अनुपम त्रिपाठी
सतीश जी राजस्थान के रहने वाले हैं. इनके तीन कविता संग्रह ‘लहू उबलता रहेगा’ (फिलिस्तीन के मुक्ति संघर्ष के लिए), ‘लिखूंगा तुम्हारी कथा’, ‘आधी रात की प्रार्थना’ प्रकाशित हो चुके हैं. इनकी कविताएँ स्टेटमेंट के रूप में हैं. भावनात्मक और समाज में कुछ बदलने की तीव्र इच्छाओं को व्यक्त करते स्टेटमेंट्स हैं. तमाम तरह की विसंगतियों क्रूरताओं छलनाओं के विरुद्ध इनकी कविताएँ समाज के सामने अपना बयान रखती हैं. ध्यान दें बयान जरूर हैं लेकिन बयानबाजी बिलकुल नहीं. इनके पास जो भी है जितना भी सच है अनुभव है उन सबका प्रयोग यह अपनी कविता में समय की क्रूरताओं के ख़िलाफ़ कर रहे हैं. इनके लेखन में बहुत संभावनाएँ बहुत हैं. स्वर स्पष्ट और जनवादी है. तेवर प्रगतिशील है. इनकी रचनाएँ कविता होने की कोशिशे हैं. कवि कोई दावा नहीं करता कि ये कविताएँ कविता के सभी प्रतिमानों पर खरा ही उतरेंगी. जो है, सामने है- वाली बात है.
इनकी कविता में विचार पक्ष ज़्यादा उभरा है बनिस्बत कला पक्ष के. अपनी एक कविता में कहते भी हैं- ‘जी हाँ जनाब मैं एक यूँ ही सा आदमी हूँ जिसकी बातों में कोई शास्त्रीय स्पर्श नहीं होता’.
लेखक इस या उस के बीच के फ़र्क को बार-बार रेखांकित करना चाहता है. इसे दूसरी तरह से कहें तो ‘क्या हूँ और क्या नहीं’ की चिंता इनकी रचना में कई जगह दिखाई पड़ती है. इनकी लगभग सभी कविताओं की शुरुआत इसी तरह होती हुई अपना विकास करती है. एक उदाहरण-
हमने प्यार किया
लव जेहादी कहलाए
बलात्कार करके वे बने रहे देवता
या
जी नहीं जनाब
मैं एक छोटे से कस्बे का मामूली सा आदमी हूँ
एक आदमी जिसने ज़िन्दगी से प्यार किया है
और मुक्ति के मुक्त स्वप्न देखे हैं, गीत गाये हैं
एक आदमी जिसकी इस गुलाम सल्तनत के नागरिक होने की बजाए– जनता हो जाने की इच्छा है.
– इस तरह के वाक्यों से इनका रचना संसार अंटा हुआ है.
कविता ही कविता को जन्म देती है, कवि ही कवि का पिता होता है. इनकी एक कविता है ‘तीसरा आदमी ख़तरनाक होता है’. धूमिल की एक बहुत चर्चित कविता है, ‘रोटी और संसद’. उसमें धूमिल भी एक तीसरे व्यक्ति के बारे में जानना चाहते हैं-
एक आदमी
रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है
वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूँ-
‘यह तीसरा आदमी कौन है?’
मेरे देश की संसद मौन है।
और यहाँ वर्ष 2021 में भी एक कवि उसी तीसरे व्यक्ति के बारे में कुछ कह रहा है- ‘तीसरा आदमी ख़तरनाक होता है, सबसे ख़तरनाक × × × वो दिमागी जालों के अंधेरे में कैद बीमारियों को पकड़ता है।’ आख़िर इस तीसरे व्यक्ति की पहचान कैसे हो? दरअसल, यह वही तीसरा आदमी है जिसने सामाजिक राजनीतिक विभिन्न तंत्रों में करप्शन और बेईमानी का नशा घोल दिया है जिसके प्रभाव में आने से बचना लगभग असंभव हो गया है. हर व्यक्ति किन्हीं दो के बीच तीसरे की भूमिका में है, उसकी वजह से इस या उस का काम चल रहा है और वो भी असंवैधानिक तरीके से. इसे थोड़ा और ब्रॉड करके देखें तो हमारे समय की लगभग सभी समस्याओं के पीछे इसी तीसरे व्यक्ति का हाथ होता है. थोड़ा अजीब है लेकिन सच है कि यह तीसरा व्यक्ति कहीं न कहीं हमारे भीतर ही स्थित है. अपराध करते वक्त यही तीसरा व्यक्ति हमारे ऊपर हावी होता है. कवि के पास इसकी पड़ताल करने की तीव्र इच्छा है. और कुछ हद तक वह सफल होता है.
सतीश के यहाँ प्रेम और स्त्री अपनी पूरी संवेदनशीलता और जुझारूपन के साथ मौजूद हैं. विभिन्न तरीकों से स्त्रियों पर हो रहे अत्याचार बलात्कार आदि पर यह अपनी नजर और सवाल रखते हैं. उनकी पीछे की सामाजिक और राजनीतिक स्थितियों में उनके कारणों की तलाश करते हैं और अपनी बेचैनी को अपनी कविताओं में स्थान देते हैं. मुक्ति के गीत गाते हैं. आइये पढ़ते हैं इनकी कुछ कविताएँ.
सतीश छिम्पा की कविताएँ
1. मैं नहीं हूँ ऊँचे कद का कवि…..
मैं आकाश से उतरा हुआ प्रचंड बौद्धिक
और ज्ञानी और महान अलौकिक
आकाशीय उँचे कद का महाकवि नहीं हूँ
ऊँचा होने जैसा मुझमें है ही नहीं कुछ ख़ास
मसलन मैं उस तबके से नही आता
जहाँ आदमी की औकात और किरदार का भेद मिटा दिया गया हो
मैं अपने साथ किसी प्रचारक या असिस्टेंट को नहीं रख सकता
या जैसे नहीं रखता भाड़े के टट्टुओं को
जो मेरी किसी रचना को
कालजयी साबित करने की बहस में
अपने भीतर के बिक चुके आदमी
और स्थापित हुए दरिंदे का प्रदर्शन करते हुए
मार्क्स से लेकर भगत सिंह तक के उद्धरणों के गलत अर्थ स्थापित करे
जो मेरे लिखे किसी लेख के लिए वारी वारी जाए
या जिनके निर्दोष दिमागों में
भरूँ मैं बौद्धिक कपट का गोबर
राम मंदिर बनाने या मस्जिद ढहाने को लेकर
दिए गए मेरे अतार्किक, अवैज्ञानिक
भावुकता भरे फ़िजूल के बयान पर
मुझे किसी विवाद से जोड़कर
कविता का मुख्य चेहरा बना दे
ऐसे वरिष्ठ जनवादी बौद्धिकों से भी मेरी कोई यारी नहीं है
या किसी बहुराष्ट्रीय कम्पनी की कोई ख़ैरात मेरे लिए मौत है या साफ़ नए चमकते कपड़े नहीं पहनता
या इसलिए भी नहीं हूँ ऊँचे कद का क्योंकि मेरी किसी किताब का नोटिस लेना बड़ों के लिए छोटी बात है
ऐसा भी हो सकता है कि मुझे किसी बहुत गम्भीर मुद्दे पर बहसियाते विद्वानों की शक्ल देखकर हँसी आ जाए
या मैं टीवी या मुशायरे या गांधी शान्ति प्रतिष्ठान
या भारत भवन में आमन्त्रित नहीं किया जाता
मैं इसलिए भी नही हूँ
आसमानी ऊँचे कद का महाकवि
क्योंकि किसी गिरोह के नेतृत्व का मुझसे स्वार्थ जुड़ा नही होता
या इसलिए भी कि किसी पत्रिका के रंगीन पन्नों पर मुक्तिबोध स्टाइल की
मेरी कभी कोई फ़ोटो नहीं छपी
या मैं जब सूटेड बूटेड माहौल के बीच होता हूँ
तो मेरा दम घुटता है
जैसे भीतर का सब उलट पड़ेगा उल्टी के साथ ही
जी नहीं जनाब
मैं एक छोटे से कस्बे का मामूली सा आदमी हूँ
एक आदमी जिसने ज़िन्दगी से प्यार किया है
और मुक्ति के मुक्त स्वप्न देखे हैं, गीत गाये हैं
एक आदमी जिसकी इस गुलाम सल्तनत के नागरिक होने की बजाए- जनता हो जाने की इच्छा है
जो समकालीन महानता और सामाजिक मूल्य और नैतिकता के उच्चादर्शों जैसे भारी भरकम शब्दों को जीवन से बेदखल कर चुका है
जी हाँ जनाब मैं एक यूँ ही सा आदमी हूँ जिसकी बातों में कोई शास्त्रीय स्पर्श नहीं होता या नहीं होता कोई हुनर किसी अनुपस्थित लेखिका या लेखक पर बनाकर सुनाए जाने वाले अश्लील चुटकुलों का
यहाँ नहीं होती इतनी विराट उदारता कि भगत सिंह की तस्वीर उठाकर भी चलूँ
और साथ मे ठूँसता रहूँ जेब में सप्तकों के खनकते सिक्के
या मार्क्सवाद में मिलाकर तरह तरह के वाद
एक अलग ही खिचड़ी बनाकर
महाज्ञानी पराक्रमी प्रचंड बौद्धिक बनकर कर दूँ कलाओं की सबसे घिनोनी अश्लीलता को स्थापित
यहाँ तो किसी स्थापित भवन की बिरयानी की जगह
सामुदायिक भवन के चौकीदार लूणाराम की मरी हुई गाय का जिक्र है
जिक्र है कैसे एक महान आकाशीय महाकवि
किसी छद्म लालसा और ओछी नियत के लिए
अपनी इज्जतनुमा दरिंदगी को आगे करता है
और काहिली के सुराख से होता हुआ संस्कृति में स्थापित हो जाता है
नहीं जनाब
किसी संस्थान की ज्यूरी के सदस्यों
और तंत्र और सत्ता के प्यादों को देखकर
फ़िजूल में कमर की कमान नहीं बनाता…
नीलाम समय के बेहया संबंधों की सड़ांध से उल्टियाँ करता हूँ
और ये रोग मुझे तब लगा था
जब एक आकाशीय प्रचंड बौद्धिक महाकवि ने कहा था कि जिला कलेक्टर ही हो सकते हैं महाकवि
तबसे हर कलक्टर मुझे कवि
और हर कवि कलक्टर लगने लगा है
मेरा क्या है जनाब
मैं छोटे से एक कस्बे का छोटा सा आदमी हूँ
जिसमे जनता हो जाने का जेरा है…….
2. ‘तीसरा आदमी खतरनाक होता है’
‘तीसरा आदमी ख़तरनाक होता है…..’
सुनो, अंधेरा जो बढ़ आया था- लगा था जैसे निकल जाएगा और फिर से उजास होगा। उजास कितना जरूरी सुख है, इसका शायद तुम्हे पता नहीं- जब भीतर की भीतरी दुनिया की दोस्ती में मन रम जाता है और बाहर सिवाए उदासी के कुछ रहता नहीं है तब आत्ममुग्धताओं के बाड़ों को तोड़ा जाना जरूरी हो जाता है। कितनी बड़ी गलतफहमी है कि इंकलाब जिंदाबाद और मुर्दाबाद के नारों को मुक्ति समझकर हम पक्के तौर पर भेड़ों में बदल गए हैं और हमें हाँकता, एक पूरी भीड़ को हाँकता गड़रिया- ‘तीसरे’ आदमी में बदल गया है। तीसरा आदमी खतरनाक होता है, सबसे खतरनाक….. वो जो दो लोगों की बहस में मौजूद रहता है मगर अदीठ.. वो जो कविताएँ पढ़ता है- मगर तुलना का तराजू साथ रखकर, वो मूल्यांकन करता हुआ कोई लेख नहीं लिखता, वो दिमागी जालों के अंधेरे में कैद बीमारियों को पकड़ता है। हँसता है और खुश होता है। उसे एक बीमार की जो तलाश थी, खत्म हो जाती है – दिमागी गुलामी की सल्तनत खड़ी करने और अपने जैसे जोम्बी तैयार करते हुए या निशाचर आदमखोरों की टुकड़ियों को, अब बाकी के लिए उसका वह गुलाम ढोल बजाएगा, आदमी, कविता और जीवित शब्दों और जीवन के विरुद्ध कुत्साप्रचार अब आगे हमेशा के लिए।
xxx
जीवन की आँच जब ठण्डी पड़ती है तो बरस पंख लगा उड़ते है। ये किसी आदमी की आँखे रही होंगी जिसने भाप से सुगलते वक़्त को तुम्हारी आँखो में पढ़ लिया। उजास का कत्ल कर अँधेरा अब भी चेतना पर लदा है। आदमी की आँखे इसे देख नहीं पाती। उस तिलिस्मी तांत्रिक से कहना जरूरी हो गया है कि इन चमकती आँखो के सपने हैं जो हमारे, बच के निकल लें इनसे। सपने मर जाएंगे एक दिन मगर – इस मौत पर मगर मातम क्यों करना- शहादतें ही देती हैं नए सपनों और जीवन को नए उजास के साथ जन्म….. उनकी नियती में खत्म होना नहीं है। इतिहास का जहर भाषा से निकालना है तो जरूरी है कलाओं के अंधेरों से बचकर निकलते हुए- उजास से जा मिलना और फिर जब आदमी एक बार फिर से बन जाएगा आदमी- तब हम छीन लाएंगे सपनो के डकैतों से हमारे लूट लिए गए सपनो को
3. प्यार और लव जिहाद
(i) हमने प्यार किया
लव जेहादी कहलाए
बलात्कार करके वे बने रहे देवता
हत्या करके बदल गए भगवान में
(ii) जीवन, काम, फूल, पेड़ और पत्तियाँ
नदी और पहाड़
और यात्राएँ की हमनें प्यार में
इतिहास और वर्तमान घूम लिया समूचा
कविता लिखी
और लिखे प्रेम पत्र
और गज़लें कहीं
गाए गीत
और बना ली एक भाषा प्रेम की
उन्होंने लूटी इज्जत आदमियत की
और बीवियों को जलाकर मार दिया
(iii) तुमने ब्लात्कार किया
तुम बने रहे पवित्र जीवन भर
हमने प्यार किया
बना दिए गए अपराधी और सामाजिक संहिताओं में दर्ज होकर हिस्ट्री शीटर के रूप में निर्वासन भोगा
उदास खड़ा है आज जीवन
(iv) वेश्या शब्द
भाषा का सबसे अपमानित शब्द है
संस्कृति शब्द स्थापित है
अपनी तमाम महानताओं के साथ
क्या मजाक है कि आम्रपाली को बना दिया गया था
दुनिया की पहली नगरवधू
(v) हे देव – तुम्हारे अर्पण में अर्पण क्या हो
क्या हो जो खुश रखे तुम्हें
तुम जो सर्वशक्तिमान हो, आराध्य हो- शासक हो
अलौकिक, तिलिस्मी ताकतों की क्या कहें
तुम सर्वगुण सम्पन्न, महान प्रतापी हो
तुम्हारे तेज से कहाँ कोई बचता है
तुमने मिटा दिया तमाम मानवीय हीनताबोध
अपनी तांडव करती टोलियों के बलपर
तुमने बख्शा नहीं किसी को
छः साल की बच्ची से लेकर नब्बे की लोथ को भी
या टीनएज के चटख रंगों से भरी हुई
कोई लड़की हो या जवान होती और सपने देखती
कल्पनाओं के रंगों में डूबी नवयौवना हो
या चालीस की अनुभवी और अस्तित्व के लिए जूझ रही औरत हो
या बूढ़ी या बहुत बूढ़ी कोई लाचार हो
या नवब्याहता या पेट से हो कोई महिला
तुमने पाप का बीज मिटा दिया
जिस सड़क पर तुम्हारे तांडव करते गणों ने
प्रचंड दहकते गुस्से
और नशे में नफ़रत का वो नंगा खेल खेला
उस सड़क का नाम मुझे याद नहीं
उस दिन का मुझे नहीं पता कोई भी पहर
जब नारे लगाती उस भीड़ ने तलवारों पर लहराया था
उस महिला का पेट चीर कर निकाला गया भ्रूण/ गर्भ/ जीवन…जीवन…जीवन…और बस जीवन
जीवन- जो मर गया
बचा तो बस ईश्वर रूप स्थापित हुआ
बलात्कार करने का अनुवांशिक अधिकार
लिखवाकर लाया तेजस्वी लिंगधारी दोपाया
4. जब तक गठबंधन रहेगा भेड़िया और सत्ता में
(i) ये लावे से दहकते दिन
और चौतरफ़ा उगा भयावह सन्नाटा
इन दिनों भेड़िया गुर्राता है अक्सर सत्ता की ओट से आदमी कत्ल किए जाते हैं
कत्ल अपने पीछे छोड़ जाता है हजारों शोकगीत
सूनापन, प्रतिशोध, सन्नाटा, मौन चीत्कार
आदमी मरते रहेंगे
कत्ल किए जाते रहेंगे
कायम रहेगी मातमी शांति
जब तक गठबंधन रहेगा भेड़िया और सत्ता में
(ii) लोकतंत्र है लोकतंत्र
लोगों का, लोगों पर, लोगों के लिए लोकतंत्र
घिनौना मजाक बना दिया गया है
और दो साल, ग्यारह महीने और अठारह दिनों में लिखा गया एक पुलिंदा
गुलामी का दस्तावेज़ घोषित कर दिया गया है
और समानता, सुंदरता और न्याय
कलेक्टर के सामने हाथ बांधे खड़े निर्लज्ज कवि की तरह भाषा मे उगी खरपतवार है
यह रहेंगे हमेशा खरपतवार ही
जब तक गठबंधन रहेगा भेड़िया और सत्ता में
5. सुनो अनजाने समय की साथी
उन बीते मौसमों के उदास कैनवास में अब रंग मत भरो
छीजते समय के रूखे पलों से यादें झाँकने लगी हैं
हमने बनाये थे जाते बैसाख की छाती पर उम्मीदो के घर
लद गए जो सपनों के साथ ही
बुगनबेलिया के फूल जब आएँगे
मैं कोशिश करुँगा
फिर से अतीत के स्याह दिनों से छीन कर
गुलाबी रंगत वाले गुलाबी दिनों को ले आने की
उजास के स्पर्श को बचाए रखने की
दोस्त अब ज़िंदगी समय के घँटो में कैद बंदी सी हो गई है
मैं कैसे कह दूँ कि मुझे प्यार है इस समय से
कैसे बिसराऊं आदमख़ोर पलों की यातनाओं को
जिसको मेरी देह और आत्मा ने भोगा है
उम्र के बरसों ने मुझे अवसादों के अलावा कोई रंग नहीं दिया और कब दिया है पेट को भूख के अलावा
आज तक कोई दूजा स्वाद
अब तक कहाँ मिला है उम्मीदों को सुकून
मैं ज़िंदगी का प्रेम और मातृत्व से वंचित
एक प्रताड़ित बेटा हूँ
फिर भी कोशिश करुँगा
किसी बदचलन मौसम में उतर
भूल जाऊँगा कि आदमी का आदमी होना ही
जीवन को सुकून से जी लेने के लिए युद्ध का कारण है
समय के सीने पर लिख दूँगा कि
हम दो जो थे मगर एक ही
हम प्यार करते थे
हम प्यार में थे भरे हुए आकंठ और दिन थे खिले खिले
उस एक काले भयावह दिन के बाद…..
जो पहले था
मौजूद था जो जीवित सब का सब अलोप हुआ
और मेरा हाथ आज तक विदा के लिए उठा हुआ है
और बॉय कट बालों वाली
नाक पर नज़र का चश्मा सम्हालती
वो एक प्यारी सी लड़की ओझल होती जाती है
जिसका अक्स अब धुंधलाने लगा है
6. हम मिलेंगे अगले मौसमों में
विदा धरती की समूची भाषाओं का कमाया एकमात्र पाप है
अनमनी, खाली- खाली सी थी सुबह
दोपहर थी बुझी हुई सी और शाम भी थी उदास
मौसम- जैसे बेमौसम आ गया हो पतझड़
हर एक पल- बोझल
दिन अबोले और समय जैसे रीत गया हो
फिर से भर जाने के लिए
सदियों के संतापों को सहेजती धरती
और युगों की पीड़ाएँ ढोती
हवाओं का मिजाज़ रूखा हो गया था
कमजोर पलों में
जब हरियल होती कामनाओं के बीज
वर्जनाओं से मिलने लगे
जब शाम धुंधली पड़ रही थी- रात की तरफ बढ़ रही थी
जब इस सफ़र के लिए चले थे आप
मैंने हवाओं में उछाले थे धानी मौसमों के गीत
एक चिराग जलाया था देहरी पर
एक लौ सहेजी थी अपने भीतर
बिना भटके सुन सको तुम नजरों की सरहद से
इंतज़ार और इच्छाओं की आवाज़
चश्मे वाली लड़की-
आसमान के रंग में जब रंगी थी आप
चुंबनों की ललाई जब छाई थी गालों पर
शहर के रंगरेज़
दुपट्टों के रेशों में अटकी
बीती रातों की किरच तलाशने लगे थे
अफ़वाहों के लिए अय्यार बने थे शब्द
बेहया रातें चुगलियों के लिए तरस गईं थीं।
और अबके मौसम दो कबूतर उड़ें है इन्हीं खेतों पर से
अगले मौसम क्या पता हम फिर मिलें
मेरे गीत आपकी राह में रोशन हैं
वे झिलमिलाते हैं जुगनुओं की तरह
अपने घर की ओर लाने के लिए
जब कभी लौटो
तो अपनी हथेलियों से सहला देना याद का बूटा
अमलतास पर बैठी लीलटांस के परों पर
लिख देना सफ़र की कहानी
क्या पता हम फिर मिलें और रचें प्रेम का महाकाव्य
क्या पता हम फिर मिलें तो मिलें सदियों बाद
गीत गाएँ प्रेमिल अस्तित्व के
गाएँ….. और गाते ही चले जाएँ
कि हम थे एक दूसरे के लिए
हमने की थी मोहब्बत, हमने की है मोहब्बत…
हमने जी लिया है जीवन को प्यार से तर कर के
हम गाएँगे मोहब्बत के गीत..
भर देंगे आसमान को चुंबनों और आलिंगनों के उजास से
हम मिलेंगे अगले मौसमों में
जब लिखी जाएँगी मोहब्बत की बरकतें
उदास शामो में भरे जायेंगे जब इकरार के रंग
और दुनिया भर की नैतिकताओं को ध्वस्त करके
हम रचेंगे वर्जनाओं के महाकाव्य
सुनो-
तब हम मिलकर सहेजेंगे आबशायी मौसमों को
तब होंगे हम एक दूजे के लिए
(कवि सतीश छिम्पा जन्म- 14 नवंबर 1986 ई. (मम्मड़ खेड़ा, जिला सिरसा, हरियाणा)
प्रकाशन – विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में कहानी, कविता और आलेख, समीक्षा और साक्षात्कार प्रकाशित
कविता संग्रह – डंडी स्यूं अणजाण, एंजेलिना जोली अर समेसता
(राजस्थानी कविता संग्रह)
लिखूंगा तुम्हारी कथा, लहू उबलता रहेगा (फिलिस्तीन के मुक्ति संघर्ष के हक में),
आधी रात की प्रार्थना (हिंदी कविता संग्रह)वान्या अर दूजी कहाणियां (राजस्थानी कहानी संग्रह)कथेतर गद्य : लोक के असली नायक (नक्सलबाड़ी (1967-74) के पंजाब के शहीद)विदर्भ डायरी (भाग १)संपादन :- किरसा (अनियतकालीन पत्रिका)कथा हस्ताक्षर (संपादित कहानी संग्रह)मोबाइल 7378338065
Email :- Kumarsatish88sck@gmail.com
टिप्पणीकार अनुपम त्रिपाठी, साहित्य और संगीत में अभिरुचि।