गणेश गनी
तो वह टीले दर टीले चढ़ते हुए चैहणी दर्रे के ठीक ऊपर पहुँच ही गया। बादल ठीक उसके समानांतर तैर रहे हैं। जो पीछे छूट गया वो तो कमाल था ही और अब जो आगे है वो रहस्य है। हालांकि मंज़िल कोसों दूर है अभी। एक अलग ही दुनिया।
गोरखपुर से सम्बद्ध यायावर कवि संजय शेफर्ड कहते हैं-
मैं जिस दुनिया का वासी हूँ
वहां सिर्फ तीन लोग रहते हैं
एक मैं/एक तुम/एक और तुम
हम तुम परिचित हैं
एक दूसरे से/वर्षों से
पर यह जो एक और तुम हो
उसे मैं तनिक भी नहीं जानता।
यह दूरियां तब तक दूरियां बनी रहती हैं जब तक कि इन्हें तय नहीं किया जाता। फिर भी कुछ फ़ासले हमेशा रहने चाहिए। तड़प बनी रहेगी तो प्रेम और गहरा होगा। कवि कहता है-
दरअसल
बात सिर्फ पुरुष की ही नहीं
स्त्रियों की भी है
स्त्रियां भी कभी उस पुरुष से
प्रेम नहीं करती
जिसे कि वह प्रेम करती हैं
बल्कि उसके अंदर के
उस दूसरे/पुरुष से प्रेम करती हैं
जिसे वह जानती तक नहीं
जो अभी भी
उनकी पहुंच से कोसों दूर है
इस तरह एक पुरुष/प्रेम में
सदैव दो स्त्रियों से प्रेम करता है
और एक स्त्री/सदैव दो पुरुषों से।
पहाड़ चढ़ना जितना कठिन है, उतरना उतना ही सरल। परन्तु पैर ज़मीन पर जमकर रखने होते हैं और संतुलन सम्भाल कर उतरने में ही भलाई होती है। पहाड़ की तलहटी से थोड़ा और नीचे वीराने में मीठे पानी के सात चश्में पंक्तिबद्ध फूटे हैं। कहते हैं कि ये सात बहनें हैं। इन्हें यूँ बहते देखकर जो खुशी मिलती है, उसे बयां करना कठिन है।
कवि अपने जीवन में खुशियों के अलग अलग रंग देखता है। देखे भी क्यों न कि रंगीन केवल खुशियां होती हैं, दुःख और विरह तो एक ही रंग के होते हैं। संजय कहते हैं-
तुम हँसती हो तो
मैं अच्छा लगने लगता हूँ
अब कैसे बताऊँ कि
तुम्हारी हँसी
मेरी कमीज़ का रंग है।
आजकल, मैं सप्ताह में सात दिन
तुम्हारी दी हुई
सफ़ेद कमीज़ पहनता हूँ
तुम्हारी हँसी
मेरी कमीज़ का रंग जान पड़ती है
आजकल, मैं तुम्हारी हंसी ओढ़ता हूँ।
संजय शेफर्ड अपनी कविताओं में प्रेम नहीं डालते बल्कि प्रेम में सराबोर होकर कविता लिखने बैठते हैं। अकबर इलाहाबादी का एक शेर है-
इश्क़ को दिल में जगह दे अकबर
इल्म से शायरी नहीं आती।
बात तो सही है वरना सारे विद्वान शायर न बन जाते। कवि संजय तो यह भी कहते हैं-
प्रेम नहीं मिला तो /उस दिन
मैंने पहली बार सोचा कि
मेरे पास कुछ हथियार होने चाहिए
और एक पेन खरीदकर लाया
एक नोटबुक /और कुछ किताबें
पेन से पहला खत
उसी लड़की के नाम लिखा
पहली कविता, पहली कहानी भी
बावजूद इसके हार गया
और कविता, कहानी, ख़त
तीनों को ही एक साथ
अपनी ठंडी आह से जला देना चाहा।
दार्शनिकों ने अलग अलग अंदाज़ में कहा है जिसका अर्थ एक ही है कि प्रेम मुक्ति है बन्धन नहीं। कवि संजय शेफर्ड की प्रेम कविताएँ दर्शन से भरी हैं-
प्रेम, गुनाह भी लगे तो एक बार कर जाओ
छूटता बहुत है, हाथ मत पकड़ो
किसी के कांधे पर सर रखो
हथेलियों को चूमों, बस गुजर जाओ।
जो सात मीठे पानी के सोते हरी घास में से हो कर नीचे बह रहे हैं, वे यकायक पत्थरों से भरे टीले तक आते आते विलुप्त हो जाते हैं। कहते हैं कि अब ये बहुत नीचे उधर नाले में एक साथ फिर फूट आएंगे। उसने सोचा कि चलो यह भी अच्छा हुआ, सातों चश्मों का मीठा पानी एक साथ अँजुरी भर भर पिया जाएगा। आगे चलकर रावी किनारे जो प्रेम के किस्से आएंगे, उनका अलग व्याकरण होगा।
संजय शेफर्ड की अपनी प्रेम की अलग भाषा है। कविताओं में नए रूपक और प्रतीक देखने को मिलते हैं-
तुम्हारा हाथ पकड़े-पकड़े
कहीं खो जाता हूँ
तुम मुझे प्रेम करती हो
तुम मुझे ढूंढ लेती हो
पर यह नहीं बताती कि मैं कहां हूँ ?
क्या तुम्हारे पास मेरा कोई पता है ?
मैं एक बार फिर से तुम्हारे पास लौटना चाहता हूँ।
संजय शेफर्ड की मर्मस्पर्शी कविताएँ हृदय में उतर जाती हैं। ऐसा नहीं है कि कवि ने केवल प्रेम कविताएँ ही लिखी हैं, बल्कि संजय की कविताओं में कई रूप रँग देखने को मिलते हैं। पिता शीर्षक से लिखी यह कविता देखें-
अकेलापन खिड़की में बैठा था
इंतजार चौखट पर
देह अनुपस्थित थी
घर की सारी जगहें खाली
वह आए/माथे पर एक चुम्बन रखा
फिर चल दिए
बेटियों के जीवन में
पिता बस इतने ही होते हैं ।
माएं शीर्षक वाली कविता को पढ़ने पर आश्वस्त हुआ जा सकता है कि अभी हिंदी साहित्य में माँ पर बेजोड़ कविताएँ आ सकती हैं-
माएँ पिता की अनुपस्थिति को
सदैव घेरकर रखती हैं
ताकि घर भरा भरा सा लगे
माएँ कहती हैं कि
घर में कोई जगह खाली नहीं होनी चाहिए/इसलिए
दीवालों पर तस्वीर/टांक दो
मैं हर तस्वीर में पिता को ढूंढती
चौखट से बाहर निकल
चांद तक जाती हूँ
पिता कहीं बहुत दूर रहते हैं
जहाँ माएँ अक्सर नहीं पहुँच पाती।
वैसे तो बेटियों पर भी उतनी ही कविताएँ लिखी गई हैं जितनी कि अन्य सम्बन्धों पर। संजय की कविता बेटियाँ एक अलग अनुभूति देती है-
बेटियाँ जो सिर्फ बेटियाँ होती हैं
माँ की अनुपस्थिति में माँ
पिता की गैरमौजूदगी में पिता।
संजय शेफर्ड की कविता का एक अंश पढ़ने से पता चलता है कि कवि की उड़ान गज़ब की है-
दरअसल, छोटी- छोटी घटनाओं की तारिख होती भी नहीं, बस समयकाल होता है
मेरे जन्म की तारिख विद्रोह थी या फिर क्रान्ति
स्पष्ट तौर पर कुछ कह नहीं सकता
मां जानती है, उसने ना जाने कितने समयकालों को पेट से पैदा किया है
पर कहती कुछ भी नहीं
शायद उसने भी मेरी ही तरह अपने माज़ी को मिट्टी में दबा दिया है
… और गर्भ में पाल रही है सैकड़ों सिन्धू घाटियाँ
… और मोहनजोदड़ो …और हड़प्पा की संस्कृतियाँ
हाल पर समय की चमड़ियाँ परत-दर-परत चढ़ती, मोटी होती जा रहीं है
संजय शेफर्ड की कविताएँ
1. काँच की लड़कियाँ
कांच की लड़कियां
एक बार गिरती हैं और टूट जाती हैं
फिर भी पत्थर नहीं होना चाहती
कांच की लड़कियां
बार- बार टूटने के बाद भी
बने रहना चाहती हैं
एक दिल
जो टूटकर भी देह से अलग नहीं होता
भले ही गड़ता रहता है
ताउम्र छातियों के भीतर
कांच की लड़कियां
जीना चाहती हैं
लाख मरने के बावजूद
और बनें रहना चाहती हैं
एक खुली हुई देह
जिसमें मातृत्व पनपता है
और प्रेम भी
दरअसल, कांच की लड़कियां
दिल होना चाहती हैं
देह होना चाहती हैं
धरती और प्रेम होना चाहती हैं
दरअसल, कांच की लड़कियां
भूमि होना चाहती हैं
गगन होना चाहती हैं
वायु, अग्नि और जल होना चाहती हैं
कांच की लड़कियां
उगना चाहती हैं
कांच की लड़कियां पेड़ होना चाहती हैं
ऐसे में उनका टूटना जरूरी है
जरूरी है यह भी कि
वह अपनी बांहों में
सम्पूर्ण सृष्टि को समेटना सीखें
क्योंकि यह नेमत
किसी पुरूष को नहीं बख़्शी जा सकती
ना ही किसी पत्थर को
[कांच की लड़कियां मिट्टी ही तो होती हैं
एक बार तुम जरा इन्हें छूकर तो देखो ]
2. अलिखित प्रेमग्रन्थ
उस दिन तुमने भी लिखी थी
एक कविता
तुम्हारे नरम हथेलियों की तरह
हर शब्द रेंगने लगे थे
मेरी नग्न उदास पीठ पर
शब्दों की शालीनता
भावनाओं के परदे से
झांकती दुल्हन की तरह
चुटकी ले रही थी
तुम्हारे शब्द बिखरते जा रहे थे
मेरी सम्पूर्ण देह पर
कुछ शब्द मेरे गालों
होंठो पर भी चिपके थे
वर्षों से सिले होंठ खुले थे
उस दिन
उन्हीं चंद शब्दों को
आत्मसाद करने के लिए
अंधेरी रात की सतह पर
तैर रहे थे
शब्द ही शब्द
रात का अहसास
गहराता जा रहा था
परस्पर
भावनाओं की उमस ने
गर्मी बढ़ा दिया था
तुम मोम की तरह
जल रही थी, पिघल रही थी
मेरा रोम-रोम जम गया था
बर्फ की तरह
और तुमने निशब्द कविताएं
लिखने के क्रम में लिखा था
एक अलिखित प्रेमग्रन्थ
जिसकी कुछ हस्तलिखित पांडुलिपियां
आज भी मौजूद हैं
मेरी उसी उदास नंगी पीठ पर
क्या तुम पढ़ना चाहोगी ?
एक बार फिर से निशब्द होकर ?
[ कुछ बातें लिखी नहीं जाती
अलिखित होता है
बहुतों का प्रेम प्रसंग ]
3. औरत की पीठ
मैं जीवन नहीं
बस एक औरत की पीठ और पेट हूं
तुम जितना चाहो
मेरी पीठ पर पत्थर मारो
बस मेरे पेट को बख़्श दो
मैं कुछ और कविताओं को जन्म देना चाहता हूं
मैं कुछ दिनों जिन्दा रहना चाहता हूं
इस भूख, नंगेपन के बावजूद
कुछ जन्में- अजन्में शब्दों के सहारे
अपनी छातियों के भीतर
क्या तुम नहीं जानते ?
इन दिनों मेरे अंदर एक गर्भ पल रहा है ?
मैं जानता हूं
कुछ देर बाद तुम बाज़ार जाओगे
खरीदकर लाओगे
एक गर्भवती औरत के जरुरत की
तमाम चीजों के साथ
गर्भपात के कुछ खतरनाक औजार
उस कविता के जन्म से पहले
मुझे ले जाओगे
अवचेतन की उस अवस्था में
जहां मेरा मुझमें होना नगण्य हो जाएगा
और तुम आंख मूंदकर
मेरे उभरे हुए पेट पर मार दोगे एक जोरदार लात
कर दोगे मेरे सपनों की हत्या ….
इन दिनों मैं पेट से हूं ….
मेरी पीठ पर युद्धरत है
एक गर्भवती औरत की तरह जीवन।
4. हमारे गाँव
वृद्धों की अंतिम पीढ़ी के साथ ही हमारे गांव बूढ़े होते जा रहें हैं
वृद्धजनों का कहा किसी को रास नहीं आता है
एक्सपाइरी दवा की डेट मिटा देने से क्या होता है ?
एक बच्चा चीखता हुआ
घर की ओसारी से साइकिल निकालता है
एक लड़की पीछे से साइकिल को धक्का लगाती है
पैडल मारती हुई एक पीढ़ी आंखों के सामने से ओझल हो जाती है
उम्र ने ध्वनियों में उतार- चढाव के धागे को थोड़ा और कस दिया है
साठ की उम्र पा चुके वृद्धों की आवाज
दिन-ब-दिन खरास में परिवर्तित होती जा रही है
पुरबहिया काकी की खांसी बढ़ती ही जा रही है
गांव की अन्य वृद्ध महिलाओं की तरह
इस नई पीढ़ी को खांसी और खरास दोनों से ही परहेज़ है
मौन नियति का सच, बात- बहस में चुप्पियां हथियार बनती जा रही हैं
खांसी और खरास भी कोई सुनने की चीज है ?
बाहर एक दूसरा बच्चा चीखता है
एक युवा बरामदे से मोटर साईकिल निकलता है
एक किक्क के साथ ही
साठ की उम्र पा चुके चेहरों से झांकती छुर्रियों पर
धुंएं की एक परत जम जाती है
इस तरह से पलक झपकते ही एक युग का अंत हो जाता है
और वृद्धों की अंतिम पीढ़ी के साथ ही हमारे गांव मैसोपोटामिया की सभ्यता बन जाते हैं।
5. तुम्हारा दूर जाना
तुम्हारा दूर जाना बिलकुल खुदसे दूर चले जाने जैसा है
फिर सोचता हूं
खुदसे दूर भला कैसे जाया जा सकता है ?
कोई खुदको काटकर भला खुदसे अलग कैसे कर सकता है ?
यह एक बहाना है
उन्हीं तमाम बहानों की तरह जो पूर्व के जन्मों में अक्सर किये जाते रहे हैं
और उसी जन्म में भूला भी दिए जाते रहें हैं।
चलो ! मैं तुम्हारी खातिर खुद से यह बहाना कर ही लेता हूं
और यह मान लेता हूं कि तुम जा चुकी हो
अब मेरे अंदर के प्रेम को मर जाना चाहिए
अपनेपन को कोई नई जगह तलाश लेनी चाहिए
चाहतों को कब्र में दफ़न, चिता पर रख आग लगा देनी चाहिए
यह कठिन है, नामुमकिन नहीं
प्रेम में वैसे भी कुछ नामुमकिन कहां होता है ?
नामुमकिन ! यह भी नहीं कि पूर्व के लिखे सारे खत जला दिए जाएं
उन तमाम किताबों में आग लगा दिए जाएं
जिनमें कविताएं और गीत लिखे गएं
उन पेड़ों को अलविदा कह दिया जाए जिन पर भी फूल खिलते हों
उन तमाम दरख्तों को काट दिया जाए
जिन पर परिन्दे बैठकर कभी प्रेम के गीत गाएं हों
प्रेम में अगर इतनी हत्याएं, इतनी आत्महत्याएं जायज़ हैं
तो सबसे पहले मुझे जाना चाहिए, मैं आ रहा हूं।
मैं आ रहा हूं ! कुछ धुंधली परछाइयों, धुंधले पदचिन्हों के सहारे
मैं लौट रहा हूं ! खुदसे दूर खुदमें
तुम चाहो तो तुम भी लौटो, मुझमें नहीं खुदमें
तुम खुदमें लौट आओगी तो मैं तुम्हारी सांसों के सहारे
मुझमें जिन्दा हो जाऊंगा
हमारे वह मरे हुए खत, मरे हुए गीत, मरे हुए फूल और दरख़्त
दुबारा जिन्दा हो जाएंगे।
मुझे उम्मीद है, बस एक स्पर्श, बस एक चुम्बन के सहारे
तुम मेरी आंखों में उतरोगी
वह धुंधली परछाइयां, वह धुंधले पदचिन्ह, वह खोई हुई राहें
सबकी सब एक मोड़ पर जाकर आपस में फिर से मिल जाएंगी
बिलकुल वैसे ही जैसे कुछ साल पहले हम मिले थे
बिलकुल वैसे ही जैसे दो प्रेमी पहली बार मिलते
और एक- दूसरे में ऐसे खो जाते हैं …
जैसे कभी पानी में समुन्दर, समुन्दर में पानी खोता है …
चलो प्रेम में एक बार तुम पानी बनों, मैं समुन्दर बन तुममें खो जाता हूं।
6. देह का अनुवाद
तुम्हारी खामोशियों का अनुवाद
अपने अहसासों की भाषा में पढ़ता हूं
कभी तुम्हारे ओजस्वी माथे
कभी तुम्हारे सुर्ख लाल ठंडे होंठो
कभी तुम्हारे आग से दहकते गालों पर
दुनिया की ना जाने
कितनी भाषाएं अल्हनाद करती
खेलती रहती हैं
खुली हवाओं के माफिक तुम्हारे चहरे से
मैं बस तुम्हारी आंखों में उतर
अहसासों की भाषा समझना चाहता हूं
कभी- कभी उतरता हूं
तुम्हारे माथे, होंठो, गालों के नीचे
हृदय के भीगे हुए अहसासों के संग
गले तक आकर ठहर जाता हूं
बिलकुल वैसे ही जैसे साकी कोई
मदिरा की खाली बोतल के
सुराहीदार गर्दन को देखकर ठिठका रहता है
मैं भी ठहर गया हूं
शब्दों के गले उतरने का अर्थ निगलना है
मैं झुका हुआ हूं
तुम्हारी दोनों छातियों के समान्तर
चल रहा हूं
तुम्हारी नाभिनाल के सीध में
दरअसल, देह का भी अनुवाद होता है
जिसे महज अहसासों से नहीं
कई अन्यत्र से पढ़ा जाता है
अधर, वक्ष और कमर
सिर्फ सौंदर्य की पाण्डुलिपि से नहीं बनते
इन्हें कई अन्यत्र मानकों के आधार पर
बनाया, तौला, विकसित किया जाता है
वर्तमान समय में प्रेम पर
वासना की परछाई का गहरा साया है
फिर भी भ्रांतियों से इतर
मेरा प्रेम अनूदित हो रहा है
तुम्हारी शांत, ठहरी हुई देह में
तुम्हारी देह अनूदित हो रही है
मेरे उत्तेजक, विध्वंशकारी प्रेम में
हम दोनों पढ़ रहे हैं
कभी देह से प्रेम, कभी प्रेम से देह की भाषा
अपने- अपने अहसासों की मौलिकता के साथ साथ …
7.प्रेम में पत्थर होना
जब हम प्रेम में पूरी तरह पत्थर हो गए थे
हमारी संवेदनाएं कंकड़ बन बिखरी हुईं थी
हमारे ही आसपास
हमारे ही पैरों के नीचे लहूलुहान हो रहे थे
हमारे अहसास
और भावनाओं ने कर लिया था किनारा
जीवन से पूरी तरह
लोगों को शक होने लगा था
प्रेम में हम तनिक भी शेष हैं
या फिर प्रेम हो गए पूरी तरह
जिन्दा होने के बावजूद
हमने खुदको मरा हुआ मान लिया
प्रेम में हमारे मरने से पहले
समाज में हमारे दफनाने की तैयारी जोरों पर थी
और मौत के गहरे आभाष के बाद भी
हम सदियों तक पत्थर बनें रहे
इस मध्य कई बार आभाष हुआ
खुदके खुदमें जिन्दा होने का
हम कई बार
पत्थर की मूर्तियों से बाहर निकालना चाहे
पर बाहर का वातावरण हमारे अनुकूल नहीं था
और सजीव वस्तुओं में
इतनी भी संवेदनाएं कहां बची थी ?
इतने भी अहसास कहां शेष रह गए थे ?
कि लोग एक इंसान से पत्थर
पत्थर से इंसान बने
जीवात्मा की भावनाओ को समझ सकें
इसलिए हम प्रेम में कभी पत्थर
कभी पत्थर में सदियों तक इंसान बनें रहें
आदमियत के तमाम प्रलोभनों के बावजूद
एक सदी से दूसरी सदी की रिक्त जगह में
इंसान के दर्शन जब दुर्लभ हो गए
सृष्टि से प्रकृति का सौन्दर्य क्षीण होता गया
प्रेम में हमारी पत्थर की देह झरने लगी
हमारी पवुलियों पर कट- कट कर
कभी संवेदना, कभी भावना, कभी अहसास बन
हम फिर से इंसान बनते गए
हम फिर से इंसान बनें
फिर एक दिन हमें देह को ढकने के लिए
आवरण की जरुरत महसूस हुई
हम पत्थर के घर बन गए
जिसमें आज भी इंसान रहते हैं
पर प्रेम करना नहीं जानते
और ना ही किसी के प्रेम में पत्थर होना
इसीलिए हम सदियों-सदियों तक पत्थर बनें रहे …
8. प्रेम और कविता
प्रेम नहीं मिला तो
उस दिन
मैंने पहली बार सोचा कि
मेरे पास कुछ हथियार होने चाहिए
और एक पेन खरीदकर लाया
एक नोटबुक
और कुछ किताबें
पेन से पहला खत
उसी लड़की के नाम लिखा
पहली कविता, पहली कहानी भी
बावजूद इसके हार गया
और कविता, कहानी, ख़त
तीनों को ही एक साथ
अपनी ठंडी आह से जला देना चाहा
प्रेम विद्रोह भी हो सकता है
और क्रान्ति भी
पर हर क्रान्ति को
पहले विद्रोह बनना पड़ता है
विज्ञान संकाय का होने के बावजूद
इस बात को मैं
अच्छी तरह से जानता था
धीरे धीरे लड़ाई
युद्ध में बदलती गई
प्रेम ने भूगोल भी लिखा
इतिहास भी
गणित भी समझा, अर्थशास्त्र भी
और वह हथियार
एक दिन जाने कैसे प्रेम बन गया
इस तरह उस दिन मैंने
दूसरा खत लिखा
दूसरी कविता, दूसरी कहानी लिखी
उस दूसरी लड़की के लिए
जिसका मिलना अभी बाकी है
और उस तक पहुंचने के लिये
मैं एक और बड़ी जंग की तैयारी में हूँ।
(कवि संजय शेफर्ड एक पेशेवर घुमक्कड़ और लेखक हैं जो मुश्किल हालातों में काम करने वाले दुनिया के श्रेष्ठ दस ब्लॉगर्स में शामिल हैं। जन्म अक्टूबर 1987 उत्तरप्रदेश के गोरखपुर में।
शुरूआती पाँचवी तक की पढ़ाई गाँव में ही हुई फिर इंटरमीडियट जवाहर नवोदय विद्यालय गोरखपुर से किया। बैचलर ऑफ़ मास कम्युनिकेशन में ग्रेजुएशन और पोस्ट ग्रेजुएशन के बाद इंस्टिट्यूट ऑफ़ नेशनल म्यूजियम से पीएचडी के उपरांत रेडियो मिर्ची, बीबीसी और बालाजी टेलीफिल्म में काम किया है।
संपर्क: 83739 37388