समकालीन जनमत
कविता

प्रदीप सैनी की कविताएँ अपने समय में फैलाई जा रही अविश्वसनीयता के ख़िलाफ़ प्रतिरोध दर्ज करती हैं

अनुपम त्रिपाठी


एक छोटी सी कहानी से बात शुरू करूँ। एकबार जंगल के सभी जानवर पुराने राजा यानी शेर से बहुत तंग आ गए। तो जनता ने सोचा कि क्यों न जंगल में लोकतंत्र लाया जाए। मामला गंभीर हो गया था क्योंकि जनता जाग चुकी थी। राजा को अपने खतरे का एहसास हुआ। राजा ने मंत्रियों से सलाह ली और चुनाव का एलान कर दिया। विभिन्न पार्टियाँ उठ खड़ी हुईं। सबके अपने एजेंडे थे। कोई कहता कि इस जंगल का पानी साफ कर दिया जाएगा। कोई कहता इसे अफ्रीका के जंगलों की तरह घना बना दिया जाएगा। लेकिन केला छाप पार्टी के प्रतिनिधि श्री बंदर कहते कि इन सब सुविधाओं पर ध्यान न दिया जाए। ये सब भरमाने की बातें हैं। आप सबको ये सोचना चाहिए कि हमारा धर्म कुछ और है और हमपर ग़ैरधर्म के लोग शासन करते आये हैं। हमारा इतिहास कुछ और था। ये नहीं जो हमें पढ़ाया जा रहा है। जंगल की जनता जनार्दन को बात में दम लगा। आखिर बन्दर श्री की भाषण देने की शैली भी शानदार थी। लीजिए साब! केला छाप पार्टी जीत गयी और बंदर श्री जंगल के प्रधानमंत्री बन गए।

एक दिन अचानक खरगोश दम्पती बहुत चिंतित से बन्दर श्री के पास आये और रो-रोकर बताने लगे कि हमारे बच्चे को पुराने राजा शेर ने उठा लिया है। आप हमारे उद्धारक हैं कृपया करके शेर से हमारा बच्चा ले आएं। बंदर श्री ने जैसे ही ये बात सुनीं वो कभी इस डाल पर कभी उस डाल पर उछलने लगे। खरगोश दम्पती ने पूछा मंत्री जी ये क्या कर रहे हैं आप। बंदर श्री ने जवाब दिया कि आपका बच्चा आये या न आये लेकिन मैं भाग दौड़ में कोई कसर नहीं छोड़ूँगा।

दुनिया इस समय एक भयंकर महामारी के दौर से गुज़र रही है जहां अधिकांश देशों के कर्ता धर्ता बन्दर श्री जैसे ही हैं। ऐसे में कविता का काम हो जाता है कि वो अधिक से अधिक सचाई को जनता तक पहुंचाए। प्रदीप सैनी ऐसे ही एक कवि हैं जिनकी कविता पर हम आज बात कर रहे हैं।

हम जिस दौर से बीत रहे हैं उसे एक तरह से राजनीति के इतिहास में अविश्वसनीयता का काल कह सकते हैं। ये अविश्वसनीयता कैसी है- कुछ ऐसी कि ‘हम जो देखते हैं, वो सही है’, ‘हम जो पढ़ते हैं, वो अच्छा है’ ‘हमारा इतिहास गौरवशाली रहा है’, ‘हम उत्कृष्ट हैं’, अब इस हम के घेरे से बाहर जो भी है उसे ‘खतरे’ की तरह देखा जाने लगा है। आप मेरी बातों से सहमत नहीं तो आप सिर्फ मेरे ही नहीं पूरे देश के विरोधी हैं- कुछ इस तरह की मानसिक प्रवृत्ति। आपका इतिहास झूठा और हमारा सच्चा है। हम बदलेंगे। हम बदल रहे हैं। आपको नहीं बदलना तो जाइये अपने ‘देश’। रक्त की शुद्धता। मूल निवासी। वगैरह वगैरह।
दुनिया भर के देशों की राजनीति में ये अविश्वसनीयता किसी महामारी की तरह फैल रही है जिसका इलाज होते हुए भी लोग इसे लालइलाज बनाये रखना चाहते हैं। और इस अविश्वसनीयता का चूरन मीडिया संस्थानों द्वारा बाँटा जा रहा है।  हर कोई अपनी जेब में एक कच्चा तथ्य लेकर घूम रहा है जिसे समय कुसमय अपने से दूसरे को दिखा दिया जाए कि देखिये साब! हमारा इतिहास ऐसा हुआ है, आप लोगों ने हमपर बहुत ज़ुल्म किया है और अब हमारी बारी। अब सत्ता में हम हैं। हम इसे अपनी पहचान वाला देश बनाएंगे। आप देखें, हम तीसरे विश्वयुद्ध की तैयारी में हैं।
रही बात सामाजिकता की तो वह कुल जमा इतनी है कि दूसरे के दुःख पर हम अपना कच्चा मसाला तैयार करते हैं। अपनी एक कविता में प्रदीप कहते हैं :
जब समय दर्ज कर रहा था भूख से हुई तुम्हारी मौत
हमनें अपनी पाक-कला के नमूनों को
श्रद्धांजलि के तौर पर दर्ज किया

हम भूल गए कि किसी भूखे समय में
अपनी थाली की नुमाइश से बड़ी अश्लीलता कोई नहीं है।

तो यह कुछ राजनीतिक-सामाजिक पृष्ठभूमि है जिसमें प्रदीप जैसे कवि कविता के मैदान में खेती किसानी कह रहे हैं। ज़मीन में शब्द डालते हैं और फसल में कविता बनती है।

इनकी कविताओं की तीन बातें विशेष लगीं-

(1) सामाजिक-राजनीतिक स्तर पर हो रहे हलचलों की सुगबुगाहट
(2) सहज प्रेम की अभिव्यक्तियाँ
(3) कविताओं में वाक्य साधने की कोशिशें और सूक्त वाक्यों की बनावट
अपने समय में जो घट रहा है, जैसा घट रहा है प्रदीप उसे छोड़ते नहीं है। इस संदर्भ में मुझे उनकी कविता ‘उनके तलुओं में दुनिया का मानचित्र है’ अच्छी लगी। इस कविता में मज़दूर वर्ग की जो एक खुद्दारी दिखाई गई, प्रभावित करने वाली है:
वे नहीं पूछेंगे हमसे
कौन-सी सड़क जाती है उनके गाँव
उन्हें याद है लौट जाने के सभी रास्ते
उनके तलुओं में दुनिया का मानचित्र है।

प्रदीप सैनी की जो प्रेम कविताएँ हैं वो बनावटी नहीं हैं। यह अच्छी बात है। कुछ अतिरिक्त करने या होने की चेष्टा नहीं है। परम्परागत रूपकों उपमानों का सहारा लेकर सहज और प्रभावशाली कविताएँ लिखते हैं। कोई प्रपंच पुराण नहीं।
बहुत बड़े की नहीं, छोटी छोटी बातों पर कविताएँ:
सबसे प्यारा
नवजात लड़खड़ाता हुआ
पीछे छूट गया मेमना है तुम्हारी याद
मैं उसे गोद में उठाए आगे बढ़ रहा हूँ ।
(तुम्हारी याद)

इन छोटी छोटी बातों पर कविताई करना इतना सरल भी नहीं जितना समझा जाता है। प्रदीप की कविताओं में वाक्यों को साधने में उनके द्वारा की गई कोशिशों को देखा जा सकता है।  कविता के सुघड़ वाक्य लिखते हैं। कुछ – कुछ जगह बेहद प्रभावी वाक्यों को इन्होंने रचा है। कुछ उदारहरण देखें :

(1) मैं जानना चाहता हूँ
कितने वर्षों का अपमान, पीड़ा और निर्वासन
विद्रोह को जन्म देता है
(सुनो भिक्षु)

(2) शब्द कहते हैं जितना
छिपाते हैं उससे अधिक
वे छल के सबसे धारदार हथियार हैं।
( तुम्हें चूमना)

(3) इस तरह हम बाहर के शोर में
अपने ही संगीत का
दूसरे कान द्वारा किया गया रीमिक्स सुनते हैं।
(हम सिर्फ रीमिक्स सुनते हैं)

(4) जिस प्रेम को कच्चे माल की तरह इस्तिमाल कर
कविता में बदल देता हूँ
उसे सबसे छुपाकर एक गुनाह की तरह जीता हूँ
(बाबा, ये मैं कैसा कवि हूँ)

तो यह कुछ मेरी बातें प्रदीप जी की कविताओं पर। आइये अब पढ़ते हैं इनकी कुछ कविताएँ

 

प्रदीप सैनी की कविताएँ

 

1. ख़तरा – कुछ नोट्स

ख़तरा कैसा भी हो
इतना नया कभी नहीं होता
इतिहास में कि उसका ज़िक्र न मिले
पहचान कर पाना लेकिन
मुश्किल ही होता है हर बार
ख़तरा बहरूपियों की तरह बदलता है रंग-ढंग
फिर बाज़ार की हज़ार ख़ामियों के बावजूद
ये बात तो है ही कि यहाँ
हर चीज़ कई रंग-रूपों में होती है उपलब्ध

इस वक़्त जब ज़्यादा जानकार होते हुए
कम समझदार होती जा रही है दुनिया
सबसे ज़रूरी हो गया है
ख़तरा पहचान लेने का हुनर

यूँ तो कहीं भी मौजूद हो सकता है वह
संभावनाएँ कम ही होती हैं वहाँ
उसके होने की जहाँ
लगाई जाती हैं अटकलें

उस पर नज़र रखने के लिए
वहाँ ग़ौर से देखना चाहिए
जहाँ से खड़े होकर
बार-बार दूसरी तरफ़ इशारा करता है
उसे पहचान लेने का दावा करने वाला विशेषज्ञ
उस आवाज़ में भी हो सकता है शामिल वह
उसके बारे में बड़ी एहतियात से जो
कर रही है दुनिया को आगाह

वह लगातार बदलता है डेरा
फ़िलहाल ख़बर है कि उसने अपना रुख़
सबसे पवित्र माने जाने वाले
ठिकानों की ओर कर लिया है

और सबसे बड़ा ख़तरा
नहीं ढूँढ़ना होता है इधर-उधर
वह हमेशा भीतर ही छुपा होता है

कविता के ज़िक्र बिना
नहीं हो सकती ये बेतरतीब बातें पूरी
कम ख़तरनाक नहीं होती कविता वह
लिखता है जिसे एक सुरक्षित कवि ।

 

2. उनके तलुओं में दुनिया का मानचित्र है

एक
वे हमारे सामने थे और पीछे भी
वे हमारे दाएँ थे और बाएँ भी
वे हमारे हर तरफ़ थे
बेहद मामूली कामों में लगे हुए बेहद मामूली लोग
जो अपने बेहद मामूली हाथों से दुनिया को
किसी गेंद की तरह रोज़ बनाते थे
कि हम उससे खेल सकें अपने मन मुताबिक़

लेकिन हमने उन्हें ठीक – ठीक कभी नहीं देखा
अपनी इन आँखों से
हमारी आँखों और दुनिया के बीच की जगह
कैमरे ने हथिया ली थी
हम वही देखते हैं जो कैमरे की आँख में होता है

अब उन्हें अचानक दृश्य में प्रकट हुए
हैरानी से देख रहे हैं हम
जैसे वे किसी दूसरी दुनिया से निकल कर आए हों
और उन्हें किसी तीसरी दुनिया में जाना हो।

दो

हमारी सभ्यताओं का स्थापत्य उनके पसीने से जन्मा है
हमारी रोशनियों में चमकता लाल
उनके लहू का रंग है
कोई चौराहा उन्हें दिशाभ्रमित नहीं करता
वे जानते हैं कौन-सा है शहर से बाहर जाने का रास्ता

वे नहीं पूछेंगे हमसे
कौन-सी सड़क जाती है उनके गाँव
उन्हें याद है लौट जाने के सभी रास्ते

उनके तलुओं में दुनिया का मानचित्र है ।

तीन

इन लंबे और चौड़े रास्तों पर
वे नहीं आए थे हक़ीक़त में
किसी स्वप्न का पीछा करते हुए

एक भरम खींच लाया था उन्हें

अब जो बीच रास्ते किसी चप्पल-सा टूट गया है

वे जान गए हैं
इन रास्तों से नहीं पहुँचा जा सकता है कहीं
ये सभी वापिस लौट आने के रास्ते हैं ।

चार
हमारे गोदाम अनाज से भरे थे और दिल बेशर्मी से

हमने तुम्हारी भूख को देखा और अपनी भूख को याद किया
हमने कितनी ही रेसिपीज़ मंत्रों की तरह
खा-पीकर सोई हुई अपनी भूख के कान में फूँकी

जब समय दर्ज कर रहा था भूख से हुई तुम्हारी मौत
हमनें अपनी पाक-कला के नमूनों को
श्रद्धांजलि के तौर पर दर्ज किया

हम भूल गए कि किसी भूखे समय में
अपनी थाली की नुमाइश से बड़ी अश्लीलता कोई नहीं है ।

पाँच

जिन्हें नहीं करता है जाते हुए
कहीं से कोई विदा
ऐसे अभागों के पहुँचने का
क्या कहीं करता है कोई इंतिजार?

 

3. तुम्हारी याद

एक राह है
जिसका मुक़ाम
मेरे हौसले की उम्र है

साथ चली आई
यादों का रेवड़ हाँकता है मुझे

सबसे प्यारा
नवजात लड़खड़ाता हुआ
पीछे छूट गया मेमना है तुम्हारी याद

मैं उसे गोद में उठाए आगे बढ़ रहा हूँ ।

 

4. तुम्हें चूमना

शब्द कहते हैं जितना
छिपाते हैं उससे अधिक
वे छल के सबसे धारदार हथियार हैं

भाव-भंगिमाएँ भी क़तई विश्वसनीय नहीं
वे तो छलती आई हैं तब से
पैदा भी जब हुए नहीं थे शब्द

और देह
उसका अपना है दर्शन
व्यापार अपना
गौरखधंधा इतना अजब कि
इस भूलभुलैया में क्या मालूम
कोई राह कहीं पहुँचे भी या न पहुँचे

इस सब के बीच
मूक होकर भी
कितना मुखर है तुम्हें चूमना
बता देता है बहुत कुछ
और पारदर्शी इतना
देख सकते हैं हम
एक-दूसरे के भीतर का सच

चूमने में शामिल सिर्फ़ देह ही नहीं होती।

 

5. हम सिर्फ़ रीमिक्स सुनते हैं

तुम्हे अच्छा लगता है यूँ
पास-पास बैठकर जब हम
एक ही इयरफ़ोन पर साझा करते हुए गीत
लगा लेते हैं अपने एक – एक कान में
इयरफ़ोन के अलहदा सिरे

यह आबिदा परवीन गा रही है
जो ऐसी बारिश का नाम है
जिसमें रूह को तन पर पहन भीज जाते हैं हम
कुछ ही देर में ये आवाज़ दूर होती जाती है
यह ख़ालिस हुनर की ख़ामी कह लें
वह बाँध नहीं सकता बहुत देर
और आपको भीतर की ओर धकेल देता है

अब कोई दूसरी आवाज़ है
जो सुन रहा हूँ मैं
यह इस समय के वर्जित शब्दों से लबरेज़ एक गीत है
कहना मुश्किल है कि इसे आत्मा गा रही है या देह
संगीत कुछ जाना-पहचाना-सा मालूम होता है
ग़ौर से सुनने पर ही जान पाता हूँ
हम दोनों की जुगलबंदी है यह तो

एक ही इयरफ़ोन पर एक साथ
उसे सुन रहे हैं हम एक कान से
हमारा दूसरा कान बाहर का शोर सुनता है

मैं सोचता हूँ कि तुम
इस वक़्त क्या सुन रही हो
तुम्हारा सुना हुआ मेरे सुने हुए से
जुदा ही होगा
और रचे जा रहे से अलग तो यक़ीनन ही

इस तरह हम बाहर के शोर में
अपने ही संगीत का
दूसरे कान द्वारा किया गया रीमिक्स सुनते हैं।

 

6. भाई जागो

भाई जागो
किवाड़ खोलो
देखो कि अनजान कुत्ते ने
तुम्हारी दहलीज़ से दोस्ती कर ली है
चौक पर कोई नया बुत खड़ा है
जो आने-जाने वालों पर निगाह रखे है

सामने मील के पत्थर पर
एक अनजान-से नाम के नीचे
शून्य लटक रहा है

भाई जागो
तुम्हारे शहर का नाम बदल गया है।

 

7. प्रेम कविता

प्रेम नहीं आता है कविता में
जब वह होता है
अपनी जड़ों के साथ
कहीं बहुत भीतर तक धँसा हुआ

वह आता है यहाँ
उजड़ा हुआ ख़ाली हाथ
हमेशा लौट जाने के इंतिजार में रहता है यहाँ

हर प्रेम कविता
एक विस्थापित शिविर ही तो होती है।

 

8. पार करना

तुम मेरे जीवन में नदी की तरह आईं
मुझे तुम में डूब जाना था

अभागा हूँ मैं
आगे की यात्रा के लिए प्रार्थनाएँ बुदबुदाते हुए
मैंने तुम्हें एक पुल से पार किया।

 

9. इतना पवित्र था कि प्रेम ही हो सकता था

एक

यह पिछली सदी के
उम्मीद भरे आख़िरी दिनों की बात है
सदी बदलने से तो यूँ बदलने वाला कुछ नहीं था
पर तुम अचानक मिली जब मुझे
यक़ीन हो चला था
आने वाले समय में बेहतर होगी दुनिया
विलुप्त हुई नदियाँ
दन्तकथाओं से निकल धरती पर बहेंगी
बारूद सिर्फ़ दियासलाई बनाने के काम आएगा
और ऐसे ही न जाने कितने सपनों ने
आँखों में घोंसला बना लिया था
मैं साफ़-साफ़ नहीं देख पाता था वक़्त।

दो

तुम किसी आदिम प्यास के स्वप्न में
मेरे भीतर की बावड़ी तक
अनजाने ही आ गई थीं
वहाँ इतना निथरा था जल
यक़ीनन उसमें तुम
रूप अपना ही देख मुग्ध हुईं
वरना पास तुम्हारे वहाँ आने और बैठ जाने की
वाजिब कोई वजह मौजूद नहीं थी

तुम्हारा आना इतना अप्रत्याशित था
मैं नहीं जानता था
किस नाम से पुकारूँ तुम्हें
तुम्हारी गंध को पहले-पहल मैंने
ख़ुशनुमा जंगल की देन समझा
हड़बड़ाहट में मेरे बहुत ज़्यादा बोलने के बाद भी
तुम कुछ भी सुन नहीं पाईं
जानता ही कहाँ था मैं तब स्पर्श की भाषा।

तीन

अपने लिए हल्की तरफ़दारी के साथ ही सही
आज भी याद है मुझे सब
और इस बीच दस बरस बीत गए हैं
और प्रेम किसी वायरस की तरह चिह्नित किया जा चुका है
बचाव के लिए हम सभी
ख़ुद को स्मृतिहीन बना रहे हैं
कि कहीं दर्ज न हो पाएँ
एक काँपते हुई पल के थमे हुए रंग
कोई ऐसी ध्वनि जो गूँजती रहे ताउम्र
और काया से परे का कोई स्पर्श
बाक़ी सब भी मिटाए जाने की सहूलियत के साथ
कुछ गीगाबाइट मेमोरी के हवाले रहे

सभी बदल रहे हैं लगातार
प्रेम नहीं
वह आज भी आपको नष्ट करने की क्षमता रखता है
बावजूद इसके कि हम सभी
अपनी प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में लगे हैं।

चार
इन दस बरसों में
सभी दस अंकों की एक संख्या में तब्दील हो गए हैं
लगातार चल रहा है
असंख्य संख्याओं के बीच
जमा-घटाव-गुणा-भाग
एक संख्या दूसरी से इतना बतियाती है
जैसे अभी-अभी ईजाद हुई हो भाषा
ख़ुदा का शुक्र था
जब हम मिले संवाद कम चुप्पियाँ ज़्यादा बोलती थीं।

पाँच

उस वक़्त मेरे भीतर
सिर्फ़ कविताएँ थीं
रगों में ख़ून नहीं स्याही दौड़ती थी
और कविताएँ धीरे-धीरे ही सही
हमारे बीच पुल बन गई थीं
उनसे होकर हम आ-जा सकते थे
एक दूसरे के भीतर

कविताएँ तुम भी लिखती थीं
अब नहीं लिखती होओगी
सफ़ेद पड़ चुके हल्के गुलाबी रंग वाली स्मृतियों के साथ
उन्हें भी छोड़ दिया होगा तुमने
जैसे दुर्गम पहाड़ पर चढ़ने से पहले
पर्वतारोही आधार शिविर में छोड़ देता है
अगले सफ़र के लिए ग़ैरज़रूरी हो गया
बहुत-सा सामान ।

छह

मुझसे बरस दो बरस उम्र में
छोटा होने के बावजूद
कितना समझदार थीं तुम
जान लिया था कि नहीं जिया जा सकता उसके साथ
जो हमारे बीच
इतना पवित्र था कि प्रेम ही हो सकता था।

सात

तुम्हारा जाना मेरे लिए
गहरी नींद से जगकर आँखें मलने जैसा था
मैंने दुनिया को नई नज़र से देखा

इन दस बरसों में
कठिन अभ्यास से अर्जित की है मैंने
सामने घटित होते हुए को न देख पाने की दृष्टि
सिर्फ़ उन आवाज़ों को पहचानने का हुनर
जो मेरे पक्ष में हैं
या जिन्हें मेरे पक्ष में किया जा सकता है
और भाषा का वह तिलिस्म
जिससे अपनी आत्मा के सिवा
सभी को छला जा सकता है

हो सकता है किसी रोज़
तुम मेरे सामने से गुज़रो
और मैं तुम्हें देखूँ एक अपरिचित मुस्कान के साथ।

 

10. गुड़ की डली

गूँगी नहीं हो जाती है आत्मा
न ही होश खोती है

सही ग़लत दिखता है उसे सब
बस वह बोल नहीं पाती है

प्रेम आत्मा के मुँह में घुलती गुड़ की डली है।

 

11. बाबा, ये मैं कैसा कवि हूँ ?
[कवि नागार्जुन को याद करते हुए]

यूँ तो जब भी लिखता हूँ कविता की पंक्ति कोई
दाएँ हाशिए को वह छूती नहीं कभी
पर बाएँ तरफ़ करता हूँ कहाँ से शुरू लिखना
यह भी तो तय नहीं

न फक्कड़ हूँ, न घुमक्कड़
एक जगह जमकर फैला रहा हूँ जड़ें गहरी
दूर-दूर तक बना रहा हूँ पहुँच
सोख लेना चाहता हूँ
अपने हिस्से से ज़्यादा खनिज और पानी

बाबा,
साफ़-साफ़ सुनता हूँ तुम्हारी आवाज़
कभी हकलाते नहीं हो तुम
तुम्हारी आवाज़ में शामिल जो हैं
बहुत-सी आवाज़ें गुमनाम
ख़ुद वक़्त की खोई हुई आवाज़ भी
पाती है शरण उसमें

मेरी आवाज़ में तो बाबा बस मेरा अपना ही शोर है

जिस प्रेम को कच्चे माल की तरह इस्तिमाल कर
कविता में बदल देता हूँ
उसे सबसे छुपाकर एक गुनाह की तरह जीता हूँ
कठिन समय में करता हूँ प्रेम
कमाल यह है कि कविताएँ लिखने के लिए
बचा रहता हूँ

सौ झूठ जीता हूँ
शुक्र है इतना कि कविता में सिर्फ सच लिखता हूँ

धूल भरे मौसमों में
मैली हुई आत्मा को धोने
कविता में लौटता हूँ बार-बार
हर बार गंदला करता हूँ उसका जल

बाबा, ये मैं कैसा कवि हूँ ?

 

12. मचान पर बंदर और हुसैन की सरस्वती

उन्हें नापसंद है
हमारी आस्था का ढंग
हमारी स्मृतियों का रंग

वे इतिहास को सम्पादित कर रहे हैं

उन्हें एतराज़ है
हमारे सपनों की गंध पर
पहनावे की पसंद पर

वे सभी मसलों पर फ़तवे जारी कर रहे हैं

वे तय कर रहे हैं पाठयक्रम
हमें पढ़ा रहे हैं पाठ

हमें अपनी तरह सभ्य बनाने पर उतारू हैं वे

एक इमारत की तरह
हमारे समूचे वर्तमान को ध्वस्त कर
उसके अवशेषों पर वे
भविष्य की नींव रखना चाहते हैं

अपनी पूँछ में आग लगा
ख़ाक कर देने को आतुर हैं वे
हमारी आज़ादी का लहराता परचम

जिस मचान से की जानी थी
उन पर निगरानी
इस वक़्त उस मचान के
ठीक ऊपर हैं वे

पर बंदर क्या जाने
मचान में नहीं होता
टहनियों का लचीलापन
कि मोड़ लें जिधर चाहें

वे गिरेंगे मचान से
उछल-कूद करते-करते मुँह के बल
और बहुत दिनों के बाद हँसेगी
हुसैन की सरस्वती ।

 

 

 

(कवि प्रदीप सैनी, जन्म : 28/04/1977, शिक्षा : विधि स्नातक। कई पत्र-पत्रिकाओं, पोर्टल्स और सम्पादित पुस्तकों में कविताएँ प्रकाशित।

सम्प्रति : वकालत। पता : चैम्बर नंबर 145, कोर्ट काम्प्लेक्स, पौंटा साहिब, जिला सिरमौर, हिमाचल प्रदेश।

मोबाइल : 9418467632, 7018503601

 

टिप्पणीकार अनुपम त्रिपाठी, साहित्य और संगीत में अभिरुचि। 

सम्पर्क: 8527826509
मेल: anupamtripathi556@gmail.com)

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