आलोक रंजन
रविंदर कौर सचदेवा की कविताएँ सरलता को स्थापित करने के संघर्ष की कविताएँ हैं जो पहचान , प्रेम और दुनियादारी के अलग अलग खांचों में एक साथ आवाजाही करती हैं ।
कविताओं का प्रमुख स्वर सरलता का है जो व्यक्ति के स्तर पर भी है और उसके भावों के स्तर पर भी । कविता दर कविता बढ़ते जाइए और सरलता की घोषणा , उसके अनुपस्थित होने से पैदा हुआ मोहभंग स्पष्ट होता जाएगा । लेकिन इन कविताओं में व्यक्त सरलता को निरीहता समझना भूल होगी ।
कवि मन , इस सहज भाव को एक मजबूती के रूप में खड़ा करता है और बार – बार यह देखा जा सकता है कि कविताएँ उस भाव को पुख्ता करती चलती है जहाँ सरलता के अतिरिक्त कुछ भी प्राप्य नहीं है ।
सरल होना क्यों जरूरी है यह भी कविताओं में ही देखा जा सकता है । इस दुनिया के लिए जरूरी बेईमानी नहीं सीख पाने से उपजी छटपटाहट उस माँ तक को कटघरे में ले आती है जिसने सबकुछ सिखाया ।
इसमें जीवन की जटिल वास्तविकताओं से भागने या बचने के बजाए जीवन को उलझाव से बचाने की कवायद नज़र आती है । जटिलता बहुत सी रचनात्मक ऊर्जा का नुकसान करती है ।
“अरे!
माँ ने तो
कुछ भी ना सिखाया
इस दुनिया में
जीने लायक”
ये कविताएँ भावनाओं की बहुस्तरीय समझ के न होने से पैदा आक्रोश भी दिखाती है लेकिन वह आक्रोश व्यक्तिगत न होकर प्रतिनिधि आक्रोश हो जाता है ।
इन कविताओं को कहने वाले की पड़ताल करें तो वह ऐसा इंसान नज़र आता है जिसके लिए प्रेम जरूरी तो है लेकिन उस प्रेम से अपने आत्म पर हुई हल्की सी चोट भी बर्दाश्त नहीं । इसीलिए ये कविताएँ कहने वाले की पहचान पर ज़ोर देती हुई चलती हैं ।
यहाँ प्रस्तुत कविताओं में कुछ कविताएँ उसी पहचान को रखती हुई चलती है । इस पहचान पर गौर करें तो पाएंगे कि , वह दूसरों द्वारा तय की गयी पहचान में सीमित होने वाली पहचान नहीं है । उससे बाहर आ चुकी पहचान है जो अक्सर किसी खाँचे में फिट नहीं होती और उसे फिट होने की इच्छा भी नहीं है ।
“मैं बारिश नहीं हूँ
कोई आवेग भी नहीं
लिजलिजा सा प्रेम तो कतई नहीं”
बहुधा यही होता आया है कि , कवि का स्त्री होना उसकी कविताओं को आवश्यक रूप से स्त्री विमर्श के दायरे में ही रखता है । ऐसा होना अनुचित भी नहीं है क्योंकि, स्त्री के बारे में स्त्री से बेहतर कोई नहीं लिख सकता ।
सहानुभूति कभी भोगा हुआ यथार्थ नहीं हो सकती । रविंदर की कविताएँ स्त्री को एक मनुष्य की तरह रखती है उसके बाद आता है उसका स्त्री होना ।
उनकी कविताओं में स्त्री और इंसान होने के फर्क को बहुत साफ लहजे में रखा गया है । वहाँ स्त्री के लिए मनुष्य की स्थिति हासिल करना लक्ष्य है तो ठीक उसी क्षण जब वह एक मनुष्य की स्थिति में है तभी पुरुषों के लिए चुनौती बन जाती है । मतलब पुरुषों का पुरुषत्व स्त्री को मनुष्य या इंसान न बनने देने पर ही टिका है ।
इससे ये कविताएँ स्त्री विमर्श को जरूरी गति प्रदान करती है । कविता के माध्यम से विमर्श को इस गति की आवश्यकता है । कविताओं के घरेलू होने में इसकी उपस्थिती देखी जा सकती है ।
“और अक्सर ही
मेरे इंसान हो जाने भर से ही
दुनिया भर के पुरुषों का
पौरुष
खतरे में पड़ने लगता है”
रविंदर की कविताओं में प्रेम अपने अलहदा रूप में आता है । वहाँ प्रेम चाहिए , प्रेम की गहरी इच्छा है लेकिन वह प्रेम में बराबरी से कम कुछ भी अस्वीकार्य है ।
प्रेम के उस रूप से भी दूरी है जिसमें प्रेम के बदले अपने ऊपर का सारा नियंत्रण किसी और दे दिया जाये , उसकी हामी में ही अपनी हामी मान ली जाये ।
इस तरह के प्रेम के साथ भारतीय पुरुषों का सहकार होना अभी बाकी है । यह उनके लिए नया है और अब तक जैसा होता आया है उसके विपरीत यह प्रेम पुरुषों के अधिकार को नकारता है । रविंदर की कविताओं में यह स्वर काफी तेज़ है ।
“मैं मिलूँगी तुम्हें
ख़ुद को जीती हुई
ख़ुद के साथ
कभी अपने दुःख, दर्द ,टीस पर
सहज ही आँसू बहाती हुई
उस अपने दुःख को
अपना वक़्त देती हुई
कभी अपनी खुशियों और सुखों पर
सहज ही मुस्कुराती हुई
उस अपने सुख को
अपना वक़्त देती हुई
अगर हो मंज़ूर
तो मेरे हो जाना”
इन कविताओं में चित्र कम बनते हैं और सपाट तरीके से कही गयी बातें आती हैं । इससे कविताओं में सौन्दर्य के प्रेमियों को निराशा हो सकती है ।
इन कविताओं की मांग यही है कि वे ऐसे शिल्प में लिखी जाये जो जरूरी बात को कहकर आगे बढ़ सकने का अवकाश दे सके । बिंब , कविता को सुंदर तो बनाते हैं लेकिन वे बातों की सहज प्रस्तुति की सरलता को प्रभावित करते हैं ।
कुँवर नारायण के शब्दों में कहें तो ‘बात सीधी थी पर / भाषा के चक्कर में जरा टेढ़ी फँस गयी’ । रविंदर की कविताएँ उन अनावश्यक वितानों को रचने से बचती हैं । हालांकि सौन्दर्य कविताओं का एक आवश्यक अंग है लेकिन उसके माध्यम से जरूरी बात का बाहर न आ पाना कितना कविता के उद्देश्य को नहीं साधता है । ।
कविताएँ भाषा का मखमली वितान नहीं रचती बल्कि रुखड़े भावों के लिए खुरदुरी भाषा भी लेकर आती है । यह बात एक बार में असहज करने वाली हो सकती है लेकिन इन कविताओं में जिस सरलता की पैरोकारी है उसे देखते हुए यह तरीका जरूरी लगने लगता है ।
रविंदर की कविताओं को देखते हुए यह उम्मीद की जानी चाहिए कि , ऐसी ही बेलौस अभिव्यक्ति की मारक कविताएँ उनकी ओर से लगातार प्रस्तुत होती रहेंगी ।
रविंदर कौर सचदेवा की कविताएँ
1.
मेरे अंदर की लड़की
इंसान होना चाहती है
और इसी कवायद में
मेरे समझौतों की फ़ेहरिस्त
छोटी होती जाती है
अक्सर
मेरे स्वाभिमान को
मेरी अकड़
मेरे हक़ को
मेरी ज़िद
और मेरे सवालों को
मेरी हिमाक़त का नाम दिया जाता है
और अक्सर ही
मेरे इंसान हो जाने भर से ही
दुनिया भर के पुरुषों का
पौरुष
खतरे में पड़ने लगता है
2.
जानती हो?
तुम्ही हो
मेरी संवेदनाओं की धारा
जो मुझमे
कविता बनकर बहती है
तुम्ही हो
वो शब्द-सागर
जिसमें गोते लगाकर
मोती ढूंढ लाने की कला
मैं सीख रही हूँ
तुम्ही हो
वो कुनकुनी धूप
जो मेरे मन आंगन के
सर्द मौसम को
ऊष्मता से भरती है
तुम्ही हो
वो उजास
जो मेरी आँखों में
उम्मीद की
रौशनी बनकर चमकता है
तुम्ही हो
वो पहला स्पर्श
जिसने मुझे
आत्मीयता के
मायने समझाए
तुम्ही हो
मेरी देह वीणा की मिजराब
जो मुझमे
संगीत बनकर बजती है
तुम्ही हो
मेरी भावनाओं का
वो सैलाब
जो मेरे रक्त में
प्रेम बनकर बहता है
और हाँ
तुम्ही हो
मेरी जिजीविषा
प्यारी माँ !
3.
रात में
अचानक आ गई
बारिश में
छत पर
या आंगन में रखी
कोई भी चीज़
भीग न जाए
ध्यान रखती हो
तुम हमेशा
और मुझे भी
रहती है फ़िक्र
कि घर में
अचानक आ गए
किसी खर्च के लिए
पैसों का जुगाड़
कैसे कर पाऊंगा
मानवतावाद ,
नारीवाद
और पितृसत्ता जैसे
भारीभरकम
विमर्शों से दूर
हम-तुम
अक्सर ही
करते हैं फ़िक्र
एक-दूसरे की
फ़िक्र की भी।
4.
मेरे फटे हाथों की सख्ती
कब मेरे मन पर भी
कहीं कहीं दर्ज हो चली
क्या तुम जानते हो?
मेरे चेहरे पर
असमय आ गई
झुर्रियों का रंग
मेरे विचारों की ज़मीन पर
कब पड़ गया
क्या तुम जानते हो?
मेरी आंखों की चमक का
जितना जितना हिस्सा
खोता चला गया
वैसे वैसे ही कब खो गया
मेरा ‘मैं’होना
क्या तुम जानते हो?
मेरे पतले होठों की सुर्खियां
कब पपङी बनकर
मेरे हुनर की परतें
उधेङ ले गईं
क्या तुम जानते हो?
मेरे मुलायम गालों की कोमलता
कब मेरे सपनों की तरह
शुष्क हुई
क्या तुम जानते हो?
मेरी चहकती हँसी के कहकहे
कब तुम्हारी हँसी का
इंतजार करने लगे
क्या तुम जानते हो?
मेरे जेहन की यादों में
कब खुद को हटा कर
मैंने बनाई
तुम्हारी यादों की अलबम
क्या तुम जानते हो?
मेरे घने बालों के अंधेरे में
कब मैं देखने लगी
सिर्फ तुम्हे ही
चाँद की शक्ल में
क्या तुम जानते हो?
मेरे चौकस कानों को
कब आदत हुई
सिर्फ तुम्हारी ही पदचाप की
क्या तुम जानते हो?
दर्पण में निहारते हुए
अपने प्रतिबिंब को
कब दिखने लगा
सिर्फ तुम्हारा अक्स
क्या तुम जानते हो?
शिद्दत से बनाई हुई
अपनी राहों पर चलते हुए
पैर कब मुङ गए
सिर्फ तुम्हारी तरफ
क्या तुम जानते हो?
मेरे ख्यालों की सलाइयों पर
मेरी भावनाएं
कब बुनने लगी
सिर्फ तुम्हारे नाम का स्वैटर
क्या तुम जानते हो?
तरह-तरह की खुशबुओं के बीच
कब आदत बन गई
सिर्फ तुम्हारी खुशबू
क्या तुम जानते हो?
मेरे इरादों की फेहरिस्त उठाए
मेरे जज्बे ने
कब बना लिया तुम्हे
अपना सर्वस्व
क्या तुम जानते हो?
मेरी प्राथनाओं के श्लोक में
कब शामिल हुई
सिर्फ तुम्हारी चाहतों की दुआ
क्या तुम जानते हो?
इतना कुछ नाहक ही
पूछ रही हूँ तुमसे
या तो तुम सब जानते हो
या फिर तुम
कुछ नही जानते हो।
5.
सावधान!
ज़रा ध्यान से बनाना
अपने ह्रदय-पटल पर
मेरी तस्वीर
कहीं ऐसा न हो
कि मेरी तरफ झाँकते हुए
तुम्हे नज़र ही न आए
मुझमें तस्वीर जैसा
और अगर तुम चाहो
कि मैं ही हो जाऊँ तस्वीर जैसी
तो सुनो
मैं सिर्फ
मुझ जैसी ही
हो सकती हूँ
थोड़ा कष्ट
तुम भी कर लो
तस्वीर बदल लो।
6.
माँ को
घर में काम करते देख
मैंने सीखा
केवल
चीजों को बरतना
माँ को
मोल-भाव करते देख
मैंने सीखा
केवल
चीजें खरीदना
माँ को
प्यार, ममता, स्नेह करते देख
मैंने सीखा
केवल प्रेम करना
क्यों माँ ने
नहीं कभी बताया
की
बरतने वाली चीजों में
इंसान भी शामिल है
क्यों माँ ने
नहीं कभी समझाया
की
खरीदी जा सकने वाली
वस्तुओं के साथ-साथ
हो सकता है
जज़्बात का भी सौदा
क्यों माँ ने
नहीं कभी सिखाया
की
प्रेम करते वक़्त भी
पैनी निगाह से
कोई सुपात्र ही ढूंढना
अरे!
माँ ने तो
कुछ भी ना सिखाया
इस दुनिया में
जीने लायक
7.
मैं बारिश नहीं हूँ
कोई आवेग भी नहीं
लिजलिजा सा प्रेम तो कतई नहीं
मैं वो स्पर्श हूँ
जिसे तुमने पवित्र बनाया
मैं वो थपकी हूँ
जिसमें मचला तुम्हारा नटखटपन
मैं वो झिड़की हूँ
जिसमें महका तुम्हारा छुटपन
मैं वो छाया हूँ
जिसके तले
तुम्हे अक्सर मिला सुकून
मैं वो गोद हूँ
जहां सर रखकर खोल पाये
तुम अपना दुःख
मैं वो खुरदरा शब्द हूँ
जिसमें तुमने खुद-ब-खुद खोज लिए
मुलायम से अहसास
मैं वो बेतरतीब- सी बात हूँ
जिसे तुमने अपने सुर से सजा लिया
मैं वो अनगढ़-सी कविता हूँ
जिसका शिल्प हमेशा बेढंगा था
मैं वो बेहिसाब सा अहसास हूँ
जो इन दिनों तुमसे
संभल नहीं रहा
अच्छा और सुनो
मैं तुम्हारी
दिदुआ हूँ
8.
जिम्मेदारियों
कर्तव्यों
रीति-रिवाजों
मर्यादाओं
और अक्सर ही
मजबूरियों की
बोरियों से ढकी
तुम्हारे अंदर की बर्फ
पिघलने ही नहीं दी गई
कभी नहीं पड़ा
इस पर
तुम्हारे अरमानों
मेरी चाहतों
तुम्हारी संवेदनाओं
मेरी जरूरतों
तुम्हारे हकों
मेरी हसरतों
का ताप
मेरे हिस्से तो
कभी-कभी
संघनित हो गयीं
कुछ बूंदें ही
आया करती हैं
और
तुम तो जानते ही होंगें
ओस चाटने से
प्यास नहीं बुझा करती
9.
मेरे आस-पास
बिखरे हुए हैं
खुरदरे, टेढ़े-मेढ़े
टूटे-फूटे से
लफ़्ज़ों के ईंट-पत्थर
जिन के बीच में से गुज़र कर
तुम पहुँच ही जाओगे मुझ तक
चाहे गिरते पड़ते ही
क्योंकि इन ईंट पत्थरों से
कभी भी नहीं बन सकती
तुम्हारे और मेरे बीच
कोई दीवार
पर देखना
जिस दिन भी मैं सीख गई
एक दम चिकनी , शानदार
एक जैसे आकार की
सुंदर शब्दों की ईंटें बनाना
उस दिन
तुम्हारे और मेरे बीच
बन ही जाएगी दीवार
और फिर मुझ तक
पहुंचने की कोशिश में
कहीं तुम्हारा
माथा ही न फूट जाए।
10.
उड़ती हुई तितली के पंखों में
अपनी मर्ज़ी का रंग
कोई नहीं भर सकता
पर हाँ!
उसे कैनवास पर उकेर कर
अपनी हसरत ज़रूर पूरी कर सकता है
पर एक बात याद रहे
अगर तितली उड़ेगी
तो रंग भी उसके होंगे
अपनी मर्ज़ी के रंग भरोगे
तो तितली बेजान ही होगी
आपको डर है
कि उड़ती हुई तितली
कहीं अपनी मर्ज़ी से
अपनी पसंद के फूल पर न जा बैठे
अगर तितली उड़ेगी
तो अपनी पसंद के फूल पर ही बैठेगी
आपकी मर्ज़ी के रंगों से सजी हुई
बेजान तितली को
आप सजा सकते हैं
घर की किसी दीवार पर
अपनी सुविधानुसार
बिलकुल एक सजावट के सामान की तरह
पर उड़ती तितली के पंखों में
अपनी मर्ज़ी का रंग
कोई नहीं भर सकता।
11.
तुम्हारी तस्वीर बनाते हुए
अक्सर ही
रह जाती रही
अधूरी
बावजूद इसके की
बहुत अच्छे चित्र बना लेने का
हुनर है मुझमें
हर बार ही रह गई जेहन में
कुछ आड़ी, तिरछी, गोल, सर्पिल सी लकीरें
ढूँढती रही ख़ुद के लिए
एक मुकम्मल जगह
जहाँ खिंच जाने पर
वे जी उठतीं
कुछ रंग
जिन्हें भरा जाना है
तुम्हारी तस्वीर में
धुंधला गए कहीं
लकीरें खींचते हुए
जब भी बन पाया, उकर पाया
तुम्हारे नक्श का थोड़ा सा हिस्सा
उसमें नज़र आने लगी
कभी कोई कड़वी याद
कुछ बेस्वाद से अहसास
और कभी -कभी उन उदाहरणों जैसी शक्लें
जिन्हें नकारना सीखा है
मेरे जेहन ने
कोई अवांछित सी छवि
जिसे देख
खीझ आ जाए
कभी नज़र आए
कुछ काले साये
कभी वो मुस्कुराते चेहरे
जिनकी मुस्कान के चेहरे पर
कुछ नकली सा है
कुछ छूट चुके अपनों के नक्श
कुछ अपने बन गए अजनबियों के
स्वार्थ की तीखी लकीरें
कुछ ऐसे अपनों की झलक
जिनके जैसा और न चाहिए कोई
कुछ धुंधले , अस्पष्ट चेहरे भी
जो कभी समझ न आ सके
हर बार यूँ ही
अधूरी छूटती गयी
तुम्हारी तस्वीर
पर हाँ!
जिस दिन भी कभी कर पायी
तस्वीर को पूरा
तो यही चाहूंगी
की बेशक न बने
एक बेहतरीन चेहरा
पर जो कमियां रह जाएं
वे मुझे कभी
नागवार न गुज़रे।
12.
खुलकर खिलखिलाने वाली
मेरी सहजता
इन दिनों
बहुत भारी पड़ने लगी है तुम्हे
अब टपका देती हूँ इसे
अपनी आँखों के कोरों से
ताकि तुम हल्का महसूस करो
अल्हड़, स्वच्छंद-सी
मेरी सहजता
इन दिनों
छटपटा रही है बंधक -सी
अब कसमसाकर रह जाती हूँ
ताकि तुम खोल सको
अपने मन के बंध
मजबूत,ताकतवर सी
मेरी सहजता
इन दिनों
जख़्मी हो चली है
अब मुस्कुराहट के फाहे रखती रहती हूँ
ताकि मजबूत रहे तुम्हारी पकड़ रिश्तों पर
खिली- खिली, महकती सी
मेरी सहजता
इन दिनों
मुरझाने लगी है
अब समेट लेती हूँ मुरझाई कलियाँ
आँख बचाकर तुमसे
ताकि तुम खिल सको
पूरी तरह
मस्त,खिलंदड़ सी
मेरी सहजता
इन दिनों
डरी हुई है
अब सिहर कर रह जाती हूँ
ताकि तुम जी सको
आश्वस्त होकर
बेतरतीब, बेपरवाह सी
बतियाती हुई
मेरी सहजता
इन दिनों
चुप रहने लगी है
अब होंठ भींच लेती हूँ
ताकि तुम कर सको
खूब सारी मन की
हाँ,
मेरी सहजता
इन दिनों
प्रशिक्षण के दौर से
गुज़र रही है।
13.
अपनी आँखो के पैैैमाने से
जो प्रेम
तुम
मेरी आँखों में
अक्सर
मापने की
कोशिश करते हो
वो
इन पैमानों की ज़द
में नहीं आता
अपने मस्तिष्क की मानकर
जब तुम
मेरे ह्रदय का
निरीक्षण करते हो
तो
एक और प्रयास करते हो
मापने का
मेरे सहज
स्वाभाविक शब्दों में भी
मापते हो
प्रेम की गहराई
कभी मेरे मौन में उतर कर
ढूँढते हो
रुक-रुक कर टटोलते हो
मेरे भावों में भी
करते हो मापने का
हर संभव प्रयास
मैं बताती हूँ
सिर्फ इतना करो
अपने ह्रदय में झाँको
तुम्हे दिखेगी
मेरे प्रेम की मात्रा
तुम्हारे प्रेम से
न रत्ती भर कम
न रत्ती भर ज्यादा।
14.
दुनिया के
सबसे सुंदर दृश्यों में से
एक है
किसी प्यारे से इंसान को
अलसुबह
बिस्तर से उठकर
खिड़की के परदे हटाते हुए
अलसाई नज़रों से
धूप को देखते हुए
देखना
दुनिया के सबसे मधुर ध्वनियों में से
एक है
किसी अपने से लगे
अनजाने से
मिलने की ख़ुशी से
मन में बजने वाले सुरों की आवाज़
दुनिया की सबसे प्यारी कविताओं में से
एक है
एक अनगढ़ से
इंसान से मिला
एक प्यारा सा उलाहना।
15.
एक भंगुर सा
सीधापन रहता है मेरे अंदर
जिसे गलाकर या पिघलाकर
अपनी सुविधानुसार
मोड़ा नहीं जा सकता
पर हाँ!
कभी
स्वार्थ भरे
सच की पॉलिश चढ़े
झूठ के हथौड़े पड़ें
तो टूट कर
बिखर ज़रूर जाएगा
भंगुर जो है
लचकेगा नहीं।
16.
मिलावटी प्रेम के सेवन से
पाचन तंत्र ख़राब है मेरा
तुम्हारा ख़ालिस स्नेह
पचता नहीं मुझे
स्वार्थों की चकाचौन्ध ने
कमज़ोर कर दी मेरी आँखें
तुम्हारी मुस्कान के भीतर की मासूमियत
दिखती नहीं मुझे
छल की आग से
झुलस गई मेरी त्वचा
तुम्हारी आत्मीयता का स्पर्श
मेरे रोएं खड़े कर देता है
भावनाओं के अभिनय ने
चकरा दिया है मेरी बुद्धि को
समझ नहीं पाती हूँ
तुम्हारी सहज स्वाभाविक सहानुभूति का अर्थ
बस इसीलिए
हाँ, इसीलिए
मेरी जीभ का कड़वापन
अक्सर तुम्हारे हृदय में उड़ेल देती हूँ
और तुम्हारा हृदय
उसे परिष्कृत करके
ख़ालिस स्नेह में
बदल डालता है
और बहता है
तुम्हारे पूरे शरीर में
लहू बनकर।
17.
तुमने सुना
मेरा अनकहा
पर समझा नहीं
और जब
मैंने कहना चाहा
तो शब्द भरभरा कर गिर पड़े
तितर बितर हो गया अनकहा
तुमने
उनमें से चुने
अपनी पसंद के शब्द
क्या तुम्हे पता है?
तुम्हारे चुनने के बाद
वे मेरे नहीं रहे
उसमें भर गए हैं
तुम्हारे समझे हुए के मायने
मेरा अनकहा तो
भरभराकर गिर गए शब्दों के साथ ही
कब का टूटकर चकनाचूर हो चुका
जिसकी किरचें चुन लेना
तुम्हारे बस की बात नहीं।
18.
जब कभी करती हूँ
सहज मुस्कान के साथ
बिना किसी अनावश्यक एतिहायत के
बिना किसी ग़ैरज़रूरी चालाकी
बिना कनखियों झाँकते हुए
बिना अपना बचाव करते हुए
कोई साधारण सी बात
तो अक्सर
लोगों के माथे पर पड़ गए बल में
लिखा हुआ पढ़ा है मैंने
लोगों की आँखों की हैरानी को
बोलते हुए सुना है मैंने
देखो! कितनी अजीब लड़की है
इंसानों की तरह बात करती है।
19.
मैं
बाज़ार से खरीदा गया
कोई अनलिमिटेड ऑफर नहीं हूँ
जो तुम्हे मिलूँ
हमेशा
हंसती, मुसकुराती, खिलखिलाती
तुम्हारा अभिवादन करती हुई
हर वक़्त
तैयार-बर-तैयार
सिर्फ तुम्हारी हामियाँ भरती हुई
हां,
मैं मिलूँगी तुम्हें
ख़ुद को जीती हुई
ख़ुद के साथ
कभी अपने दुःख, दर्द ,टीस पर
सहज ही आँसू बहाती हुई
उस अपने दुःख को
अपना वक़्त देती हुई
कभी अपनी खुशियों और सुखों पर
सहज ही मुस्कुराती हुई
उस अपने सुख को
अपना वक़्त देती हुई
अगर हो मंज़ूर
तो मेरे हो जाना
तुम्हारे सुख दुःख से भी करूंगी
बिल्कुल ऐसा ही व्यवहार।
20.
मन की ज़मीन पर
इन दिनों
खिंच रही हैं
दीवारें
न चाहते हुए भी
हर दिन
धरी जा रही है
ईंट पर ईंट
मरी हुई भावनाओं का
बढ़िया सीमेंट लगाकर
प्लास्टर हो रही हैं
दीवारें
मैं बस तराई कर रही हूँ
हर दिन
मेरी आँखों का पानी
बाखूबी पका रहा है
सीमेंट को
मजबूत हो रही हैं
दीवारें
इन दिनों
(कवयित्री रविंदर कौर सचदेवा , पेशे से अध्यापिका और मन से कलाकार । विद्यार्थियों के साथ कला के माध्यम से सीखने सिखाने की प्रक्रिया में विश्वास रखती हैं । विद्यार्थियों में काफी लोकप्रिय हैं । वर्तमान में सिरसा जिले के डींग में अध्यापन । टिप्पणीकार आलोक रंजन, चर्चित यात्रा लेखक हैं, केरल में अध्यापन, यात्रा की किताब ‘सियाहत’ के लिए भरतीय ज्ञानपीठ का 2017 का नवलेखन पुरस्कार ।)