहिं दिन रैन |
रैदास तिनहिं संसार में सदा मिलहिं सुख चैन ||

इस संक्षिप्त विवेचन से अंदाज लगाया जा सकता है कि रैदास की प्रेम परिकल्पना कितने व्यापक धरातल पर प्रतिष्ठित है| पराधीनता और दारिद्र्य निवारण पर बल देकर वे इसे समस्त मानवता के लिए मूल्यवान बना देते हैं| स्त्री की अवमानना करने वाली अभिव्यक्तियों से वे सचेत रूप से बचते हैं| इड़ा-पिंगला के शास्त्रवाद में नहीं उलझते| राजसत्ता के दायित्व का संज्ञान लेते हैं| श्रम और स्वावलंबन के रिश्ते पर रोशनी डालते हैं तथा श्रम की सर्वोपरिता रेखांकित करते हैं| सदाचार ही उनके यहाँ जीवनमूल्य है| नैतिकता को वे कर्मकांड का स्थानापन्न बनाते हैं| क्रोध और विनय के संतुलन पर उनकी दो-टूक असहमतियां प्रकट होती हैं| इसी का सुफल है कि ब्राह्मण सहित सभी सवर्ण उनकी शरण में जाते हैं| तमाम आचार्यों और संतों को दरकिनार कर मीरां जैसी प्रबुद्ध स्त्रियां उनकी शिष्या बनती हैं|
इन तमाम तथ्यों और ब्योरों के समेकित परिप्रेक्ष्य में उनकी इस स्वीकारोक्ति को समझना चाहिए- ‘हम जानौ प्रेम, प्रेम रस जाने’|

इस उद्घोषणा की प्रतिध्वनि विलक्षण रूप से मार्टिन लूथर किंग जूनियर (1929-1968) के इस कथन में सुनाई पड़ती है- “आइ हैव डिसाइडेड टू लव” –मैंने प्रेम करने का फैसला किया है| संयुक्त राज्य अमरीका में ब्लैक समुदाय के मानवाधिकारों की प्राप्ति के लिए शुरू हुए सिविल राइट्स मूवमेंट (1955-1967) के अग्रणी नेता किंग ने स्पष्ट रूप से कहा कि प्रेम के अतिरिक्त किसी अन्य आधार पर खड़ी क्रांति विफल होगी| किंग के इस अहिंसक आंदोलन में तमाम उदार मत वाले गैर ब्लैक/व्हाइट  विचारक, कार्यकर्ता भी शामिल हुए| यह आंदोलन सफल रहा| इसने क़ानून से समान सुरक्षा का अधिकार दिलाया, ब्लैक पुरुषों को मताधिकार मिला और दास प्रथा उन्मूलन की प्रक्रिया संपन्न हुई|

ब्लैक स्त्रीवादी विचारक बेल हूक्स (1951) का मानना है कि अमरीका का सिविल राइट्स मूवमेंट इसलिए समाज को बदल सका क्योंकि यह मूलतः प्रेम की नैतिकता पर टिका था. इस आंदोलन के अगुआ मानते थे कि प्रेम के जरिए ही अधिकतम भलाई हासिल की जा सकती है. प्रेमाधारित अहिंसक आंदोलन ने पूरे (अमरीकी) समाज की मनुष्यता जागृत करने का लक्ष्य अपने सामने रखा. आंदोलन की प्रकृति सुधारवादी रही. मार्टिन लूथर किंग जूनियर की हत्या और इस आंदोलन के अन्य नेताओं की मृत्यु के साथ एक गहमागहमी से भरे एक युग का अंत हुआ. उनके समानधर्मा, सहयोगी श्वेत लोग भी दिवंगत हुए. समूचे परिवेश में एक नैराश्य व्याप्त हो गया. इस दौरान ब्लैक आंदोलनकारियों, बुद्धिजीवियों की नई पीढ़ी तैयार हो चुकी थी. इस पीढ़ी ने सुधारवादी आंदोलन से अपने को अलगाया और नए आंदोलन की शुरुआत की.

यह क्रांतिकारी आंदोलन था| इसका मकसद मानवता का जागरण नहीं, ब्लैक समुदाय को पुरजोर आक्रामक तरीके से खड़ा करना था| यह ‘शक्ति’ केंद्रित आंदोलन था. इसे ‘ब्लैक पॉवर मूवमेंट’ कहा जाता है| इस आंदोलन को चलाने वाली युवा पीढ़ी साध्य-वादी थी. साधन की परवाह न करने वाली.  इसका अनुभव जगत श्वेत समाज की नृशंसताओं से भरा था.  इसकी स्मृतियों की दुनिया श्वेत प्रभुओं की क्रूरताओं से लबालब थी| अहिंसक मार्ग में यह साठोत्तरी पीढ़ी यकीन नहीं करती थी| उसे इंकलाब चाहिए था| इसने पूरे अमरीकी समाज को झकझोर कर रख दिया| इसकी उपलब्धियां ऐतिहासिक रहीं- चेतना के स्तर पर और कानून निर्माण के स्तर पर| लगभग दो दशक इसकी सक्रियता के रहे| इसके उपरांत ब्लैक स्त्रीवाद का उभार हुआ| इस नए आंदोलन ने पूर्ववर्ती आंदोलन की समीक्षा की| इसने रेखांकित किया कि सुधारवादी होने के कारण सिविल राइट्स मूवमेंट भले ही कई मामलों में बहुत सीमित रहा हो, फिर भी उसमें व्यापक जनसमुदाय को प्रेरित करने की क्षमता थी क्योंकि वह गहरे में प्रेम नैतिकता पर अवस्थित था|

दूसरी तरफ ब्लैक पॉवर मूवमेंट ने मुक्ति संघर्ष को सुधार से क्रांति की तरफ ला दिया| यह एक उल्लेखनीय राजनीतिक विकास था| साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद विरोध का स्वरूप रेडिकल हुआ| इस विरोध का एक वैश्विक परिप्रेक्ष्य इसी दौर में निर्मित हुआ| इन ऐतिहासिक उपलब्धियों के साथ यह भी सच है कि इस आंदोलन के नेतृत्व में पुंसवादी लैंगिक पूर्वग्रह गहरे में व्याप्त थे| इन पूर्वग्रहों ने प्रेमभाव को कुचला| इस आंदोलन के सारे लीडर पुरुष थे| पुरुषवादी भी| वे रेसिज्म के सख्त खिलाफ थे लेकिन स्त्रियों की यौन दासता के समर्थक थे| मर्दवादी आक्रामकता प्रेम को दुर्बलता से समीकृत करती थी| यह प्रभुत्व के उन्हीं उपकरणों का इस्तेमाल कर रही थी जो परंपरा से उसके ऊपर व्यवहृत होते आए थे|

भारतीय दलित आंदोलन के प्रसंग में यह प्रश्न विचारणीय है कि आंबेडकर के आंदोलन में स्त्रियों की जो बड़े पैमाने पर भागीदारी थी वह उनके बाद उभरे पैंथर आंदोलन में सिमट क्यों गई| क्या यहाँ भी पुरुषवादी मानसिकता ने आंदोलन को अपनी गिरफ्त में ले लिया? यह अनुमान निराधार नहीं है| पैंथर आंदोलन की उपलब्धियों को किसी भी तरह कमतर आंकने से बचकर यह तो कहा ही जा सकता है इसके नेतृत्व में स्त्री के प्रति अपेक्षित संवेदनशीलता नहीं थी| उसके लैंगिक पूर्वग्रह जगह-जगह देखे जा सकते हैं| इस आंदोलन के एक सर्वमान्य हस्ताक्षर नामदेव ढसाल की कुछ काव्य पंक्तियां उदाहरण के लिए उद्धृत की जा सकती हैं-

1) इस धमनी का रिद्म जरा सुनो तो,/ संभव है तुम्हारे बंध्या गर्भ से अंकुर फूटे| (‘जनरल वार्ड’)

2) इस विधवा मराठी भाषा को,/ फिर से सुहागिन होते हुए देखना है मुझे| (‘रमाबाई आंबेडकर’)

3) हम जिंदा हुए हैं/ तुम्हारे पापों का छिनाल घड़ा फोड़ने के लिए| (‘अँधेरे ने सूर्य देखा तब’)

आंबेडकर के बाद उभरी गुस्सैल युवा पीढ़ी की ऐसी अभिव्यक्तियों और पूर्वग्रहों ने दलित स्त्रियों को आंदोलन से विलग करने का काम किया| पैंथर आंदोलन के निर्माण के बाद दलित स्त्रियों की संगठित आवाज उभरने में लगभग तीन दशक लगे| दलित स्त्रीवाद अपने साथ कई छूटे हुए मुद्दे लेकर आया| प्रेमपरक नैतिकता की आंदोलन में वापसी हुई| मुक्ति आंदोलन सार्वजनीन, समावेशी, बहुकोणीय हुआ| कार्यसूची में प्रेम के प्रवेश से क्रांति की धार कतई कुंठित नहीं हुई| सुधार आंदोलन, जागृति युग और क्रांतिकाल के श्रेष्ठ तत्वों का सम्मिलन दलित स्त्री आंदोलन ने किया| संत रविदास और बाबासाहेब आंबेडकर के योगदान को नए सिरे से समझने का माहौल भी तभी बना|

 

( बजरंग बिहारी तिवारी भारतीय दलित आंदोलन और साहित्य के गंभीर अध्येता हैं. संपर्क: फ्लैट नं. 204, दूसरी मंजिल, मकान नं. टी-134/1, बेगमपुर, नई दिल्ली- 110017. ईमेल- bajrangbihari@gmail.com )

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