कुमार मुकुल
शिशु सोते नहीं अर्द्धरात्रि तक
विश्राम भी नहीं करेंगे वे
थोड़ा और हँसेंगे अभी
और बताएंगे तुम्हें कि हँसना क्या होता है?
सोते शिशुओं पर कोई कविता किसी भाषा में अब तक मेरी निगाह से नहीं गुजरी है। सहज मनुष्यता के ऐसे उत्प्रेरक चित्रों को कविता में लाना हिंदी के कवि भूल गये हैं। राजेन्द्र देथा यह काम अपनी सहज खिलंदड़ी वृत्ति के साथ कर जाते हैं। देथा की कविताओं में जैसे देशज चित्र आते हैं, लोकभाषा की ठेठियत के साथ, वैसे चित्र हिंदी में कम आये हैं। देथा की कविताओं में आया लोकविमर्श विकास और समसामयिक विमर्श की दुश्चिंताएं बढ़ाने वाला है।
शिवपूजन सहाय ने देहाती दुनिया में कहीं लिखा है – “गांव के लोग भोले तो क्या भाले होते हैं”। यह भालापन देथा की कविताओं की कमजोरी नहीं ताकत है। हर शै की कंडीशनिंग कर उसे तुरत-फुरत बाजारू माल में तब्दील कर देनेवाले इस समय से बचाकर यह उसकी स्वतंत्र पहचान बनाने में मददगार होगा। हिंदी के साथ धाटी और बहावलपुरी बोलियों का फ़्लेवर भी इन्हें अलग पहचान देगा।
सामयिक विमर्शों को यह सभ्यता किस तरह विडंबना में बदल दे रही इसकी तस्दीक देथा की कविताएं अच्छे से करती हैं –
बीच विमर्श पहुंच गई सुगनी
गार्ड की व्यस्तता का फायदा उठाकर
सुगनी जो अर्से से मानसिक विक्षिप्त है
और पहुँचते ही निकाले उसने दांत
मुस्काई और मुस्काती रही दो मिनट
कुर्सियों पर बैठा स्त्रीवाद
ठहाके में बदल गया!
देथा की कविताएं हमारे आत्म की अनिवार अभिव्यक्तियाँ हैं, वे चाहे हमें ‘सुनामी’ बनाने में समर्थ ना हों पर वे इसी तरह बेजुबानों की जबान बनें, इसी में कवित्व है। इस लिहाज से देथा की कविताएं आशा जगाती हैं –
जिस दिन हमारी आजादी होगी
हम नहीं लिखेंगे कविताएं धर्म पर
आरक्षण पर, विधायक की बेटी पर
हम उस दिन कुछ भी नहीं लिखेंगे
हम उस दिन आटा सहेजेंगे
हम कुछ डिब्बे लायेंगे, धनिया सजाएँगे
बेसन को ऊपर वाले आले में ही सजाएँगे
और नमक!
नमक तो मां ही रखेगी
वह उसे बहुत प्यार करती है।
असम के किसान कवि चंद्र की कविताएं पढ़ते लगा था कि हिंदी कविता को नयी जमीन तोड़़ने वाला एक बैल मिला है। अब देथा की कविताओं से गुजरते लग रहा कि उसका जोड़ीदार दूसरा बैल भी मिल गया है। चंद्र जहां मेहनती बैल है, देथा मरखाह है, पर समय का जुआ उसे सहज करता जाएगा।
राजेंद्र देथा की कविताएँ
1. नींद में मुस्कान
शिशु सोते नहीं अर्द्धरात्रि तक
विश्राम भी नहीं करेंगे वे
थोड़ा और हँसेंगे अभी
और बताएंगे तुम्हें कि हँसना क्या होता है?
शिशु अपनी मुस्कान से याद दिलाएंगे तुम्हें
प्रेमिका के पहले स्पर्श की,
लुहार के घर नरेगा के पैसे आने के बाद
द्वार पर खड़ी मुळकती उसकी लुगाई की,
बेटी को विदा कर एकांत में बैठे माँ-बाप की।
शिशु की मुस्कान निश्चितता दर्शाती है
और बताती है कि अब सब कुछ शुभ है!
सोते हुए शिशु-
विचरणरत हैं अपने माँ-बाबा के बाएं निलयों में,
खेल रहे हैं बर्तन मांजती माँ के हृदय में
छींके में गिरते बर्तनों की थिरक पर।
शिशु सोते नहीं अर्द्धरात्रि तक
विश्राम भी नहीं करेंगे वे।
और देखिए –
नींद में सोते हुए शिशु
अचानक मुळकते हैं तो
कितने आत्मीय लगते हैं!
2. उनकी नींद कितनी सुखद है।
वह प्रभात में अपने पुरुष को
नींद में छोड़कर उठ जाती है
और पिलाती है आटा-पाणी
व छाण बलकती बकरियों को
और निकल पड़ती है उन
स्थानों के लिए जहां रात्रि में गायों ने गोबर त्यागा होगा
जिसे वह तगारी में भर लाएगी और इकठ्ठा कर देगी
आंगन के एक कोने में रखे गोबर के जमाव पर
तदुपरांत ग्वाला आवाज देगा
बकरियों के लिए संपूर्ण बास को
और उसके बच्चे सिरकीनाका
खोलेंगे बकरियों की रस्सी का,
उसका पुरुष निकल जाएगा
खेत में सूड़ के लिए कुल्हाड़ी को कंधे किए
भरी दोपहर निकल पड़ेगी वह भी
सिर पर भाते और कांख में शिशु को दबाए।
“बीच मारग चकौरी में चल रहा होगा हेदर का कोई सिंधी गीत
या ट्रैक्टरों में गाई जा रही होंगी पठानों की कव्वालियां”
पूरा दिन मेहनत के बाद धणी-लुगाई
निकल पड़ेंगे मांधारा होते ही खेत से
जवी-काचरों के ढेर लिए हुए,
घर पर बड़ी बेटी ने बना रखी होगी गाठ और
छोटा बेटा गया होगा छाछ लेने अपने चाचा के यहां।
फिर टाबरों को सुला वे कोशिश करते हैं सोने की
अपनी छत के टेण गिनते हुए बतियाते हैं परस्पर-
कि कैसे अगले महीने केसेसी भरेंगे
कि कैसे मिलेगा बडी़ बेटी को सबळ घर
कि बिचेट लड़का दशमी के बाद कहाँ पढ़ेगा?
और देखिए कितना सुखद है कि
बातों में नींद भी आ जाती है
फिर प्रभात भेरी बजती है
और
वे फिर निकल पड़ते हैं …!
[कुछ देशज शब्दों के अर्थ -बलकती-चिल्लाती, सिरकीनाका-गांठ का एक प्रकार,चकौरी-पगडंडी,मांधारा-लगभग सूर्यास्त]
3. मैं कविता के क्षेत्र में बहुत देर से आया
मैं कविता के क्षेत्र में बहुत देर से आया
और जब आया तब तक सब कुछ समाप्त हो चुका था
या कहूँ कि सब विषय ख़रीदे जा चुके थे
बिक चुके थे और जब मैं यह सब देखते हुए कविता के
अधिकारियों के यहाँ गया तो देखता ही रह गया।
ख़ैर सबसे पहले मैं उनके यहाँ गया जिन्होंने पिछली बार पूँजीवाद के
ख़िलाफ़ शहर में साहित्यिक आयोजन किया था
उनकी स्त्रियों ने बताया कि वे सब कहीं न कहीं व्यस्त हैं
और मैंने जब पूछताछ की इस मार्फ़त तो मालूम हुआ कि
वे छोड़ने गए थे अपने नन्हे बच्चों को अल्बर्ट कॉन्वेंट स्कूल में।
फिर मुझे कॉमरेड दीपक के यहाँ जाना था
और संयोग से उसकी शादी भी थी
जबकि मुझे न्योता नहीं था
और मैं यह सोचकर गया था कि
दुल्हा बना हुआ बिन बुलाए का उलाहना नहीं देगा
और वहाँ जाते ही मैंने पाया कि कॉमरेड
अपनी शादी में ड्रोन से वीडियो शूटिंग के निर्देश दे रहा था।
फिर मैं सत्ता वाले कवि के यहाँ गया
मुझे उनके कनिष्ठ ने इस संबंध में भेजा था
कि वे तुम्हारा मार्गदर्शन करेंगे
वहाँ मैंने जो पाया बहुत अच्छा पाया
वह यह कि कुछ बड़े, कुछ ताज़ा और कुछ मोटे कवि
व्यस्त थे मद्य की मधु-मंडली में
लेकिन मैं यह जानते हुए उनके पास हथाई के लिए बैठा
कि दारू पीना किसी विमर्श में वर्जित नहीं है।
उनमें कुछ कवि अपनी कविताओं पर लिखने के लिए
फ़ोन पर बतिया रहे थे
कुछ निर्देश दे रहे थे
और इन सबके बीच एक बड़ा कथाकार
मुझ जैसे ही एक बालक को
बड़ा कथाकार बनने के नुस्ख़े बता रहा था
कि कैसे वह यहाँ तक पहुँचा।
बालक जो मुझ जैसा नया-सा था
संभव हो कि हम कभी समकालीन गिने जाएँ।
दरमियान उनकी गप्पों में मुझे अचानक
अपने गाँव के भामू बनिए की याद आई
कि कैसे गवार निकलते ही वह हर बार
तीरथ का गला पकड़कर गवार ले लेता है
और पश्चात इसके गला उसको सुपुर्द कर देता है
कि कैसे जगुड़ी पानी भरकर डेढ़ किलोमीटर आती है
कि कैसे गाँव के सहकारी बैंक का मैनेजर नरेगा को खा जाता है
और अचानक मैं वहाँ से चल दिया।
यह सोचते हुए कि मुझे यहाँ नहीं आना चाहिए था
मैं बिन बुलाए आया था
मैं उनकी संगत से बड़ा कवि बनने आया था
मैं किसी के कहने पर आया था
मैं मूर्ख था जो आया था
मैं कभी नहीं आया था
मुझे बड़ा कवि बनने के लिए मजबूर कर रही नसें लाई थीं!
4.गाँवों में स्त्रियाँ
जूने गाँव अभी भी थे हिंद में
नहीं जानतीं जूने गाँवों की औरतें
खेत, गुवाड़, गवारणी और जनन की प्रक्रिया
या कुछ और चीज़ों के अतिरिक्त किसी चीज़ को।
खेत में दिन भर सूड़ करने के बाद
पुरुषों को सहवास एक ज़रूरी प्रक्रम जान पड़ता था
और गाँव में आई नर्स द्वारा प्रदत्त
गर्भनिरोधकों को उनके बच्चों ने
गुब्बारे बना उड़ा दिया था,
वे मासिक धर्म नहीं जानती थीं
उन्होंने इसका नाम अपनी देसभासा में कुछ अलग कर रखा था
और इन ग़लतियों और सुख के कारण
पुरुष ग़लती के मुताबिक़ कब कर गए
बच्चों की टोली
यह उन्हें ध्यान नहीं रहा।
जब भी कोई पढी-लिखी बहनजी आती
इधर शहर से गाँव की ओर एनजीओ के मार्फ़त
वे घेर लेती थीं और पूछती उनसे नसबंदी के बारे में
वे नहीं जानतीं तुम्हारे विमर्श को और न ही तुम्हारे घर को।
और इधर यह सब ध्यान में न रखकर
महानगरों में जब हमारे गाँव की
औरतों पर लिखी जा रही थीं
कविताएँ, कहानियाँ और लघुकथाएँ
ठीक उसी वक़्त ये तीनों विधाएँ
अबोली बैठी दुखी हो रो रही थीं
शब्दों को पकड़कर ठूँसा जा रहा था
मात्राएँ विलाप कर रही थीं
अनुस्वार माथा पकड़ बैठे थे
उधर कविता लिखने के ठीक बाद
कवि और कवयित्रियों ने खोल दिए थे सीट बेल्ट अपनी कारों के
मौसम के मुताबिक़ और पहुँचना था उन्हें
किसी रात्रि भोज में अपने वरिष्ठों के बताए पते पर
इधर सहसा सुगनी को बताया गया कुछ यूँ
कि तुमपे लिखी जा रही तुम्हारे लिए कविता
दिल्ली में सुगनी ओढ़नी का पल्ला उठाए
करती रहती है सूड़ बैरानी ज़मीं का
उसे लिखी गई ये तमाम विद्रोही कविताएँ
बड़ी संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत
आलोचकों द्वारा सराही गई तमाम कहानियाँ
न जानें क्यूँ अच्छी नहीं लगतीं?
मैं कविता सीख गया था
इधर जब से इस शहर में आया
सच कहूँ तो बहुत प्रभावित हुआ
इस शहर से और कुछ समय बाद
इस शहर के बड़े साहित्यकारों से
मसलन मैंने जाना शुरू किया
गोष्ठियों, कार्यक्रमों, सम्मेलनों में
मेरा जाने का कारण उन दिनों यही था
कि सीखना है अपने को कोई ढंग
कि कविता करनी है और बड़ी प्यारी कविता
यह बात और है कि मैं अपनी मर्ज़ी से
यह नुस्ख़ा नहीं अपना रहा था,
यह नुस्ख़ा मुझे मेरे अभिन्न साथी ने दिया था जो
कि स्वयं अब स्थापित होने के कगार पर है
मैं जाता बड़े लोगों से परिचित रूप से संबंध बनाता,
बातें करता, उनकी किताबों पर लिखने के लिए कहता
स्वाभाविक ही उनकी ख़ुशी देखने लायक़ होती,
कुछ अच्छे थे वे मुझे जान चुके थे।
इधर मैं हमेशा आलोचना की किताबें पढ़ता
भारतीय कविता संचयन की किताबें भी पढ़ीं
लेकिन कविता नहीं बनी तो नहीं ही बनी।
मैं थका-हारा यह शहर छोड़कर जा चुका था
अपने गाँव की सीमा में अपने खेत पर
मैं जाने लगा अब हमेशा
गाँव की उस दुकान पर
और बैठता इत्मिनान से
सुनता सरपंच की दबंगई
डरता मैं भी कुछ बदमाशों की बातें सुनकर
मैं उसी दिन अपने उक्त अभ्यास पर
रो-रोकर कहने लगा
भले मानुष कविता यहाँ थी
तूने वहाँ क्या ढूँढ़ा मात्र
बतकही के अलावा!
5.ओला वृष्टि
———————
[१]
————–
यह पहली बार नहीं था कि
भामू नायक को बीज लाना पड़ा था उधार
यह पहली बार नहीं था कि अडाणे रखने पड़े थे
भामू की पत्नी के गहने जेठमल बणिए के यहां
यह पहली बार नहीं था कि आयी हो बरसात
यह पहली बार नहीं था कि ओला वृष्टि हुई हो प्रथम बार
प्रथम बार
[२]
—————
अबोध बादल नहीं जानते कि
उन्हें कहाँ बरसना है
राजधानी की छ मंजिला इमारत
या शाहपुरा के किसी मुरब्बे में।
उनपर यह इल्जाम न लगाएं कि
बिन मौसम में आप क्यूँ बरसे?
वे सदैव विज्ञान के पख में रहे हैं
आप ग़र इल्जाम लगा ही रहे हैं तो
लगाइए इल्जाम उन पर जिन्होंने
आपको चौमूं बनाया पिछली बार
दो लाख के ऋणमाफी के झांसे देकर
[३]
———-
उपरांत ओला वृष्टि
शाम को डिग्गियो पर बैठे
गांव के माणस बड़बड़ाते रहे
भिन्न भिन्न मत लेकर
नूर खां ओनाड़िंग से कहता है –
“सुण वे!
मेकू लगदा ए सिरकार कुज ता पईसा डेसै”
ओनाड़िंग का जवाब होता है –
“दरडे़ मा प्री जाए सिरकार
वळै कमासां न खासां “
6.विमर्श के दृश्य
स्त्री पर विमर्श चल रहा था
शहर के एक होटल में
होटल जो शहर के नामी
होटलों में शुमार है।
बीच विमर्श पहुंच गई सुगनी
गार्ड की व्यस्तता का फायदा उठाकर।
सुगनी जो अर्से से मानसिक विक्षिप्त है
और पहुँचते ही निकाले उसने दांत
मुस्काई,और मुस्काती रही दो मिनट
कुर्सियों पर बैठा स्त्रीवाद
ठहाके में बदल गया!
[दृश्य – 2]
लेखकों,बुद्धिजीवियों
कहें कि प्रबुद्धजनों का
आयोजन परवान पर था
बीच बीज़ भाषण
सभा में प्रवेश कर गया
झोला लिए एक फुटपाथी
सभा में हाहाकार मच गया!
[दृश्य – 3]
राजधानी के डिग्गी पेलैस में
चल रहा था जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल
और जारी था सत्र “बिलो पावर्टी लाइन” पर
और कार्यक्रम स्थल पर
आवाजाही थी अतिथियों की
एसएमएस से उठकर आए
कुछ मलंग चुपके पहुंच गए
अंदर कुछ हाथ में आने के लिए
वहां कुछ नहीं था
वहां सिग्नेचर और हिलफिगर पहने
वकील थे,कुछ मेला देखने आयी
स्त्रियां थीं और उनके साथ उनके पुरुष
उनके हाथ में बड़े बेग थे, खरीददारी कर रही थीं
फकीरों को देख नूडल्स खाती अफ़सोसरत थीं
7.हमारी आजादी के मायने
जिस दिन हमारी आजादी होगी चूं तक करने की
उस दिन हम हमारे मालिक से कह ही देंगे
खुशी के मारे, लज्जा को बुआरे –
“सेठ जी आटा दे दो, चने बिकते ही वापिस दे देंगे”
जिस दिन हमारी आजादी होंगी-
हम गांव में रात्रि चौपाल में आए मंत्री जी को
राजी कर ही लेंगे,उधार गोठ करके
उन्हें मना ही लेंगे, बैंक से कर्जा दिलवाने के लिए
जिस दिन हमारी आजादी होगी
हम जी भर गले लगाएंगे उन प्रेमिकाओं को
जिन्हें चाचा के इलाज के समय हाथ में हाथ लिए
छोड़ आए थे खेत के अंतिम सिरे पर सूर्य अस्त के वक़्त
जिस दिन हमारी आजादी होंगी
हम मुक्ति के गीत गाएंगे
हम रात पूरी हथाई करेंगे
उस दिन खेत नहीं जायेंगें
जिस दिन हमारी आजादी होंगी
हम नहीं लिखेंगे कविताएं धर्म पर
आरक्षण पर, विधायक की बेटी पर
हम उस दिन कुछ भी नहीं लिखेंगे
हम उस दिन आटा सहेजेंगे
हम कुछ डिब्बे लायेंगे,धनिया सजाएँगे
बेसन को ऊपर वाले आले में ही सजाएँगे
और नमक!
नमक तो मां ही रखेगी
वह उसे बहुत प्यार करती है।
जिस दिन हमारी आजादी होंगी
हम उस दिन खेत नहीं जाएंगे
हाँ सच में!
हम उस दिन दशी-पक्कड़ खेलेंगे!
8.तीन कविताएँ
१.नींद क्यूं नहीं आती
———————–
ध्यान से प्रिय पाठक ध्यान से
इधर कविता में दो आदमी है-
रामेश्वर हमारे इधर के सिंचाई मंत्री है
उनका गार्ड हमारे इधर का ही है
बताता है कि उन्हें नींद नहीं आती,
सम्भवतः कारण यही कि अगले महीने
चुनाव है, कुर्सी बदली न जाए कहीं।
और
रशीद मेरे गाँव बीजेरी के है
शुभान उसका मौसेरा भाई है
मेरा बचपन का दोस्त
वो कहता है उसे भी नींद नहीं आती
सम्भवतः कारण यही कि अगले महीने
केसेसी* की किस्त भरनी है, उसे बदलनी है।
नींद दोनों को नहीं आती
मंत्रीजी की नींद चार दिन की छुट्टी पर है
रशीद की लंबी छुट्टी पर
मंत्री जी को भत्ता मिलेगा
रशीद को शायद कंटोल के गेंहूँ भी नहीं!
[केसेसी- बेंक द्वारा किसानों को दिया जाने वाला लोन]
२.मैं कविता सीख गया था
—————————-
इधर जब से इस शहर में आया
सच कहूँ तो बहुत प्रभावित हुआ
इस शहर से और कुछ समय बाद
इस शहर के बड़े साहित्यकारों से
मसलन मैंने जाना शुरू किया
गोष्ठियों बड़े कार्यक्रमों,सम्मेलनों में
मेरा जाने का कारण उन दिनों यही
था कि सीखनी है अपने को कोई ढंग
की कविता करनी और बड़ी प्यारी कविता
यह बात और है कि मैं अपनी मर्जी से
यह नुस्खा नहीं अपना रहा था,
यह नुस्खा मुझे मेरे अभिन्न
साथी ने दिया था जो कि स्वंय
अब स्थापित होने के कगार पर है
मैं जाता,बड़े लोगों से परिचित रूप से सबंध बनाता
बातें करता,उनकी किताबों पर लिखने के लिए कहता
जायज है उनकी खुशी अपार होती,
कुछ अच्छे थे वे मुझे जान चुके थे
इधर मैं हमेशा आलोचना की किताबें पढ़ता
भारतीय कविता संचयन की किताबें भी पढ़ीं
लेकिन कविता नहीं बनी तो नहीं बनी
मैं थका हारा यह शहर छोड़ जा चुका था
अपने गांव की सीम में अपने खेत पर
मैं जाने लगा अब हमेशा
गांव की उस दुकां पर
और बैठता इत्मिनान से
सुनता सरपंच की दबंगई की बातें
डरता मैं भी कुछ बदमाशों की बातें सुनकर
मैं उसी दिन अपने उक्त अभ्यास पर
रो रो कर कहने लगा
भले मानुष कविता यहां थी
तुने वहां क्या ढूंढ़ा मात्र
बतकही के अलावा!
३.रामेश्वर बदलता क्यूं नहीं
—————————-
हमारे विद्यालय के दिनों में,
हम जब बहुत अबोध थे
गुरुजी एक बात कहा करते थे
दुनिया रोज बदलती है
अब मुझे जब भी वो गुरुजी मिलेंगे
मैं जरूर पूछूंगा उनसे एक बात कि
सर ये जेके लॉन के आगे बनी रोड
और रोड़ के बीच बने फुटपाथ पर सो रहा
रामेश्वरलाल बदलता क्यूं नहीं
9.थारेष्णा
थार महकता भी
उससे जियादा वो दहकता
यहां आँधियों के भूतालिए
कर देते हरेक को भूत सा
वे किसी चक्रवात से आते
और उजाड़ जाते खेत को
भला थार का जीवट इंसान
कहाँ डरता ऐसे मामूली तूफानों से
“जीवट इंसां” शब्द किस की दी हुई
उपमा नहीं थी
स्वयं शब्द ने संघर्ष कर
खुद को सृजित किया था।
इन दिनों थली में अकाल सा पड़ा है
नहरी इलाका बच गया
इसका मतलब यह थोड़े ही कि
बैरानी उजड़ जाएंगे
ऐसे छुटपुट अकालों से।
वह कभी नहीं डरेगा
वह कभी नहीं डगमगाएगा।
यदि कभी डरा तो डरेगा उस वक्त
जब उसे आटा लाने के लिए
जाना पड़ेगा, सड़क पार उस बनिए के घर।
शायद इसीलिए थार का भला मानुष
इन दिनों पलायन कर गया है मद्रास
और कह गया कि-
आते वक्त लाऊंगा पैसों की भरी करके
इतने कि उनसे खरीद सकूंगा
टाबरो के लिए कपड़े-लते और
माँ के लिए ‘छ: फोटो’ नश्वार !
(21 वर्षीय कवि राजेन्द्र देथा, गाँव – बिजेरी, तहसील श्री कोलायतजी, जिला बीकानेर। पढ़ाई – बीएससी, एम.ए. की पढ़ाई जारी है। संपर्क: rajendradan609@gmail.com
कुमार मुकुल समकालीन कविता का चर्चित नाम हैं और राजस्थान पत्रिका के सम्पादक मण्डल से जुड़े हुए हैं। सम्पर्क: kumarmukul07@gmail.com)