राजेश जोशी
विमलेश की कविताएँ इस समय की कविता की सबसे बड़ी उलझन की ओर संकेत करती हैं। प्रोद्यौगिकी ने समय की गति को इतना बदल दिया है कि जीवन की सच्चाइयों को पकड़ पाना कठिन हो गया है । कविता को लिखे जाने की प्रक्रिया जितने समय में पूरी होती है, दुनिया कुछ और बदल चुकी होती है। इसमें ऐश्वर्य और निर्धनता के बीच की खाई और अधिक चौड़ी हो गयी है । इसमें मामूली आदमी हर दिन लहुलुहान हो रहा है । कविता के लिए इस माहौल में साँस लेने की जगह लगातार सिकुड़ रही है।
यह सोवियत संघ के विघटन के बाद का समय है जिसमें कट्टर और अंध धार्मिकता और प्रतिक्रियावादी विमर्शों ने विचारधारात्मक बहसों को ही किनारे नहीं कर दिया, मनुष्य के बेहतर दुनिया के स्वप्न को भी संदेहास्पद बना दिया है । यहाँ किसी भी समय कुछ गेरूआ सिपाही घर में घुस कर किसी की हत्या कर देते हैं और जीभ और हाथ की उंगलियाँ काट देते हैं । ये कविताएँ हमारे समय में अभिव्यक्ति पर मंडराते खतरों की शिनाख़्त करती हैं ।
आशा और निराशा के अँधेरे उजाले इन कविताओं में लगातार आते जाते रहते हैं । कभी कवि को लगता है कि यह मुल्क अब रहने लायक नहीं बचा है । प्रेम बाजार की चीज़ बन गया है और कविता को आम नागरिक फरेब मान रहा है । लेकिन वहीं यह भी कि सत्ताएँ लाख कोशिश करें उसे जकड़ लेने या मार डालने की ताकत उनके पास नहीं है। लेकिन इन सारी विपरीत परिस्थितियों को मुँह चिढ़ाता जीवन बच रहता है और इसी के बीच कविता भी बार बार…हर बार बच रहती है ।
यह कवि सदियों से जाग रहा है। रात की काली चादर में उसकी नींद के पाँव अँट नहीं पा रहे हैं। इस बहुत छोटी लेकिन बहुत सुन्दर कविता में कबीर के जागने की अनुगूंज को महसूस किया जा सकता है । उसने सभी जाति सूचक, धर्म सूचक नामों को छोड़ दिया है। हालांकि ये सारे विषैले तीर कविता की आत्मा को चुभते रहते हैं, उसको एक साबुत कवि नहीं रहने देते। लेकिन अब उसका कोई मुल्क नहीं है। वह हद से बेहद में आ चुका है। वह समय का एक गुमनाम कवि है। जो रोशनी के एक विस्फोट में बदल जाना चाहता है। ये कविताएँ इस मनुष्य विरोधी समय में लगातार बच रहने और कविता को बचाये रखने के जटिल संघर्ष की कविताएँ हैं।
विमलेश त्रिपाठी की कविताएँ
1. भीड़
हजारों साल की सभ्यता ने हमें इसे उपहार में दिया
यह सभा में न्याय की जीत के लिए जुटी
यह राम के पीछे वानर और रीछ बन कर चली
गाँव में बरछा, भाला और लाठी लेकर
भागी डकैतों के पीछे
खेलती हुई होरी
जलाती हुई दीप
शामिल होती हुई तजिया में
इसने एक दूसरे का हाथ पकड़
समय की गहरी खाइयाँ पार कीं
उत्तेजित होकर अन्यायी राजाओं से लिया बदला
सत्ताओं को खाक में मिलाया कई बार
नई सत्ताएँ बनाईं
बचाया इसने ही लालटेनों की मद्धिम रोशनियाँ
उसका कोई मजहब नहीं था कभी
उसकी जाति न थी कोई
समय के पार कैसी यह भीड़ निर्मम
जो बेगुनाहों का कत्ल कर रही है
ये वही भीड़ है जिसकी हुंकार से बच्चे दुबक जाते हैं घरों में अपना खोया हुआ देश खोजते हुए
कौन हैं वे लोग जो इस आदिम भीड़ में चुपके से समा गए हैं
कौन हैं वे लोग जो खेतों में छीट रहे हैं नफरत
घोल रहे हैं धरती के पानी में काला जहर
पूजागृहों को बनाना चाहते हैं हथियारों का ज़खीरा
क्या हो गया इन कुछ समय में
कि चिट्टियों की भीड़ देख भी डर जाता है
इस देश का एक मासूम कवि
सत्ता को हो गया है
इस अवारा भीड़ से ही प्यार
भीड़ में खींची जा रही हैं सेल्फियाँ
जब कि भाषण टेलिकास्ट कर रहे हैं सारे चैनल
पुलिस लाईन में
एक युवती का हो रहा गैंग रेप
हर हत्या के बाद
एक देश का प्रधानमंत्री निकल जाता है विदेश यात्रा पर
भीड़ लहराती है धर्म – ध्वज
हर दिन हो रही है हत्या एक देश की पागल भीड़ में
हवा में मौन-मौन का आर्तनाद
बोल रहा है सिर्फ प्रधानमंत्री
अगर तुम इस भीड़ का समर्थन करना चाहते हो
तो मुझे मेरे धर्म से बेदखल कर दो
कर दो देश से भी बहिष्कृत
मैं घोषित करता हूँ कि अब मेरा कोई देश नहीं
अब मेरा कोई धर्म नहीं
आदमीयत और कविता के सिवा।
2. इतिहास
वह संसार में सबसे अधिक विवादित था
त्रस्त और पीड़ित भी
अपने जन्म से लेकर अब तक
उसे कभी साबुत नहीं रहने दिया गया था
सत्ताएँ बदलने के साथ ही
उसके रंग बदले जाने लगते थे
वह कभी हरा
कभी सफेद
तो कभी-कभी बिलकुल गेरूआ दिखने लगता था
इस क्रम में वह कभी काला भी हो गया हो बिलकुल
तो हैरत न होनी चाहिए
हर काल और अवधि में एक राजा उसे सँवारने के लिए
कुछ रसूख़ लोगों को नियुक्त करता था
रखी जाती थी कड़ी निगरानी
लिखी जाती थीं इबारतें
लिखे जाते थे स्तुति गान
बाँटे जाते थे पारितोषिक
इन सबके बीच उसके लिए बहुत कम जगह बचती थी
वह भयग्रस्त होकर
किसी कोने में दुबक जाता था
कि वह थोड़ा सा जिंदा रहे
भर सके अपने फेफड़े में थोड़ा साफ-शुद्ध ऑक्सीजन
लेकिन वह हर कोने अंतरे से खींच लिया जाता
चलने लगते थे समय के पोसुआ रंदे
ताकि वह उसी तरह रहे
जिस तरह वे रखना चाहते हैं
कभी-कभी वह भागकर
चला जाता था किसी फक़ीर की झोली में
गीत बन जाता था
किसी पागल कवि के मत्थे चढ़ता कभी
और कविता बन जाता था
सत्ताएँ लाख कोशिश करतीं कि जकड़ लें उसे
या मार ही डालें
लेकिन हर बार वह थोड़ा- सा साबुत छूट ही जाता था
थोड़ा- सा साबुत बच ही जाता था।
3. दो हजार सत्ररह की एक शाम
यह दो हजार सत्ररह की एक शाम है
और मैं तुम्हें याद कर रहा हूँ
बहुत धीमे गुम गए बरसों की तरह
भीतर स्याह एक गुबार है
एक पाखी फँस गई है कंटिली झाड़ियों में
नुच रहे पंख टूट रही लय
अभी-अभी सूरज डूबने के पहले रूका था कुछ पल
इस तरह यह धरती भी थमी थी
आकाश अलोपित हो गया था एक लम्हा
यह तुम्हारी याद है
जिसे कई आकाश गंगाओं तक का सफर तय करना
खोजना कोई और ग्रह
जहाँ प्रेम तिरष्कृत नहीं
धारण करना प्रेम के पागलपन को गर्व एक
आदमीयत
नहीं बंदिशें न दखल न अभिशाप
पूर्णतर प्रेम..।
4. सीढ़ी
वे सिर्फ ऊपर चढ़ने के लिए बनाई जाती हैं
कम ही लोग होंगे जिनने
उतरने के लिए बनाई हो सीढ़ियाँ
जो चढ़ते रहे सीढ़ियाँ पहुँचते रहे शिखरों पर
वे ही एक दिन उतरे भी
अंततः कोई भी सीढ़ी जमीन पर ही आ लगती है
मैं बचपन से लगा हूँ एक सीढ़ी बनाने में
जो ऊपर की ओर नहीं
बल्कि नीचे की ओर जाती है
मैं उतरना चाहता हूँ किसी खोह
पाताल बीच एक जगह
जहाँ समय का अंधेरा जम कर बैठा है
मैं उस जगह जाकर रोशनी के एक विष्फोट में
बदल जाना चाहता हूँ
फिर उस सीढ़ी से मैं कभी ऊपर नहीं आना चाहता।
5. क्या करूँ
क्या करूँ उन छड़ियों का जो मेरी देह पर टूटीं
तब भी सीख न पाया ठीक तरह अंग्रेजी
वे शिक्षक जो आते हैं आज भी हर रात
कुछ न कुछ सिखाने छड़ी दिखाते-डराते
क्या करूँ उनका
उन गीतों का क्या करूँ जिन्हें भैंस की पीठ पर चढ़कर
गाता था सरजुआ का बेटा
और मैं घर की मर्यादा तोड़
चला जाता था नदी तक साथ उसके
कि कर्ज में डूबा उसने खा लिया सल्फास
पिछले ही दिनों
उस बांसुरी की आवाज का क्या करूँ
जिसे मेरी फरमाइश पर बजाता था
वह साँवला लड़का
हम मिलकर फांकते थे मकई का लावा
एक ही गमछे में
दुनिया एक बाँसुरी की मधुर तान में बदल जाती थी
जो चला गया सउदी अरब एक दिन
कि कब लौटेगा अब
पता नहीं
उस भाई का क्या करूँ
जो आधी रात भटकता था इस सामियाना से उस
सुंदर नचनिया और पूरबी की तान खोजता
ले जाता था मुन्ना सिंह और दशरथ तिवारी के गीतों तक
जिसे एक असाध्य बिमारी ने मौन कर दिया
जिसके शब्द और स्पर्श बाकी हैं
आत्मा पर कहीं अब भी
उस लड़की का क्या करूँ
जिससे छीन कर इमली खाना संसार का सबसे बड़ा सुख था
जिसके दुपट्टे में हाथ पोंछकर उसकी गालियां सुनना
नशे से भर देता था
कि वह एक बार जो ससुराल गई
तो फिर लौट न सकी कभी-भी
क्या करूँ उन सपनों का
जिसमें धरती और आसमान मिलकर एक हो जाते थे
स्वर्ग के फूल तोड़ लाना बाएं हाथ का खेल था
सारे पेड़ साबुत थे
हर घोसले में दाना था
वे जो एक-एक टूटे खमोश
बालपोथी में अंकित उस नक्शे का क्या करूँ
जिसका अधिकांश भाग
आभासी सबुज दिखता था सच से खाली
जिसके एक प्रथम प्रधानमंत्री और एक प्रथम राष्ट्रपति थे
और एक बहुत बूढ़ा पिता था
जिसके सीने पर तीन गोलियों के निशान थे
क्या करूँ कि मेरी कविता में वह बार-बार
प्रश्नचिन्ह की तरह खड़ा हो जाता है
मेरी भाषा को निरूत्तर कर देता…..।
6. चूल्हा
वह
एक स्त्री के हाथ की नरम मिट्टी है
आँच में जलते गालों की आभा
आत्मा के धुँए का बादल और आँख का लोर
झीम-झीम बहता काजल
वह
आसमान की ओर उमगी उदास हँसी है
वह
एक सुहागिन का पुरूष है
एक अटूट व्रत
एक पूरी हुई भखौटी
नवजातों की लंबी उम्र की अंतहीन एक प्रार्थना
एक ईश्वर है
वह
भूख के खिलाफ सदियों से इतिहास में अकेली खड़ी
एक आदिम स्त्री का शोकगीत है
अन्न के भविष्यत काल तक गूँजता
वह
एक अनाम स्त्री का घर है
पेट है
मन है
प्रेम है
युद्ध है
हार है
जीत है
वह
सड़क के फूटपाथ पर
गर्वोन्नत और अकेला खड़ा
एक लरकोरी है
उसके माथे पर तसली है
तसली में अदहन है
अदहन में कुछ दाने खुद्दी हैं
वह
असंख्य धरती पुत्रों का परिवार है
स्वप्न है
जीवन है
दुःख है
सुख है
इतिहास और वर्तमान और भविष्य हर जगह देख लिजिए
पड़ताल कर लीजिए हर कोने अंतरे का
कभी भी
कहीं भी
समय के असंख्य आकाश गंगाओं के पार
और फिलहाल
और अंततः
वह एक सबुज संसार है
एक गर्भवती पृथ्वी है …।
7. तुम सुन रही हो आलिया परवीन खातून
इस रात के बियाबान सन्नाटे में आज
तुम्हे बहुत याद कर रहा हूँ आलिया परवींन खातून
वह खत जो तुम्हे लिखा पहली और आखिरी बार
उसे पढ़ने के बाद
तुम चुप और उदास न हो गई होतीं
तो एक घर बस सकता था
वे गुलाब जो मसले मैंने हथेलियों में
वे चॉकलेट्स जो बहा दिए नालियों में
वे आंसूं जो बहे अँधेरे कोने में
उसे अगर रोक दिया होता तुमने
तो मैं भी भर नींद सो सकता था
तुम अभी कहाँ हो आलिया परवीन खातून
कश्मीर में
बलूचिस्तान में
या सीरिया में
तुम अब भी गाती हो गुलजार के गीत
हँसती हो गुलमुहर की तरह
तुम्हे पता है
तुम्हारे गीतों की डायरी
अब भी है मेरे पास सुरक्षित
जिसे मैंने तुम्हारे बैग से चुराई थी
तुम सुन रही हो आलिया परवीन खातून
यह मुल्क अब रहने लायक न रहा
प्रेम को बाजार ने खरीद लिया है
कविता तो अब एक फरेब है आम नागरिकों की भाषा में
एक रसूख पार्श्व गायक की ट्वीट पर
बहस कर रहा है पूरा हिंदुस्तान
किसी के कान नहीं जाते
बुद्धिजीवी-कलाकार की बातों पर
अब यह अभिनेताओं और नेताओं का मुल्क है मेरी दोस्त
तुम सुन रही हो आलिया परवीन खातून
मैं हर कवि की तरह
अपनी कविताओं में कही गुम गया हूँ
तुम्हे किसने मारा
हिंदुओं ने
मुसलमानों ने
सिक्खों ने
क्रिस्तानियों ने
कि राजनीति की जादुई चाकू से मारी गईं तुम
कुछ तो बोलो आलिया परवीन खातून
तुम मौन क्यों हो
क्या सचमुच नहीं रही तुम इस दुनिया में….।
8. आत्म स्वीकार
मैं हिन्दू नहीं हूँ
मुसलमान नहीं हूँ
न सिक्ख
न क्रिस्तानी
मैं तो समय का
एक गुमनाम कवि हूँ
लेकिन ये सारे शब्द
मेरी कविता की आत्मा को
विषैले तीर की तरह चुभते हैं
मुझे साबुत कवि भी
न रहने देते।
9. इसी तरह बच रहती है कविता
जब मान लेते हो तुम
कि सब कुछ नष्ट हो चुका
तुम्हारे सारे आदर्श धूल हो गए
सारे सपने धराशायी
समर्पण कर देते हो खुद को मृत्यु के समीप
सारे ईश्वर लौट जाते नाकाम
तभी रौशनी का एक कतरा
चमक जाता आत्मा की सबसे गोपन जगह
एक तिनका ठहर जाता डूब बीच
बढ़ आता एक हाथ
भर चुके हाथ थामने
इस तरह तुम बच रहते हो हर बार
जीवन यह इसी तरह बच रहता है
सारी विपरीत परिस्थतियों को मुँह चिढाता
इसी तरह बच रहती है कविता भी हर बार
बार-बार ..।
कवि विमलेश त्रिपाठी बक्सर, बिहार के एक गांव हरनाथपुर में जन्म । पिछले 12-13 वर्षों से अनहद कोलकाता ब्लॉग का संचालन एवं संपादन। लोकगीत गायन, अभिनय तथा पटकथा लेखन में विशेष रूचि। अब तक पाँच कविता संग्रह, तीन कविता संचयन, दो उपन्यास, एक कहानी संग्रह और एक आलोचना की पुस्तक प्रकाशित।
भारतीय ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार सहित अन्य कई महत्वपूर्ण पुरस्कार। परमाणु ऊर्जा विभाग के एक यूनिट में कार्यरत।
संपर्क: 43/1, ठाकुरदास घोष स्ट्रीट, टिफिन बाजार, लिलुया, हावड़ा, प.बंग – 711204.
ब्लॉग: http://anahadkolkata.com
Email: starbhojpuribimlesh@gmail.com
टिप्पणीकार राजेश जोशी, हिंदी के सुप्रसिद्ध और वरिष्ठतम कवियों में से एक हैं । कवि राजेश जोशी, शमशेर सम्मान, पहल सम्मान, मध्य प्रदेश सरकार का शिखर सम्मान और माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार के साथ केन्द्र साहित्य अकादमी के प्रतिष्ठित सम्मान से सम्मानित हैं।