निरंजन श्रोत्रिय
कविता सिर्फ वाक्यावलियों, पंक्ति विन्यास या किसी विचार के शब्दबद्ध होने से ही संभव नहीं होती। अपने समय-समाज में घट रहे दृश्यों, दृष्टांतों और स्थितियों में भी कविता छुपी होती है। जब कोई कवि उन स्थितियों को नैरेट करता है तो इस तरह वह उस कविता को भी उद्घाटित करता है जो अंडरकरंट की तरह वहाँ बह रही होती है।
युवा कवयित्री रक्षा ऐसे ही दृश्यों और घटनाओं से अपनी कविता अवतरित करती हैं। आज की नारी का संघर्ष, समाज में उसकी स्थिति और जिजीविषा को वे घटनाओं के माध्यम से अपनी कविता में जीवंत करती हैं। इस मायने में रक्षा की कविताओं से गुजरना किसी लघुफ़िल्म के प्रेक्षण के अनुभव से गुजरना है।
पहली कविता ‘ट्रैफिक सिग्नल’ में कवयित्री की चिंता का दायरा उन मासूम लड़कियों (जिनके बाप नामालूम होते हैं) के बारे में है जो सिग्नल पर फूल, गुब्बारे वगैरह बेच कर अपनी जीविका चला रही हैं। हमारे समाज में एक बड़ा हिस्सा ऐसी ही बेटियों का है जो बाद में उन्हीं फूल, गुब्बारों की तरह बेच दी जाती हैं। कवयित्री इस तरह शहर-कस्बे के उन अँधेरे कोनों तक पहुँचती है जहाँ ऐसे नाजायज जन्मों और शोषणों की कथा लिखी जाती है। ‘इन दिनों’ कविता में भी शोषण और दमन की उसी परम्परा का उल्लेख है जो माँ से बेटी तक, फिर उसकी बेटी तक क्रमशः स्थानांतरित होती है। वह अश्लीलता के उस दंश से बचने के लिए स्त्रियों का ही कोई झुण्ड तलाश रही है।
‘अच्छी औरतें’ हमारे कथित पारिवारिक संस्कारों पर एक गहरा तंज है। यह दरअसल उन रूढ़ परिभाषाओं के ख़िलाफ एक गहरा नकार है जिसमें ‘अच्छी औरत’ होने का मतलब देवी, दासी और रम्भा का कारगर (!) समुच्चय है। अपने जीवन में इस संतुलन को साधते-साधते औरत कब अपनी पहचान खो देती है औरत खुद नहीं जानती। यहाँ ‘खेप’ शब्द का प्रयोग कर कवयित्री समाज की उस भीड़तंत्र मानसिकता को उजागर करती है जो बहुसंख्य स्त्रियों को इसी सांचे में ढला देखना चाहती है। ‘धरती उम्मीद से है’ एक छोटी कविता है जिसमें पृथ्वी और औरत के सर्जनात्मक साम्य का गीत रचा गया है-‘लज्जा से लाल आलता रचता है/ भाषा के पैरों पर प्रेम के बूटे/ वे और धरती जन्मना एक राग हैं।’ ‘दफ़्तर में औरतें’ एक मार्मिक कविता है जिसमें कामकाजी स्त्रियों का कौशल, कर्मठता, दायित्व और गंभीरता तो है ही, घर के प्रति उनकी अविच्छिन्न रागात्मकता भी है। वे अपना हर काम ज़िम्मेदारी और ईमानदारी से करती हैं लेकिन मन के किसी कोने में दुबकी स्मृतियों के साथ।
यह खूबसूरत कविता कर्म और भावावेगों की जुगलबंदी है। कविता का क्लाईमेक्स औरतों और पुरूषों की कार्यशैली के फ़र्क को भी रेखांकित करता है जब वे लिखती हैं-‘ औरतों को अपने संग/ दफ़्तर को घर ले जाना मंजूर नहीं।’ पिता परिवार की जटिल इकाई होते हैं। पिता के चुप्पे स्वभाव, अवदान और पराजय का मार्मिक बखान है-‘पराजित पिता’। पिता परिवार में उन सूक्तियों का सूत्रधार भी है जो प्रार्थना बनकर परिवार को एक सूत्र में पिरोए रखता है। वह सृष्टि के सुखी होने की कामना हो या भोजन मंत्र। इन्हें गुनते हुए कब वह अपनी ही छत के बोझ तले दब जाता है, पता ही नहीं चलता। पिता की यह हार कविता के अंत में करूणा की सृष्टि करती है।
‘गृहस्थी’ भी परिवार के किन्ही मधुर क्षणों का दृश्यांकन है। यहाँ स्मृति और फैण्टेसी के साथ नॉस्टेल्जिया भी है। कैरी की फाँक की गृहस्थ-क्षणों में कितनी भिन्न भूमिकाएँ हो सकती हैं! खट्टे को जायकेदार बनाने का यह हुनर हमारे भीतर एक अलग ही प्रकार का जिजीविषा भाव उत्पन्न करता है। ‘कविता इन दिनों’ जैसा कि शीर्षक से स्पष्ट है समकालीन साहित्यिक परिदृश्य पर एक कटाक्ष है। शुरू में ‘लाइट मूड’ से आरंभ यह कविता तमाम साहित्येतर उपक्रमों का लेखा-जोखा देती अंत में एक विचारणीय उक्ति में विसर्जित होती है जहाँ ‘कविता विचारों की यूरियाई खेती है।’
‘अवसर’ कविता में एक समारोह के दृश्य के बहाने रक्षा ने स्त्री को ‘ब्रॉंड’,‘विज्ञापन’ और ‘प्रेजेन्टेबल’ की आकर्षक बेड़ियों से मुक्त करने का आव्हान किया है। स्त्री आज किसी ‘डिस्काउंट’ की नहीं, समूचे जायज हक़ की हकदार है। ‘आवर्तन’ कविता मानो एक नृत्य है- किसी दक्ष नृत्यांगना का सम्मोहित कर देने वाला परफॉर्मेन्स! इसमें नृत्य, संगीत और मंच की तकनीकी बारीकियाँ हैं जो कविता को प्रामाणिक बनाती हैं। यह कविता नृत्य की जीवन में, जीवन की नृत्य में आवाजाही भी है। रक्षा की ‘चरित्रहीन औरतें’ कविता दरअसल ‘अच्छी औरतें’ का ही विस्तार है, बस शीर्षक उल्था है। शैली वही तंज की है। यहाँ एक बात रेखांकित करने योग्य है कि इन दिनों स्त्री विमर्श में उन रूढ़, कथित मानकों और प्रचलित स्वीकार्य परिभाषाओं तथा शब्दावलियों पर लगातार कठोर प्रहार किया जा रहा है जो एक संक्रमण की तरह भारतीय समाज में व्याप्त हैं। यह दरअसल पुरूष सत्तात्मक षड़यंत्र की जड़ों पर प्रहार करने जैसा है। यह कविता भी उसी ओर एक बढ़ा हुआ कदम है। युवा कवयित्री रक्षा की कविताएँ भारतीय समाज में स्त्रियों की विसंगति पर बेबाक और साहसिक बयान है।
ये कविताएँ हमारी चाक्षुष संवेदनाओं को झकझोरती हैं। ये कविताओं से अधिक चित्र, चित्र से अधिक दृश्यांकन हैं जहाँ औरत अपनी वास्तविक जगह तलाश रही है।
रक्षा की कविताएँ
1. ट्रैफिक सिग्नल
कहाँ होंगे इनके पापा
पूछती है जब बिटिया
ट्रैफिक सिग्नल पर
फूल, गुब्बारे या अखबार बेचती
लड़कियों को देख
तब रगों में दौड़ जाती है बर्फ की ठण्डक
जुबान चाह कर भी खुल नहीं पाती
मुश्किल है ढूँढ पाना
इतने पुरूषों में इनका पिता
कि रेल्वे स्टेशन,सब्जी मंडी या बस स्टैण्ड के
किसी नीम अँधेरे कोने में
आदिम हवस की पैदाइश हैं ये लड़कियाँ
कि, ऐसी लड़कियों के पिता नहीं होेते
कच्ची उम्र की ये लड़कियाँ
बिकने के लिए तैयार माल हैं
फूल, गुब्बारे या अखबार की तरह
अपने ही पिता के हाथों।
2. इन दिनों
इन दिनों
नींद से लम्बी हैं रातें
आँखों में सपनों से अधिक है धुआँ
दीवार से बड़ी हो चुकी दरार
अँधेरों की छाती पर रेंगते हैं
घिनौने तिलचट्टे
मलबे के नीचे से सुनाई देती है
साँस लेने की तेज़ आवाज़
स्मृतियों में माँ तेजी से छुड़ाती है
देह का मैल हौदी के पानी में
लगातार काँपती है परछाई
हथेलियाँ पसीज जाती हैं
बिटिया का हाथ पकड़ भागती हूँ
प्रसव से लाल पूरब दिशा की तरफ
शामिल हो जाना चाहती हूँ
असभ्य भाषा, अश्लील इशारों
तेजाब, पत्थरों और वीभत्स संक्रमणों से
बच बचाकर निकल गई
औरतों के झुण्ड में।
3. अच्छी औरतें
उन्हें कभी नहीं सिखाया जाता
कि कोई व्यक्ति, वस्तु या वातावरण
गर न आए रास तो मत करो स्वीकार
वे जीवन भर नहीं सीख पातीं
कठोरता से ‘न’ कहना
उन्हें सिखाया जाता कि
अच्छी नहीं होती
ज्यादा बकर-बकर करने वाली लड़कियाँ
घर टूट जाते हैं उनके
असहिष्णु और तर्क-वितर्क करने वाली लड़कियों को
सिखाया जाता कि
वाम-दक्षिण के विश्लेषण से पूर्व
रोटी का एक समान गोल
और चित्तीदार होना अधिक आवश्यक है
एक तनी डोरी पर
एक ही देह और मन के साथ
देवी, दासी, रम्भा का संतुलन साधना सीखती
वे योजनाबद्ध तरीके से धकेली जाती हैं
चुप्पी के त्रासद साम्राज्य की तरफ
जहाँ जीने के लिए
पर्याप्त है उनका केवल देह होना
जहाँ मुस्कान आभूषण है
और ठहाका वर्जित
जहाँ साँचों में गढ़ी जाती हैं पुतलियाँ
जिन्हें कोई ज़रूरत नहीं किसी दृष्टि या दृष्टिकोण की
रीढ़ विहीन निपट कायर औरतों की ऐसी खेप
कहलाती हैं अच्छी औरतें।
4. धरती उम्मीद से है
दिन भर की थकन से क्लांत तन में
उमगता मन लिये
आँगन में बैठ
गीत गाती हुई
वे लगा रही हैं पाँवों में आलता
छोड़ रही है धरती पर अपने पैरों की छाप
लज्जा से लाल आलता
रचता है भाषा के पैरों पर प्रेम के बूटे
वे और धरती जन्मना एक राग हें
दोनों के नाभिस्थल में
सृजन का नमक
डोलता है लगातार…अपरम्पार…
धरती की छाती पर
खुशमन पाँव आलता की चाप
घोषणा करती है कि
धरती उम्मीद से है…।
5. दफ़्तर में औरतें
दफ़्तर में काम पर आई औरतें
कभी नहीं आती अकेली
उनके साथ चुपके-से उँगली थामे
चला आता है उनका भरा-पूरा घर
वे पुरूष नहीं हैं कि ड्राइंगरूम से
सीधे उठकर चली आए दफ़्तर
वे निकलती हैं घर के कोने-कोने से
घर के बूढ़ों की दवाईयों की फिक्र
घर वालों के स्पेशल खाने की फ़रमाईश
दूर के रिश्तेदारों का उलाहना
मौसेरी पर गाढ़े वक्त में
सगी से भी सगी बहन की
बेटी के ब्याह की चिन्ता
कमर में टीसता दर्द और भी न जाने क्या-क्या
साथ में लिए वे लांघती हैं
घर की ड्यौढ़ी
बस-ट्रेन की धक्कमपेल में
कमर पर कचोटती चिकोटियों
और देह पर महसूसते बेजा दबावों के साथ
वे पहुँचती हैं दफ़्तर
रात भर से सूना और बेजार पड़ा दफ़्तर
खिलखिला उठता है उनकी आमद से
दफ़्तर के कोने-कोने में उजास की तरह
फैल जाता है घर
मुस्कुरा उठती हैं मेज, कुर्सियाँ और फाइलें
लंच ब्रेक में खाने के डिब्बों के साथ
एक साथ खुल जाते हैं न जाने कितने घर
दफ़्तर महक महक उठता है
हींग वाली नींबू की चटनी-सा
बातों का अंतहीन सिलसिला
पर कोई भी बात पूरी नहीं होती
घर के ज़िक्र के बगैर
गरज यह कि समझ ही नहीं आता
घर औरतों के लिए है
या कि औरतों में ही रहता है उनका घर
अनगिन फाइलों के बीच
अपना काम समेटती वे बार-बार
परे धकेलती हैं घर को
पर घर है कि किसी हठीले बच्चे की तरह
ठोड़ी पर हाथ धरे
एकटक निहारता रहता है उन्हें
शाम को घर पहुँचने से पहले ही
वे बनाने लगती हैं खाका
कि खुद को कितना,कहाँ
और कैसे देना है
घर के कोने-कोने में दफ़्तर अब उदास है
वह बलात् खुद मेें घुस आए घर की उँगली पकड़
जाना चाहता है उनके साथ
पर औरतें बड़ी पोशीदगी से
कल फिर मिलने का वादा कर
उससे छुड़ा लेती हैं अपना दामन
औरतों को अपने संग
दफ़्तर को
घर ले जाना मंजूर नहीं।
6. पराजित पिता
जब तक तुम समर्थ थे
हमारे लिये थे सर्दियों का स्वेटर
गर्मियों का गमछा
भूख में बटलोई की खिचड़ी
अपनी छोटी गुंजाइशों में
शांत, अडोल और कठोर अनुशासित
कोई पारदर्शी चीज़
साफ चमकती थी तुम्हारी आँखों में
शायद अच्छाई, साहस या ईमानदारी
जीवन भर चट्टान की तरह रहे तुम
अबूझ और कठिन
मगर भीतर ही भीतर बहा जिसमें
मीठे पानी का ठण्डा सोता
तुमने कहा-
‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’
और परिवार में सब दुखी रहे तुमसे
तुमने कहा-
‘संतोषस्य सुखम्’
और असंतोषी परिवार ने तुम्हें टांग दिया
पुराने फ्रेम में जड़कर खूँटी पर
तुमने कहा-
‘सह नाववतु, सह नौ भुनक्तु’
और सब तुम्हें छोड़ बढ़ लिए आगे
तुम्हें स्वीकार नहीं थी संधि
इसलिए तुम बुरी तरह हारे
अपने ही सिपाहियों से
सबने पहचान लिया
तुम्हारे पंखों की चुकी ताकत को
और चोंच का भोथरापन
झूठ के इस मेले में
अपने सच को लिए
तुम ठगे-से रह गए
अपनी बनाई दुनिया में अपनों से ही
आतंकित और
पराजित मेरे पिता।
7. गृहस्थी
आँगन में कैरियों के ढेर के साथ
बैठी अम्माँ
चला रही है अमकटना
सिफ़त इतनी कि मजाल कोई टुकड़ा
रह जाए छोटा-बड़ा
बाबा तिपाई पर बैठे मुग्ध भाव से
निहारते हैं उसे जैसे करते हों धन्यवाद
गृहस्थी को ऐसे ही सलीकेदार चलाने के लिए
दोनों की दृष्टियाँ टकराती हैं और
चेहरों पर उभर आता है
करारी मठरी के साथ ताजा अचार वाला स्वाद
जब दोनों पहली बार गए होंगे नर्मदा किनारे
और बाबा ने इधर-उधर देख
झट से डाल दिया होगा निवाला
अम्माँ के मुँह में
या फिर जब पहली बार
बिगड़ा होगा अम्माँ के मुँह का स्वाद
और दादी ने तिर्यक मुस्कुराहट से
थमाई होगी कैरी उसे…
बच्चों को कतई मतलब नहीं
इस गोपन संवाद से
वे तो मगन हैं
आम की कलियों से
गुठली और झिल्ली हटाने के काम में…
अपनी छोटी सामर्थ्य में
परिश्रम और प्रेम के साहचर्य से
गृहस्थी की उर्वर जमीन
तैयार करते अम्माँ-बाबा
जीवन के तमाम खट्टेपन को
जायकेदार बनाने का
हुनर जानते हैं।
8.कविता इन दिनों
कवि हैं
छोटे, मंझोले या बड़े
उसी के मुताबिक कविताएँ हैं
तुच्छ, गौण, मध्यम या विराट
ब्रंाडेड बार में मदिरा और मज्जा के
सुखद संयोग के साथ
रची जा रही हैं कविताएँ
कविता की क्रांति मुखातिब है
राजधानी की ओर
कवि परेशान है कि
नहीं आ पा रही
कविता में धार
कैसे मिलेगा पुरस्कार इस बार
कविता अब
कह नहीं पा रही
सूखी आंतों की पीर
कविता अब
गाँवों का खेत नहीं
शहर का बाजार है
कविता अब
भुट्टे के भुने दानों की
सौंधी गंध नहीं
मॉल में बिकने वाला
‘स्वीट कॉर्न’ है
कविता अब
आत्मा का ताप
मन की संवेदना और
जटिल आत्मसंघर्ष नहीं
विचारों की यूरियाई खेती है।
9.अवसर
हमने मान लिया है
कि स्त्री की
प्रथम और अंतिम पहचान है
उसका आकर्षक होना
यदि न होता ऐसा तो
क्यों सम्मान के गुलदस्ते
तश्तरियों में लिए
नाभिदर्शना साड़ी बाँधे
सुंदर स्त्रियाँ होतीं
इस कार्य के लिए पहली पसंद
हमें चित्ताकर्षक लगती हैं
पुरूषों के सीने पर
बैज टांकती महिलाएँ
दीप प्रज्ज्वलन नहीं हो पाता उतना सफल
यदि पुरूष पकड़ाते हैं मोमबत्तियाँ
दृश्य बदल सकता था
दुनिया बदल सकती थी
यदि स्त्री को मिला होता
अभिनंदन पत्र
पढ़ने के स्थान पर
उद्बोधन देने का अवसर।
10. आवर्तन
वह मंच पर नाच रही है
जैसे नाच रहा हो जीवन
धड़कनों की लय पर
प्रकाश इतना तेज कि छिप न पाए
एक भी वांछित भाव
चक्करदार झपताल में लास्य बिखेरती
वह कभी बेताली नहीं होती
बोलों के ताल पर नाचती
मात्राओं को निभाती है
सटीक भंगिमाओं से
अंगुली के पोर से आँख के छोर से
तत्कार से आवर्तन तक
नृत्य में साफ-साफ झलकता है
विषम को सम करने का कठिन अभ्यास
उसे कंठस्थ है तोड़े, तिहाई और भंगिमाएँ
विप्रलब्धा से अभिसारिका
थिरकती है तो नाच उठते हैं
वेणी, कंठहार और नुपुर भी
उसके साथ
पैरों के अग्रपोर पर लगा
टुह-टुह लाल आलता लिखता है धरती पर
प्रेम के नए अनुबंध
थोड़ी और तेज हो जाती है
धरती की चाल
सम से प्रारम्भ कर
घटती-बढ़ती मात्राओं
तोड़ों, तिहाइयों और बोलों
के कठोर कलानुशासनों को साधती
जीवन के तमाम
विषम अंतराल को
नाद और आल्हाद से भरती
वह लौट-लौट आती है
सम पर…
पूरा करती हुई
नृत्य और जीवन का
आवर्तन।
11. चरित्रहीन औरतें
यह कही-सुनी बात नहीं
सच है, हाँ
चरित्रहीन होती है ऐसी औरतें
बेबाक, बेपर्दा, बेपरवाह
निर्भीक, स्वतंत्र, अकुंठित
वे जो दौड़ती हैं बगैर दुपट्टे के
बच्चों के साथ पार्क या
हॉकी, फुटबॉल के मैदान में
अपनी पुष्ट टांगें दिखाते हुए
एक-दूसरे पर गिरतीं
परस्पर चूमतीं
रेफरी के कड़े इशारों की परवाह किये बगैर
वे जो काम करती हैं
कड़ी धूप, तपती भट्टियों में
बगैर सनस्क्रीन के
अपनी ताम्बई रंगत को निखारने की
कोई जल्दबाजी नहीं जिन्हें
बीच बाजार-हाट में अपना स्तन खोलकर
शिशु को दूध पिलाती, दुलारती
सच, चरित्रहीन होती हैं ऐसी औरतें
जो नकारती हैं चरित्र की रूढ़ परिभाषाएँ
और थोपे हुए संस्कार
वे जो आगे बढ़कर प्रेम करना जानती हैं
वे जो नहीं फैलाती अपनी टांगें
अपने पुरूष के सामने
किसी धर्म, नीति या अनुशासन के तहत
वे जिनकी जीभ नहीं लड़खड़ाती
पुरूषों से बात करते हुए
वे जिनकी देह तक पहुँचना
मुमकिन नहीं उनके दिमाग से गुजरे बगैर
वे जो जानती हैं कड़ी जुबान से ‘न’ कहना
वे जो समझते हुए भी सारे घात-प्रतिघात
सारे खतरे
हौसला रखती हैं खुद से प्रेम करने का
तलाशने का संभावनाएँ
नींद में, प्यास में, जागरण में
देखती है सपने ऊँचे आसमानों के
सच है, चरित्रहीन होती हैं ऐसी औरतें
बच कर रहना चाहिए ऐसी औरतों से
और हाँ,
डर कर भी।
(कवयित्री रक्षा , जन्मतिथि- 21अगस्त
जन्मस्थान- सिहोरा (जबलपुर)
शिक्षा-रसायन विज्ञान स्नातकोत्तर,शिक्षा स्नातक,विधि स्नातकोत्तर,
समाजकार्य स्नातकोत्तर।
सम्प्रति-सहायक आयुक्त,मप्र शासन
राज्य जीएसट विभाग,भोपाल।
शासकीय सेवा से इतर समसामयिक विषयों पर कविता, आलेख,लघुकथा लेखन तथा समसामयिक साहित्य अध्ययन में रुचि।
जनजातीय चित्रकला,रेखांकन एवम फ़ोटोग्राफी में रुचि।
रचनाएँ विभिन्न साहित्यिक पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित।
“सहसा कुछ नहीं होता” नाम से कवितासंग्रह प्रकाशित।
समाज सेवा की विविध संस्थाओं से जुड़ाव।लगभग बीस वर्षों से नाबालिग बलात्कार पीड़िताओं तथा उनसे उत्पन्न संतानों हेतु विधिक,सामाजिक सहायता एवम न्याय हेतु संकल्पित। वंचित/पीड़ित वर्ग को मुख्य धारा में लाने हेतु हर संभव प्रयास हेतु प्रतिबद्ध।
पुरस्कार व सम्मान-स्त्रियों के सम्वेदनशील विषयों पर उत्कृष्ट कार्य हेतु महिला गौरव सम्मान सहित अनेक सामाजिक एवम साहित्यिक पुरस्कार।
ईमेल-raksha2211@gmail. com
टिप्पणीकार निरंजन श्रोत्रिय ‘अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान’ से सम्मानित प्रतिष्ठित कवि,अनुवादक , निबंधकार और कहानीकार हैं. साहित्य संस्कृति की मासिक पत्रिका ‘समावर्तन ‘ के संपादक . युवा कविता के पाँच संचयनों ‘युवा द्वादश’ का संपादन और शासकीय महाविद्यालय, आरौन, मध्यप्रदेश में प्राचार्य रह चुके हैं. संप्रति : शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, गुना में वनस्पति शास्त्र के प्राध्यापक।
संपर्क: niranjanshrotriya@gmail.com)