प्रभात मिलिंद
मेरे विचार में कविताओं को पानी की शांत सतह पर गिरते हुए एक सूखे पत्ते की तरह होना चाहिए– दृश्य में एकदम स्पंदनहीन और बेआवाज़ किंतु स्पर्श में ऐन्द्रिक, उष्ण और जीवंत. नेरुदा लिखते हैं, ‘मैं उन कुछ ख़ास चीज़ों की तरह तुम्हें प्यार करता हूँ जिन्हें प्यार किया जाना सचमुच ज़रूरी है– उसी निष्प्रभ गोपन में जो ठीक परछाईं और आत्मा के एकदम बीचोबीच स्थित होता है.’
दुर्भाग्यवश पिछले कुछेक सालों में प्रेम कविताओं का सबसे अहित किसी चीज़ ने किया है तो वह बिंबों के अतिरेक ने किया है, जबकि सच यही है कि व्यवहार और विचार- दोनों ही स्थितियों में प्रेम का मेटाबोलिज्म किसी भी सायासपन और नवाचार को आत्मसात करने के सर्वथा अनुपयुक्त है. पुरखा विचारक कह भी गए हैं कि अपनी शास्त्रीय अवस्था में प्रेम और तर्क परस्पर प्रतिगामी प्रवृतियाँ हैं. प्रेम में परिपक्वता का परिमाण संभव है, और यह कुछ सीमा तक स्वीकार्य भी होना चाहिए किंतु इस परिमाण का निर्धारण मनुष्य की समझ के अनुसार होना चाहिए, उसकी अर्जित बौद्धिकता के अनुसार कतई नहीं. इन निकष की कसौटियों पर देखें तो प्रेम कविताओं को सूक्तियों से गुरेज़ करना चाहिए. सौम्या सुमन जी की कविताएँ हमें इसलिए भी अच्छी लग सकती हैं कि वे इस उपक्रम से भरसक बचने का प्रयास करती दिखती हैं.
प्रदीप सैनी की एक छोटी सी कविता है ‘पार करना’ :
तुम मेरे जीवन में नदी की तरह आईं
मुझे तुम में डूब जाना था
अभागा हूँ मैं
आगे की यात्रा के लिए प्रार्थनाएँ
बुदबुदाते हुए
मैंने तुम्हें एक पुल से पार किया
इन पंक्तियों को यहाँ उद्धृत करने का आशय मात्र इतना था कि प्रेम के आवेग की अभिव्यक्ति भाषा के आवेग को नियंत्रित करके भी की जा सकती है. सौम्या सुमन जी की कविताओं को पढ़ते हुए हमें भाषिक आवेग पर नियंत्रण की इसी स्थापना का अनुभव होता है. बहरहाल अनायासपन और सहजता का एक अपना ही कवित्व होता है. समकालीन कविताओं से यह नैसर्गिकता धीरे-धीरे ग़ायब सी होती प्रतीत हो रही है. ख़ास तौर पर प्रेम कविताओं की यह बेख़ुदी अगर पढ़ने वाले को नज़र न आए तो मुझे वे कदाचित प्रायोजित और सिंथेटिक कविताएँ लगती हैं. सौम्या सुमन जी ने अपनी कविताओं को कृत्रिमताओं और आडंबरों से यथासंभव मुक्त रखने की पुरअसर कोशिश की है– वह भी बहुत अनायास तरीक़े से. ज़ाहिरन इन्हें पढ़ने वालों के लिए यह एक राहत का सबब है. कविताई की वह जादूगरी जिसके कि लोग अमूमन मुरीद होते हैं, उनके यहाँ पढ़ने वालों को बेशुमार मिलती है. टी. एस. एलियट कहते भी हैं, ‘सच्ची कविता समझी जाने से पहले ही संप्रेषित हो जाती है. इस कथन के सन्दर्भ में कुछ पंक्तियाँ गौरतलब हैं :
बचा तो कुछ नहीं था
हमारी दुनिया में
लेकिन एक बंद दरवाज़े की
की उदी-सी स्मृतियों में
अब तक अब तक थोड़ा-थोड़ा बचे थे हम
देह और बिंबों के दोहराव के घटाटोप में भटकती हुई मौजूदा दौर की प्रेम कविताएँ आज बेतहाशा असहाय और आक्रांत दिखती हैं. ऐसे में इतनी सुकोमल और निष्कलुष लेकिन फिर भी इतनी परिपक्व, अपेक्षाहीन और आग्रह्मुक्त भावों से समृद्ध कविताएँ विरल हैं.
इन कविताओं को हालाँकि मैं बुनियादी तौर पर प्रेम कविताएँ ही कहूँगा लेकिन इसके बाद भी अपनी व्यापकता में ये किसी ख़ास जॉनर की कविताएँ इसलिए नहीं हैं क्योंकि मानवीय प्रवृतियों में प्रेम का एक अनिवार्य और स्थायी दख़ल रहा है और इसके विस्तार को फ़क़त जेंडर तक महदूद कर देना बहुत मुनासिब नहीं होगा. उल्लिखित पंक्तियाँ बरबस ध्यान खींचती हैं :
एक दिन जब ख़त्म हो जाएँगी
सारी चाहनाएँ
जब सारे पन्ने पलट दिए जाएँगे
लाँघ ली जाएगी सारी पृथ्वी
अंतरिक्ष के अनसुलझे रहस्यों को जानने के लिए
जब बेध दिया जाएगा
जब समुद्र की तलहटी से
गोपनीयताओं की सारी सीपियाँ उलीच दी जाएँगी …
तब शायद ख़त्म हो जाएँगी
दुनिया की तमाम जिज्ञासाएँ
प्रेम के विभिन्न अदृश्य आयामों की तरह सौम्या सुमन जी की कविताओं में भी हमें प्रेम की अमूर्तता में जिज्ञासा, विप्रलंभ, अनासक्ति, एकांतिकता, उत्तरदायित्व आदि अन्यान्न पक्षों की जियारत होती है जिन्हें घनानन्द ने ‘अति सूधो सनेह को मारग है तहं नैकु सयानप बांक नहीं’ जैसी अभिव्यक्ति के ज़रिये परिभाषित करने का प्रयास किया है.
सौम्या सुमन जी की कविताएँ अनिवार्यतः स्त्री-संवेदनाओं की कविताएँ हैं लेकिन उतनी ही अनिवार्यतः यह आयातित विमर्श अथवा अयाचित मुक्ति की कविताएँ नहीं हैं. स्त्री होने और स्त्रीत्व के सेलिब्रेशन की प्रतिध्वनि इन कविताओं की मुखर विशेषता और संपदा है. स्त्री-कविता का अमरत्व नहीं भी तो दीर्घजीविता इन कविताओं में अवश्य तलाशी जा सकती है :
जब तक यह जीवन है
मैं बार-बार
थाह लेती रहूंगी तुम्हारी
और
वही अंतिम प्रमाण होगा
हमारे बचे होने का
भाषा की सहजता के अतिरिक्त बिंबों और मुहावरों के अतिभार से एक सजग दूरी इन कविताओं का एक अनिवार्य दृढ़तत्व है. ऐसा मानना शायद ठीक नहीं होगा कि ये स्वान्तः सुखाय के लिए लिए लिखी गई कविताएँ हैं, अलबत्ता यह मानना मुनासिब होगा कि ये कवयित्री की आत्माभिव्यक्ति के लिए लिए लिखी गई कविताएँ हैं. इन कविताओं ने संभवतः स्वयं के अनावरण के लिए ही कवयित्री का का वरण किया है.
तुमने कहा था
बारिश प्रेम है
भीगना है पाना
बूंदें नश्वरता
“और दृश्य ?”
मैंने हँस कर पूछा था
“वो
जो हमने
साथ-साथ आँखों में भरा”
सौम्या सुमन जी की कविताएँ प्रेम और उसके निष्कर्ष के विलोमों में अपना शरण नहीं ढूँढती हैं. प्रेम और वियोग की विरल आन्तरिकता इन कविताओं की अकेली मोक्ष-स्थली है. अपने साधारण अर्थ की असाधारण विराटता में अपने पाठकों को यही मिलती हैं. रूमी के शब्दों में गोया ये कविताएँ उन्हें पुकारती है – “सही और ग़लत के द्वंद्व से मुक्त आत्मा की जो एकांत-भूमि है, मैं तुमको वहीं मिलूंगी.” सौम्या सुमन की कविताओं को यह जानने के लिए भी पढ़ा जाना चाहिए कि प्रेम के अँधेरे एकांत के दिव्य एकांत की थाह को टटोलना एक भिन्न पाठकीय रोमांच है.
सौम्या सुमन की कविताएँ
1. अनायास कुछ भी नहीं था
हमें लौटना था
शिखरों पर पहुंचकर
एक दिन लौटना था हमें
अप्रत्याशित था हमारा लौटना
पर अनायास नहीं था
तुमने कहा था
नहीं बदलेगा कुछ भी
जीवन के आखिरी दिनों में भी
हम आकाश को
इसी तरह साथ-साथ देखेंगे
तमाम नकारात्मकताओं
और असुंदर के बीच भी
प्रेम ध्रुव तारे की तरह
रहेगा यथावत
प्रेम में हमारा भीगना
दुनिया की सुंदरतम घटना थी
पर..
जानने की जिज्ञासाओं में
प्रेम को टोहने-टटोलने के षड्यंत्रों में
ठिठक कर रह गया था समर्पण
एक निष्कलुष सुंदरता
खोते जा रहे थे हम
धीरे-धीरे
रीत रहा था कुछ
आख़िरकार
हम लौट चुके थे
पूरे के पूरे
वापस वहीं
जहाँ से
शुरु हुई थी
हमारी यात्रा
हमारे पाँव कीचड़ से सने थे
रेत हमारी आँखों में भर आई थी
कोरों के भीतर अटकी बूंदों में
लरज रहे थे हम एक टीस की तरह
बचा कुछ भी तो नहीं था
हमारी दुनिया में
लेकिन
एक बंद पडे़ दरवाज़े की
उदी स्मृतियों में
अब तक थोड़ा-थोड़ा बचे हुए थे हम
2. एक दिन
एक दिन जब ख़त्म हो जायेंगी
सारी चाहनाएं
जब सारे पन्ने पलट लिए जायेंगे
लाँघ ली जायेगी सारी पृथ्वी
अंतरिक्ष के अनसुलझे रहस्यों को जानने के लिए
जब बेध दिया जायेगा
जब समुद्र की तलहटी से
गोपनियताओं की सारी सीपियाँ उलीच दी जायेंगी..
तब शायद ख़त्म हो जायेंगी
दुनिया की तमाम जिज्ञासायें;
उदासीन से दिन के भीतर
तुम अपने दायरे में उलझे
चुप्पियों के लिए कोई ठोस वजह खोज लोगे
खानापूर्ति सा कोई सवाल उछालोगे तुम
एक दिन ..
जब ख़त्म हो जायेंगी
सारी चाहनाएं
एक दिन
जब ख़त्म हो जायेंगी सारी जिज्ञासाएं
3. वहाँ एक नदी बहती थी
एक नदी बहती थी
शहर के बीचों-बीच
छोटा सा शहर था वह
और बहुत बड़ी थी नदी —
विशाल गहरी !
हम नदी के पास बैठते चुपचाप
प्रेम में आकंठ डूबे
नदी की गीली पीठ पर लिखते
एक-दूसरे का नाम
नदी हममें गाती
उसके आकाश, हरी पहाड़ियों
पेड़ों के प्रतिबिंब वाले
नीले-हरे जल में हम भीगते जाते थे
अतिशय प्रेम में
ईर्ष्या कौंधती कभी
कई बार हमारे झगड़े होते
कई बार हम
एक-दूसरे को धिक्कारते
हम ! जो सपनों से भरे थे
कई-कई बार टूटते
पर नदी ठहरी होती थी भीतर
सुनती रही थी चुपचाप
हमारे अनर्गल प्रलाप
देखती थी हमारे द्वंद्व
प्रेम से भरी उदासियों को
जब भी आवारा छोड़ा हमने
नदी उसे आत्मसात करती
हमें छूटने और डूबने से बचाती रही
धीरे-धीरे शहर बड़ा होता गया
बड़ा-बहुत बड़ा
तब सिकुड़ने लगी थी नदी
टकराने लगीं थीं मछलियां
आपस में
अब नदी से गीत नहीं
मछलियों का कोहराम सुनाई देता
जैसे नदी भूल चुकी हो गाना
नदी ; अब नदी नहीं थी
पता चला लौटना चाहती थी वह
और एक दिन उसने
स्वयं घोषणा की
अपने ख़ाली होने की
मानो उसके बने होने का अनुबंध
हो चुका था समाप्त
अब कोई लहर, कोई गीत नहीं
हमारे लिए हादसा था यह
और शहर के लिए
यह एक उदासी से भरी घटना थी
हम एक-दूसरे से कतरा कर
निकल चुके थे बहुत दूर
विन्यस्त प्रेम, पीड़ाएँ, शिकायतें, घृणा
सर्वस्व विसर्जित कर चुके थे हम
और हमसे बहुत दूर जा चुकी थी नदी
अब लोग नदी नहीं
शहर और मछलियों के बारे में
सोच रहे थे
4. कुछ भी नहीं था
जहाँ तुम नहीं थे
एक ख़ालीपन था
गहरे पग-चिह्न लिए
दूर तक रेत थी
और कुछ भी नहीं था
जहाँ मैं थी
वहाँ मैं नहीं थी
बची हुई नमी लिए
लुप्त होती एक नदी थी
और कुछ भी नहीं था
जहाँ हम थे
वहाँ ‘कुछ नहीं’ के शोर के भीतर
नदी, पेड़, फूल
और
चिड़ियों की भाषा में
था
अवगुंठित प्रेम
5. खुरदरी हथेलियों की कविता
एक बार
पढ़ कर देखना
उस स्त्री की अधूरी कविता
जिसके पन्नों पर
दर्ज़ हैं
दुनिया की
तमाम स्त्रियों के हस्ताक्षर
वह स्त्री
जो अंधेरे से निकल
धूप की मुंडेर पर बैठ
करना चाहती है
सूरज और आकाश से
पंछियों की बातें
जो मकड़जालों के बीच
साँसों में भरना चाहती है प्रेम
बटोरना चाहती है
शब्दों के लिए उजास
तुम पढ़ना
उस स्त्री की कविता
क्योंकि अब
स्त्री को मालूम है
अंधेरी कविताओं के भीतर
आग में रोटियाँ सेंकी जा सकती हैं
उंगलियाँ जलाई जा सकती हैं
पर नहीं जल सकता
कोई दीया
6. खोया हुआ कुछ
स्त्री बार-बार देखती है
सूना द्वार
उद्विग्नता में
पढ़ती है आहटें
आकुल पलकों से बुहारती
अपनी ही अनुपस्थिति की धूल
उपेक्षाओं की राख
अपनी सायास हँसी के भीतर
छुपाई खारी सी नमी /
वह धोना चाहती है
आत्मा पर जमी
उदासियों की काई
कैलेंडर की फरवरी में
भूलना चाहती है
पतझड़ की अपध्वंसी निष्ठुरताएं
मन के अंधकार में
दाख़िल हो चुकी स्त्री
नहीं लिख पाती कोई चिठ्ठी
खोये बसंत के नाम
7. प्रमाण-पत्र
विषाद भरे
ब्लैक एंड व्हाइट
दृश्यों के भीतर
तुम्हारी मूक उपस्थिति
जीवन है /
तुम्हारी आहट
साँसे
और…
इन सहमी, उदास चुप्पियों में
एक पत्ते का हिलना
प्रेम की विनम्र घोषणा
या मेरा भरम
सुनो!
इस भयावह समय में
नहीं रहना चाहिए
अब और चुप
जब तक यह जीवन है
मैं बार -बार
थाह लेती रहूँगी तुम्हारी/
और
वही अंतिम प्रमाण होगा
हमारे बचे होने का
8.बाक़ी बचा कुछ
बस्ती के छोर पर
जंगल के आगे
आगाह करती तख़्तियाँ लगी थीं
“आगे मौत है, हर्गिज़ न जायें ।”
एक ज़िद्दी स्त्री
अपनी बेसुधी में
हर शाम जाती है
उस जंगल में दबे पाँव
जंगल के पत्ते
बिछुड़े मित्रों की तरह
मिलते हैं उससे
वह दामन में समेटती है
आसपास बिखरे
उन तमाम सूखे पत्तों को
ताकि बिछड़ने का दर्द कमे
रेत के टीले से
वह देखती है
लौटते हुए सूरज को
अंधेरा होने तलक
वह देखती है
किस तरह
समय बीतता जाता है
और
एक उदासी
आहिस्ता-आहिस्ता
स्याह करने लगती है
उन किरणों को
जो थोड़ी देर पहले
अपनी मौज़ूदगी में
आकाश पर बिछा गई थीं
एक सिंदूरी तिलस्म
आज भी उसे यक़ीन है
कि
एक दिन
दबी हुई एक गुज़ारिश
हरी होती कुछ ख़्वाहिशों
माज़ी के ज़ख्म
इश्क, इबादत
नफ़रत, उदासी
अपनी अर्ज़ियों में
फ़िर से
उसके पते पर
लिख जाएगा कोई
जो
बरसों पहले
गया था उसी जंगल में
जिसके आगे
आगाह करती तख़्तियाँ लगी थीं
“आगे मौत है, हर्गिज़ न जायें!”
9. अंधेरे को सोने दो
अंधेरे की सच्चाइयाँ
धुंधलाती रहीं उजाले के उजलेपन को
तुम, मैं, हमसब
अंधेरे की कब्र खोदने का अपराध करते रहे
अंधेरा
जिसे दफ़नाया गया था
कई-कई बार
हर बार सूखते रहे थे हलक
चटखती रही थी रीढ़ की हड्डी
नसें उभर आती थीं
दम घुटता था
पर किसी ने हार नहीं मानी थी
जारी रहा खेल
रात के चेहरे पर
उभर आई थी तीसरी आँख
आग्नेय
जलकर ख़ाक हुए हरे-भरे पेड़
सूख गया
बल खाती नदियों का पानी
सहम गई थी चिड़िया
गीत बदले थे चीत्कार में
सिलसिला जारी रहा,
कनपटी पर वार करने का..
इस दहशत भरे समय में
ज़रूरी है
मुट्ठी में ज़रूरत भर उजाले को भर कर
बचे हुए को
अंधेरे के कब्र पर बिखर जाने दो
10. बूंदों की भाषा में प्रेम
तुमने कहा था
बारिश प्रेम है
भीगना है पाना
बूंदें नश्वरता
“और दृश्य ?”
मैंने हँस कर पूछा था
“वो
जो हमने
साथ-साथ आँखों में भरा”
अपलक निहारते कहा था तुमने
मेघ घुमड़ रहे
जैसे घुमड़ रहीं स्मृतियाँ
आसमान बरस रहा
जैसे बरस रहा प्रेम
ठिठकी सी मैं
आज फ़िर से
बूंदों की भाषा में
पढ़ रही
एक अवसिक्त प्रेम-पत्र
जो
छितराई आश्वस्ति के साथ
पत्तियों पर
फूलों पर लिख जाते हो तुम
हर बारिश
(21 फरवरी को पटना में जन्मी कवयित्री सौम्या सुमन ने पटना विश्वविद्यालय से
स्नातकोत्तर ‘श्रम एवं समाज कल्याण’, की शिक्षा ग्रहण की, कविता, कहानियाँ, संस्मरण, गायन, फ़ोटोग्राफ़ी में विशेष रुचि। कुछ संस्थाओं से जुड़ कर झुग्गी-झोपड़ी के बच्चों के बीच शिक्षा प्रसार।
कई पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित।
2016 में दो साझा कविता -संग्रह, 2019 में प्रथम कविता-संग्रह ‘नदी चुप है’ प्रकाशित, सद्य प्रकाशित साझा कहानी संग्रह ‘सपनों का सफ़र’ में एक कहानी प्रकाशित। निज व्यवसाय/बतौर डिज़ाइनर कार्यरत, स्थायी निवास:पटना(बिहार)
मेल : sumansinha212@gmail.com
संपर्क: 7631798050)
टिप्पणीकार प्रभात मिलिंद का पहला कविता संग्रह शीघ्र प्रकाश्य। दिल्ली विश्वविद्यालय से एम.ए. की अधूरी पढ़ाई। हिंदी की सभी शीर्ष पत्रिकाओं में कविताएँ, कहानियाँ, डायरी अंश, समीक्षाएँ और अनुवाद प्रकाशित। स्वतंत्र लेखन।
संपर्क: prabhatmilind777@gmail.com)