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बहु-परतीय जीवन दर्शन की फिल्म : कड़ाइसी विवसायी

आलोक रंजन


एम मनीकंडन ऐसे फ़िल्मकार हैं जिनकी अभिव्यक्ति का तरीका हमेशा आम ढर्रे से अलहदा रहा है । काका मुट्टाई , किरुमी और आनंदवन कट्टलाइ आदि फिल्मों के माध्यम से एक कलाकार के रूप में बने बनाए ढर्रे को तोड़कर हर बार नए और अपने विशेष तरीके से अपनी समझ को पर्दे पर उतारने का हुनर उन्होंने प्रदर्शित किया है । हाल ही में उनकी बहुप्रतीक्षित फिल्म दर्शकों के सामने आयी – कड़ाइसी विवसायी ।

तमिल भाषा में बनी यह फिल्म आख़िरी किसान के जीवन पर बनी है । फिल्म के नाम का अनुवाद भी वही है । तमिल फिल्म के इतिहास में कृषि पर यह पहली फिल्म बनी हो ऐसा नहीं है लेकिन खेती और उससे जुड़े कामों की केन्द्रीयता वाली फिल्मों में इसका स्थान विशेष रहेगा । यह फिल्म ज्ञान बघारने का काम नहीं करती , ग्राम्य जीवन की बात तो करती है लेकिन अहा ग्राम्य जीवन के दर्शन से एक लंबी छलांग लेते हुए अपने समय की यथार्थपरक प्रस्तुति करती है ।

किसी भी चीज़ में अंतिम या आख़िरी शब्द लग जाना उसे अपने आप में विशेष बना देता है । इसमें क्रमशः बीतते जाने और खत्म होने से पहले तक के तमाम भय के साथ – साथ उस चीज या भाव को बनाए रखने की ज़िम्मेदारी भी जुड़ी रहती है ।

इस फिल्म में नायक मैयाण्डी ओ हेनरी की कहानी द लास्ट लीफ के उस पत्ते की तरह हैं जिन पर बहुत कुछ को बचाए रखने का दारोमदार आ गया है । उम्र के अंतिम पड़ाव में आकर वे अकेले जिस चीज को जीवित रखने में लगे हुए हैं वह है – कृषि । फिल्म उनके ही इर्द – गिर्द घूमती है और शुरू के बीसेक मिनट तो उनकी दैनिक दिनचर्या के ही हैं । उस दौरान जो गाँव या फिल्म में आया हुआ लोक हमारे सामने आता है वह उनके चरित्र के माध्यम से ही आता है । वह उनके जीवन की लय है जिसके अपने टुकड़े हैं । इन टुकड़ों में बैलों – मुर्गियों को खिलाने से लेकर खेत में पानी देने और अपने लिए भोजन बनाने तक की एक लयबद्ध प्रक्रिया है जिसे अस्सी दे ऊपर के वृद्ध मैयाण्डी अकेले अंजाम देते हैं । यह पूरी प्रक्रिया यूं प्रतीत होती है जैसे कर्णाटिक संगीत का कोई मंझा हुआ कलाकार दिल की गहराइयों से गा रहा हो – खरामा खरामा ।

एक दिन गाँव के सबसे पुराने और विशाल वृक्ष पर बिजली गिर जाती है । गाँव वाले इसे आने वाले खराब समय की पूर्वसूचना मानकर उसे बदलने का प्रयास करते हैं ताकि कोई बड़ी आपदा न आए । ज़ाहिर है कि इसे दैवी प्रकोप माना जाता है और उससे बचने का तरीका भी किसी न किसी दैवी शक्ति को प्रसन्न करने में ही निहित होगा – जैसा रोग वैसी दवा ! गाँव के लोग ग्रामदेवता के सम्मान में आयोजन करने का निर्णय लेते हैं । इसी क्रम में गाँव के लोग मैयाण्डी से आग्रह करते हैं कि वे पूजा में लगने वाला अन्न उगाएँ क्योंकि वे ही गाँव के अंतिम कृषक बचे हैं । उस आग्रह को मानकर वे अपने काम में लग जाते हैं और कुछ दिनों के बाद अपने खेत में तीन मरे हुए मोर मिलते हैं । बूढ़े मैयाण्डी तमाम कष्ट उठाते हुए गड्ढे खोदकर उन मोरों को दफना देते हैं । इसके अगले दिन उन्हें पुलिस पकड़ कर ले जाती है । कृषि केन्द्रित इस फिल्म में अब जो घटनाएँ होती हैं वह हमारी व्यवस्था , पुलिस और न्यायपालिका की अकर्मण्यता की कहानी कहती है ।

इस फिल्म का दूसरा पक्ष रमैया के हवाले से चलता है । यह ऐसा चरित्र है जिसके हुलिये को देखकर सहज हास्य उत्पन्न हो सकता है । उसकी पत्नी की मौत हो चुकी है और उसकी याद में वह यहाँ वहाँ मंदिर मंदिर भटकता रहता है । वह कई कमीज़ें और दोनों ही हाथों में कई घड़ियाँ पहने हुए रहता है । उसकी पहचान में एक और पक्ष है उसके दो झोले जिन्हें वह हमेशा उठाए रहता है । यही दो होने का भाव उसके जीवन का सार है । उसकी पत्नी अब इस दुनिया में नहीं है लेकिन वह उसके न होने को स्वीकार नहीं पाता है । वह पत्नी के लिए भी चाय खरीदता है , खाते हुए उसकी भी एक थाली रहती है, अपने साथ – साथ उसके भी कपड़े धोकर सुखाता है । किसी के होने को इस तरह जीवित रख पाना दुर्लभ बात है । इसी दुर्लभता में उसके व्यक्तित्व का स्वीकार और अस्वीकार निहित है । हमारा सामाजीकरण, हमें किसी की मौत के बाद उसे भूल जाने के लिए प्रशिक्षित करता है । भले ही इसमें एक वक़्त लगे पर यह होना तय रहता है । ऐसे समाज के साथ रमैया का व्यक्तित्व मेल नहीं खाता । चाय की दुकान पर एक ग्रामीण उसकी पत्नी के निमित्त रखी चाय पीने लगता है । रमैया उसे बहुत पीटता है । प्रेम का यह रूप भी हो सकता है जिसे समझना सभ्य कहे जाने वाले समाज को सीखने की ज़रूरत है । मैयाण्डी इसे समझते हैं ।

रमैया उन्हीं का बेटा है और वे अपने बेटे से जब भी मिलते हैं बिना किसी राग द्वेष के मिलते हैं । अमूमन होना यह चाहिए था कि अपनी बढ़ती उम्र का हवाला देकर वे बेटे को घुमंतू होने से रोकते , उसकी समझ को साधारण ढर्रे की समझ पर लाने का प्रयास करते जहाँ सबको एक ही तरीके से जीवन जीना है । मैयाण्डी भले ही बूढ़े हो चुके हैं लेकिन वह आत्मदया के शिकार नहीं हैं । एक दर्शक के रूप में फिल्म के दूसरे हिस्से में कई बार रमैया के हृदय परिवर्तन होने और अपने नायकत्व को स्वीकार करने की ज़रूरत महसूस होती है लेकिन निर्देशक मैयाण्डी की ही तरह इस लालच में नहीं पड़ते । मैयाण्डी का व्यक्तित्व इसी स्वीकार को जीता है । आम पिता अपने पुत्र को समाज स्वीकृत रास्ते पर लाने के लिए हर संभव प्रयत्न करता । यहाँ अरुंधति राय का उपन्यास मिनिस्ट्री ऑफ अटमोस्ट हेप्पिनेस याद आता है जहाँ पिता अपने बच्चे की यौनिकता को लेकर परेशान होते हैं ।

कड़ाइसी विवसायी फिल्म का नायक अपने बच्चे को उसके व्यक्तित्व के सभी पहलुओं के साथ स्वीकार करता है । हमारा समाज यह सहजता खो चुका है । उसे विविधता की बजाय व्यक्तित्वों की समानता चाहिए । निर्देशक सबको एक समान बनाने की इस परिपाटी को इस पिता पुत्र के माध्यम से तोड़ने की कोशिश करते हैं । पीढ़ियों से चली आ रही असहज करने वाली सीख को भुलाकर स्वीकार की प्रवृत्ति बढ़ाते दृश्य एकदम से प्रभावित करते हैं ।

यह दर्शन अपने आप में क्रांतिकारी है कि पिता अपने पुत्र कोई ज़िम्मेदारी नहीं डालता न ही उससे कोई अपेक्षा होती है । वहीं पुत्र भी किसी भी प्रकार के अपराधबोध में गए बगैर अपनी तरह से जीता है और कभी घूमते घामते पिता से मिलने आ जाता है । फ़िल्मकार की यह स्पष्ट समझ पेरेंटिंग की प्रचलित परिपाटी को कई झटके देती है ।

इस फिल्म में आया हुआ जनजीवन सरल और भागदौड़ से सर्वथा अछूता है । यह न तो खेती किसानी कोई बहुत पवित्र काम मानती है न ही, उसके माध्यम कोई नायकत्व स्थापित करने का प्रयास ही करती है । कृषि हवा और पानी की तरह जीवन के लिए ज़रूरी है । हालाँकि आज के दौर में खेती से जुड़े जितने संकट हैं उसकी व्याप्ति इस फिल्म में है लेकिन फिल्म उन सबके खिलाफ कोई अतिमानवीय व्यक्तित्व को खड़ा करने का प्रयास नहीं करती है । मैयाण्डी अपने गाँव के अकेले कृषक बचे हैं शेष सभी ने अपनी ज़मीन बेच दी और अब वे कृषि नहीं करते । छोटी जोत की खेती में पैसा नहीं है यह बात बड़े ही व्यंग्यात्मक लहजे में सामने आती है । गाँव का एक व्यक्ति अपनी 15 एकड़ ज़मीन बेचकर एक हाथी खरीद लाता है । लोग उससे हाथी खरीदने का औचित्य पूछते हैं तो वह कहता है कि दिन भर हाथी को घुमा –घुमा कर लोगों को आशीर्वाद दिलाने से जितनी आमदनी होती है उतने उस ज़मीन से कभी नहीं हो सकती थी । ओर्गेनिक खेती करने वाले बड़ी पूंजी के लोगों ने ज़मीन खरीदी है जहाँ गाँव के लोग मज़दूर बन गए हैं । इससे उनका आपसी ओर्गेनिक संबंध बिगड़ा है । गाँव के लोग जो हारी – बीमारी में एक दूसरे की मदद के लिए आसानी से उपलब्ध रहते थे वे अब अपने बुजुर्ग किसान की मदद को नहीं आ सकते क्योंकि उन्होने अपना श्रम ओर्गेनिक खेती करने वालों के साथ बेच रखा है । आनुवांशिक रूप से संवर्धित बीज़ आ चुके हैं जिनमें फल तो लगेंगे शायद उत्पादन भी खूब हो लेकिन अगली फसल के लिए बीज़ नहीं मिलेंगे । हर जगह रासायनिक खाद और कीटनाशकों का बोलबाला है । ये सब हमारे समाज के कृषि संकट की ऐसी पहचानें हैं जो आवश्यक रूप से हमारे आसपास फैली हैं ।

यह फिल्म इन सबसे टकराने की बात नहीं करती बल्कि जो है उसे बचाने की प्रक्रिया को दर्शाती है । न बचाने का अहंकार न ही कोई अलौकिक नायकत्व । फसलों को धूप पानी खाद और कभी कभी कीटनाशक चाहिए तो उसके लिए बाज़ार पर निर्भर रहने के बजाय अपने आसपास देखने और परंपरा से संचित ज्ञान और तरीकों की ओर देखने का इशारा करती है ।

एक दर्शक के रूप में इस फिल्म के जीवन के प्रति दृष्टिकोण से प्रभावित हुए बिना नहीं रहा जा सकता । इसमें भोलेपन , दूसरों का स्वीकार और सबके प्रति दया का अद्भुत सहकार मिलता है । यही कारण है कि फिल्म में कोई गुंडा नहीं है । कोई भी चरित्र इतना नकारात्मक नहीं दिखता कि उसे बुरा कहा जाये ।

इस फिल्म को देखकर कहा जा सकता कि निर्देशक मनीकंडन सभी मनुष्यों में मानवता का लक्ष्य लेकर चल रहे हैं । यही वजह है कि पुलिस के जाल में फँस चुके मैयाण्डी की ज़िंदगी हलकान नहीं होती । जेल में भी वह बुजुर्ग अपने सीखे हुए को दूसरों को सिखाता है । जेल में उन्हें एक ऐसा अपराधी मिलता है जिसने किसी का खून किया था । वह बाहर निकलकर खेती करना चाहता है । मैयाण्डी उसे खेती की प्रक्रिया बताते हैं वह नोट करता हुआ चलता है । इस नोट करने में फ़िल्मकार का करारा व्यंग्य छिपा है । कृषि से लोग इतने दूर हो गए हैं कि इस सहज प्रक्रिया को भी सीखने की आवश्यकता पड़ रही है ।

फिल्म में एक दृश्य ऐसा आता है जब जेल में बंद मैयाण्डी के पशुओं की देखभाल के लिए गाँव का एक व्यक्ति आता है । घर आकर वह इधर उधर देखता है तो चकित हुए बिना नहीं रहता कि इस तरह बिना किसी सुविधा के कोई कैसे रह सकता है , उस घर में बिजली तक नहीं है । मानव विकास की परंपरा में सभी प्रकार के समाज में सहज और सामान्य जीवन को एक ज़रूरी जीवनशैली की तरह देखा गया है । इसीलिए अलग अलग स्वतंत्र रूप से विकसित सभ्यताओं में भी सहज जीवनशैली पर ज़ोर देने की समान आवश्यकता पायी जाती है । इसे नैतिक गुण की तरह देखा जाता है ।

सुकरात , बुद्ध , कन्फ़्यूशियस, महात्मा गाँधी आदि अलग देशकाल में हुए लेकिन सहज और सामान्य जीवन जीने संबंधी चिंतन में समानता इन सबमें मिलती है । औद्योगिक पूंजीवाद और उपभोक्तावादी समाज ने खरीदने की शक्ति व प्रक्रिया को बहुत प्रभावित किया । जीवन जीने के लिए आवश्यक वस्तुओं की बजाय आरामतलबी के लिए आवश्यक वस्तुओं पर ज़ोर आ गया । ऐसे में खरीदने की कोई सीमा नहीं रही । जैनेन्द्र कुमार अपने एक निबंध बाजार दर्शन में इस तरह के उपभोक्तावाद को मनुष्य के लिए खतरनाक मानते हैं । अतिशय यांत्रिक निर्भरता मनुष्य की सहज प्रवृत्तियों को कुंद करता हुआ चलता है जिसे परिणामतः एक दिन खत्म ही हो जाना है । कृषि इसी का शिकार हुई है । कृषि की प्रक्रिया से बहुत से काम जुड़े थे जो आम ग्राम्य समाज के अंग होते थे । कृषि के क्रमशः खत्म होते जाने से वे काम भी अपनी मौत मर जाने को बाध्य हैं । यह फिल्म इस प्रक्रिया को उल्टा करके दिखाता है ।

कड़ाइसी विवसायी फिल्म धर्म और आस्था के प्रश्न को बड़े ही अनोखे ढंग से रखती है । उपासना का वह रूप जिससे हम सभी परिचित हैं उसके बरक्स मैयाण्डी के गाँव में नितांत प्राचीन पूजा पद्धति मिलती है । पेड़ पर बिजली के गिर जाने से जिस अनिष्ट की आशंका से लोग भयभीत हैं उससे बचने के लिए वे अपने ग्राम देवता के पास जाते हैं । गाँव के एक बुजुर्ग जंगल के भीतर एक छोटे से स्तंभ को ही ग्राम देवता बताते हैं । उनके देवता का स्वरूप नहीं है । स्वरूप होने से जटिलताएँ पैदा होती हैं । स्वरूप के अभाव में उस गाँव के लोगों को यह पता ही नहीं है कि उनका देवता कौन है और किस तरह का दिखता है । उपासना की आदिम पद्धति कट्टरता तक कभी नहीं ले जा सकती । फिल्म में मुरूगन का संदर्भ बार बार आता है लेकिन वह फिल्म के माध्यम से किसी देवता की स्थापना के इरादे के बजाय कृषि के देवता के रूप में आता है । तमिलनाडु से लेकर दक्षिण भारत के कई इलाकों में मुरूगन को खेती किसानी का देवता माना गया है ।

इस फिल्म के माध्यम से निर्देशक ने दो खास तरह के चरित्र गढ़े जो लंबे समय तक याद रह जाने वाले हैं । एक ओर मैयाण्डी हैं जो अपनी सहजता से ऐसा असर छोडते हैं कि उनके व्यक्तित्व के असर से बाहर निकलना बेहद कठिन है वहीं, विजय सेतुपति द्वारा निभाया गया रमैया का किरदार एक अलग ही रूप में सामने आता है । वह चरित्र समाज से साफ कटा हुआ है , उसके सरोकार और तरीके समाज के लिए मिसफिट हैं लेकिन दूसरों के प्रति दया में कोई कमी नहीं रखता । एक दृश्य में एक साधू जूठन से खाना निकालकर खा रहा होता है तो रमैया उसे अपना खाना दे देता है । उसने खाने के दो पैकेट लिए थे एक मृत पत्नी के लिए और दूसरा अपने लिए । साधू खाना लेकर उसे आशीर्वाद स्वरूप जो विभूति देता है वह उसका अकेले सेवन करने लगता है । ठीक उसी समय साधू उसे याद दिलाता है कि वह अपनी पत्नी को भूल गया ! उस एक मात्र क्षण में उसने अपनी पत्नी का खयाल त्यागा था और वही उसकी अपनी जीवन यात्रा की परिणति भी लगी । रमैया अचानक से गायब हो जाता है । उसका गायब हो जाना जीवन की अनिश्चितता का प्रतीक है । जीवन में कुछ भी अचानक घट सकता है । जेल में उसके गायब होने की खबर मैयाण्डी को देने वाला व्यक्ति आश्चर्यचकित था लेकिन पिता सहज ।

निर्देशक ने प्रतिकात्मक रूप से जीवन में आकस्मिक की उपस्थिती और उसके प्रति हमारे व्यवहार के ताने बाने में इस दृश्य का निर्माण किया है । वहाँ मैयाण्डी बिना किसी भाव के हैं – वह उड़ गया ।

फिल्म अनेक स्तरों पर चलती है । भौतिक और मानसिक दोनों ही स्तर के कई कई विभाजन एक साथ चलते हैं । अदालत , पुलिस , खेत , आम लोग , प्रकृति सब के बीच यह फिल्म बड़ी प्यारी गति से चलती है । ऐसा होने में जितना योगदान फ़िल्मकार का है उतना ही उसे पर्दे पर जीने वाले कलाकारों का है । दो तीन को छोड़ ये कलाकार कोई प्रसिद्ध और प्रशिक्षित अभिनेता नहीं हैं । स्वयं मैयाण्डी का किरदार निभाने वाले नल्लाण्डी अपेक्षाकृत नए कलाकार थे । फिल्म पूरी होने के बाद उनकी मृत्यु हो गयी । बहुत कम संवादों के साथ अपनी भाव भंगिमा के माध्यम से इन स्थानीय कलाकारों ने फिल्म के दर्शन , उसकी विचारधारा और प्रक्रिया को सफलता से प्रस्तुत किया है ।

सहज और संतुष्ट जीवन , कृषि के संकट और सभी के प्रति दया व स्वीकार के दर्शन के इर्द गिर्द बनायी गयी यह फिल्म फ्रेम दर फ्रेम चाक्षुस आनंद और सरलता का संचार करती हुई चलती है । फिल्मों की भीड़ में यह अपने तरह की अकेली फिल्म लगती है जो अपनी बात बिना किसी शोर शराबे के कहती चलती है ।

 

तस्वीरें: साभार गूगल

(समीक्षक आलोक रंजन, चर्चित यात्रा लेखक हैं, केरल में अध्यापन,  यात्रा की किताब ‘सियाहत’ के लिए भरतीय ज्ञानपीठ का 2017 का नवलेखन पुरस्कार ।)

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