सिमी की गतिविधियां गैरकानूनी थीं या नहीं इस पर मामला न्यायालय में विचाराधीन है। लेकिन, जिस तरह से उसका उपयोग राज्य से लेकर मीडिया तक ने हर घटना के पीछे उसका हाथ बता कर करना शुरू किया और आज भी उसे लेकर जिस तरह एक समुदाय को निशाना बनाया जा रहा है, उसमें हमने इस संगठन की पड़ताल करने और हालिया घटनाओं को जांचने की कोशिश की। इसके लिए हमने 9/11 के बाद सिमी को प्रतिबंधित करने के समय इसके राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे डॉक्टर शाहिद बद्र फलाही, (जिन्हें 28 सितम्बर 2001 को गिरफ्तार कर लिया गया था और फिर अप्रैल 2004 में वे रिहा हुए), से मुलाकात भी की और उन पर चल रहे मुकदमों, दस्तावेजों, घटनाक्रम से इस पूरे मामले को देखने की कोशिश भी की है। शाहिद बद्र फलाही आज़मगढ़ जिले के शहर कोतवाली के अंतर्गत आने वाले मनचोभा गांव के निवासी हैं। इनके पिता बदरे आलम की 40 साल से एक क्लीनिक है। डॉक्टर साहिब खुद भी एक शफ़ाखाना चलाते हैं। यह अलबद्र युनानी शफ़ाखाना के नाम से शहर के बदरका मोहल्ले में स्थित है। डॉक्टर शाहिद के दरवाजे रात में भी मरीजों के आवाज देने या दस्तक देने पर खुल जाते हैं, हालांकि मरीजों और जरूरतमंदों के अलावा पुलिस की दस्तक भी उनके दरवाजे पर लगी रहती है।-सं
क्या था मामला
भुज में 7 अप्रैल 2001 को एक कार्यक्रम था। कार्यक्रम की अनुमति प्रशासन से थी। जिसमें बतौर वक्ता डॉ. शाहिद बद्र भी बुलाए गए थे। कार्यक्रम के दौरान पुलिस द्वारा वीडियोग्राफी करने का कार्यक्रम के आयोजकों ने विरोध किया। इस दौरान पुलिस से झड़प हुई। 11 अप्रैल 2001 को 13 लोगों के खिलाफ इस मामले में सरकारी संपत्ति को नुकसान और सरकारी काम में दखल को लेकर एफआइआर हुआ। यह एफआइआर नामजद नहीं था। इसमें 13 लोगों की गिरफ्तारी हुई। 22 सितंबर 2001 को जस्टिस बी.जे. जोशी की कोर्ट से सारे लोग बरी हो गए। तब तक इसमें शाहिद बद्र का नाम नहीं था। 5 अक्टूबर 2012 को शाहिद के नाम से उसी मामले में वारंट जारी हुआ। इसी वारंट पर 5 सितंबर 2019 को उन्हें घर से उठाया गया। गुजरात पुलिस का कहना था कि शाहिद बद्र का पता गलत था, जिसके चलते 18 साल तक पुलिस उन तक नहीं पहुंच सकी। दरअसल, गुजरात पुलिस की पूरी कहानी इस मामले में झूठ पर टिकी थी। डॉक्टर शाहिद बद्र इस्लामिक छात्र संगठन पर लगे प्रतिबंध के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में चल रहे केस की सुनवाई में हाजिर होते हैं। एसआईएम पर जब प्रतिबंध लगा तब डॉक्टर शाहिद इसके राष्ट्रीय अध्यक्ष थे। पुलिस और न्यायालय के रिकॉर्ड में उनका पता दर्ज है। दरअसल गुजरात पुलिस एक खास मॉडल के तहत फंक्शन करती है, जिसमें वह सारे कानूनों से ऊपर होकर काम करती है। कम से कम, इस मामले में गुजरात पुलिस का यही सच सामने आया। लोग इस बात की चर्चा करते पाए गए कि नए गृह मंत्री के पद संभालने के बाद गुजरात पुलिस को असीमित और असंवैधानिक शक्तियां प्राप्त हो गई हैं। वह कहीं भी जा सकती है, किसी को भी उठा सकती है और उसे आतंकी, अपराधी, नक्सली घोषित कर सकती है। अब तक हम हिंदी बेल्ट के लोगों के लिए यह दूर की बात थी, लेकिन इस मामले में यह बिल्कुल नजदीक से दिखाई दिया और इस तरह की संस्थानिक प्रैक्टिस बिल्कुल पास से सुनाई पड़ने वाली फासिस्ट आहट है।
मुसलमान और हिंदी मीडिया
हिंदी मीडिया का सांप्रदायिक हिंदुत्ववादी चरित्र थोड़ा देर से खुला लेकिन अब वह संघ भाजपा की राजनीतिक दुष्प्रचार और फाल्स रिपोर्टिंग के अभिन्न हिस्सेदार हो चुके हैं। पहले यह काम सिर्फ दैनिक जागरण जैसे एकाध अखबार करते थे लेकिन आज की तारीख में यह बताना मुश्किल है कि हिंदी का कौन सा अखबार इसमें शामिल नहीं है। शाहिद बद्र को जब ला एंड आर्डर के एक 18 साल पुराने मामले में गुजरात पुलिस ने आजमगढ़ से उठाया और स्थानीय पुलिस की सतर्कता से मनचाहा परिणाम न पा सका और सीजेएम की कोर्ट में पेश करना पड़ा तब मामला मीडिया के सामने आया और उसके बाद हिंदी अखबारों ने जो रिपोर्टिंग की वह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के भी कान काटने वाली थी। हिंदी अखबार गुजरात पुलिस की झूठी कहानी के पक्षकार बन गए। हालांकि, हिंदी अखबार के स्थानीय पत्रकार थानों के दलाल तो पहले से हो चुके थे। जिस मामले में डॉक्टर शाहिद को उठाया गया, उस मामले में जो वारंट जारी हुआ था उसकी मूल कॉपी भी गुजरात पुलिस के पास नहीं थी और जिस कोर्ट से 2012 में वारंट जारी हुआ था उस कोर्ट में उसकी कोई फाईलिंग नहीं थी। वारंट की जो फोटोकॉपी थी, उसमें भी वह मामला कोर्ट और कानून के अंतर्गत जमानत के योग्य था। इसके अलावा यह मामला शाहिद बद्र को किसी आतंकी संबंध या गतिविधि का आरोपी बनाने वाला नहीं था। और, ना ही इसको लेकर पुलिस के पास उनकी कोई हिस्ट्री थी। अगर होती तो वह 18 साल पुराने मामले को नया रंग देने की कोशिश न करती। लेकिन, हिंदी अखबारों ने जो रिपोर्टिंग की उसमें लगातार शाहिद को आतंकी बताने और पाकिस्तान के आतंकी संगठनों से संबंध होने की रिपोर्टिंग की। इतना ही नहीं गलत तथ्यात्मक जानकारियों को भी अखबारों ने बड़े आत्मविश्वास से छापा। अखबार डॉक्टर शाहिद को लगातार सिमी का संस्थापक सदस्य लिखता रहा और इससे संबंधित हेडिंग भी लगायी। जबकि, तथ्य यह है कि जब सिमी की स्थापना हुई उस समय शाहिद बद्र की अवस्था मात्र 6 साल की थी। उन अखबारों में यह बात लगातार की जाती रही कि शाहिद फरार चल रहा था, उसने गलत पता लिखवाया था, जिससे पुलिस उसे खोज नहीं पा रही थी। फिर गूगल की मदद से उस पते से मिलती-जुलती जगह खोजी गई और पुलिस उस तक पहुंच पायी। यह पूरी बात गुजरात पुलिस का बनाया गया झूठ था, जिसे हिन्दी मीडिया पालतू की तरह जस का तस छापती रही। जबकि, तथ्य यह है कि भारत सरकार के पास शाहिद बद्र की सारी जानकारियां 2001 से ही मौजूद हैं। वे ही सिमी पर लगे प्रतिबंध का केस लड़ते हैं और हर सुनवाई में कोर्ट में हाजिर रहते हैं। वे देश की सबसे पुरानी प्रतिष्ठित अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के 7-8 साल तक छात्र रहे हैं, वहां भी उनका पता मौजूद है। जहां तक भुज की सभा का मामला है, उसमें पुलिस ने उनसे पूछ कर पता दर्ज नहीं किया था, बल्कि सभा में मौजूद श्रोताओं की सूचना और एलआईयू की रिपोर्ट के आधार पर पता दर्ज किया था। एक और तथ्य यह भी है, कि भुज मामले में 11 साल तक कोई वारंट उनके नाम से जारी नहीं हुआ और 2012 में जब जारी हुआ तो वह वारंट हाजिर न होने पर हर 15 दिन में नवीनीकृत होता है। भुज के सीजेएम कोर्ट में हाजिर होने के बाद मजिस्ट्रेट ने रिकॉर्ड खोजवाया जिसमें उस वारंट को लेकर किसी फाइलिंग का रिकॉर्ड मौजूद नहीं था। अर्थात, गुजरात पुलिस कश्मीर में अनुच्छेद 370 के हटने के बाद भुज मामले को एक नया रंग देना चाह रही थी, जिसके लिए वह नए झूठ गढ़ती रही और हिंदी अखबार इसे ही रिपोर्टिंग का आधार बनाते रहे। जबकि, मजिस्ट्रेट के आदेश और टिप्पणियों को अखबारों ने कोई जगह नहीं दी। इतना ही नहीं, जब भुज में सीजेएम ने गुजरात पुलिस पर टिप्पणी की और डॉक्टर शाहिद को आजमगढ़ सी जे एम द्वारा दी गई जमानत को ही मान लिया और कहा कि फिर से जमानत की जरूरत नहीं है, तो इस पर अखबार मौन रहे। लौटने के बाद किसी अखबार ने रिपोर्ट नहीं लगाई और ना ही डॉक्टर शाहिद से कोई बात करने की जहमत उठाई जबकि इससे पहले वे लिखते रहे कि क्या है ‘आजादगढ़’ का रहस्य… फरार चल रहा था डॉक्टर शाहिद।…शाहिद पाकिस्तानी आतंकी संगठनों से संपर्क कर नए संगठन बनाने की फिराक में है… आदि। लेकिन, जब लौटने के बाद उन्होंने अखबारों में फोन किया तो उनका फोन किसी अखबार ने नहीं उठाया।
(समकालीन जनमत,प्रिंट से सााभार ।)
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