रंजना मिश्र
कुछ स्वर अपनी मन्द्र उपस्थिति में अधिक सुन्दर, अधिक मुखर होते हैं। वे कोमल, गझिन और एकान्तिक होते हुए भी अपनी ज़मीन पर मजबूती से खड़े नज़र आते हैं, ठीक जंगल में उगे उन नामालूम वृक्षों से जिनकी उपस्थिति का पता तभी चलता है जब आप उनके नीचे बिछी पगडण्डी से गुज़रें। वसु गन्धर्व की कविताओं से गुज़रना कुछ ऐसा ही अनुभव है। ये कविताएँ अपनी कहन, गठन और आस्वाद में ऐसी ही हैं। इनसे गुज़ारना ताजा अछूते बिम्बों एवं शिल्प में संयत शब्द कर्म से गुज़रना है जो नया अनुभव संसार पाठक के समक्ष खोलती हैं। इनमें एक किस्म का इत्मीनान है, अपनी बात परिष्कृत सुविज्ञ पर सरल तरीके से कहने की स्थिरता और संयम जो सहज लक्षित है । भाषा के दाँव पेंच में उलझकर अवनति को प्राप्त होना कवियों का शाप है और यह खूबसूरत बात है कि वसु उससे बहुत दूर नज़र आते हैं। इन कविताओं में कुछ पंक्तियाँ याद रह जाने जैसी हैं,यथा :
अंतिम अलविदा की अनुगूँज हो सके ख़त्म
इसके पहले मैं लौट आऊँ घर
बुझी न हो दरवाज़े के पास जलती बत्ती
ख़त्म न हुआ हो मेरे हिस्से का भात।
इन कविताओं में उदासी तो है पर उदासी से जुड़ा कैशौर्य रूमान नहीं, प्रेम है पर अतिरंजना नहीं, यथार्थ है पर वीभत्स यथार्थ नहीं। इनके सम्प्रेषण में एक किस्म की परिपक्वता है जो किसी भी कलाकार / रचनाकार की पूँजी हो सकती है। जैसे इन पंक्तियों में वे कहते हैं :
माँ की नींद कच्ची है
हलके पदचाप से टूटती अचानक
रहस्य और पुराने सुख दुःख
जिसमें जीर्ण होकर गलती हैं आयु की रेखाएं
इनमें उदासी, स्मृति और प्रकृति से जुड़े मन के इतने अलग अलग और साथ ही घुले मिले रंग हैं जिन्हें अलगाना कठिन है । ये फार्मूलाबद्ध कवितायेँ नहीं। ये कवि के एकांत से उपजा एकालाप है जो पाठक को भी अपनी गिरफ्त में ले लेता है । हिंदी साहित्य संसार एक किस्म की सांस्कृतिक विपन्नता सेजूझता नज़र आता है जिसे नीलाम्बरी जैसी कविताएँ निश्चित तौर पर निरस्त करने का प्रयत्न करती हैं।
नींद की भाषा में ही खुलना था
दूर से आती आवाज़ों का
ऐसी ही पीली शामों में होना था विलय
ये पंक्तियाँ चेतन से अवचेतन की यात्रा करती पाठक का अनुभव संसार निश्चय ही समृद्ध करती हैं बशर्ते इन्हें पाठकीय धैर्य से पढ़ा जाए। क्योंकि कोमल संयत आवाज़ों को कान लगाकर सुने जाने की ज़रुरत होती है , उनके सौंदर्य का जादू तभी खुलता है।
यह निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि , वसु गन्धर्व उन युवा कवियों में से हैं जिन्हें गंभीरता से लक्षित किये जाने की आवश्यकता है।
वसु गन्धर्व की कविताएँ
1. गति
बहुत धीरे समाप्त होता है उत्सव
बहुत धीरे विलुप्त होती हैं उसकी अंतिम ध्वनियाँ
प्रकाश अपने उद्गम के कोटरों में बहुत धीरे लौटता है
दिन भर की थकी पृथ्वी पुकारती है
अंधकार को वापस अपने पास
अंतिम अलविदा का अनुगूँज हो सके ख़त्म
इसके पहले मैं लौट आऊँ घर
बुझी न हो दरवाज़े के पास जलती बत्ती
ख़त्म न हुआ हो मेरे हिस्से का भात।
2. जगता हूँ
मैं जगता हूँ
अपनी पाषाण अनिद्रा में
नदी में बहते अंधकार से
अपने हिस्से की रात ले जाने की प्रतीक्षा में
मैं जगता हूँ सुबह की एक अलसाई कल्पना में
जैसे लिखती है कोई उदास दोपहर
धूप की दीवार पर
अपना अधूरा स्वप्न
जगता हूँ डायरी में अंकित किए
सबसे बोझिल दस्तावेज़ में
जगता हूँ जैसे इन पुराने पेड़ों में
जगता है अंधकार
जैसे शामों में जगता है
पक्षियों के वापस लौट आने का स्वर
मैं जगता हूँ
जैसे आकाश में जगती है रात।
3. नींद
तुम्हारी नींद में
पृथ्वी की नींद के गोशे हैं
वनस्पतियों का धीमे डोलना है
निविड़ एकांत में साँप सा सरसराता
धीमे से गुज़रता एक स्पर्श है
ऊँघते शहरों की तंद्रा है
जैसे एक बंदूक की खामोशी
अपने जागने से कहीं अधिक कुछ घटित होता दिखता है
दूसरों की नींद में
भूख और वासना
किसी की अंतरंग उष्णता को टटोलते हाथ
अनिद्रा के प्रवेश को निषिद्ध करती
जीवन के थोड़े और सुखद होने की कल्पना
धीरे धीरे बंद पुतलियों की सीढ़ियाँ उतरता
प्रकाश का एक कतरा
और बहुत कुछ
माँ की नींद कच्ची है
हल्के पदचाप से टूटती अचानक
अपने भीतर समेटे परत दर परत
रहस्य और पुराने सुख-दुख
पिता की कठोर नींद में व्याप्त है उस पसीने की गंध
जिसमें जीर्ण होकर गलती हैं
आयु की रेखाएं
मृत्यु से पहले दादा जी की नींद में विस्मृति रही होगी
और शीत के कोहरे से
कभी झाँकता उनके बचपन का गाँव
मेरी जागृति के एकांत को भरती है
इन सबों की नींद की छायाएँ।
4. साँझ
यह अमिट रेखाचित्र आत्मा पर
साँझ का है
यह उदासियों की बारीक सतहें हर चीज पर
यह परास्त थके पंछी की अंतिम उड़ान का गीत
जिसे किसी मर्सिये सा गाती है हवा
यह बूढ़े बाबा की
अंधेरी भोर से लौट आती ध्वनि धूल में
साँझ की है
यह साँझ का जंगली पुष्प है
जो किसी भी मौसम में
कहीं भी खिल जाता है अनायास
और सभी आवाजें समवेत
एक बहुत बड़े सन्नाटे का हिस्सा हो जाती हैं
यह उसका संगीत है
जो पहले बाँस में से
पहली हवा के गुज़रने से बना था
यह आकुलता उसे सुनने वाले
पहले मनुष्य की है
यह पीली सुबह की कल्पना
उसका स्वप्निल उन्माद है।
5. देह
मैं एक हज़ार आइनों के अपने प्रतिबिम्बों में
एक हज़ार बार हो चुका हूँ उम्रदराज़
और अपने भीतर दौड़ती एक हज़ारवें पुरखे की नवजात दृष्टि में
समाई बूंद भर रोशनी के उजास से टटोल चुका हूँ
अपनी आगामी पीढ़ियों के हिस्से की रातों का अंधकार।
नींद में अक्षुण्ण गिरती है कथाओं में जली
लकड़ियों की राख
सपनों में कुनमुनाती है आगामी मिथकों को जन्मने वाली
हवा, और पानी, और घास की सनसनाहटें
एक उबाऊ राजनैतिक घेरे में बंद
इस देह की उदास सिलवटों में उतर आता है
सभ्यताओं का क्रंदन
सीले पर पटक कर, घिस कर, चमका कर साफ
सुखाकर तपती धूप में हर रोज़
इसे गीदम के बाजार में ले जाता हूँ
दस रुपए में दाँव पर लगाने
और साँझ होते
निंदुआई, उबासियों से भरी इस की आकृति को ढोकर
लौट आता हूँ घर वापस
कथाओं में रिसता रहता है वर्षाजल।
6. निकलो रात
निकलो रात
अंधकार के अपने झूठे आवरण से
किसी मूक यातना के पुराने दृश्य से
किसी दुख के बासी हो चुके
प्राचीन वृतांत से निकलो बाहर
उस पहले डरावने स्वप्न से निकलो
निकलो शहरज़ादी की उनींदी कहानियों से
और हर कहानी के ख़त्म होने पर सुनाई देने वाली
मृत्यु की ठंडी सरगोशियों से
अंधी स्मृतियों में बसे
उन पागल वसन्तों के
अनगढ़ व्याख्यान से निकलो
निकल आओ
आकाश से।
7. भूलना
अनवरत देखते हुए भी
भूला जा सकता है चीजों को
आकाश बन सकता है एक नीला खोखल
अंधकार
मृत्यु के तल में तैरती आँख
चाँद को भूलने के बाद
रात में खुदा हुआ एक गोल गड्ढा दिखता है
जिसमें से झाँकते हैं
रात में ओझल हुए चेहरे
जैसे बुढ़ापे की झुर्रियों में से
झाँकता हो बचपन का धूमिल मुख
अपनी शक्ल भूलने पर
आईने में दिखता है
एक अनजान व्यक्ति
जिसकी चौड़ी फैली आँखों के भीतर
एक असंभव प्रतिसंसार भर रिक्तता और
असंख्य स्वप्नों की उदासी होती है कैद
मृत्यु तक पीछा करती हैं
बचपन में भूल चुके चेहरे की रेखाएँ
लौट नहीं जा सकते अब वापस
पुरानी जगहें भूल चुकी हैं
हमारे नाम और चेहरे।
8. नाम
नाम किसी पुरानी बंदूक से चली गोली से
मिट्टी की जर्जर दीवार पर बना
एक सुराख़ है
इकतीस किटकिटाते दाँतों के बीच
हवा की किटकिटाहट भर
एक दाँत की ख़ाली जगह
जहाँ से आर-पार होता है प्रकाश
ज्यों कोई पुकारता है
जैसे अंधेरे कमरे में भरने लगती है
किसी की आँखों से झरती क्षीण रोशनी
ऐसे ही आती हैं ऋतुएँ
देह में लपेटे श्वेत चादर के उजास से
बिखेरते परागकण
और आती हैं दिशाएँ
और यात्राओं के असंभावित गंतव्य
ऐसे ही आती है बंदूक की एक गुमशुदा गोली
और एक बिना चेहरे का नाम।
9. आगमन
जब आग के हाथ बेच चुके होगे
अपना सबकुछ
देह के आधे हिस्से के बदले में मिलती होगी
बचे हिस्से भर की नींद
अस्तित्वमान होने के कथ्य को उकेरने के लिए
दी जाती हो बस मृत्यु की भाषा
जीभ के गर्म रक्त को
धधकते कागज पर टपकाने के सौदे में मिलता हो
एक बूँद जल
तब इस राख़ और कोहरे से ढँके
जर्जर में प्रवेश करना
तलाश लेना अपने हिस्से की
सदियों से बची नींद
और अपनी नग्न अपूर्णता को ढँकने भर झूठ
यह द्वार खुला है तुम्हारे लौटने की प्रतीक्षा में
भले ही यह प्रतीक्षा अनंत हो
और तुम्हारी लौटने के बात
एक मिथक।
10. समाप्त कथा
यहीं समाप्त होती है कथा
कोई वाक्य नहीं कहा जाना है आगे
कोई प्रतिक्रिया नहीं होनी है
इस चुप्पी के बरक्स
वृक्ष इतने शांत
कि किसी बूढ़े की बहुत पुरानी कथाओं में
सजे से लग रहे हों
और स्मृतियों के किसी अबूझे प्रसंग में
अब तक हो रही वर्षा का संगीत
जैसे बह रहा हो संध्या की देह में
जिसे सुनकर उदास हो जाता हो मन
इसी वृक्ष की टहनी पर
प्रतिध्वनित होती
रास्ता बताते किसी मिथकीय तोते की आवाज
इसी एकांत के जलाशय से निकलेगा
बूढ़ा चाँद
इसी अकेली डाल पर
नींद से जागेगा रात का पहला पक्षी
इसी आकाश की विक्षिप्तता में
चमकेगी एक नई कथा।
11. नीली धूप
किन्हीं दरख़्तों की सिहरन से
मेरे पास आए थे कुछ नीले ख़त
जिनके उधड़े जिस्म पर
मलहम लगा रही थी नीली हवा
कुछ थीं अनजान मृत्यु की खबरें
जैसे अचकचा कर बहुत गहरी खाई में
गिर गया था बहुत पुराना दोस्त
जिसका मर्सिया पढ़ रही थी नीली दोपहर की चुप्पी
जैसे अनुपस्थिति के किसी तालाब के ऊपर
छितराई हुई थी
नीली धूप।
12. जल
यह बूँद थी प्रथम
जो पितामह के ओष्ठों से उतरी थी भीतर
कण्ठ और उसके पार सूखी जगहों में
तलाशते हुए किसी अदम्य जीव स्मृति की तरह उपस्थित
पृथ्वी पर हुई पहली बारिश का गीलापन
इसी जल की स्मृतियों में
किसी वृक्ष सा उगता फैलता था हमारा सहचर्य
हमारी म्लान धूसरित आत्मा
इसी में पाती थी अपनी वेदना का ठौर
जल के स्पर्श से फैलता देह की रंध्रों में
पुरानी ऋतुओं की पुरानी उदासियों का वीतराग
कण्ठ में आवाज़ बनकर फूटता
एक अदृश्य नदी का रोर
ढँकता असह्य वेदना देते घावों को
किन्हीं अनजान व्यक्तियों के रुदन से बहा
समुद्र का जल
बाहर कितनी ही तपती हो पृथ्वी
माँ की कोख के जल में अपनी नींद
और अपनी देह के अकेलेपन के सन्नाटे में
वापस लौट जाने की इच्छा बजती धमनियों में अनवरत
कि इसी जल में डूब सकता है मृत्यु का भय
इसी जल में थम सकती है
समय की गति।
13. नीलांबरी*
इस बक्से को
नींद की भाषा में ही खुलना था
दूर से आती धीमी आवाजों का
ऐसी ही पीली शामों में होना था विलय
इसमें बंद असंख्य घोड़ों की टापें
अपने साथ ले जायेंगी मृतकों को किसी पुराने ग्रंथ में
जहां से संभावित हो सकेगा
किसी महाकाव्य का प्रारूप
इस में कैद सबसे अबूझ रहस्य
बिखर जाएंगे हवा में
जैसे अंतश्चेतना में
तुम्हारी स्मृति के पलाश
और सांद्र हो जाएगा
तुम्हारी अनुपस्थिति का संगीत
और वीरान हो जाएगा
बूढ़े बाबा की आंखों में पसरा
पुरखों के घर का गलियारा
जहां बीता होगा उनका बचपन
और देह के किसी उलजलूल सुनसान जंगल में
भटकते खो जाएगा
सबसे प्रेमिल स्पर्श
इसमें से निकला इतिहास भी अस्तमित हो जाए
मिथकों में
हम इन पत्थरों की शिलाओं पर
लिखेंगे अपने नाम।
*पंडित ओंकारनाथ ठाकुर द्वारा प्रचलित किया गया उत्तर भारतीय शास्त्रीय संगीत का एक राग।
कवि वसु गंधर्व
उम्र- 21 वर्ष, अंग्रेज़ी, अर्थशास्त्र और मनोविज्ञान में स्नातक। कई पत्रिकाओं और वेब ब्लॉग्स में कविताएँ प्रकाशित। शास्त्रीय संगीत के गंभीर छात्र, वर्तमान में पण्डित अजय चक्रवर्ती के शिष्य। कविता के अलावा विश्व साहित्य, दर्शन, और अर्थशास्त्र में रुचि।
टिप्पणीकार रंजना मिश्र मूलतः कवयित्री हैं और पुणे, महाराष्ट्र निवासी हैं। 1970 के दशक में जन्म, शिक्षा वाणिज्य और शास्त्रीय संगीत में.आकाशवाणी, पुणे से संबद्ध.
‘देश की विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाएँ में कविताएँ, कहानी, और लेख। शास्त्रीय संगीत और कलाओं से संबंधित ई पत्रिका – ‘क्लासिकल क्लैप’ के लिए संगीत पर लेखन.
चार्ल्स बुकोव्स्की , तारा पटेल और कमला दास की कविताओं के अनुवाद प्रकाशित.
साहित्य अकादमी की पत्रिका में कविताओं के अनुवाद प्रकाशित। भारत भवन, भोपाल में आयोजित युवा – ७ में कवितापाठ. सत्यजीत राय की फिल्मों पर लेखन और कविता संग्रह प्रकाशनाधीन.
कथादेश में यात्रा संस्मरण, कवितायेँ, इंडिया मैग, बिंदी बॉटम (अँग्रेज़ी) में निबंध/रचनाएँ प्रकाशित,
प्रतिलिपि कविता सम्मान (समीक्षकों की पसंद) 2017.