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February 21, 2025
समकालीन जनमत
कविता

पुरू मालव की कविताएँ एक आत्मीय आग्रह के साथ बड़े सवालों पर बात करती हैं

निरंजन श्रोत्रिय


 

युवा कवि पुरू मालव की आसान-सी दिखने वाली ये कविताएँ हमारे भीतर एक फोर्स के साथ खुलती हैं। वह चाहे विस्थापन का दर्द हो या मानवीय रिश्तों में गर्माहट की तलाश, पुरू की कविता एक आत्मीय आग्रह के साथ हमें आमंत्रित करती है।

वे शहर की सतह और उसके चुँधियाते आकाश से नज़र हटा कर उसकी नींव को खोदते हैं जहाँ हरियाते खेत और जंगल दफ्न हैं। किसी समुद्र से नदी निकलने का यह असंभव और अव्युत्क्रमणीय प्रश्न कवि की अकुलाहट की चरम स्थिति है। पुरू अपनी जड़ों को केवल अतिशय भावुक नॉस्टैल्जिया के साथ याद नहीं करते। ऐसा तो अपनी जड़ों से जुड़ने का दावा करने वाले कई कवि करते ही रहते हैं।

यहाँ रेखांकित करने योग्य यह है कि वह उन जड़ों की ताकत और जिजीविषा को भी पहचानते हैं। किसी ज़मींदोज़ होते हुए खण्डहर को ऐसे ही कोई सीधा खड़ा नहीं कर सकता, शहर में आकर बसे लोगों की गाँव के प्रति अनायास उमड़ उठती रूमानियत तो कतई नहीं (कबूतर)। कवि हर वक़्त आगाह करता है कि यह ‘दाना’ कोई अन्नबीज मात्र नहीं एक स्वार्थी, आत्मपरस्त और लोभतंत्र के जरिये बुना गया मज़बूत जाल है।

कवि की स्मृतियों में आँगन, नीम का पेड़, दालान, छत या मिट्टी के सौंधेपन की अभ्यस्त शब्दावली नहीं बल्कि घर का वह अँधेरा कोना जीवंत हो उठता है जो मुख्यधारा से परे भले हो लेकिन हमारे सुख-दुःख, विषाद और अकेलेपन की आश्रय-स्थली है।

कवि अपनी प्रतिभा से इस अँधेरे कोने से सारी स्मृतियाँ उलीच लेता है और शेष रह जाती है घर में उस जगह सिमटी रिश्तों की उजास। अब यदि ईश्वर है तो ऐसी जगह आकर नहीं बसेगा तो कहाँ जाएगा? पुरू मालव के पास जो काव्य भाषा है वह प्रसंगों और घटनाओं के तटस्थ प्रेक्षण से नहीं बल्कि उनके भीतर, धँस कर, पैठ कर मूल मन्तव्य की खोज के संघर्ष से अर्जित की गई है। एक बूढ़े, बीमार बाप का बेटी को देखते ही खाट पर हुलस कर बैठ जाना हमें किस आनंदातिरेक की काव्यानुभूति देता है!(बाप-बेटियाँ) दीवारों और छत से घर होता है लेकिन पुरू के लिए ये दीवारें महज़ छत के टिकने का अवलम्ब न होकर एक साया है जिसके तले जीवन की कठिन दुपहरी गुजारी जा सकती है और जिससे पीठ टिकाए बुढ़ापा भी काटा जा सकता है।

वह अपने स्वजन की स्मृति की पर्याय भी है और हमारे दुःखों को सोखने वाली एक आत्मीय युक्ति भी। कवि के पास केवल स्वयं के विस्थापन का विषाद नहीं बल्कि उसकी चिन्ता की ज़द में समूची प्रकृति है। प्रकृति के आवास का निर्मम मानवीय अतिक्रमण निश्चय ही विचलनकारी है। यहाँ प्राकृतिक संतुलन के तार-तार हो जाने की गहन वेदना है-‘ये जगह इन्हीं की है/ एक मैं चला आया अनपेक्षित-सा इन सबके बीच।’ अपनों से पिटाई की मार के बरक्स वक़्त की मार के नीले निशान और वह भी शरीर पर नहीं आत्मा पर!

कवि के महीन संवेदन रिश्तों और घटनाओं के बीच एक आत्मीय सूत्र तलाशते हैं। कवि की राजनीतिक दृष्टि और सोच बहुत मुखर नहीं लेकिन साफ है। उसे अपने समय-समाज के प्रति सरोकार की गरज है। पुरू की कविताओं में यह प्रतिरोध बहुत व्यंजक रूप में आता है (समय के साथ) जो एक उथले-औपचारिक विद्रोह के बजाय तंत्र के भीतर एक कारगर निषेध जगाता है। वास्तविक कवि कर्म यही तो है।

यह युवा कवि अपनी प्रतिबद्धता में स्पष्ट और और कहन में मितभाषी है। उसकी काव्यभाषा अलंकृत, सायास या बड़बोली नहीं है। वह चीजों को ठहर कर, बरत कर बयां करती एक उत्तरदायी भाषा है। उसकी युति ऐसे काव्य-संवेदनों से हुई है जो दुनिया को आगाह करती है कि यदि दुनिया में सबसे पहले बच्चे पैदा होते हैं तो सबसे पहले मारे भी वे ही जाते हैं।

पुरू मालव एक ऐसी ऊर्जावान काव्य प्रतिभा है जिसे अपने समय का भरपूर ज्ञान भी है और समकालीन विषमताओं के बीच कविता की भूमिका का भान भी। वह खुद एक संवेदित, सजग और सचेत कवि है जो उस रणनीति को बखूबी जानता है किसी ‘साजिश’ को ‘अचानक’ के अंजाम तक पहुँचा देती है। इस तरह वह एक समर्थ कवि तो है ही, एक ज़िम्मेदार सचेतक भी है। पाठकों को लगाता अपनी तरफ आमंत्रित करती इन कविताओं का स्वागत किया जाना चाहिए।

 

 

पुरू मालव की कविताएँ

1. गाँव-शहर

गाँव मेरी स्मृति में स्टाम्प की तरह चिपका है
मैं शहर में गलत पते पर आई चिट्ठी हूँ
जिसे आखिर में घूम फिर लौट जाना है गाँव में

मैं जब आखि़री बार गाँव से निकला था
एक पदचाप मुझे दूर तक सुनाई देती रही थी
और एक निगाह देर तक चुभती रही थी
मेरी पीठ पर बल्लम-सी
गाँव के काँकड़ पर आज भी वो पदचाप
बल्लम लिए बैठी होगी मेरी प्रतीक्षा में
गाँव जाने से इतना क्यों डरता हूँ मैं

सारे रास्ते शहर की ओर आते थे
गाँव की तरफ पगडंडियाँ थीं
जिन पर चलने का अभ्यास भी धीरे-धीरे जाता रहा
मैं लौटता किस तरह

हर शहर के तले कोई कब्र है
मेरा शहर खेतों की कब्र पर बसा है
और तुम्हारा जंगल की कब्र पर
कोई शहर तालाब की कब्र पर भी बना होगा
कोई नदी की कब्र पर

मैं मेले में भटके बच्चे की तरह
दसों दिशाओं में दौड़ता हूँ
शहर से बाहर जाने की कोई राह नज़र नहीं आती

सारी नदियाँ समंदर में आ आकर गिरती हैं
कोई नदी समंदर से निकलती क्यों नहीं ?

 

2. कबूतर

कबूतर आदिम डाकिये हैं
प्रेमी के विदग्ध हृदय के ताप को
पहले-पहल किसी कबूतर ने ही महसूस किया था
और शीतलता की खोेज में
मीलों का फासला तय करके प्रियतम के पास पहुँचा था

कबूतर पढ़ना नहीं जानते हैं
लेकिन लहूू से लिखे पत्रों की भाषा खूब समझते हैं
एक प्रेम संदेश का महत्व
कबूतर से बेहतर कौन समझ सकता है
प्रेम को पूर्णता तक कबूतरों ने पहुँचाया है

एक कबूतर शिवि के चरणों में लाचार पड़ा है
दूर खड़ा इंद्र मंद-मंद मुस्कुराता है
शिवि की आँखों में रहस्यमयी डोरे उभरते हैं
आखिर कबूतर कहाँ जाए

एक खण्डहर वीराने में खड़ा है
कबूतर का एक जोड़ा उसे मरने नहीं देता
वह जब भी ज़मींदोज़ होने को झुकता है
कबूतरों की गुटरगूँ उसे सीधा खड़ा कर देती है

कबूतर शहर दर शहर उड़ते फिरते हैं
दाना-पानी की तलाश में
बहेलिये उनका स्वभाव जानते हैं
वो उनकी भूख और भोलेपन से परिचित हैं
वो जानते हैं कि गाँव में फ़ाकाकशी के सिवा कुछ नहीं बचा
कबूतर दाना चुगने यहीं आएँगे
और उन्हें फँसाने को एक साधारण जाल ही बहुत है
अब कबूतरों में इतनी ताकत भी नहीं बची कि जाल समेत उड़ जाए
और यहाँ ऐसा कोई हितैषी भी नहीं जो जाल ही कुतर दे

एक अंधा कुआँ मेरे भीतर भी है
जिसमें एक कबूतर दुबका रहता है
कोई जब इस कुएँ में झाँकता है
निरीह कबूतर पंख फड़फड़ाने लगता है

यह समय दुर्दान्त है
एक कबूतर प्रेम का संदेश लिए आकाश में चढ़ता है
और कुछ ही देर में खून से लिथड़ा धरती पर आ गिरता है
जब से बिल्लियाँ खूँखार और आततायी हुई हैं
कबूतर सहमे-सहमे रहते हैं।

 

3. कोना

हर घर में एक अँधेरा कोना ज़रूर होता है
जहाँ लोगों का आना-जाना कम ही रहत है

जहाँ बच्चे कभी खेल-खेल में छुप जाते हैं
तो कभी रूठ कर
और कभी बड़े-बूढों की डाँट-डपट से बचने की ख़ातिर
यह जगह सुरक्षित लगती है

इसी कोने में होता था तुम्हारी गुड़िया का ब्याह
और इसी कोने में खुलता था मेरी जेबों का खज़ाना

छियापताई खेलते-खेलते
इसी कोने में तो छुपा था मैं
तुम्हारी बाट जोहते-जोहते मुझे नींद लग गई
और तुम खो गई दूसरे खेलों और कामों में

कहाँ-कहाँ नहीं ढूँढा गया मुझे
घर-द्वार, खेत-खलिहान, कुआँ-बावड़ी, नदी-नाला
बस इसी कोने में नहीं देखा किसी ने
फिर मैं ही नींद टूटते ही उठकर चला आया था
सबके बीच किसी अजूबे की भाँति

घर भर का झाड़ू बुहारती माँ दम भर के लिए इसी कोने में आकर रूकती है
और इसी कोने में उसकी आँखों से उबलते आँसू टप-टप गिरने लगते हैं
पिताजी भी इसी कोने में आकर रोए थे
तुम्हारी विदाई के वक़्त

यह कोना सुख-दुःख का थानक है
यहाँ स्मृतियों के भगवान विराजते हैं।

 

4. बाप-बेटियाँ

बापों के प्राण बेटियों में बसते हैं
और बेटियाँ बापों पर जान छिड़कती हैं
बेटियों का प्यार ही ठूँठ-से बापों को हरा-भरा रखता है

बाप किस तरह फफक-फफक कर रोते हैं
बेटियों की विदाई पर
चट्टानें कैसे टूटती हैं, झरने कैसे बहते हैं
किस तरह बाप बच्चे बन जाते हैं
किस तरह बच्चियाँ बड़ी हो जाती हैं

बेटियाँ जानती हैं उनके आने के बाद
बापों का अकेलापन कितना बढ़ गया है
और अब जबकि माइयाँ भी स्वर्ग सिधार चुकी हैं
बाप क्या करते होंगे
बापों का दर्द बेटियों की आँखों में उभरता है

बेटियाँ पत्थर दिल बापों की रगों में
अन्तःसलिला बन कर बहती हैं

कैसे खाटों पर पड़े बीमार-बूढे़ बाप
बेटियों के आते ही हुलस कर बैठ जाते हैं।

 

5. दीवारें

इस घर की स्मृतियाँ क्यों नहीं बनतीं
जबकि मैं यहाँ एक लम्बी उम्र गुजार चुका हूँ
मैं इसी घर में सोता हूँ
पर नींद मुझे उस घर में ले जाती है
सुबह भौंचक-सा उठता हूँ मैं यहाँ

वहाँ सपाट दीवारों के सिवा बचा क्या है
पर उस घर की स्मृतियाँ तैरती हैं मुझमें
कुएँ में फेंकी पुरानी चिट्ठियों की तरह

घर में घुसते ही सामने दीवार पर टंगी थी
दादाजी की श्वेत-श्याम तस्वीर
मैंने दादाजी को नहीं देखा
तस्वीर को देखा है
जब भी तस्वीर याद करता हूँ
दीवार की स्मृति उभर आती है

वे पुण्यात्माएँ जिनकी तस्वीरें कहीं नहीं है घर में
उनकी गर्माहट को दीवारों ने सोख लिया है
मैंने जब-जब छुआ दीवारों को
उन गर्माहटों को महसूस किया
मैं क्यों इनसे सर टिका-टिका कर रोता हूँ
क्या ये दीवारें मेरा दुःख सोख लेंगी

मेरे एकांत में
मेरे दुःख में कौन खड़ा था मेरे साथ
किस के कंाधे पर सिर रख कर रोया था मैं
किसने दिया था मेरी पीठ को सहारा
किसकी छाया थी मेरे सर के ऊपर
ठहाके गूँज कर निकल गए घर के बाहर
चीखें चिपकी रही दीवारों से

दीवारें हों मगर इतनी ही ऊँची
कि उस पार का दृश्य ओझल न हो आँखों से
कोई पुकार अनसुनी होकर लौट न जाए
स्पर्श को बढ़ा हाथ हवा में लहराता न रहे
परवान चढ़ता प्रेम डरे नहीं इनकी ऊँचाई से

कुछ दीवारें हमारे दिमागों में हैं
हर कोई अपनी दीवार साथ लिए चलता है
जब भी दो लोग मिलते हैं
बीच में दीवार रख लेते हैं

मैंने इन्हीं दीवारों का सहारा लेकर चलना सीखा है
जीवन की दुपहर इन्हीं दीवारों के साये में गुजरी है
इन्हीं दीवारों से पीठ टिकाए कट जाएगा बुढ़ापा भी।

 

6. अनपेक्षित

पेड़ की फुनगी से उतर कर एक चिड़िया
सीधी आ बैठती है मेरे सामने
और साधिकार कुछेक दाने चुगकर उड़ जाती है
मैं रोक भी नहीं पाता उसे आने और जाने से

हर दो-पाँच दिन में एक कौआ आकर
कर्कश स्वर में दुत्कार कर चला जाता है मुझे
मैं चुपचाप सर नीचा किए सुनता रहता हूँ अपराधी-सा
मैं उसे ताड़ने की हिम्मत भी नहीं जुटा पाता

दीवार को रौंदती दो छिपकलियाँ
चटाक से गिर पड़ती हैं मेरे एकांत में
मेरे उठने से पहले दौड़ कर जा छिपती हैं
पिता की तस्वीर के पीछे
तस्वीर के पिता एकटक देखते हैं मुझे

अपनी सीमाओं को फलांगता एक मेंढक
चला आता है मेरे कक्ष में
धप्प से आ बैठता है मेज पर रखी किताबों के ऊपर
और निर्भय होकर ताकता है मुझे
धरा रह जाता है मेरा सारा ज्ञान

ये जगह इन्हीं की है
ये ही रहते आए हैं यहाँ सदियों से
एक मैं चला आया अनपेक्षित-सा इन सबके बीच।

 

7. मार

पिता ने बस एक बार हाथ उठाया था मुझ पर
एक हल्की-सी चपत
जिसमें क्रोध कम क्रोध का दिखावा अधिक था

वो भी माँ के कहने पर
जो मेरी उद्यण्डताओं से तंग आ चुकी थी
लेकिन उसका ममत्व मुझे पीटने से बचा लेता था
अतः ये कार्य उसने पिता को सौंपा
मगर पिता भी कहाँ अभ्यस्त थे

शायद माँ ने उलाहना दिया हो कि तुम कुछ कहते नहीं
तुम्हीं ने इसे सिर पर चढ़ा रखा है
और इसी भ्रम को दूर करने के लिए मुझे मारा हो

मेरे पिटने के हजार कारण थे
एक तो यह कि मैं घर में सबसे छोटा था
सो कोई भी मुझे जब चाहे प्यार कर सकता था
जब चाहे पीट सकता था

माँ अक्सर मुझे पीट कर रो देती थी
मैं अपने दर्द से कम माँ के दुःख से अधिक रोता था

बिना कारण पिटता रहा हूँ मैं
घर में भाई के हाथों सबसे अधिक पिटा
और बाहर मास्टरजी के हाथों
उस बेंत की मार से आज भी काँप उठता हूँ

मगर इससे भी अधिक मुझे वक़्त ने पीटा
जिसकी मार के नीले निशान
आज भी मेरी आत्मा पर पड़े हैं।

 

8. समय के साथ

डर चला जाता है समय के साथ
समय के साथ भर जाते हैं घाव भी
क्षीण हो जाते हैं दुःख समय के साथ
समय के साथ दूरियाँ और भी बढ़ जाती हैं
समय के साथ धुंधला जाते हैं चेहरे

कुछ चलते हैं समय के पीछे
इस उम्मीद में कि ठहरेगा समय उनकी खातिर
किसी पेड़ की छाँव में
या लौट कर चला आएगा किसी भटके हुए मेमने-सा
चलते हैं कुछ समय के साथ कदम ताल मिलाते हुए
निकल जाते हैं कुछ समय के आगे
और इंतज़ार करते हैं

समय से आँख मिला कर चलते हैं कुछ
कुछ डाल देते हैं समय की आँखों में आँखें
मोड़ देते हैं कुछ समय की धारा
कुछ बह जाते हैं समय की धारा में
देख लेते हैं कुछ समय के परे भी
कुछ नहीं देख पाते अपने ही समय को

कुछ का समय वाकई बुरा होता है
वो धीरज धरते हैं कट जाएगा बुरा समय भी
अच्छे समय की तरह
पर सच तो यह है काटता रहता है समय ही उन्हें धीरे-धीरे
कुछ पाले रखते हैं भ्रम अच्छे समय का
दिखाए रखते हैं सपने कुछ अच्छे समय के
बुरे समय को ही अच्छा सिद्ध कर देते हैं कुछ

बड़ा निष्ठुर है समय
चुपचाप चले जाते हैं अच्छे-भले समय से पहले ही
बुरे बैठे रहते हैं मजमा लगा कर
लोग प्रतीक्षा करते हैं उनके जाने की

तुम्हारी स्मृति क्यों है अछूती समय के प्रभाव से।

 

9. कुछ लोग

मुश्किल वक़्त में भी
धैर्य नहीं चुका
इस विश्वास से
कि छँटेगा बादलों का गुबार
सूरज की राह से

सख़्त हालत में
हौसला कायम रहा
इस उम्मीद पर
कि चट्टानें टूटेंगी
नदी के प्रवाह से

जब झुलस रही थी धरा की चमड़ी
और नंगे हो रहे थे पेड़
पानी सिर्फ़ आँखों में बचा था
तब खुरचन-सी
मटमैली दूब बरकरार रखे थी
कुदरत की हरियाली

जब ठण्डाये पड़े थे चूल्हे
और दिल भी
बेवक़्त की बारिश में
तब बचा रखी थीं किरचें आतिश की
धूणी को ढाँपे गुदड़ी से

जब कुछ लोग फोड़ रहे थे ठीकरे
इक दूजे के माथे पर
कुछ लोग नेकियाँ कर-कर के
डाल रहे थे दरिया में।

 

10. सबसे पहले बच्चे

सबसे पहले बच्चे पैदा होते हैं दुनिया में
हम और आप तो बहुत बाद में

सबसे पहले बच्चे सुनते हैं समय की पदचाप
किसी के खटखटाने से पहले ही
लपककर खोल देते हैं किवाड़
नन्हे-नन्हे हाथों से
एड़ियाँ उचका कर

सबसे पहले बच्चे समझते हैं
पिता के माथे पर सिकुड़ती-फैलती
रेखाओं का गूढ़ार्थ
माँ की आँखों में छलछला आए पानी
और होठों पर तैरती मुस्कुराहट का रहस्य
सबसे पहले बच्चे बड़े होते हैं
हम और आप तो बहुत बाद में

सबसे पहले बच्चों की आँखों से झाँकते हैं सपने
हँसी फूटती है होठों पर
पंख उगते हैं पाँवों में
सबसे पहले बच्चे उड़ते हैं आसमान छूने

सबसे पहले रौंदे जाते हैं बच्चों के सपने
होठों की हँसी चुराई जाती है
पाँवों के पंख नोचे जाते हैं
सबसे पहले लादा जाता है बच्चों पर धरती का बोझ

सबसे पहले बच्चे खतरा बनते हैं शासन के लिए
सबसे पहले बच्चों से खौफ़ खाती है सत्ता
कंसों और हिरण्यकश्यपों के निशाने पर
सबसे पहले बच्चे ही आते हैं
सबसे पहले बच्चों का शिकार होता है
जितने कोमल होते हैं बच्चे
उतने ही खूंखार होते हैं शिकारी

सबसे पहले बच्चे मारे जाते हैं
हम और आप तो बहुत बाद में।

 

11. अचानक

सब कुछ अचानक ही नहीं होता
अचानक ही नहीं निकल जाती कोई कार
किसी को कुचलते हुए
अचानक ही नहीं मर जाते बच्चे अस्पतालों में
अचानक ही नहीं चल जाती पुलिस की गोली
अचानक ही नहीं ढेर हो जाते किसान सड़कों पर
अचानक ही नहीं मारे जाते लेखक-पत्रकार
अचानक ही नहीं भड़कता दंगा
अचानक ही नहीं होता आदमी नंगा

बहुत कुछ तय होता है पहले ही से
पूरी रणनीति के तहत
योजनाबद्ध तरीके से
साजिश को पहुँचाया जाता है
अचानक के अंजाम तक।

 

12. सुनो बादलो

सुनो
जरा ठहरो
हवाओं के इशारों पे भागते बादलो
यूँ मुँह फेर कर न गुजरो
कि अभी टँगी है आकाश में
उम्मीद की निगाहें

अभी सोए हैं
असंख्य बीज
धरती की गोद में
जो तुम्हारे दुलार के छींटों से
अचकचा कर जाग उठेंगे

अभी जीम है धूल
अलसाए पेड़ों के बदन पर
अभी नहाना है उन्हें मल मलकर
शीतल फुहारों में

कि अभी सूखा है कंठ कुएँ का
पपड़ाये हैं होठ तालाब के
अभी सोई है नदी साँस रोके

यूँ मुँह फेर कर न गुजरो
कि अभी सूखा है धरती का आँचल।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

कवि पुरू मालव, जन्मः 5 दिसम्बर 1977, बाराँ (राजस्थान) के ग्राम दीगोद खालसा में। शिक्षाः हिन्दी और उर्दू में स्नातकोत्तर, बी.एड.। सृजनः हिन्दी की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित। एक ग़ज़ल संग्रह ‘ये दरिया इश्क का गहरा बहुत है’ प्रकाशित।

पुरस्कारः हिन्दीनामा-कविता कोश द्वारा आयोजित कविता प्रतियोगिता का प्रथम पुरस्कार

सम्प्रतिः अध्यापन

सम्पर्कः कृषि उपज मंडी के पास, अकलेरा रोड, छीपाबड़ौद, जिला बारां (राजस्थान)

पिन-325221

मोबाइलः 9928426490

 

टिप्पणीकार निरंजन श्रोत्रिय ‘अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान’ से सम्मानित प्रतिष्ठित कवि,अनुवादक , निबंधकार और कहानीकार हैं. साहित्य संस्कृति की मासिक पत्रिका  ‘समावर्तन ‘ के संपादक . युवा कविता के पाँच संचयनों  ‘युवा द्वादश’ का संपादन  और शासकीय महाविद्यालय, आरौन, मध्यप्रदेश में प्राचार्य  रह चुके हैं. संप्रति : शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, गुना में वनस्पति शास्त्र के प्राध्यापक।

संपर्क: niranjanshrotriya@gmail.com

 

 

 

 

 

 

 

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