अच्युतानंद मिश्र
कुछ कवि ऐसे होते हैं, जिनका महत्व समय गुजरने के साथ बढ़ता है. ऐसा इसलिए क्योंकि उनकी कविता अक्सर अपने समय के दायरों का अतिक्रमण कर देती है. वे नितांत वर्तमान में रहते हुए भी भविष्य को देखने और कहने की क्षमता विकसित करते रहते हैं. समय के बुनियादी अंतर्द्वंद्वों का दायरा उनमें अधिक विकसित होते है. वे कुछ-कुछ उस हीरे की मानिंद होते हैं जिनमें ज्यों ज्यों हम देखने के कोण को विस्तृत करते जाते हैं , चमक बढती जाती है.
विनय दुबे की कविताओं के संदर्भ में ये बातें सार्थक प्रतीत होती हैं. उनकी कवितओं में सहजता और दृश्य की जटिलताओं का जो सहभाव नज़र आता है, वह उन्हें अपनी पीढ़ी का अप्रतिम कवि बनाता है. अर्थ की लयात्मकता और भाषा के आरोह-अवरोह से कविता का एक नया सौंदर्य-पक्ष उभरकर सामने आता है-
आपने गोरैया देखी है
आप किसी पेड़ के नीचे से गुजरे हैं
तब जरुर
आपके सर पर
या कन्धों पर
गोरैया ने बीट की होगी जरुर
और आपने सहज ही पोंछ भी ली होगी उसे
अगर आपके साथ
नहीं हुआ है
यह
तो न आपने गोरैया देखी है
और न आप किसी पेड़ के नीचे से गुजरे हैं
यह कविता छोटे से कथन में व्यापक अर्थ को प्रदर्शित करती है. यह मनुष्य, प्रकृतिऔर आधुनिक जीवन- बोध की विसंगतियों और इन विसंगतियों के मध्य मनुष्य की संवेदना के बदलते दायरों को समेटती है. चिड़ियाँ, मनुष्य और पेड़ के आदिम संबंधों ने मनुष्य की दुनिया, उसकी संवेदना, उसके सौन्दर्य-बोध को निर्मित किया. इसी सौन्दर्य दृष्टि ने उसे एक सामाजिक प्राणी बनाया. लेकिन जब मनुष्य के भीतर यह सौंदर्य नष्ट होने लगेगा, जब वह प्रकर्ति की छुअन से महरूम होने लगेगा, तो क्या वह किसी भी अर्थ में सामाजिक प्राणी रहा जाएगा ? फिर हम मनुष्य किसे कहेंगे ?
विनय दुबे की कविताओं में जिस तरह का व्यंग्य बोध है, वह नागार्जुन के बाद की हिंदी कविता का एक नया फलक है. विद्रूपताओं को कहने की एक नई शैली, विनय दुबे के यहाँ हम देखते हैं. जहाँ शब्दों, वाक्यों के दुहराव से नये गतिशील अर्थ को अर्जित किया जाता है. यही वजह है कि विनय दुबे की कविताओं को गद्य में बदलकर नहीं पढ़ा जा सकता. वे कविता में अपने शिल्प और अपने विन्यास के साथ ही चमकते हैं, और कविता की यह चमक सीधे पाठक को मिलती है
कविता के बाहर
कुछ दिक्कत है मिलने में
कि आप मिले और मैं मांग लूँ रुपये पचास
आपसे उधार
और आप शर्मिंदा हों बार-बार
तो आप कविता में आयें
मिले और चाय पियें मेरे साथ
कविता में
झरना मछली के साथ मैं वहां
विनय दुबे की हर कविता मनुष्य के सहज आलोचनात्मक विवेक की ओर इंगित करती है. इसलिए इन कविताओं में विषय की बहुलता के स्थान पर एक विशेष तरह की एकात्मकता देखी जा सकती है. उदाहरण के तौर पर हम उनकी कविता ‘फिर वहीदा रहमान ने कहा ’ देख सकते हैं. यह कविता आत्मीयता का नया संसार रचती है. एक दुनिया है, जिसमें वहीदा रहमान है, और उसे चाहने वाले लोग. यह दुनिया इन्हीं दो से मिलकर बनी है, लेकिन प्रशंसक की दुनिया और वहीदा रहमान की दुनिया दो अलग-अलग न होकर एक हैं. जहाँ वहीदा रहमान द्वारा किया जाने वाला मामूली से मामूली काम भी प्रशंसक की इच्छा-आकांक्षा उसकी चाहत उसके स्वप्न उसी ख़ुशी और उदासी का अविभाज्य अंग है .
इस कविता को हम इस तरह भी पढ़ सकते हैं कि हमारे भीतर की वहीदा रहमान का धीरे धीरे समाप्त होना हमें एक बेहद क्रूर और निःसंग दुनिया का हिस्सा बना देता है. और इस निःसंग दुनिया का सामना हमें अकेले करना होता है .धीरे-धीरे हम सबकी वहीदा रहमान खामोश हो जाती है .
विनय दुबे हमारे आसपास की घटनाएँ, दृश्य, व्यक्ति, स्थान आदि का एक रूपक तैयार करते हैं. यह रूपक अपने वास्तविक का अतिक्रमण करती है. वहीदा रहमान सिनेमा से जब विनय दुबे की कविता में प्रवेश करती है तो वह एक संवेदना में बदल जाती है. पाठक की स्मृति में एक संज्ञा का संवेदना में बदलना उसे काव्यानुभव की नई जमीन पर ला देता है, जहाँ उसके भीतर कुछ बेहद हल्का और मीठा विकसित होने लगता है. इस अर्थ में हम कहें तो यह कहना गलत न होगा कि विनय दुबे की हर कविता हमें थोडा-थोडा बदल देती है.
विनय दुबे की ही शैली में कहें तो उनकी कविता की हर ट्रेन भोपाल पहुँचती है. उसी भोपाल में जहाँ नदी, झरने, पेड़ औरचिड़ियाँ एक साथ मुस्कुराती हैं और इन सबके बीच मौजूद कवि अपने गांव बुदनी में खाना खाने की अपनी इच्छा को पूरा होता हुआ देखता है.यह आदिम इच्छा गांव, शहर, देश और दुनिया से होती हुई पत्नी के खुले केशों तक चला जाती है, जहाँ बेटी की निश्छल मुस्कराती आँखें शब्दों को सीखने की कोशिश में एक नया व्याकरण रच देती हैं.
मैं हिंदी पढ़ाता हूँ
मैं हिंदी पढ़ाता हूँ
पढता क्या हूँ
पहाड़ से लटकता हूँ
और इमली के छायादार पेड़ में घूमता हूँ.
मैं हिंदी पढ़ाता हूँ
पढता क्या हूँ
हवा से प्रेम करता हूँ
और लालघाटी के ऊपर आकाश में बिखर जाता हूँ
मैं हिंदी पढ़ाता हूँ
पढता क्या हूँ
तालाब के पानी में घुसता हूँ
और मछलियों से कवितायेँ सुनता हूँ
मैं हिंदी पढ़ाता हूँ
अब प्रिंसिपल को क्या मालूम
कि हिंदी क्या है
और कैसे पढाई जाती है
वे समझते हैं
कि मैं हिंदी पढ़ाता हूँ
मेरा निवेदन है
मेरा निवेदन है
कि आप जो करना चाहें
आप करें
आप पहाड़ करें
या लन्दन करें
मछली करें
या शब्दकोश करें
दिल्ली करें
या महाविद्यालय करें
आकाश करें
या सोहन-मोहन करें
मेरा निवेदन है
कि आप जो करना चाहें
आप करें
बस राष्ट्र नहीं करें
हिन्दू नहीं करें
गुजरात नहीं करें
मेरा निवेदन है
कि आप जो करना चाहें
आप करें
सामने का वह सब
आप कहते हैं
सामने एक पेड़ है
चलिए मैं माने लेता हूँ
कि सामने एक पेड़ है
हालाँकि जो नहीं है
आप कहते हैं
सामने एक नदी है
चलिए मैं माने लेता हूँ
कि सामने एक नदी है
हालाँकि जो नहीं है
आप कहते हैं
सामने एक स्त्री है
चलिए मैं माने लेता हूँ
कि सामने एक स्त्री है
हालाँकि जो नहीं है
यों आप कहते हैं
यों मैं माने लेता हूँ
वरना क्या आप
और क्या आपका कहना
वो तो माननीय प्रधानमंत्री जी हैं
और मामला राष्ट्रीयता का है
जो मैं माने लेता हूँ
सामने का वह सब
जो नहीं है
मैं क्या करता
मैं क्या करता
क्या करता मैं
आकाश छूता
कि नदी जाता
आम चूसता
कि मक्खी उड़ाता
सड़क पार करता
कि प्रधानमंत्री को देखता
कविता लिखता
कि हिन्दू होके गुजरात करता
पहाड़ चढ़ता
कि अमेरिका चीखता
क्रांति करता
कि चुनाव लड़ता
मैं क्या करता
सिवा इसके कि इन दिनों घर-घुसरा होता हूँ
और बीते अच्छे दिनों की याद करता हूँ
जैसे एक दफे दिल्ली में बढिया खाना खाया था
और भरपेट खाया था तुम्हारे साथ
होटल का नाम याद नहीं है मुझे
प्राचार्य जी महोदय
सेवा में
प्राचार्यजी महोदय
निवेदन है कि
मुझे आज के दिन की
छुट्टी मंजूर करें
कि मैं
सड़क से गुजरते हुए बसंत
रंगारंग उत्सव
और आम के बौर
देखना चाहता हूँ
महोदय जी निवेदन है कि
बहुत दिनों से
मैंने नहीं देखा है जंगल
पहाड़
नदी
बहुत दिनों से
खुली हवा की सांय सांय
नहीं सुनी है मैंने
छुट्टी मंज़ूर करें
तो देख लूं
घर के बाहर
महोदय जी निवेदन है कि
आज मेरी बेटी चाहती है
कि मैं रहूँ उसके साथ
हँसते-खेलते
महोदय जी निवेदन है कि
आज मैं देखना चाहता हूँ
अपनी पत्नी को
रोटी सेंकते हुए
धूप नहाते हुए
बदन सुखाते हुए
बाल संवारते हुए
श्रीमानजी
मेरी इच्छा है कि
आज मैं देखूं
सुबह
दोपहर
और शाम
कैसी होती है
इतवार के अलावा
फिर वहीदा रहमान ने कहा
फिर वहीदा रहमान ने कहा
बादल आयें
बादल आये
फिर वहीदा रहमान ने कहा
पानी बरसे
पानी बरसा
फिर वहीदा रहमान ने कहा
सब मरें
सब मरे
फिर वहीदा रहमान ने कहा
अब सो जाओ
हम सो गये
इस हादसे को
बरसों हो गये
अब न वहीदा रहमान है न हम हैं
अब वहीदा रहमान कुछ नहीं कहती है
अब दुनिया में कहीं कुछ नहीं होता है
अयोध्या कहाँ है
अयोध्या कहाँ है
जहाँ बाबरी मस्जिद है वहां अयोध्या है
अयोध्या में क्या है
अयोध्या में बाबरी मस्जिद है
अयोध्या की विशेषता बताइए
अयोध्या में बाबरी मस्जिद है
अयोध्या में और क्या है
अयोध्या में और बाबरी मस्जिद है
अयोध्या में बाबरी मस्जिद के अलावा क्या है
अयोध्या में बाबरी मस्जिद के अलावा बाबरी मस्जिद है
ठीक है तो फिर बाबरी मस्जिद के बारे में बताइए
ठीक है तो फिर बाबरी मस्जिद अयोध्या में है
मेरा गाँव भी अब सीख जाएगा
मेरे गाँव में भी अब
पहुँचने लगे हैं अफ़सर
और रहने लगे हैं
मेरा गाँव भी अब सीख जाएगा
किसी से बोलना
न बोलना किसी से
किसी को देखकर न देखना
देखने के लिए बुलाना
मेरा गाँव भी अब सीख जाएगा
चिट भेजना, खिलाना-पिलाना
रिरियाना, घिघियाना
बोलना अर्ज़ी की भाषा में
मेरे गाँव में भी अब
रहने लगे हैं अफ़सर
मेरा गाँव भी अब सीख जाएगा
दिल्ली होने से तो अच्छा है
मैं पहाड़ देखता हूँ
तो पहाड़ हो जाता हूँ
पेड़ देखता हूँ
तो पेड़ हो जाता हूँ
नदी देखता हूँ
तो नदी हो जाता हूँ
आकाश देखता हूँ
तो आकाश हो जाता हूँ
दिल्ली की तरफ़ तो मैं
भूलकर भी नहीं देखता हूँ
दिल्ली होने से तो अच्छा है
अपनी रूखी-सूखी खाकर
यहीं भोपाल में पड़ा रहूँ
( कवि विनय दुबे मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिला के जमानी गांव के रहने वाले हैं. उन्होंने 1970 से 2003 तक भोपाल के एक निजी महाविद्यालय में प्राध्यापक के रूप में कार्य किया. उन्हें मुक्तिबोध फेलोशिप, नागार्जुन सम्मान, माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार , साहित्य अकादमी दिल्ली की सीनियर फेलोशिप तथा मध्यप्रदेश का शिखर सम्मान प्राप्त हुआ। ‘ महामहिम चुप हैं ’, ‘ सपनों में आता है राक्षस ’, ‘ खलल ’, ‘ वैसे मैं कहूँ जैसे कहे नीम ’, ‘ होने जैसा नहीं’ ,‘ तत्रकुशलम था फिलहाल यह आसपास’ उनके प्रकाशित कविता संग्रह हैं. टिप्पणीकार अच्युतानंद मिश्र समकालीन युवा कवियों में जाना माना नाम हैं. वे दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हैं )