समकालीन जनमत
कविताजनमत

विनय कुमार की कविताएँ ऐतिहासिक और राजनीतिक दृष्टिकोण से संवलित हैं

कुमार मुकुल


यक्षिणी की भूमिका में विनय लिखते हैं – ‘…अतीत का बोध मुझे न तो गौरवान्वित करता है, न दुखी और न ही असहाय; बस एक बाध्यकारी उत्सुकता जगाता है जो मुझे समय के आयाम में इस तरह दाखिल करा देती है कि कालखंड बसे-बसाए इलाकों से लगते हैं और बाशिंदे कल और आज के इलाकों के बीच आते-जाते और बोलते-बतियाते नजर आते हैं।’
मैं भी आजकल वैदिक वीथियों में विचरण कर रहा। उनमें विचरते बारहा यह देख चौंकता हूं कि अरे यह उषा तो आज भी वैसी ही अपने पीछे सूरज को भगाये लिए चल रही।
दरअसल वर्तमान से अतीत को आवाजाही को एक पुल है यक्षिणी –

‘मगर तुम हो
जैसे दीदारगंज है जैसे चुनार है उसके सैकत पत्थर हैं
और मेरी आंखें हैं तुझे निहारतीं
और मेरी भाषा का पानी
जिसमें तुम्हारी परछाइयां है!’

‘कैसे होंगे वे हाथ और वे उंगलियां
जिनकी चुटकियां पकड़ सकती थीं प्राण
और युगों से निष्प्राण पत्थरों में
प्रवाहित भी कर सकती थी’

– देवों की प्राण-प्रतिष्‍ठा पत्‍थरों में ऐसे ही तो करता है मनुष्‍य।

यह सोचना रोचक लगता है कि कवि वर्तमान और इतिहास के बीच आवाजाही को जो पुल बनाता है यक्षिणी के रूप में वह उसे देव-असुरों के पूर्व काल में ले जाता है। असुरों को पूर्वदेव कहा जाता है वह देवों के पूर्वज थे। यक्षिणी की कथा भी वेदों के पूर्व के पूर्वदेवों के काल तक जाती है। यह एक मागध की अवचेतन में बसी चुनौती तो नहीं जिसने एक खंडित मूर्ति में प्राण-प्रतिष्ठा का बीड़ा उठाया और उसे संभव किया। मगध का अर्थ होता है वेद विरोधियों की भूमि। कि एक मागध को देव-असुर के झगडों से क्‍या लेना -देना, क्‍यों ना वह उसके पार देवों के जन्‍म के पूर्वकाल तक जाए। यह मागध कवि यूं ही नहीं लिखता –

‘कृष्‍ण से मिलने गया
तो कृष्‍ण नहीं उनकी मूर्ति मिली
शिव से मिलने गया
तो उनके लिंग की प्रस्‍तर-प्रति
दुर्गा से मिलने गया
तो हथियारों का आतंक
राम के मंदिर से
सीता और शबरी के बारे में सोचते हुए लौटा…
गरज कि कोई भी ईश अपने ठिकाने पर नहीं मिला
मगर एक मूर्ति देखने क्‍या गया
अपने भीतर
तुम्‍हारा जीता-जागता संसार लिए लौटा।’

यक्षिणी पढते लगता है जैसे कवि के भीतर स्‍थगित कोई कथा यक्षिणी के बहाने साकार हो रही हो –

‘मगर कुछ तो है कि तुम्हें देखते ही
ह्रदय के भीतर बारिश होने लग जाती है
…और मैं भी तो पत्‍थर नहीं

सोचो तुम, कौन अधिक पत्‍थर है’

कवि मन की यक्षिणी इस यक्षिणी मूर्ति से एकाकार हो गयी है –

‘मैं तो सतर्क था कि शिल्प मैं मेरे वह हो तो अवश्य
किंतु इतना ही मात्र कि वह जाने मैं जानू
और जग कहे साधु साधु सुंदर अति सुंदर’।
यक्षी को रचता अपनी रचना प्रक्रिया को भी देखता चलता है वह –
‘बचपन में अक्सर मैं ट से टकराता रहा…
… मैंने भी किया था प्‍यार
नहीं करता तो कैसे देखता कि
मेरे हृदय की कांपती मूर्ति
सामने पड़ी शिला के भीतर कुलबुला रही है।’

यक्षी के बहाने एक जीवन दर्शन को रचता, दुहराता चलता है कवि। ऐसा करते हुए तमाम जड़ तत्वों की चेतन जीवन प्रणाली से संगति बिठाने की कोशिश करता है। यक्षी के बहाने कवि जड़-चेतन के अंतरसंबंधों को दर्शाने की कोशिश करता है।
इस कथा के माध्यम से अतीत और वर्तमान के बीच पुल बनाता कवि आवाजाही करता है। इस आवाजाही में वर्तमान के संकट उसे बार-बार अतीत की हरी-भरी वीथियों में ले जाते हैं और वह सोचता है कि यक्षिणी उन दिनों की रचना होगी जब ऋतुएं अनुकूल होंगी, जब पुरुष के संस्कृत हाथों ने रची होगी, मादकता की मोहक प्रतिमूर्ति।

यक्षिणी की पूरी कविता श्रृंखला मानसिक द्वंद्व की अभिव्यक्ति है जो जहां एक ओर हथौड़ा, पत्थर, मूर्ति को किनारे करना चाहती है पर अंतत: यक्षी की उस मूर्ति में अपनी प्राण प्रतिष्ठा करती है –
‘छेनियों की तराश तो कतई नहीं यह
माना कि तुम पत्थर थी हो
मगर पत्थर नहीं
तुम्हारे मुंख से फूटती प्रसन्‍नता पत्थर नहीं
… कि तराश दो तो एक पत्थर भी कितना कुछ कह सकता है।’

इतिहास दृष्टि से संवलित विवेकपूर्ण राजनीतिक दृष्टिकोण विनय कुमार की पहचान रही है। वह यहां भी बारहा अभिव्‍यक्‍त होती दिखती है –

‘बाहर निकल पाती अगर
चल पाती थोड़ी दूर
तो थामे तुम्‍हारा हाथ
दूबों से पटे उस मैदान में ले जाता है
जहां एक बूढा आदमी
अपनी हत्‍या के थोडे ही दिनों बाद से
अपने नाम की ड्यूटी बजा रहा है।’

यक्षिणी किताब कविता की है पर इसमें कई कहानियां हैं, कई प्रसंग यक्ष-यक्षिणी, कालिदास से जुड़े प्रसंग। एक कथा उपनिषद से भी ली गई है और अंत में ‘कथान्तर’ में उस शिल्पी की कथा है जिसने अपने मन की यक्षी को महारानी की जगह उसकी सेविका में देखा और उसे पत्थरों में तराशा और यक्षी के अंग भंग और प्रदेश निकाले की सजा पाई। कुल मिलाकर यक्षिणी से गुजरना अपने वर्तमान को अतीत के आलोक में देखना, परखना और जानना है।

विनय कुमार की कविताएँ

 

1. जब तक

जब तक नहीं आ जाता समाचार
कोई विचार नहीं होगा

ख़ला एक कड़े बुलबुले में बदलकर
गले में अटका रहेगा

हाथ-पाँव चलते रहेंगे
जैसे लुढ़कती फिरती है चाबी भरी गाड़ी

देखती रहेंगी आँखें
जैसे राम बहादुर थापा
करसियांग के रास्ते में पहाड़ों को देखता है

कान खुले होंगे
जैसे जेल के ऊँची दीवारों के रोशनदान

चाय पी ली जाएगी बिना यह महसूस किए
कि चीनी कुछ ज़्यादा थी

जैसे जवान फ़ोन पर भी ठोक देते सल्यूट
कुछ वैसे ही
आनेवाले सलाम का जवाब भी दे दिया जाएगा

जब तक नहीं आ जाता कुशल समाचार
सदियों पीछे और मीलों आगे भागता फिरेगा इंतज़ार !

 

2. एक दिन

बाहर एक उजला-सा दिन है
जो जनवरी का कुर्ता
और रविवार की सदरी पहनकर आया है
उसके दुपहरिया नैन
किसी गृहस्थिन सी सुस्त हवा
और सरकारी नौकरी वाले अधेड़ जैसे पेड़ों पर टिके हैं

यह एक रिहायशी इलाक़ा है
जिसके बाशिंदे अपने-अपने घरों में
सुविधाओं की साँकलें चढ़ाए
मर्ज़ी के सेल में बंद हैं

बस एक मैं हूँ जो यहाँ इस कमरे के भीतर
अपना नाम तक उतारे बैठा हूँ
यह एक अजब-सा अकेलापन है
जिसके भीतर भारी भीड़ है
बहुत शोर है
चीख़ पुकार और हाहाकार भी
रह रहकर एक लम्बी साँस खींचता हूँ
जो मेरे भीतर की आँधी में गुम हो जाती है

इस वक़्त इसी भीड़ के बारे में सोच रहा
मगर इस भीड़ को इस बात से क्या
अगर मर भी जाऊँ तो उसे पता न चले
वह तो बस धीरे से लुप्त
गोया बिजली चली गयी और टीवी बंद

अकेला तो आदमी मेला-जुलूस में भी कई बार
मगर यह उन सबसे जुदा
सच कहता हूँ अजब-सा
कि यहाँ चेहरे तो बहुत
मगर हाथ और पाँव किसी के नहीं

वक़्त के अख़बार
बाहर के बारे में भी ऐसा ही कुछ कहते हैं
कि वहाँ भी यूँ ही
किसी कार्निवल गुज़रता रहता है शहर
और फ़िक्र से भरे दिमाग़
कपूर की तरह मर जाते हैं !

 

3. सरस्वती

मैं विराट मौन के अवाक् पर्वतों से फूटी और
ध्वनियों के बीच से यूँ बही बलखाती
कि तट पर शब्दों के अम्बार लग गए
अनंत में रेखाएँ खिंच गयीं रंग छितरा गए
और मेरी गति की गूँज ने कण्ठों में राग भर दिए

पृथ्वी के भीतर किसे ढूँढते हो ज्ञानियो
पार्थिवता कब मेरा स्वभाव
मैं तो सदा से यहीं या कभी नहीं कहीं

किस त्रिवेणी का मानचित्र लिए घूम रहे
किन-किन नगरों के नाम
मुझे इनसे क्या लेना
जहाँ मैं संवेद्य वह कोई और त्रिवेणी है
मुझसे ही सम्भव कविताओँ का उद्यम
जहाँ पवित्रता की उजास और
साँवले क्षणों की लीला के रास को
मेरी अदीख लहरों ने थाम रखा है !

 

4. अब ठीक है

जब कोई लिखे –
‘सब ठीक है’
तो समझो
आग क़ालीन के नीचे दबा दी गयी है

इंतज़ार करो
ख़बर आएगी
ज़रूर आएगी –
‘अब ठीक है’
ख़ुश हो जाओ
कि आग बुहार दी गयी है !

 

5. कोलकाता की होलो

कभी यूँ था यह शहर
कि नदी और सड़क के बीच गुफ़्तगू
बेरोक हुआ करती थी
हुगली हँसती थी तो चौरंगी को गुदगुदी होती थी
और पार्क स्ट्रीट में कोई रो दे
तो हुगली ठहर जाती थी
और नाविक पूछते थे चप्पू से
– की होलो रे

कभी यूँ था यह शहर
कि रंग ज़ब्त रखते थे
संजीदगी से खिलते थे उनके मन के फूल
हदों का इतना लिहाज़
कि जाना भी हुआ तो नंदलाल बसु के पास जाते
मगर मानिक दा की ब्लैक एंड वाइट रीलों में यूँ समाते गोया साँवलेपन के शेड्स हों

कभी यूँ था यह शहर
कि शोर का हक़ सिर्फ़ सुरों के पास
बयान का हक़ समझदारी को
नाचने का हक़ सीखनेवालों को
और कविता को इतनी आज़ादी
कि किसी घर का दरवाज़ा खटखटाए
तो एक हृदय मुस्कुराता हुआ आए
और खोल दे अपने किवाड़

इस शहर की पुरानी तस्वीरों को
पेंटिंग की तरह बचाकर रखो लोगो
वे मनुष्यता की पाठशालाएँ हैं।

6. मच्छर

मच्छरदानी के भीतर घुस आए
तीन मच्छरों के वध के बाद
हथेलियों को देखता हूँ
ख़ुश हूँ कि तीनों मारे गए
मगर ज़िंदगी इस रात के बाहर भी है
ठीक वैसे ही
जैसे दुनिया इस मसहरी के बाहर

आज के बाहर बहुत सारे कल हैं
और कल के भीतर बहुत सारे आज
और वहाँ मच्छर नहीं होंगे
इसकी गारंटी कौन दे सकता है
आस्तीन में साँप जाए न जाए
कॉलर के नीचे छिपकर मच्छर तो जा ही सकते हैं

वैसे भी इन महानुभावों को
ट्रेन में टिकट नहीं लगता
देखा है मैंने कि कैसे
अहमदाबाद, पटना, कलकत्ता और लखनऊ के मच्छर
बिना बोर्डिंग पास लिए ही
दिल्ली जाते विमान में सवार हो जाते हैं
कई बार तो बिज़्नेस क्लास में
आदमी भले मंगोलपुरी और नंगलोई में खोली ढूँढता फिरे ये महानुभाव तो जोरबाग़ की हवेलियों
और लुटियन के टीले के पवित्र प्रकोष्ठों में भी जा घुसते हैं
ज़ेड सिक्यरिटी की नाक और मूँछों के बीच से

ताबड़तोड़ सलामियों के बीच से लहराते हुए यूँ गुज़रते हैं
मानो झंडे के किनारों पर नहीं जा बैठे
तो लोकतंत्र ख़तरे में पड़ जाएगा
मान तो हमने भी लिया ही है
कि मच्छर हमारे लोकतंत्र के अनिवार्य घटक हैं

मच्छरों की गति और मति देख अक्सर लगता है
कि डारविन आलसी थे
पीछे मुड़े तो बंदरों तक पहुँचकर ही रुक गए
तनिक और शोध करते
तो समझ जाते
कि हम सब मूलत: मच्छरों की ही संतान हैं
रफ़्तार के लिए वही ललक
आनेवाले ख़तरों का वही अंदाज़ा
सच की धूप में वैसे ही ग़ायब
अँधेरे के स्वागत में दम-भर संगीत
और किसी भी गाफ़िल के बदन से ख़ून चूसने का वही फ़न

मच्छरदानी के भीतर अब भी कोई अदृश्य हलचल है
मगर महानुभाव दिख नहीं रहे
और मैं अपने ही ख़ून के धब्बों वाले
अपने हाथ मलते हुए सोच रहा हूँ –
कितना मज़ा आता होगा इन्हें अंदमान की जेल में
जब बेड़ियों और हथकड़ियों में जकड़े लोग
सजी-सजायी दस्तरख़्वान की तरह बेबस पड़े रहते होंगे
वे मच्छर अब भी हैं अब भी है सेल्युलर जेल
बेड़ियाँ भी होंगी ही
नहीं दिखने का मतलब नहीं होना नहीं होता

मच्छरदानी के भीतर उस अदृश्य की खोज जारी है
एक है तो ज़रूर मगर कहाँ
पता नहीं चल रहा
वह ज़रूर किसी ऐसी सलवट में है
जिसका आविष्कार होना शेष है !

 

7. सरोवर में उतरती सीढ़ियों पर


सरोवर में उतरती सीढ़ियों पर
बैठी है दिसम्बर की धूप
जैसे शरद की मुस्कान
हवा में हल्के रहस्य के तुहिन कण बिखरे हैं
सीढ़ियों पर पड़ते वृक्षों के साये
मृगी के नैन-से चंचल हैं

और उधर नीचे बहुत नीचे
हृदय में सरोवर के नाचतीं मछलियाँ
ठहरे पानी को मरने से बचा रही हैं !


सरोवर की सीढ़ियों पर
शरद की धूप एक दृश्य भर नहीं है
अभी-अभी आई ऋतु का
अभी-अभी खुला बिस्तरबंद भी है
सबसे ऊपर पीली सी ओढ़नी पश्मीने की
नीचे पता नहीं क्या है
काले अक्षरों सी चींटियाँ लेती हैं टोह
कि गरमाहाट के सिवा और क्या
कल्पना से होड़ लेते पारखी परिंदे
पंख फटकारते हुए छोड़ते हैं कूट संदेश
सब कुछ जानती हवा हँसकर सहेज लेती है
पारभासक पीली यवानिका के पार
और भी बहुत कुछ हो रहा होगा
जो मेरे नैन और बैन से परे
कि सारी की सारी कवितायें कह पाना
किस कवि के बस में!

8. वास्तविक

धर्म कल्पित
देश कल्पित
नगरिकता कल्पित
क़ानून कल्पित



भूख वास्तविक
अन्न और शाक और फल वास्तविक
प्यास वास्तविक
जल और जल के पार्थिव पात्र वास्तविक
अपनी माटी से सबको रचती धरा वास्तविक
और उसका सबसे अच्छा और सबसे बुरा पुत्र
मनुष्य वास्तविक
और इस जातिवाचक संज्ञा से बनी
भाववाचकता – मनुष्यता – वास्तविक


इतनी सी बात है

जि
से

कल्पित पंथ और कल्पित ग्रंथ वाले
लगभग वास्तविक नरपति नरेश
जिनके हाथों में देश
युगों से करते आए अमान्य
फिर भी वही मान्य !

9. यमराज

यमराज को इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता
कि किसी को बलात्कार के
बाद खुले मैदान में जलाया गया
या छलात्कार के बाद तन्दूर में
वह जो राख हुई
नाबालिग़ थी या माँ
हिंदू थी या मुसलमान
सोशलिस्ट थी या कांग्रेसी
कांग्रेस के अच्छे दिनों में नक्सली हुई थी
या भाजपा के अच्छे दिनों में

यमराज को इस बात से भी फ़र्क़ नहीं पड़ता
कि बलात्कार के आरोप में मारे गए लोग
पापी थे या निष्पाप
अपराधी थे या आरोपी
और उनकी हत्या हुई है या वध
यमराज के दफ़्तर में
छेड़छाड़ या बलात्कार का केस दर्ज नहीं होता
हत्या या वध का भी नहीं
सिर्फ़ टूटते प्राणों का पंजीकरण होता है!


किताबी हुलिया और पोशाक भूल जाइए साहिबान
अगर वह मिलेगा तो उसे पहचान नहीं पाएँगे आप
अब वह भैंसे पर नहीं चलता
और नौटंकी के भांड़ो जैसे कपड़े भी नहीं पहनता
अब वह कार में बैठकर क़ीमती सूट पहनकर आता है
और सेहत की बीमा का मशवरा देता है
और उसकी बातों से फूटती अफ़ीम की मीठी महक
यह सुनिश्चित करती है
कि बीमा कम्पनी अगर साँसें ख़रीदने की शर्त भी लगा दे
तो भिखमंगे भी हँसते-हँसते मान लें
ठीक वैसे ही जैसे डिजिटल वूडू के मारे अभागे
किसी भी क़ीमत पर मोबाइल फोन ख़रीदते हैं !

वैसे तो यमराज एक शोकतांत्रिक देवता है
मगर नए भक्तों की संख्या बढ़ाने के लिए
कभी-कभी लोकतांत्रिक भी हो जाता है
सियासी पार्टियों के दफ़्तरों में
उसके अवतरण के गुप्त द्वार हैं
उसने कई चुनाव लड़े हैं कई सरकारें बनायी हैं
कई फ़ैसले किए हैं जिनसे पता चलता है
शोकतांत्रिक होना बंद किए बग़ैर
लोकतांत्रिक हुआ जा सकता है

यमराज को बहुत सारे खेल आते हैं
मगर शतरंज में उसका कोई सानी नहीं
वह भूगोल के किसी भी हिस्से को बिसात
और जीते-जागते मनुष्यों को मोहरे मान खेल चलता है
उसका सिपाही जब प्यादे को मारता है
तो बस मार ही देता है
इसी तरह कई बार राजा और रानी भी काट दिए जाते हैं
और खेल ख़त्म होने के बाद उस डिब्बे में कभी नहीं लौटते
जिसमें काठ के मोहरे
एक दूसरे के साथ सट-पोटकर सोते हैं !

वह देने को कुछ भी दे सकता है
मगर मृत्यु देना उसका गुण है धर्म है स्वभाव है
इसीलिए उसके बारे में सुनकर या उसकी छवि देख
लोग-बाग डर जाते हैं
सावित्री नहीं डरी थी
नहीं डरा था नचिकेता
और यमराज हार गया था !

10. दिल्‍ली में
पूरी साड़ी फटी हुई है, नयी किनारी दिल्ली में।
तरल आग की लहर बेचती बर्फ हमारी दिल्ली में।

हर मज़हब तंदूर-छाप, हर नीयत ख़ुद में खोयी सी
खंज़र जिसके हाथ लगा वह शख़्स शिकारी दिल्ली में।

साबुत जूते, ज़ख्मी तलवे कैसी किरचें बिखरी हैं
रोज़ बुतों की आईनों से मारामारी दिल्ली में।

हश्र हवा में गुब्बारे सा होगा ग़र जेबें खाली
हलके हैं इंसान बहुत पर सिक्के भारी दिल्ली में।

इतिहासों से अखबारों तक एक कहानी मिलती है
सबसे महँगी है दिल्ली पर दावेदारी दिल्ली में।

बाहर से चमकीले धुले हसीन राजपथ दिखते हैं
भीतर-भीतर गंदे नालों की तैयारी दिल्ली में।

कुछ हरियाली क़ब्रों पर, कुछ सत्ता के पिछवाड़े में
सावन के आशिक ढूंढें सावन सरकारी दिल्ली में।

टंग जाएँगे छिले हुए मुर्गे से अगर लज़ीज़ दिखे
नरम गोश्त में दाँत गड़ाने की बीमारी दिल्ली में।

आधी ख़बरें उठा पटक की आधी नूरा कुश्ती की
पढते रहिए किसने किसको लंगड़ी मारी दिल्ली में।

ओ मेरी मुमताज नहीं बनते दिल्ली में ताजमहल
पूछो मत किस तरह चांदनी रात गुज़ारी दिल्ली में।

11. यक्षि‍णी – अंतिम भाग

यह गँगा का तट है कवि
उस गँगा का जो कथाओं में ही नहीं
बाहर भी बहती है
यहीं रहता हूँ
वो रही मेरी पर्णकुटी

मैं उसके स्नान के लिए जल लेने आया हूँ
बस, हमीं दोनों रहते हैं और क्या
क्या नगर क्या पुर
खण्डित मूर्ति और दण्डित शिल्पी के लिए
कहीं स्थान नहीं

क्या करता हूँ
हाहाहाहाहाहा
प्रार्थना करता हूँ प्रार्थना
ईश्वर के ईश्वर से
कि ईश्वर के शिल्प को
शिल्प के ईश्वर दण्ड से मुक्त करें
और दण्ड ही देना हो
तो मुक्ति का दण्ड दें
मुक्ति का दण्ड हाहाहाहाहाहा

और क्या
उसे मैं निहारता हूँ
मुझे वह निहारती है
खेलता हूँ टकटकी लगाने का खेल
और कवि उसकी ढिठाई तो देखो
कभी नहीं हारती
चलता है चलने दो
जैसे वह प्रसन्न रहे
सच तो यही कि उसकी ही स्मिति से किरणें छिटकती हैं
दिन की उजास उसी की आभा से
उसी की थकान से गगन सँवलाता है
उसी की देह के घावों का कृष्ण रक्त तिमिर बन बहता है
उसी की पीड़ा से रात की निविड़ता
विकल वनस्पतियों में वही सिसकती है

— और अब क्या कहूँ
आपस में करते हैं बातें चुपचाप
सोचो तुम, कौन अधिक पत्थर है !

 

 

(कवि डाॅ. विनय कुमार
‘क़र्ज़ ए तहज़ीब एक दुनिया है’, ‘आम्रपाली और अन्य कविताएँ’, ‘मॉल में कबूतर’ और ‘यक्षिणी’ कविता संग्रह प्रकाशित. मनोचिकित्सा से सम्बंधित दो गद्य पुस्तकें ‘मनोचिकित्सक के नोट्स’ तथा ‘मनोचिकित्सा संवाद’ प्रकाशित। इसके अतिरिक्त अंग्रेज़ी में मनोचिकित्सा की पाँच किताबों का सम्पादन।
वर्ष 2015 में ” एक मनोचिकित्सक के नोट्स’ के लिए अयोध्या प्रसाद खत्री स्मृति सम्मान
वर्ष 2007 में मनोचिकित्सा सेवा के लिए में इंडियन मेडिकल एसोसिएशन का ‘‘डाॅ. रामचन्द्र एन. मूर्ति सम्मान’’
मानसिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में नेतृत्व। इंडियन साइकिएट्रिक सोसाइटी के राष्ट्रीय नेतृत्व समिति में विभिन्न पद सम्भालने का अनुभव. पटना में मनोचिकित्सक ।

टिप्पणीकार कुमार मुकुल जाने-माने कवि और पत्रकार हैं. राजस्थान पत्रिका के सम्पादकीय विभाग से सम्बद्ध हैं.)

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