निरंजन श्रोत्रिय
युवा कवयित्री संध्या नवोदिता की ये कविताएँ थिर तापमान की हैं। उनकी कविताओं में अमूर्तता, रागात्मकता, राजनीतिक चेतना और जनसंघर्ष के स्वर स्पष्ट हैं। ‘सुनो जोगी’ शृंखला की पाँच कविताओं में वे जीवन में व्याप्त प्रेम और अनन्यता को देहबंध के बाहर एक विराट परिप्रेक्ष्य में देखती हैं। इस कोशिश में वे प्रकृति की विराट शक्तियों और खगोलीय संरचनाओं को भी समेट लेती हैं। यहाँ दिलचस्प यह है कि जोगी को इतना शक्तिशाली मानते हुए भी उसके प्रति कवयित्री का कव्य-व्यवहार एक साधारण मनुष्य सरीखा ही है-एक सखा भाव का उलाहना-‘क्या किए जाते हो जोगी!’ इन कविताओं को एक नया स्पर्श देता है।
यह सही है कि ‘जोगी’ कविताओं में एक किस्म की अमूर्तता बल्कि कमनीयता है लेकिन वहाँ प्रेम भी है। कवयित्री की कोशिश इसी प्रेम को परिभाषा के कटघरे से मुक्त करने की है। यह आसक्ति भाव भले ही अविश्वसनीय-सा लगे, समर्पण की भावना को गहरे अर्थ प्रदान करता है-‘लम्बी परछाइयाँ, लम्बे डग/ सत्रह मिनट में धरती नापते हो जोगी/ तुम्हारे गुरूत्व से ढंकी।’ ‘सुनो जोगी’ शृंखला की चौथी कविता में कवयित्री प्रेम को लेकर एकदम दुनियावी हो जाती है। प्रेम में धोखे को लेकर वह एक गहरी आशंका से भरी है। इस टूटन के लिए उसे न तो कोई अनायास आघात स्वीकार है न ही पूरा होश। शृंखला की अंतिम कविता में उदासी का कोहरा व्याप्त है, घना कोहरा! अंततः हमें उदासी के इसी आवरण के तले जीना है। यहाँ जिजीविषा भी है और यथार्थ की कड़वाहट भी। शृंखला की कविताओं में जीवन और अंतर्मन के इतने विविध शेड्स देखना दिलचस्प है।
‘एक दिन हमने खेल किया था’ कविता में खेल-खेल में आग जलती है, नदी बहती है यहाँ तक कि आग नदी में घुस जाती है। तमाम उल्लासों और सुखों को जिसके साहचर्य के जरिये पाया था जब वही मुँह मोड़ ले तो समूचा परिदृश्य क्लांत हो उठता है-‘ मैं बस एकटक देख रही थी/ भरी आँख से/ तुमने कैसा खेल किया था/ खेल का साथी बदल लिया था।’ ‘ये जो रात है’ एक और अंडरटोन कविता है जिसमें रात के अँधेरे को कविता में और भी गहराया गया है। इस कविता में अँधेरे समय का अमूर्तन किया गया है ( जो वैसे भी अमूर्त है )यह दरअसल स्थितियों का दर्ज बयान है। ‘पृथ्वी’ कविता में कवयित्री क्षुब्ध भाव से अपने सारे रिश्ते तोड़ना चाहती है। हालाँकि यह यह उसके लिए खुद को तोड़ने जैसा है। अब बजाए इसके कि कवयित्री से यह पूछा जाए कि वह सारे रिश्ते क्यों तोड़ना चाहती है, इसे एक अवसाद की कविता मानना अधिक व्यावहारिक होगा। ‘गणेश कथा’ संध्या की एक अपेक्षाकृत लम्बी कविता है। इसमें एक आंतरिक कथा है किसी पार्टी होलटाइमर की। इस कविता में पर्याप्त कथा-रस है और ब्यौरों की अधिकता के बावजूद पठनीय है। दरअसल यह हमारे समय में या कहें इस दौर में एक प्रतिबद्ध व्यक्ति का हश्र है। इा कविता में कवयित्री की पक्षधरता बहुत साफ है। इस तरह कवयित्री गणेश की पत्नी के साथ खड़े रह कर अपनी प्रतिबद्धता का परिचय देती है।
‘चिनुआ अचेबे के नाम’ के जरिये संध्या नवोदिता ने अचेबे की प्रसिद्ध कविता से प्रेरित होकर एक प्रतिकविता लिखने का प्रयास किया है लेकिन वह अन्ततः उस कविता का विस्तार ही है। ‘स्त्री छोड़ती है पृथ्वी’ में कवयित्री ने स्त्री-विमर्श को पारंपरिक तौर ही उठाया है। कुछ बिम्ब अवश्य अच्छे हैं- ‘ गहरी स्त्री सलीके से छोड़ती है पृथ्वी/ जैसे वह माँ का गर्भ छोड़ती है/ पृथ्वी ही कराहती है इस बार।’ दोनों कविताओं में ‘बाश्शा’ के माध्यम से वह सत्ता के चरित्र और क्रूरताओं पर कटाक्ष करती हैं। इन कविताओं की प्रकृति अपेक्षाकृत ‘लाउड’ है जो कि इस तरह की कविताओं में अक्सर होता है। हाँ, एक स्पष्ट राजनीतिक चेतना और जनपक्षधरता इन कविताओं का मूल गुणधर्म अवश्य है। युवा कवयित्री संध्या नवोदिता में संभावनाएँ हैं। वे कविताओं में प्रकृति, जीवन और मानव मन के अनेक शेड्स का संस्पर्श करती हैं। क्लांतता, नैराश्य और अवसाद भी उनकी कविताओं में हैं। इन्हेें कम किया जाना चाहिए। शुभकामनाओं सहित।
संध्या नवोदिता की कविताएँ
1. ‘सुनो जोगी’ शृंखला की पाँच कविताएँ
सुनो जोगी! ज़िन्दगी इस पार्क का एक भरपूर चक्कर हैतीन नहीं, तीन अरब किलोमीटर का चक्कर मैं घूमती हूँ पृथ्वी के आलिंगन में सूर्य के चारों तरफ
सात समन्दरों से भी गहरी और विस्तृत झील तुम्हारे खयालों की सीढ़ियाँ उतरती हूँ जोगी
रोशनी इतनी जैसे आँखें जल उठी हूँसब कुछ रोशन जोगीतुम्हारी रोशनी में
लम्बी परछाईयाँ, लम्बे डगसत्रह मिनट में धरती नापते हो जोगी तुम्हारे गुरूत्व से ढकी
पखावज बजाते हो जोगीजादू जगाते हो मल्हार गाते हो सारी चेतना पर फूँक देते हो मन्तर
क्या किए जाते हो जोगी!
2.
सुनो जोगी!हर जगह तुम ही मिलते हो
दुनिया के सबसे सुंदर दृश्य के बीच खड़े थे तुम उस बैंच पर बैठे मुस्कुराते हुए फिर चलते हुए मेरे साथ
ठण्डी पीली रोशनी के नीचे झील किनारे रेलिंग पर टिके विशाल पेड़ों से लटकी भव्य लताओं को निहारते कभी इंतजार करते, कभी बात करते कभी झूठ बुनते, कभी सच उधेड़ते
सप्तपर्णी की गंध खोजते तुम रचते हो नवरस, शतमुख बिना किसी वाद्य के बहाते हो स्वर लहरियाँ
मुस्कुराते हो बस देखकर और मुझसे ही दूर लिए जाते हो
जोगी, यह क्या किये जाते हो!!
3.
सुनो जोगी! तुम्हें याद करती हूँ
जैसे पिंजरे में बंद गोरैया याद करती है अपने बिसरे हुए गीत जैसे सूखी धरती याद करती है घनघोर बरसात को जैसे चातक याद करता है स्वाति नक्षत्र की बूँद को
मैं तुम्हें याद करती हूँजैसे नन्हें चीड़ की पीठ पे हाथ फेरा हो जैसे जिन्दगी में पहली बर्फबारी को छुआ गालों पर जैसे कोहरे भरी सुबह अँगीठी का धुआँ उगलता सूरज
याद तुम्हारी ऐसे ही आती है जोगीजैसे तुम आए अचानक और फिर रूके नहीं पल,क्षण, घण्टे, घण्टे और घण्टे न जाने कितनी सदियों तक बस तुम रहे जैसे धरती पर रहती है हवा
तुम रहे जैसे धरती की सारी खुशबुएँ बरस गईंजैसे हवाओं में घुल गई धरती की सारी मिठास जैसे गति रूक गई, जैसे आ गया तूफान जैसे अचानक कई गुना हो गई रफ्तार
तुम्हारी याद सूने जंगल में मगन हरीतिमा है जोगीझील से उठती भाप है चहलकदमी है दुनिया के अरबों जोड़ी कदमों की कुल्हड़ काॅफी है अगल-बगल बैठ कर सिप की हुई
तेज ढलान पर उतरी राहत है ऊँवी चढ़ाई का सुकून है
तुम्हारी याद बिल्कुल तुम-सी है।
4 . सुनो जोगी!
जब तुम प्रेम तोड़ना तो पहले एक छोटा एनीस्थिसिया देना
जोखिम भरे आॅपरेशन में भी मरीज को कहा जाता है चिंता की कोई बात नहीं ज़हर भी मीठी खीर में देने का आत्मीय रिवाज़ है
मर रहे व्यक्ति के मुँह में जल दिया जाता है यह जानते हुए भी कि जल अब जीवन नहीं दे पाएगा
हम मृत्युभोज करने और खाने वाली जमात हैंकठिन और अधूरी चढ़ाईयों में कहते हैं बस ज़रा और अपने युद्ध हारे हुए वीरों की शौर्य गाथाएँ गाते हैं
वैसे मुझे आज ही पता चला कि दिल टूटने के लिए होता है भरोसा एक किताबी बात है धोखे पर टीवी सीरियलों और फिल्मों का काॅपीराइट नहीं है
और इस पूरे वाकये में तुम्हारा नाम महज एक इत्तेफाक है।
5.
सुनो जोगी! मेरे पास एक उदास कथा है कमला सुरैया के बारिशों में भीगते पुराने घर जैसी
मैं धरती की तरह घूम रही हूँ इतना तेज कि चक्कर आ रहा है मितली फँसी है हर वक्त गले में
जबकि करने को हजार बातें हैंदेखने को हजार रंग लेकिन काली गुफा खत्म नहीं होती
जीवन और मृत्यु के बीच का छोटा समय मेरा इंतजार करता है मैं तुम्हारा
तुम खड़े हो वहाँ जहाँ सितारों की चमकीली नदियाँ बहती हैंदुखों और सुखों से परे आहों कराहों की परिधि से बाहर
आँख बंद करना सुख है जोगीआँख खोलना सब से बड़ा दुःख वीरता अब सुरक्षित बच निकलने में है
पे्रम दरअसल अस्वाभाविक मृत्यु का दूसरा नाम है मैं चिल्लाती हूँ बार-बार मेरी आवाज़ निर्वात में बेचैनी से छटपटाती है
और मैंने तय किया है जीने के लिए दुनिया की सारी उदास कथाएँ पढ़ लेना चाहिए।
6. एक दिन हमने खेल किया था
एक दिन हमने खेल किया था आग जली थी
एक दिन हमने खेल किया था नदी बही थी
एक दिन हमने खेल किया था आग को हमने नदी के घर में घुसा दिया था
एक दिन हमने खेल किया था फूल झरे थे दुनिया की एक मीठी-सी सौगात चुनी थी हाथ में ले के हाथ कैक्टस दूर किये थे गुलाबों को बोया था खिला था रजनीगंधा दोस्त मिले थे, मुस्काए थे
एक दिन हमने खेल किया था आँसू पोंछे, हँसी बिखेरी जिस दिन तुम सूरज लाए थे
एक दिन हमने खेल किया था फूल आग में बदल दिए सब और समन्दर चढ़ आया सुनामी बन के
मैं बस एकटक देख रही थी भरी आँख से तुमने कैसा खेल किया था खेल का साथी बदल लिया था।
7. ये जो रात है
ये जो रात है जैसे कत्ल है जैसे इक चिराग धुआँ हुआ जैसे इश्क औंधा गिर गया जैसे खून सारा बह गया
ये जो रात है चाँद इसमें अब न उगे कभी तारे डूब जाएँ स्याही में इक घना अँधेरा अतल-सा हो इक खत्म सपना दफन-सा हो
ये जो रात है यहाँ गम नहीं, खुशी नहीं हँसी नहीं, न सोग ही ये तो रात है शुरू नहीं, खत्म नहीं चले, रूके, पता नहींये वो रात है।
8. पृथ्वी!
यही सही समय है और पृथ्वी मैं तुमसे अपने सारे रिश्ते तोड़ती हूँ
मैं हवाओं से कहती हूँ अलविदाऔर तुम्हारी मिट्टी से भी पानी की झरती बूँदोंआग और झंझाओं से
मैं रिश्ते तोड़ती हूँ तुमसे कि मैं तोड़ती हूँ खुद को खुद से निकालती हूँ जल, मिट्टी, अग्नि, आकाश ओैर हवा को सारी शान्ति निकाल के फेंकती हूँ सारी बेचैनी नोच देती हूँसारे सुखों को पाताल कुएँ में फेंकती हूँ
और इस तरह पृथ्वी मैं होती हूँ तुमसे अलग।
9. गणेश कथा
एक दुःख, दो दुःख चार दुःख, आठ दुःख इस तरह मैं दुखों का पहाड़ा पढ़ती हूँऔर रोज एक पहाड़ चढ़ती हूँ
दो बार मुख कैंसर के शिकार हुए गणेशजो दूसरा आॅपरेशन कराने गए अकेले ही टाटा हाॅस्पिटल मुंबईमहज छत्तीस बरस के गणेश
अकेले इतना अकेले गए गणेश कि कोई यह तक कहने वाला न था उनके साथ कि छोटा ही आॅपरेशन है गणेशधीरज रखोसब ठीक हो जाएगा
कैंसर के पहले आॅपरेशन में ही आधी कटी जुबान पहले से ही रहे अधूरे शब्द मुख के दूसरे आॅपरेशन में अधूरे भी बाकी न रहे
लौटे गणेश दूसरा आॅपरेशन करा के बल्कि कहें लौटना चाहा गणेश ने बड़ी व्याकुलता से प्यारी पत्नी और लाड़ले चार बच्चों के पास वो चाहते थे बस जीना जाना नहीं चाहते थे बिलकुल
गणेश मामूली इच्छाओं वाले मामूली आदमी न रूपया जमा किया, न सोनान खेती बढ़ाई, न नौकरी देखी भाइयों की नज़र में बेकाम के गणेश सुना है होलटाइमर थे तो आॅपरेशन करा के चल पड़े गणेशपता नहीं कब की समेटी हिम्मत चुक गई आधे रास्ते में पहुँची गाड़ी मुम्बई से इलाहाबाद नहींबीच में ही डेड बाॅडी बन गए गणेशयात्रियों को बदबू भरे गणेश इंसान नहीं लगे सो ज़िद करके उतार दिए गए गणेशअपनी मृत देह के साथ बीच राह किसी जंक्शन पर
अब दुखों का पहाड़ा तो ऐसे ही बढ़ता है तपती दोपहरी का सूरज ऐसे ही सर चढ़ता है इधर गणेश सिधारे उधर इलाहाबाद में इंतज़ार करते उनके बूढ़े पिता भी चल बसे थोड़ी देर बाद
तो चले मित्र धर्मराज इलाहाबाद से गणेश की मृत देह लाने कि कम-से-कम अंतिम संस्कार तो हो नसीबबेच के अपना फोन इंतज़ाम कियालकड़ी का ताबूत बनाया बढ़ई ने ज्यादा पैसे लेकर कि वो शादी के मण्डप बनाने वाला बढ़ई था
कटे-फटे बदबू मारते गणेश को बरफ की सिल्लियों बीच सहेज लाए धर्मराज और लिटा दिया उनके पिता की मृत देह के बगल गणेश के नन्हे पुत्र ने उस रात दो पिताओं को अग्नि दी
धर्मराज एक स्नेह हैं, एक खूँटी हैंजहाँ गणेश का बेसहारा परिवार अपनी जरूरतों को टांगता है सोचते हैं और गहरी साँस लेते हैं धर्मराज शायद मैं अपने मित्र गणेश से बरसों बाद अचानक उसकी मृत्यु के छः माह पहले इसीलिए मिला था
दोहराते हैं धर्मराज, भीगती है सुनने वाली हर शय अँधेरा भीगता है, लम्बी होती परछाइयाँ भीगती हैंरास्ते भीगते हैं, पेड़, चाँद, सरोवर सब भीगते हैं
यह सिर्फ दुखों का पहाड़ा है गणेश का जिसे अब उसकी पत्नी अपने चार बच्चों के साथ पढ़ती है दुखों का पहाड़ रोज चढ़ती हैऔर मैं सोचती हूँ ये कठिन पहाड़े किसी के जीवन में न आएँ कभीसबको धर्मराज नहीं मिलते दुखों के पहाड़ अकेले नहीं चढ़े जाते अकेले तो सुंदर पार्क भी नहीं घूमे जाते
अकेले होना ही इस पहाड़ को कई गुना ऊँचा बनाता है मैं सोचती हूँ और बोलती हूँ गणेश की अभागी पत्नी से तुम्हारे साथ मेरा होना क्या इसे कुछ सहज बनाता है।
10. चिनुआ अचेबे के नाम
शिकारियों के इतिहास में हिरणों की वीरता के गीत नहीं गाए जाएंगेवे आएंगे जाल बिछाएंगेझूठ और भ्रम बोयेंगेछिप कर निशाना लगाएंगेमारेंगे, छीनेंगे, हत्याएँ करेंगे और विजय गीत गाएंगे
वीर विजेता कहलाएंगे
हिरण जाएंगे जान से ठगे जाएंगेघायल किये जाएंगे पीढ़ियों से इतिहास में साबित होंगे सर्वोत्तम शिकार
मुलायम माँस और अलबेली खाल वाले मासूम, सुंदर, चितचोर अपनी हत्या के लिए खुद ही दोषी करार दिए जाएंगे
हिरण जब भी दायर करेंगे मुकदमा शिकारियों के खिलाफ बदतमीज, नाकारा, विकास विरोधी कहे जाएंगे।
11. स्त्री छोड़ती है पृथ्वी
उस पल जब कोई स्त्री गुजरती है तुम्हारे ठीक सामने से क्या पढ़ पाते हो कि वह ज़िन्दगी के अंतिम छोर से गुजरी है स्ीता ही नहीं थी अंतिम शिकार प्रेम का सुना उसके बाद कोई द्रोपदी भी हुई फिर कोई मीरा भी
कुछ लहू के घूँट पीती रहींकुछ ने पिया विष का प्याला कुछ गईं पाताल कुछ चढ़ गईं सीधे स्वर्ग को उर्वशी की तरह
उस पल जब कोई स्त्री गुजरती है बिल्कुल शांत गहमागहमी में विचरती अपने ही भीतर गहरी साँसें लेती ऐसे जैसे हवा हो ही न बिलकुल कौन समझ ही पाता है कि प्रेम की अंतिम परिणति बस अब आ ही चुकी है
गहरी स्त्री सलीके से छोड़ती है पृथ्वी जैसे वह माँ का गर्भ छोड़ती हैपृथ्वी ही कराहती है इस बार
स्त्री सौंप देती है अपना हृदय और आखेंअपनी माँ को अपनी बेटी को
और ज़िन्दगी के चाक से एक मूरत उतर जाती है।
12. आखेट पर बाश्शा
हमला ज्ञान पर है हमला तर्क पर है हमला भविष्य पर है आर-पार की लड़ाई है जवाब बताएगा कि भविष्य शून्य होगा या सैकड़ा
साजिश अमावस्या की रात से भी गहरी है हत्यारे कत्ल का हर सामान ले आए हैंवे रोशनी के हर जुगनू तक को कुचल देने का मंसूबा लिए खतरनाक तरीके से हाँका लगा रहे हैं
इस बार नौजवानों का शिकार तय हुआ है बाश्शा ने नरम गोश्त और गरम लहू को चखने की ख्वाहिश की है
आखेट पर निकल पड़ा है बाश्शामंत्री, सिपहसालार, प्यादे, लग्गू, भग्गू, चेले-चपाटे सब साथ ढोल बज रहे हैं धूर्त शिकारियों ने जाल बिछा दिया है
आखेट पर निकला है बाश्शाखाली हाथ तो वापस नहीं जाएगा
बाश्शा निकला है इस बार जंगल नहीं, नगर में चलाना है तीर जानवर नहीं, इंसान की निकलेगी चीख।
13. बाश्शा की जय
एक एक कर, एक एक घर एक एक आदमी होगा दर बदर
मारा गया वह जो बहुत दूर था मारा गया वो जो थोड़ी दूर था अब हमारे नगर तक फिर हमारे घर तक आएँगे वो एक एक कर
राष्ट्र के लिए अथवा राज्य के लिए आए हैं वो साम्राज्य के लिए पहले अर्थ की, फिर श्रम की लूट लोहे की, सोने की, हीरे की लूट खेती की, जंगल की, पानी की लूट स्त्री की, पुरूष की, बच्चों की लूट गँावों, पहाड़ों, नदियों की लूट
सब लूट कर, सब बेच कर संस्कृति पर हमला, लक्ष्य भेदकर दिमागी गुलामी का अस्त्र साधकर अब बढ़े हैं वो, अब चढ़े हैं वो विश्वविद्यालयों पे ताल ठोंककर
अब कुछ उन्हें चाहिए ही चाहिए दिल से दिमाग तक एक रंग चाहिए बाग के हजार रंग, उनको हैं नहीं पसंद सिर्फ नकली फूल की उनको बगिया चाहिए
जिसने कुछ किया वो तो मारा ही जाएगा जिसने सिर्फ सोचा वो भी बच नहीं पाएगाजिसने देखा उसका भी जल्दी नंबर आएगा आँख बंद, मुँह बंद और दिमाग बंद वो ही होंगे केवल अच्छे नागरिक
देखना है अब तो बाश्शा को देखो सोचना है अब तो बाश्शा को सोचो बोलना है तो बोलो बाश्शा की जय!सुनो अब केवल बाश्शा की जय! वही है रहीम अब वही देश है वही माँ, पिता, वही एकमेव है उसी की आराधना, करो उसी की अर्चना उसी की आरती, उसी की अभ्यर्थना
चलो कदम कदम मिला, गौरव का गान हो सदियों सदियों पीछे जहाँ सामन्ती मान हो।
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कवयित्री संध्या नवोदिता । जन्मः 12 सितम्बर 1976, बरेली (उ.प्र.)
शिक्षाः रूहेलखंड विश्वविद्यालय से इतिहास में स्नातकोत्तर, एल-एल.बी.
सृजनः सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित, पत्रकारिता में रूचि, राजनीतिक विषयों पर लेखन।
सम्पर्कः 25, यमुना विहार, द्रोपदी घाट, इलाहाबाद -211014
संप्रतिः रक्षा मंत्रालय कार्यालय (इलाहाबाद) में सेवारत।
ई-मेलः navodiita@gmail.com
टिप्पणीकार निरंजन श्रोत्रिय ‘अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान’ से सम्मानित प्रतिष्ठित कवि,अनुवादक , निबंधकार और कहानीकार हैं. साहित्य संस्कृति की मासिक पत्रिका ‘समावर्तन ‘ के संपादक . युवा कविता के पाँच संचयनों ‘युवा द्वादश’ का संपादन और शासकीय महाविद्यालय, आरौन, मध्यप्रदेश में प्राचार्य रह चुके हैं. संप्रति : शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, गुना में वनस्पति शास्त्र के प्राध्यापक।
संपर्क: niranjanshrotriya@gmail.com