Saturday, December 2, 2023
Homeख़बर‘ नफरत और हिंसा का विष-वमन करनेवाले आयोजकों और वक्ताओं के खिलाफ तत्काल...

‘ नफरत और हिंसा का विष-वमन करनेवाले आयोजकों और वक्ताओं के खिलाफ तत्काल कठोर कानूनी कार्रवाई हो ’

साम्प्रदायिक हिंसा भड़काने वाले ‘धर्मसंसद’ के विरुद्ध कला-संस्कृति से जुड़े संगठनों का संयुक्त प्रस्ताव
2014 और विशेषकर 2019 के बाद ऐसी घटनाएँ लगातार घट रही हैं, जिनसे ‘हिटलर के घोड़े की एक-एक टाप’ साफ-साफ सुनाई पड़ रही है। इनमें ताजा उदाहरण है 17 से 19 दिसम्बर को हरिद्वार में हिन्दुत्व के ‘धींग धरमध्वज धंधक’ धोरियों द्वारा आयोजित ‘धर्म-संसद’ में एक खास अल्पसंख्यक-समुदाय के खिलाफ विष-वमन करना, अल्पसंख्यकों का संहार करने के लिए बहुसंख्यकों को ललकारना और हिन्दू-राष्ट्र घोषित करने के लिए राज्य-सत्ता के खिलाफ युद्ध की घोषणा करना। ऐसा कहा जाता है कि इस ‘धर्म-संसद’ में पाँच सौ महामंडलेश्वर और सात-आठ सौ ‘सन्त’ (?) उपस्थित थे।
इस ‘धर्म-संसद’ में मुसलमानों के खिलाफ विष-वमन किया गया। ‘शस्त्रमेव जयते’ का कातिलाना और उन्मादी उद्घोष करते हुए कहा गया कि मुसलमानों का आर्थिक बहिष्कार करने से कुछ नहीं होगा, हमें बेहतर हथियार रखने पड़ेंगे। यहाँ तक कहा गया कि किताब-कॉपियों को छोड़कर हथियार उठाओ और अपनी (यानी हिन्दुओं की) जनसंख्या बढ़ाओ। खुद मरने या मारने के सिवा दूसरा कोई विकल्प नहीं है। ज्यादा-से-ज्यादा बच्चे और अच्छे-अच्छे हथियार ही आपको बचा सकते हैं।
एक वक्ता ने यहाँ तक कहा कि अगर कोई भिण्डरावाला या प्रभाकरण बनने के लिए तैयार होगा तो उसे हम एक करोड़ रु. देंगे। यहाँ की पुलिस, फौज, नेताओं और हिन्दुओं को हथियार उठाकर म्यांमार की तरह अल्पसंख्यकों का संहार करना पड़ेगा। बीस लाख मुसलमानों को मारने के लिए केवल सौ हिन्दुओं की जरूरत है। अगर तुम मुसलमानों को मार सकते हो तो मार दो।
इस आयोजन में न केवल नाथूराम गोडसे का महिमा-मण्डन किया गया, बल्कि एक वक्ता ने यहाँ तक कहा कि अगर वह संसद में होता तो नाथूराम गोडसे की तरह पूर्व प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह की छाती में छः गोलियाँ दाग देता। एक वक्ता ने कहा कि भारत का संविधान धर्मनिरपेक्ष नहीं है, बल्कि राजीव गांधी ने चुपके से इसमें ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द घुसा दिया था। इतना ही नहीं, भगवा रंग में संविधान की किताब की एक प्रति का प्रदर्शन करते हुए यह चुनौती दी गई कि अगर भारत को हिन्दू-राष्ट्र घोषित नहीं किया गया तो हम सरकार के खिलाफ 1857 से भी भयंकर युद्ध छेड़ेंगे।
इसी तरह की एक सभा 19 दिसम्बर को दिल्ली में हुई। इसमें यह शपथ ली गई कि भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने के लिए लड़ेंगे, मरेंगे और मारेंगे, पर पीछे नहीं हटेंगे।
कहने की आवश्यकता नहीं कि ये आयोजन हमारे संविधान के लोकतान्त्रिक और धर्मनिरपेक्ष स्वरूप तथा सामाजिक सौमनस्य या गंगा-यमुनी तहजीब के ताने-बाने के लिए खुली चुनौती हैं। ऐसे आयोजन न केवल अल्पसंख्यकों को अपमानित करनेवाले, बल्कि उनमें दहशत का संचार करनेवाले और हिन्दुओं के मन में अल्पसंख्यकों के प्रति नफरत और उन्माद पैदा करनेवाले हैं।
हम सब जानते हैं कि हमारा देश कितनी नाजुक परिस्थिति से गुजर रहा है। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्कृत-विभाग में प्रवक्ता-पद (Assistant Professor) पर नियुक्त होने के बावजूद केवल मुसलमान होने के कारण डॉ. फिरोज खान को अपने विभाग से हटने के लिए मजबूर होना पड़ा। आजाद भारत के इतिहास की यह बड़ी त्रासद घटना है। पिछले दिनों दिल्ली के जन्तर-मन्तर पर मुसलमानों के खिलाफ मारो-काटो के नारे लगाए गए थे।
देश के विभिन्न भागों में होनेवाली मॉब-लिचिंग, मुसलमानों (नजीब, जुबैर आदि) की हत्या, गुड़गाँव में मुसलमानों को नमाज पढ़ने से रोकने और चर्च पर होनेवाले हमलों की घटनाओं तथा इन सारी घटनाओं के सामने पुलिस-प्रशासन की निष्क्रियता या विवशता से इन आयोजनों को जोड़कर देखना चाहिए। हरियाणा में मुसलमान होने के कारण राहुल खान को उसके ही दोस्तों ने घेरकर मार डाला।
ऐसे उन्मादी भाषणों के बाद दुनिया के अनेक देशों में भयानक संहार की घटनाएँ घटित हुई हैं। क्या हमारे देश में भी ऐसे जनसंहार की पृष्ठभूमि तैयार की जा रही है? हमें गांधी जी की हत्या के सन्दर्भ में सरदार पटेल का वह मशहूर वक्तव्य नहीं भूलना चाहिए कि आर. एस. एस. और हिन्दू महासभा के नेताओं के जहरीले भाषणों के कारण नफरत का ऐसा माहौल बना, जिसके कारण गांधी जी की हत्या हुई। आज फिर वही माहौल अल्पसंख्यकों (विशेषकर मुसलमानों) के खिलाफ बनाया जा रहा है, जो दंगों के रूप में न जाने कब कहाँ फूट पड़े !
किसी सभ्य और लोकतान्त्रिक समाज की यह प्राथमिक कसौटी है कि उसमें कमजोर (जिसमें निस्सन्देह अल्पसंख्यक भी शामिल हैं) तबकों के लोग अपने को कितना सुरक्षित और सम्मानित महसूस करते हैं। हमें सोचना चाहिए कि इस कसौटी पर हमारा समाज और देश कितना खरा उतरता है। हमें आत्मचिन्तन, आत्मावलोकन और आत्मालोचन करना चाहिए कि हम कितने सभ्य और लोकतान्त्रिक हैं ?
स्वभावतः इन आयोजनों के खिलाफ दुनिया भर में तीखी प्रतिक्रिया हुई। चौतरफा फजीहत झेलने के बाद पुलिस द्वारा कुछ वक्ताओं के खिलाफ रस्म अदायगी के तौर पर प्राथमिकी दर्ज कर ली गई पर किसी के खिलाफ अब तक कोई कार्रवाई नहीं हुई है। इन आयोजकों और वक्ताओं के तार विभिन्न मन्त्रियों और मुख्यमन्त्रियों से ही नहीं, प्रधानमन्त्री तक से जुड़े हुए हैं।
पुलिस-प्रशासन का दोहरा रवैया पिछ्ले कई सालों से जग-जाहिर है। सर्वविदित है कि सर्वथा निर्दोष होने के बावजूद एक तरफ सफ़ूरा जरगर , डॉ कफील खान, उमर खालिद, आनन्द तेलतुम्बड़े, सुधा भारद्वाज [भीमा कोरेगाँव केस में ही फँसाए गए फादर स्टेनस्वामी को जेल में ही तिल-तिलकर मरने के लिए विवश किया गया (जो वास्तव में सांस्थानिक हत्या है) और वरवर राव को भी तब जमानत मिली (और वह भी कई शर्तों के साथ) जब उनका स्वास्थ्य काफी बिगड़ गया] आदि को सरकार के द्वारा साजिश रचकर फँसाया और जेलों में सड़ाया जाता है, मुनव्वर फारूकी का कार्यक्रम रद्द कर दिया जाता है, दूसरी तरफ हिंसा और युद्ध की खुलेआम चुनौती देनेवाले व्यक्तियों और संगठनों को खुलेआम छुट्टा छोड़ दिया जाता है।
दिल्ली के जन्तर-मन्तर पर मुसलमानों के खिलाफ हिंसक नारा लगाने के आरोप में सत्ताधारी दल के नेता अश्विनी उपाध्याय को तीन दिनों के अन्दर ही जमानत मिल गई। ध्यातव्य है कि हरिद्वार में आयोजित ‘धर्म-संसद’ में भी उन्होंने विष-वमन किया। यह पुलिस-प्रशासन के दोहरे रवैये का सामान्य नमूना है।
उत्तराखण्ड (जहाँ हरिद्वार है), उत्तर प्रदेश आदि कई प्रान्तों में चुनाव होनेवाले हैं और सत्ताधारी पार्टी की हालत बहुत खराब है। सरकार आर्थिक मोर्चे पर फेल है। अतः वह आर्थिक मुद्दों से ध्यान भटकाकर और साम्प्रदायिक उन्माद भड़काकर हिन्दुओं का वोट पाना चाहती है।
12 मार्च 1940 को बंगाल के झारग्राम में भाषण करते हुए नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने कहा था, “हिन्दू महासभा ने त्रिशूलधारी संन्यासी और संन्यासिनियों को वोट माँगने के लिए जुटा दिया है। त्रिशूल और भगवा लबादा देखते ही हिन्दू सम्मान में सिर झुका देते हैं। धर्म का फायदा उठाकर इसे अपवित्र करते हुए हिन्दू महासभा ने राजनीति में प्रवेश किया है। सभी हिन्दुओं का कर्त्तव्य है कि इसकी निन्दा करें, ऐसे गद्दारों को राष्ट्रीय जीवन से निकाल फेकें, उनकी बातों पर कान न दें।”
हिन्दुत्ववादी नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का नाम रटते रहते हैं। क्या वे नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की इस सीख का पालन करेंगे ? क्या नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का यह वक्तव्य आज इन भगवाधारियों के प्रसंग में अधिक प्रासंगिक नहीं है ?
हम विभिन्न संगठनों से जुड़े हुए लेखक-कलाकार यह माँग करते हैं कि नफरत और हिंसा का विष-वमन करनेवाले आयोजकों और वक्ताओं के खिलाफ तत्काल कठोर कानूनी कार्रवाई की जाए और उन्हें उचित दण्ड मिले।
प्रगतिशील लेखक संघ
जनवादी लेखक संघ
जन संस्कृति मंच
दलित लेखक संघ
अभादलम
न्यू सोशलिस्ट इनिशिएटिव
इप्टा
जन नाट्य मंच
संगवारी
प्रतिरोध का सिनेमा
RELATED ARTICLES
- Advertisment -
Google search engine

Most Popular

Recent Comments