समकालीन जनमत
कविता

विजय राही की कविताएँ वर्तमान के साथ अंतःक्रिया करती हैं

अलोक रंजन 


एक कवि का विस्तार असीमित होता है और यदि कवि अपने उस विस्तार का सक्षम उपयोग करते हुए अपनी आंतरिक व्याकुलता को समय की व्याकुलता से जोड़ दे वह निश्चित रूप से प्रशंसनीय कार्य करता है ।

विजय राही की कविताएँ एक नए कवि की कविताएँ हैं यह कहने और स्वीकार करने में कहीं कोई झिझक नहीं है लेकिन अपने विस्तार में वे कविताएँ बहुत से भावों को आच्छादित करती हैं । उनमें अर्थ की तहदारी होने के साथ साथ संरचना की ठोस जमीन भी है ।

विजय की कविताएँ एक तरफ बचपन की स्मृतियों से समृद्ध होती हैं तो दूसरी तरफ उन स्मृतियों को वर्तमान में रखकर उनके नए मायने तलाशती है । स्मृतियों को हम ज़्यादातर बुरी और अच्छी के दो खांचों में ही रखकर देखने के आदि हैं । वे या तो बुरी होती हैं या अच्छी ।

अच्छी स्मृतियाँ पुनः पुनः उन दिनों में लौटा लेना चाहती है तो बुरी स्मृतियाँ उधर देखने तक से रोकती हैं । महाकवि सुमित्रानंदन पंत की एक कविता है ‘वे आँखें’  उसमें कवि एक किसान का जिक्र करते हैं जो अपने जीवन की खुशियों का स्मरण कर रहा है.

विजय की कविताएँ स्मृतियों के गुणदोषों से परे होकर उनकी वर्तमान से अन्तःक्रिया दर्शाती है । इन कविताओं में स्मृतियाँ जीवन की निधि के रूप में आती है जो जीवन के नवीन संदर्भों को पुराने के साथ रखकर देखने को प्रेरित करती हैं । रोना शीर्षक कविता में कवि अपने रोने के माध्यम से स्मृति और वर्तमान का सम्पूर्ण फ़लक हमारे सामने प्रस्तुत कर देता है और उस फ़लक का एक एक हिस्सा अपनी गहरी अर्थवत्ता से ओतप्रोत नज़र आता है ।

माँ कहती है
मैं बचपन में भी ख़ूब रोता था
कई बार मुझे रोता देख
माँ को पीट दिया करते थे पिता
इसका मुझे आज तक गहरा दु:ख है।

स्मृति की तरह ही प्रकृति विजय राही की कविताओं के मूल में विद्यमान है । प्रकृति कहने के साथ ही ‘आह –आह’ और ‘वाह – वाह’ वाली प्रकृति के बिम्ब उभरने लगते हैं लेकिन वह पर्यटकों की प्रकृति होती है । यहाँ प्रस्तुत कविताओं में प्रकृति ऐसे आती है जैसे जीवन में सुख-दुख आते हैं ।

यहाँ प्रकृति चकित नहीं करती बल्कि प्रतिदिन की गतिविधियों में शामिल सहजता की मूर्ति सी जान पड़ती है । असल में यहाँ प्रकृति का होना एक सहचर का होना है । यही कारण है कि विजय की कविताओं में प्रकृति से जुड़े संदर्भ जीवन के खट्टे – मीठे अनुभवों और रस से भरे हुए होते हैं ।

उनकी आँधी शीर्षक वाली कविताएँ हों या फिर बारिश वाली कविताएँ सब अपनी स्थानीय विशेषताओं से युक्त होकर आती हैं साथ ही साथ वे सार्वभौम मानवीय समवेदनाओं को भी स्पर्श करती हुई चलती हैं । बारिश हो या आँधी जीवन को गहरे रूप में प्रभावित करती हैं ।

उनके आने से जीवन के नैरंतर्य में बाधा आती है । ये बाधाएँ जीवन के सहज क्रम को तोड़ने के साथ साथ उसकी निरंतरता की तैयारियों को भी परखती हुई चलती है । विजय की कविताओं में बारिश और आँधी से पहले माँ की तैयारी असल में आपदा से पहले की तैयारी की द्योतक है ।

सब कुछ सौर-सकेलकर
ला पटकती है माँ घर के भीतर
फिर देती है बारिश को मीठा आमंत्रण
” ले ! अब ख़ूब बरस म्हारी भाभी !

यहाँ प्रस्तुत कविताओं में प्रेम को भी एक सूत्र के रूप में देखा जा सकता है । विजय के यहाँ प्रेम की उपस्थिती बहुत लाउड न होकर सहजता वाली है । इस सहजता के साथ विजय राही की प्रेम विषयक कविताओं में प्रेम के दर्शन की झलक भी देखी जा सकती है । ‘एक दूसरे के हिस्से का प्यार’ ऐसी कविता है जहाँ प्रेम को एक ही साथ विस्तृत और संकीर्ण होते हुए देखा जा सकता है । एक ओर तो प्रेम अपना पुराना रूप खोकर सीमित होता जाता है वहीं दूसरी ओर प्रेमी अपने अपने बच्चे को प्यार देते हुए प्रेम की संभावनाओं के असीमित रूप को सामने रखते हैं । एक कविता है ‘प्रेम बहुत मासूम होता है’ इसमें प्रेम का जो रूप आता है वह केवल प्रेम को स्पष्ट करने के बदले दुनिया को देखने का एक नज़रिया बनकर आता है ।

तुम्हारे जाने के बाद मुझे ज्ञात हुआ

कि इस भीड़ भरी दुनियां में

अपने प्रिय से दूर रहकर

अकेले तिल-तिल कर मरना

क्या किसी जेल से कम है?

कविताओं की सफलता उसमें आए समाज की वास्तविक स्थिति पर भी निर्भर करती है । अर्थात , यह देखना जरूरी हो जाता है कि कवि की कविताओं में समाज की कितनी उपस्थिती है । स्मृति , दर्शन , प्रेम आदि सब तब बेमानी हो जाते हैं यदि उनका सहकार सामाजिक रूप से न हो ।

विजय की कविताएँ कविता की इस जरूरत को पूरा करती हुई चलती हैं । उनकी कविताओं में से समाज को निकालकर अलग कर दें तो कविताएँ खड़ी नहीं रह पाएँगी । वहाँ सामान्य सामाजिक जीवन अपनी सभी विशेषताओं के साथ आता है । ‘माँ को पीटने वाला पिता’ , बेटी की मर्जी के खिलाफ उसका विवाह तय करने वाला पिता , मर्द को रोने से रोकने वाला समाज , आँधी- बारिश में सब काम करते हुए घर की सलामती के लिए दुआ मांगती माँ आदि संदर्भ समाज के पुरुष केन्द्रित होने को स्पष्ट करते हैं । विजय की कविताओं में आने वाले ये बिन्दु बिना की लाग लपेट के अपना अर्थ सामने रखते हैं ।

आंटे-सांटे में हुई थी उसकी सगाई

दूज वर के साथ

हालांकि ख़ूब जोड़े थे उसने माँ-बाप के हाथ।

यहाँ इन कविताओं को पढ़ते हुए राजस्थान के आँचलिक शब्द आते हैं जो कविताओं को अलग ही अर्थ देते हैं । स्थानीयता को जिस कलात्मकता के साथ कवि ने अपने कविताओं में रखा है वह निश्चित रूप से दर्शनीय है । दो उदाहरण देखे जा सकते हैं –

ले ! अब ख़ूब बरस म्हारी भाभी !

“आँधी आई मेह आयो,
बड़ी बहू को जेठ आयो”

विजय की कविताओं में शिल्प के चमत्कारिक धार कम हैं इससे पंक्तियाँ कई बार ब्यौरे के रूप में सामने आती हैं । लेकिन , अर्थ की गहराई इस कमी को ढँककर चलती है । हालाँकि इसे कमी कहना एक जल्दबाज़ी होगी क्योंकि समय के साथ इस कवि की कविताओं में शिल्प की कलाकारी के और पैने होने की पूरी संभावना दिखती है ।

 

विजय राही की कविताएँ

1.रोना

बड़े-बुजुर्ग कहते हैं
मर्द का रोना अच्छा नही
अस्ल वज़ह क्या है
मैं कभी नही जान पाया
मगर मैं ख़ूब रोने वाला आदमी हूँ।

माँ कहती है
मैं बचपन में भी ख़ूब रोता था
कई बार मुझे रोता देख
माँ को पीट दिया करते थे पिता
इसका मुझे आज तक गहरा दु:ख है।

मुझे याद है धुँधला-सा
एक बार मट्ठे के लिए मुझे रोता देख
पिता ने छाछ बिलोती माँ के दे मारी थी
पत्थर के चकले से पीठ पर
चकले के टूटकर हो गये दो-टूक
आज भी बादल छाने पर दर्द करती है माँ की पीठ।

पाँचवी क्लास में कबीर को पढकर
रोता था मैं ड़ागले पर बैठकर
‘रहना नही देस बिराना है’
काकी-ताई ने समझाया…
‘अभी से मन को कच्चा मत कर,
अभी तो धरती की गोद में से उगा है बेटा !’

ऐसे ही रोया था एक बार
अणाचूक ही रात में सपने से जागकर
पूरे घर को उठा लिया सर पर
सपने में मर गई थी मेरी छोटी बहिन
नीम के पेड़ से गिरकर
मेरा रोना तब तक जारी रहा
जब तक छुटकी को जगाकर
मेरे सामने नही लाया गया

उसी छुटकी को विदा कर ससुराल
रोया था अकेले में पिछले साल।

घर-परिवार में जब कभी होती लड़ाई
शुरू हो जाता मेरा रोना-चीखना
मुझे साधू-संतो,फक़ीरो को दिखवाया गया
बताया गया
‘मेरे मार्फ़त रोती है मेरे पुरखो की पवित्र आत्माएँ
उन्हे बहुत कष्ट होता है
जब हम आपस में लड़ते हैं।’

नौकरी लगी, तब भी फ़फक कर रो पड़ा था
रिजल्ट देखते हुए कम्प्यूटर की दुकान पर

मैं रोता था बच्चों,नौजवानों,बूढ़ो,औरतों की दुर्दशा देखकर।
मैं रोता था अखबारों में जंगल कटने,नदिया मिटने,पहाड़ सिमटने जैसी भयानक ख़बरें पढ़कर ।
मैं रोता था टी.वी, रेड़ियो पर
युद्ध,हिंसा,लूटमार,हत्या,बलात्कार के बारे मे सुनकर,
देखने का तो कलेजा है नही मेरा।

माँ कहती है-
‘यह दुनिया सिर्फ़ रोने की जगह रह गई है।’

मैं अब भी रोता हूँ
मगर बदलाव आ गया मेरे रोने में
मैं अब खुलकर नही रोता
रात-रातभर नही सोता
थका-सा दिखता हूँ
मैं अब कविता लिखता हूँ।

2. प्रेम बहुत मासूम होता है

प्रेम बहुत मासूम होता है
यह होता है बिल्कुल उस बच्चे की तरह
टूटा है जिसका दूध का एक दाँत अभी-अभी
और माँ ने कहा है
कि जा ! गाड़ दे, दूब में इसे
उग आये जिससे ये फिर से और अधिक धवल होकर
और वह चल पडता है
ख़ून से सना दाँत हाथ में लेकर खेतों की ओर

प्रेम बहुत भोला होता है
यह होता है मेले में खोई उस बच्ची की तरह
जो चल देती है चुपचाप
किसी भी साधु के पीछे-पीछे
जिसने कभी नहीं देखा उसके माँ-बाप को

कभी-कभी मिटना भी पड़ता है प्रेम को
सिर्फ़ यह साबित करने के लिए
कि उसका भी दुनिया में अस्तित्व है

लेकिन प्रेम कभी नहीं मिटता
वह टिमटिमाता रहता है आकाश में
भोर के तारे की तरह
जिसके उगते ही उठ जाती है गांवों में औरतें
और लग जाती हैं पीसने चक्की
बुज़ुर्ग करने लग जाते हैं स्नान-ध्यान
और बच्चे मांगने लग जाते है रोटियां
कापी-किताब, पेन्सिल और टॉफियां

प्रेम कभी नहीं मरता
वह आ जाता है फिर से
दादी की कहानी में
माँ की लोरी में ,
पिता की थपकी में
बहन की झिड़की में
वह आ जाता है पड़ोस की ख़िड़की में
और चमकता है हर रात आकर चाँद की तरह…

3. एक-दूसरे के हिस्से का प्यार

एक समय था
जब दोनों का सब साझा था
सुख,दुःख,
हँसना,रोना,
नींद,सपने
या कोई भी ऐसी-वैसी बात।

कुछ चीज़ें ऐसी भी थीं-
जो बेमतलब लग सकती हैं
जैसे साबुन, स्प्रे, तौलिया
कभी-कभी शॉल भी ।

शरारतें, शिकायतें,
ये तो साझा होनी ही थी।

कार,मोबाइल,ट्विटर
फेसबुक, व्हाट्सएप
जैसी कई चीजें
बड़ी भी, छोटी भी
यहाँ तक कि रोटी भी।

अब नही रहा,
तो कुछ नहीं रहा
सिवाय उस पाँच वर्षीय बच्चे के
जिसे करते हैं दोनों
एक-दूसरे के हिस्से का भी प्यार।

4 . वहम

मैंने जब-जब मृत्यु के बारे में सोचा
कुछ चेहरे मेरे सामने आ गये
जिन्हे मुझसे बेहद मुहब्बत है।
हालांकि ये मेरा एक ख़ूबसूरत वहम भी हो सकता है
पर ये वहम मेरे लिए बहुत ज़रूरी है।

मैं तो ये भी चाहता हूँ-
इसी तरह के बहुत सारे वहम
हर आदमी अपने मन में पाले रहे।
गर कोई एक वहम टूट भी जाये
तो आदमी दूसरे के साथ ज़िंदा रह सके।

बच्चों को वहम रहे कि-
इसी दुनिया में है कहीं एक बहुत बड़ी खिलौनों की दुनिया
वो कभी वहाँ जायेगें और सारे खिलौने बटोर लायेंगे।
बूढों को वहम रहे कि
बेटे उनकी इज्जत नही करते
पर पोते ज़रूर उनकी इज्जत करेंगे।

औरतों को वहम रहे कि
जल्द ही सारा अन्याय ख़त्म हो जायेगा।
किसानों को वहम रहे कि
आनेवाली सरकार उनको फसल का मनमाफ़िक मूल्य देगी।
मजदूरों को वहम रहे कि
कभी उनको उचित मजदूरी मिलेगी।

सैनिकों को वहम रहे कि
जल्द ही जंग ख़त्म होगी
और वो अपने गाँव जाकर काम में पिता का हाथ बँटायेंगे।
बेरोजगारों को वहम रहे कि
कभी उनकी भी नौकरी होगी,
जिससे वो दे सकेंगे अपने परिवार को दुनियाभर की ख़ुशियाँ।

आशिकों को वहम रहे कि
कभी उनकी प्रेमिका उनको आकर चूमेगी और कहेगी…
“मैं आपके बिना ज़िंदा नही रह सकती”

5 . टाईमपास

दो आदमी बात कर रहे थे
एक ने पूछा ,आप कहाँ रहते है?
दूसरे ने बताया…जयपुर

पहले ने कहा , मैं भी जयपुर रहता हूँ
दूसरा बोला,अरे वाह्ह! आप जयपुर में कौनसी जगह रहते है?
पहले ने बताया…मैं प्रेमनगर रहता हूँ
दूसरे ने कहा,क्या बात है! मैं भी प्रेमनगर रहता हूँ
पहले ने फिर पूछा,आप प्रेमनगर में कौनसी जगह रहते है?
दूसरे ने बताया,’मैं मकान नंबर बी-सत्तावन में रहता हूँ’
पहले ने कहा, अद्भुत! मैं भी बी-सत्तावन में रहता हूँ

एक आदमी पास खड़ा उनकी बाते बड़े गौर से सुन रहा था
उसने दोनों की ओर देख कहा,’क़माल है!
आप दोनो एक जगह,एक ही घर में रहते है,
पर एक दूसरे को नही जानते’

उनमें से पहला आदमी
पहले थोड़ा मुस्कराया
और उसकी तरफ हँसकर बोला…
‘दरअस्ल हम बाप-बेटे हैं
हम तो टाईमपास कर रहे हैं।’

6. कविता

जिस तरह आती हो तुम
अपने इस पागल प्रेमी से मिलने
रोज-रोज।
जब मिलती हो, ख़ूब मिलती हो ,बाथ भर-भरकर।
फिर महिनों तक कोई खोज-ख़बर नही।

जिस तरह आती है सूरज की किरणें
पहाड़ो के कंधों से उतरकर धरती पर।
कई बार बादलों का कंबल उतारकर
आसमानी खिड़की से सीधे कूद जाती है।

जिस तरह आती है हमारे घर मौसियाँ
बार-त्यौहार पर ,बाल-मनुहार पर,सोग पर
कभी-कभी तो अकस्मात आकर चौंका देती हैं।

ठीक इसी तरह आती है कविता
और इस चौंका देने वाली ख़ुशी का कोई तोड़ नही है।

7 . आँधी पर कुछ कविताएँ

आँधी  1

बचपन में एक गीत सुना था
हमने काकी के मुँह से…
“आँधी आई मेह आयो,
बड़ी बहू को जेठ आयो”
वास्तव में ये गीत नही था,
मौखिक छेड़ख़ानी थी।
काकी हँसती-गाती रहती,
बहू भी संग में हँसती रहती।
बच्चे भी दोहराते रहते,और नाचते-गाते रहते।
आँधी में जो उड़ती धूल,
वो सब उसमें नहाते रहते।

कुछ बच्चे चले जाते हैं
आम और इमली के पेड़ों के नीचे
और इंतज़ार करते रहते
कि रामजी महाराज गिरायेंगे,
उनके लिए आम और इमलियाँ।

कुछ बच्चे जो दूर खड़े है,
वो थोड़े-से और बड़े है।
वो खेलते है हॉकी, क्रिकेट और कबड्डी
वो खेलते रहते है भरी आँधियों में भी क्रिकेट
कई बार कचकड़ा की गेंद चली जाती आँधी के साथ दूर
और गुम हो जाती चरागाहों में कहीं
तो उनके पास बचता
आपसी दोषारोपण और लात-घूसों का खेल।

कुछेक बच्चे ऐसे भी है उनमें,
जो थोड़े से सयाने हो गए हैं।
हालांकि वो इतने भी सयाने नही हुए
जितना वो ख़ुद को समझते हैं।

वो निकल पड़ते है आँधी के गुबार में घर से
मिलते है मचकर अपनी भाएली से
निकालते है अपने मन का गुबार।

आँधी डटती है,आसमान छँटता है,
निकलती है औरतें पनघट के लिए
कुएँ के पास फैले आँकडों पर मिलता है
एक चुन्नी और एक तौलिया
वहीं पारे के पास मिलती है
नयी नकोर दो जोड़ी बैराठी की चप्पलें।

आँधी.2
◆◆
यूँ तो बच्चों को आँधी अच्छी लगती है,
पर हमारे लिए आँधी जब भी आई
मुसीबतों का विशाल पहाड़ लेकर आई।

आँधी के अंदेशे मात्र से काँपने लग जाती थी माँ
मुँह-अँधेरे से ही टूटे छप्पर को ठीक करने लग जाती
और देती रहती साथ में आँधी को नौ-नौ गालियां
उसकी गालियों को कितना सुनती थी आँधी ,
यह तो हमको पता नही है।
पर वह आती थी अपने पूरे ज़ोर के साथ।
लिपट जाते हम सब भाई-बहिन छप्पर से
कोई पकड़ता थूणी, कोई बाता पकड़ता ।

कभी-कभी तो आँधी इतनी तेज होती
कि उठ जाते थे सब भाई-बहिन
ज़मीन से दो-दो अंगुल ऊपर।
माँ लूम जाती थी रस्सी पकडकर,
छप्पर से छितरती रहती घास-फूस।
फट जाता था पुराना तिरपाल
और साथ में माँ का ह्रदय भी।
बिखर जाती छप्पर की दीवार के चारों ओर
लगाई ख़जूर के पत्तों की बाड़।

आँधी के सामने माँ खड़ी रहती थी
सीना ताने, अपनी पूरी ताकतों के साथ।
पर हमको अब भी याद है उसकी रिरियाहट
भगवान से आँधी रोकने का उसका निवेदन
बालाजी- माताजी को बोला गया प्रसाद।

जब थम जाती आँधी देर रात
अपना पूरा ज़ोर जणाकर,
फिर चलती कई दिनों तक
बिखरे को समेटने की प्रक्रिया।

बीत गया बचपन, रीत गई यादे
गिर गया छप्पर,बन गया मक़ान
फिर गए दिन,फिर गए मौसम
कट गए साल,मिट गए ग़म
मग़र जब भी आती है आँधी
आज भी सिहर उठता है मेरा तन-मन

आँधी.3
◆◆◆
आँधी जब आती है
बदल जाता है धरती-आसमान का रंग
बदल जाती है पेड़-पौधों की आवाज़

चला जाता है सबके चेहरों का नूर
शरीर के साथ-साथ आत्मा तक
ज़मा हो जाती है ढेर सारी धूल ।

आँधी जब आती है
कर देती है बहुत कुछ इधर का उधर

आँधी में चला जाता है अनवर का कोट राधा के आँगन में
फिर वहीं फँस कर रह जाता है दीवार पर लगे तारों में।

आँधी में ही चला जाता है मोहन का रूमाल
शबीना की छत पर
और उलझ जाता है बुरी तरह टीवी के एंटीने में।

आँधी में चला जाता है कवि का मन
कहीं दूर अपने प्रिय के पास
और वहीं ठहर जाता है,आँधी के थम जाने तक
जब वह वापस आता है
तब उसके साथ में होती है कविता।

कविताएँ कवि-मन में चलने वाली आँधी की बेटियाँ है।

8. बारिश पर कुछ कविताएँ
बारिश.1

जब बारिश होती है
सब कुछ रूक जाता है
सिर्फ़ बारिश होती है ।

रूक जाता है बच्चों का रोना
चले जाते हैं वो अपनी ज़िद भूलकर गलियों में
बारिश में नहाते है देर तक ।

रूक जाता है
खेत में काम करता हुआ किसान
ठीक करता हुआ मेड़ ।

पसीने और बारिश की बूँदे मिलकर
नाचती हैं खेत में।

लौट आती है गाय-भैंसे मैदानों से
भेड़- बकरियाँ आ जाती है पेड़ो तले
भर जाते है जब तालाब-खेड़
भैंसे तैरती हुई उनमें उतर जाती है,गहराई तक।

रूक जाते हैं राहगीर
जहाँ भी मिल जाती है दुबने की ठौर ।

पृथ्वी ठहर जाती है अपने अक्ष पर
और बारिश का उत्सव देखती है ।

◆◆
बारिश.2

बारिश शुरू होने से पहले ही बढ़ जाती है अचानक माँ के पैरों की गति
वह एक बारगी में देख लेती
दूर तलक सब कुछ ।

कहीं कुछ रह ना गया हो घर से बाहर
बारिश का क्या पता ?
पता नही कब रूके ?

वो चाहती है घर में रख दे एक-दो दिन का बड़ीता
कपड़े-लत्ते सूख रहे हैं जो पिछले दिनों से
लेती है वह उनकी की भी सुध
इकट्ठा कर ला डालती है अलगणी पर ।

फिर कुछ याद करके भागती है अचानक बाहर
मूँज की खाट उठाकर लाती है पाटोल में
यहाँ तक कि पोते के खिलौने भी नही भूलती
उठाकर लाती है, रखती है ताक में ।

आँगन के चूल्हे को ढकती है तिरपाल से
फिर रखती है उस पर उल्टी परात
खटिया के पागे से बाँधती है भैंस की पड़िया
ढकोली के नीचे दे देती है नन्हे बकरेट ।

वह नही भूलती झाडू को भी
लाकर रखती है कोने में करीने से ।

सारे बच्चें जो मगन है खेल मे
जिनको कोई ख़बर नही बरसात की
माँ उनको देती है हेला ज़ोर से
“घर आ जाओ ! नही तुम्हारी माँ आई !”

सब कुछ सौर-सकेलकर
ला पटकती है माँ घर के भीतर
फिर देती है बारिश को मीठा आमंत्रण
” ले ! अब ख़ूब बरस म्हारी भाभी !

बारिश.3
◆◆◆
बारिश के बाद
बबूल के पेड़ के नीचे से
अपनी बकरियों को हाँक
वह मुझसे मिलने आई।
दूर नीम के पेड़ तले ।

नीम पर बैठी चिड़ियों ने
उसका स्वागत किया
चहचहाते हुए।
तोते ने उसके सौन्दर्य की
तारीफ़ की मुझसे।
कबूतरों ने पंख फडफड़ायें
और उससे निवेदन किया –
“वो उन पर विश्वास कर सकती है,
अपना संदेश भिजवाने के लिए”
गिलहरियाँ फुदकी
और उसकी चोटी पर से उतर गई।

अब मेरी बारी थी

मैंने नीम की डाली झुकाकर प्रेम प्रकट किया।
कुछ कच्ची निबोरियाँ मोतियों-सी
कुछ सफेद-झक्क फूल
आ खिले उसके बालों में।
पत्तियों को उसके गाल रास आये।

कुछ बारिश की बूँदे
जो ठहरी हुई थी फूल-पत्तियों पर
हम-दोनों पर एक साथ गिरी,
हम दोनों कुछ देर भीगते रहे,
बारिश के बाद की उस बारिश में ।

 

9चीलगाड़ी

आंटे-सांटे में हुई थी उसकी सगाई

दूज वर के साथ

हालांकि ख़ूब जोड़े थे उसने माँ-बाप के हाथ।

जब ब्याह नजदीक आया

और कोई रास्ता नज़र नही आया

तो फिर उसने घर के पीछे

बैठ पीपल की छाँव मे

तुरत-फुरत संदेशा लिक्खा

भेजा बगल के गाँव में।

ठीक लगन के दिन की बात है…

आधी रात, गजर का डंका

बिजली कड़की

चुपके-चुपके पाँव धरती

घर से बाहर निकली लड़की।

प्रेमी उसका इंतज़ार कर रहा था

माताजी के थान पर

दोनों ने धोक लगाई।

काँकड़ के बूढ़े बरगद ने

आशीष बक्शा ।

प्रेमी के गाँव की दूरी

सवा कोस थी

वे पगड़डियों पर

दौड़ते हुए जा रहे थे

डर की धूल को

हवा में उड़ाते हुए

मुस्कराते हुए।

उन्हे जुगनुओं ने रास्ता दिखाया

टिटहरियों कुछ खेत उनके साथ चली

दुआएं देती हुई

झिंगुरों ने शहनाई बजाई।

बिल्लियों,सियारों,खरगोशों के झुण्डों ने

उनका रस्ते काटे,शगुन हुए।

जब गाँव नजदीक आया

तब जाकर उनके पाँव ज़मीन पर आये।

लड़की थोड़ा सहमी

लड़के का हिया उमग्याया

उसने लड़की के कंधे पर हाथ रखे

और माथा चूमा।

पास ढाणी की कोई शादी में

औरतें गीत गा रही थी

“बना* को दादो रेल चलाबे

बनो चलाबे चीलगाड़ी।

खोल खिड़की,बिठाण ले लड़की

अब चलबा दे थारी चीलगाड़ी।”

*बना-दूल्हा

 

10 . देश

देश एल्यूमीनियम की पुरानी घिसी एक देकची है

जो पुश्तैनी घर के भाई-बँटवारे में आई।

लोकतंत्र चूल्हा है श्मशान की काली मिट्टी का

जिसमें इसबार बारिश का पानी और भर गया है।

जनता को झौंका हुआ है इसमें

बबूल की गीली लकड़ी की तरह

आग कम है,धुआं ज़ियादा उठ रहा है।

नेता फटी छाछ है।

छाछ का फटना इसलिए भी तय था

क्योंकि खुण्डी भैस के दूध में

जरसी गाय की छाछ का जामण दे दिया गया।

संसद फटी छाछ की भाजी है

जो ना खाने के काम की

ना किसी को देने का काम की।

प्रधानमंत्री पाँच साल का बच्चा है,

जो भयंकर मचला हुआ है

चूल्हे के चारों तरफ चक्कर काटता हुआ

वह अपने मन की बात कहता है

“भाजी दो!

नही चूल्हा फोड़ू,

देकची तोड़ू”

बच्चे तो बच्चे हैं

कौन जाने,क्या पता

भाजी के बाद चाय की फरमाइश कर दे।

हालांकि सब सिर्फ़ बच्चे की बात कर रहे हैं

पर मुझे चूल्हे में जली-दबी-बुझी राख का दु:ख है।

 

11. मैं जानता था

पर कितना कम जानता था

कि जेल सिर्फ़ एक कोठरी का नाम है।

बचपन में गाँव के

हमारे जैसे बच्चों को

तिलक-छापे लगाए हुए

जो भी बुज़ुर्ग आदमी दिखता

हम अपना हाथ आगे कर देते

‘बाबा! देखियो मेरो हाथ!’

मेरे लिए हाथ की रेखाएँ पढ़ना

बिल्कुल ऐसे है

जैसे चंपा के लिए काले अक्षर।

जब हस्तरेखा पढ़कर बताया गया

‘बेटा! सरकारी नौकरी लग जायेगो

पर साथ में जेल भी जायेगो’

मैं डर गया था

डर के कारण मैं चुप्पी साधे रहा हमेशा।

थाने की गाड़ी सपने में दिखती थी मुझे।

मैंने हरसंभव कोशिश की

इस डर से निकलने की।

मैंने जेल जाने के तमाम कारण ढूंढे

और उनसे सात कोस बचकर चलता।

डर को मात देने के लिए

मन को बहलाता रहता तमाम तरीकों से

जो भी कर सकता था

मैंने किया।

आज बरसों बाद

जब सोचता हूँ मैं इन सब के बारे में

तो मुझे मेरी अक्लमंदी पर तरस आता है।

और रूलाई आती है

रूलाई के बाद हँसी आती है

तुम्हारे जाने के बाद मुझे ज्ञात हुआ

कि इस भीड़ भरी दुनियां में

अपने प्रिय से दूर रहकर

अकेले तिल-तिल कर मरना

क्या किसी जेल से कम है?

 

 

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दैनिक भास्कर का राज्य युवा प्रतिभा खोज प्रोत्साहन पुरस्कार -2018, क़लमकार मंच का राष्ट्रीय कविता पुरस्कार(द्वितीय)- 2019 से सम्मानित कवि विजय राही, जन्मतिथि-03/02/1990 दौसा, राजस्थान के रहने वाले हैं।  पेशे से सरकारी शिक्षक है। भानगढ़ (अलवर) में पोस्टिंग । पहली कविता मधुमती में छपी । कविताएँँ पत्र-पत्रिकाओं में छपती रही हैं.
संपर्क : Email-vjbilona532@gmail.com

टिप्पणीकार आलोक रंजन, चर्चित यात्रा लेखक हैं, केरल में अध्यापन,  यात्रा की किताब ‘सियाहत’ के लिए भरतीय ज्ञानपीठ का 2017 का नवलेखन पुरस्कार ।)

 

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