प्रभात मिलिंद
1. रोटी की तस्वीर
यूं तो रोटी किसी भी रूप में हो
सुंदर लगती है
उसके पीछे की आग
चूल्हे की गंध और
बनाने वाले की छाप दिखाई नहीं देती
लेकिन होती हमेशा रोटी के साथ है
वह थाली में हो
हाथ में हो
मुंह में हो
या किसी बर्तन में हो तो
उसका दिखना उम्मीद की तरह चमक जाता है
लेकिन यह कितना दर्दनाक है कि
रोटी पटरी पर है और
उसे खाने वाले टुकड़ों में बिखर गए हैं
वे वही लोग हैं जो
उसी रोटी के लिए दर-दर की ठोकरें खाते हुए
रोज जीते रहे मरते रहे
अपने घर से हजारों मील दूर
लेकिन कभी पता नहीं चलने दिया
कि इस रोटी तक पहुंचना कितना मुश्किल है
आज जब वे नहीं हैं तब उनकी यातना सामने आई है
ये महज रोटी नहीं जिसकी तारीफ में कसीदे गढे जाएं
ये इस बर्बर समय की जिंदा गवाही है
जो बता रही है कि
वे कौन लोग थे जिन्हें इस हाल में पहुंचा दिया गया
वे भूखे थे या खा चुके थे ये कोई नहीं जानता
लेकिन इतना जरूर है कि उन्होंने रोटी
पटरी पर बिखरने के लिए तो बिल्कुल नहीं बनाई होगी
इस खाई अघाई दुनिया के मुंह पर
ये सबसे बड़ा तमाचा है
लहू से सनी उनकी रोटियां दुनिया देख रही है।
2. पैदल चलते लोग
तमाम दृश्यों को हटाता घसीटता और ठोकर मारता हुआ
चारों तरफ एक ही दृश्य है
बस एक ही आवाज
जो पैरों के उठने और गिरने की हुआ करती है
वे तमाम लोग एक जैसे हैं
उनकी मुश्किलें एक जैसी हैं
उनके तलवे एक जैसे हैं
और उनके छालों में भी कोई फर्क नहीं
हालांकि वे अलग अलग दिशा से आ रहे हैं
वे अलग अलग दिशा में जा रहे हैं
लेकिन उनमें सब कुछ एक जैसा है
यहां तक कि उनकी भूख एक जैसी है
उनके प्यास और नींद और स्वप्न में भी कोई अंतर नहीं
यही तो जोड़ता है उन्हें और
बताता है कि जिन्हें महज कुछ संख्या मानकर चलते हैं लोग
वे दरअसल मुट्ठी भर नहीं हैं कि भुला दिया जाए
अब तक वे जहां थे वहां देखना असंभव बना दिया गया था
लेकिन जब वे बाहर निकल गए हैं तो
उन्हें रोकना नामुमकिन लग रहा है
वे पैदल चलते लोग
जब चलने लगे तो लगातार चलते रहे दिन रात
उन्हें लगा कि वे अपने घर जा रहे हैं
लेकिन वे किस रास्ते पर चल रहे हैं कि
उनका घर नहीं आ रहा
उनके रास्ते लंबे होते जा रहे हैं
उनकी मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं
उनके पैरों से चमड़ी धूल की तरह अलग हो रही है
मैं हैरान हूं ये देखकर कि ऐसे कठिन समय में
जबकि घरों में बंद रहने की हिदायतें दी जा रही हैं
उनके घर नक्शे से गुम हो गए हैं
उनका परिवार बिखर गया है
उनकी दुनिया उजड़ गई है
वे पैदल चलते लोग उसी दुनिया को खोज रहे हैं
अपने बच्चों स्त्रियों और थैलों को कंधे पर टिका कर
उनके चलने के हौसले को देखकर
यही लगता है कि अभी तो वे नहीं रुकेंगे।
3. गुल्लक में धूप
दिन के खाते में
धूप सिक्के की तरह जमा है
खन खन बजती दोपहर
बताती है कि
गुल्लक में चमक लबालब है
खर्च करने को
बाकी है अभी
न जाने कितनी सांस
न जाने कितनी रातें
इस आस में गुजरी
कि कल उड़ जाऊंगा
किसी पंख वाले पक्षी की तरह
न जाने कितने तारे देखकर
भूला हूं तमाम दुस्वप्नों को
और बचा हुआ हूं
गिलास के अंतिम बूंद की तरह
सिक्के होते अगर तो
एक समय के बाद
चलन से बाहर हो जाते
मैं धूप जमा कर रहा हूं।
4.पसीने की गंध
कुछ बातें देर तक गूंजती हैं
बिना पहाड़ और दीवार से टकराए
शोर में वह
चुपके से अपनी जगह बना लेती हैं और
बच जाती हैं हमेशा के लिए
बहुत से खर पतवार के बीच
ऐसे ही पलता है
कोई अंजान मगर जरूरी पौधा
किसी फूल के लिए
किसी दाने के लिए
किसी छाया के लिए
हमें जिसकी प्रतीक्षा थी
वह ऐसे ही
एक एक कदम बढ़ाकर
पहुंचा है हमारे पास
धीरे धीरे
कोई कंधा मैं खोज रहा था
अपना सिर टिकाने के लिए
तब हिसाब लगा रहा था कि
मैंने किसी को
धकेल तो नहीं दिया आधी नींद में
अपने कंधे से
यही होता है हर बार कि
अगर मैं स्वप्न देखता हूं तो
सोचता हूं कि
वे भी मेरे पसीने की गंध से भरे हुए हों।
5. नई हिंसा में
कितना कठिन है किसी को ठोकर मारना
यह सोचना ही
रोएं सिहरा देता है
कोई पैरों के पास कैसे जी सकता है
यह अंतिम आशा है कि
कम से कम इतना तो मनुष्य होगा कि
एक नजर देखेगा और
उसकी आंखें
इस थके और पराजित को देखकर
नम हो जाएगी
मैं हर बार भूल जाता हूं कि
हिंसा की परिभाषा और सीमा
दोनों तराश दी गई है
इसलिए
अब कोई आशा उस आदमी से नहीं
जो लोहे का खेल खेलते हुए
बंदूक में बदल गया है।
6. बांधने की कला
डोरियों को बांधने की कला
चीजों को
संभालने का हुनर सिखाती हैं
कुछ भी नहीं बिखरेगा
अगर उन्हें सहेजना आ गया
गिरह में जो उम्मीद है
वह नदी के किनारे
खूंटे से बंधी नाव को
कई रातों तक हिलाती रहती है
पानी की लहरों पर
जो छूट गया
वह घुल गया हवा में
किसी सुगंध की तरह
लापता हो गया
जो बंध गया
वह आंधियों के बाद भी
हिलते कांपते जीवित रहा
फिर से हरा होने के लिए
इसलिए
अगर बांधना हो पतंग की डोर
या रिश्तों की गांठ
तो देख लेना
बस ये खयाल रहे कि
जिसे बांध रहे हो
उसकी गर्दन तो नहीं दब रही।
7. विरोध
चुप रहने पर आवाज चुप हो जाती है एक दिन
भाषा चुप हो जाती है
व्याकरण बिगड़ जाता है चुप रहने से
चुप रहने से स्मृति क्षीण हो जाती है
मिटने लगती हैं यादें
पहचाना हुआ आदमी भी लगता है
एकदम नया
जैसे मिला हो पहली बार
चुप रहने से फर्क पता नहीं चलता कुछ
समझ के बारे में भी संदेह होने लगता है
विचार में लग जाता है घुन
जबकि वह कोई लकड़ी नहीं है
चुप रहने से मनुष्यता घटने लगती है
जन्म लेता है एक शातिर हत्यारा उसी चुप्पी से
फिर उस चुप आदमी के सामने हत्या भी होगी तो
वह निसहाय बन जाएगा
रोएगा लेकिन विरोध नहीं करेगा
चुप आदमी को कुछ नहीं सूझता
इतना चुप हो जाता है
ये उसकी आदत बन जाती है कि
वह पत्थर हो जाता है हर जगह
फिर उसकी हंसी चुप हो जाती है
उसके गीत चुप हो जाते हैं
उसकी पुकार चुप हो जाती है
इस तरह कोने में पड़े पड़े एक दिन
बिना कोई कारण बताए
उसकी सांस चुप हो जाती है।
8. रंगों की बात
कुछ भी नहीं बचेगा
अगर रंगों की बात नहीं होगी
काले बादल पानी में बदल जाते हैं
धूप किसी फूल की पंखुड़ियों में
सो जाती है शाम के बाद
तारे नदी के रंग के सपने समेटते हैं
रोज शाम के बाद
चूल्हे की आग का रंग
रोटी में स्वाद का रंग
छूने पर हाथ का रंग
मिलने पर प्यार का रंग
न जाने कितने रंगों से भरी है उम्र
कोई इतना अकेला नहीं कि
रंगों को मना कर दे
भाषा में बोलने की पाबंदी
रंग के ऊपर लागू नहीं होती
इसकी एक अलग दुनिया है
एक खूबसूरत इतिहास इसका
यही अंतिम आशा है
बर्बरता और हिंसा के बाद
जब कुछ नहीं बचता
जीने की लालसा को सहारा देने के लिए
तब काम आते हैं आंखों के पनियाए हुए रंग।
9. सरकार की चुप्पी
अगर समुद्र होता तो गरजता
नदी होती तब भी बहती पुकार लगाती
कोई पक्षी होता तो चहकता दिन रात
हवा होती तो सांय-सांय करती
अगर कोई बच्चा होता
तो शोर मचाकर दुनिया जहान एक कर देता
कोई स्त्री होती तो जरूर बातें करती
कोई पहाड़ होता तो तन जाता
कोई भी होता इस पृथ्वी का नागरिक
तो वह जरूर बोलता
अपना होना बताने के लिए
इस सरकार की चुप्पी तो अनहद है
कुछ भी हो जाए ये बोलती नहीं।
10. पता पूछना
जब भी मैं जाता हूं अनजान जगहों पर
भूल जाना चाहता हूं वे तमाम कहानियां
जो भय पैदा करती हैं
वे कहानियां जो पता नहीं कब सुनी थी
वे हर वक्त घूमती रहती हैं दिमाग में और
मन सिहर जाता है
किसी अखबार की कोई खबर कौंध जाती है
कोई किरदार याद आ जाता है-
मुश्किल में फंसा हुआ
मैं उन्हें याद करने से इनकार करता हूं
मैं उन्हें भूल जाना चाहता हूं
अगर कहीं रास्ता भटक जाता हूं तो
बिना कोई संकोच किए
पूछ लेता हूं पता
जानता हूं कि
सही रास्ता बताने वालों की कहानियां
कोई नहीं सुनाएगा।
11. कठिन जीवन
पानी में गुंधे हुए आटे का दिन
खत्म होता है
चूल्हे की तेज आग पर सीझने के बाद
नमी भाप की तरह उड़ जाती है
हासिल होती है पकने की तसल्ली
यह पूरी पृथ्वी कठिन जीवन का मानचित्र है
कोई विकल्प नहीं इस हौसले का
उठता हुआ धुआं फैलता है तो
तमाशा देखते तमाम लोग
उम्मीद से भर जाते हैं
वे इत्मीनान से जीने वाले लोग हैं
जिन्हें पता है कि
पेट की आग
न जाने कितनों को राख बना देती है।
12. बर्बर लोग
सूखे हुए हृदय में
पत्थर का पता होता है
वही पत्थर वे दिल से निकालकर
अपने हाथ में लेते हैं और
बरसाते हैं पानी की तरह
जबकि वह इतना कठोर है कि
जिस आसमान पर गिरा
वह चूर हो गया
घर की चौखट पर किसी के आने की आहट
अब कांच के टुकड़ों में बदल गई है
ईंट के रंग अब बसने की गंध से अलग हैं
इतना शोर है
इतनी कराह कि
मुश्किल है
बर्बर लोगों को गौर से देख पाना
मैं हैरान हूं कि
आखिर उनके सपने कब चूर हो गए
कि अब वे
हाथ की कठपुतली भर रह गए हैं
उन्हें जिंदा होने के लिए भी
अब शाबाशी चाहिए।
13. उम्मीद
अगर रोज सुबह होती है तो
यह उम्मीद के लिए एक नया दिन है
कल की अधूरी बातें
आधी रंगी हुई कागज पर फुलवारी
छूटी हुई जमीन
बुनने के लिए बचे हुए बीज
कल के सूने दरवाजे
सब उम्मीद से जागे हुए हैं
कहीं भी कोई खटखटाता है तो
यही लगता है कि
कोई खड़ा है चौखट पर
वह हो या नहीं
इससे फर्क नहीं पड़ता
बस आँखों की चमक का
बरकरार रहना जरूरी है।
(कविता के लिए विद्यापति पुरस्कार और राजस्थान पत्रिका के सृजनात्मक पुरस्कार से सम्मानित कवि शंकरानंद, जन्म-08 अक्टूबर 1983, खगड़िया के एक गाँव हरिपुर में।
कई प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में कविताएँ और कहानियाँ प्रकाशित।
अब तक तीन कविता संग्रह ‘दूसरे दिन के लिए’,’पदचाप के साथ’, और ‘इनकार की भाषा’ प्रकाशित।
आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से नियमित रूप से कविताएँ प्रसारित।
कविताओं का कुछ भारतीय भाषाओं में अनुवाद भी।
सम्प्रति-लेखन के साथ अध्यापन
सम्पर्क-क्रांति भवन,कृष्णा नगर, खगड़िया-851204
Shankaranand530@gmail.com
मोबाइल-8986933049
टिप्पणीकार प्रभात मिलिंद का पहला कविता संग्रह शीघ्र प्रकाश्य। दिल्ली विश्वविद्यालय से एम.ए. की अधूरी पढ़ाई। हिंदी की सभी शीर्ष पत्रिकाओं में कविताएँ, कहानियाँ, डायरी अंश, समीक्षाएँ और अनुवाद प्रकाशित।स्वतंत्र लेखन।
संपर्क: prabhatmilind777@gmail.com)