ज्योत्स्ना मिश्र
दिये कहाँ जलाएं आखिर ?रोशनी से जगमगाते घरों में या अंधेरे से भरे हुए दिलों में
निकिता नैथानी गढ़वाल से एक युवा जागरूक और बेचैन आवाज़ हैं
निकिता की कविता आज के युवा की कविता है उसके प्रश्न हैं और उन प्रश्नों के उत्तर हर हाल में पाने की छटपटाहट है
एक कविता में गंगा का आवाहन किया गया है
‘अब तो होकर विकराल तू हुंकार दे
अब सहमना छोड़ गंगा
कुछ बोल दे
ये कविता अंत होती है
इस ललकार से :
रोकी हुई धारों की बाधा खोल दे
क्यों सहम बैठी है गंगा ,कुछ बोल दे
ये भागीरथी प्रयत्न है ,रुकी हुई धाराओं के बंधन खोलने के ,जो आश्वस्त करते हैं कि इस देश का युवा सही दिशा में सोच रहा है
निकिता की आँखे यथार्थ और स्वप्न के लिए एक बराबर खुली है ,नॉस्टेल्जिया भी है ,कसक है यादें भी है जिनसे उनकी कविता ‘मेरे गांव की सड़क ‘बनी है ।विकास के नाम पर बदलाव अवश्यम्भावी जरूर है पर इसकी कीमत अक्सर मासूमियत खोकर चुकानी पड़ती है जो इस कविता में बड़े ही मार्मिक रूप से अभिव्यक्त हुई है ,मन कसक जाता है उस गांव के लिए जहाँ बच्चे स्कूल जाते जाते चार पांच गांवों से रिश्ता बना लेते थे
चुनिंदा देशज शब्दों से सजी यह कविता गढ़वाल के किसी सूंदर गांव का सजीव चित्र प्रस्तुत करती है
वहीं पहाड़ पर ही एक दूसरी कविता ‘खोदो पहाड़ ‘ बेहद दुख क्षोभ ,आक्रोश में लिखी गयी है
निकिता कहती है ,’खोदो पहाड़
बांध बना कर रोक दो नदियाँ
और बहा दो खून की धारा ‘
एक पहाड़ी के अपने पहाड़ की दुर्दशा पर रोष की यह कविता बहुत सशक्त है ।
रोष की ही एक अन्य कविता है
“मैं लिखना चाहती हूं
अपनी कलम से एक ऐसी कविता
जिसमें जिक्र हो रंगों का, प्रेम का,
सुंदरता का, आदर्शों का, उच्च कोटि
की सामाजिक सभ्यता का,मानवीय संस्कृति का……….
लेकिन जब लिखना शुरू करती हूं
तो शब्द खुद ब खुद चले जाते हैं
उन बेरंग सपनों की तरफ़ जिन्हें
संभाले हुए बेबसी से फिरती हैं
हजारों आंखे हर तरफ
उन माननीयों की तरफ़
जो अपनी घृणित सोच के ऊपर
ओढ़े हुए हैं हर रंग के सुंदर सुंदर लबादे
ताकि दिखा सकें स्वयं को श्रेष्ठ”
ये गुस्सा बहुत जरूरी है आज की कविता के लिए क्योकि कविता केवल कलाकारी नहीं कविता तो युग की आवाज़ है खास कर किसी युवा की कविता
निकिता की भावनाएं बहुत मुलायम भी हैं जब वो प्रेम की बात करती है या फिर उस चिड़िया की जो उसकी खिड़की में अनायास आ बैठी है
“मेरी खिड़की पर बैठी चिड़िया
गीत मधुर गाती है
हैं उम्मीदें अब भी जग में
मुझको बतलाती है”
निकिता मानती है उम्मीद जिंदा है उम्मीद जिंदा रहनी चाहिए पर वो कठोर है हर उस दुष्चक्र के लिए जो इन उम्मीदों को रोकता है
कठोर है निकिता के प्रश्न
जब वो पूछती है
एक डोम कौन होता है?
वह जिस पर जन्म लेते ही
लगा दिया जाता है
जाति का लेबल
अछूत होने का ठप्पा
जिसे कर दिया जाता है सीमित
गांव के आखरी छोर पर
जिसके छूने मात्र से
अपवित्र घोषित कर दी जाती है
माटी,मानुष,पत्थरों और भोजन भी
जिसका सम्मान कोई मायने नहीं रखता
या
एक औरत कौन होती है?
जो जन्म लेते ही बन जाती है
परिवार की झूठी इज्ज़त
उठा लेती है नैतिकता का बोझ
अपने कंधों पर
ढल जाती है पारिवारिक और
सामाजिक दायित्व निभाने के ढांचे में !
और स्वयं ही जैसे उत्तर देती है ये कविता कि हर कठोरता का हल प्रेम है
डोम और स्त्री का प्रेम ,दो दलित दबे कुचले वर्गों का प्रेम ,जो उपजाता है उम्मीद
जब एक डोम और एक स्त्री
होते हैं प्रेम में
तब वे गहराई से समझते हैं
एक दूसरे की
भावनाओं की गहराई
सम्मान की कीमत और
सबसे बढ़कर प्रेम को
प्रेम जिसके बल पर
वो लड़ जाते हैं
समाज के ठेकेदारों से
जातियों के और मजहबों के रखवालों से
बिना जान की परवाह किए
तब वे करते हैं शुरुआत
एक नई दुनिया की
जो परे होती है घृणा,
अपमान और बेड़ियों से
निकिता की कविताएं एक युवा की कविताएं हैं जहाँ एक ओर प्रेम उम्मीद और गढ़वाल के फूलों की खुशबू है वहीं दूसरी तरफ पूरी जिम्मेदारी से देश दुनिया की खबर ली गयी है
कोई प्रयास नहीं है वर्तमान की सड़ी गली व्यवस्था की बदबू ढांपने का
मैं एकलव्य हूँ ,ये एक कविता जिम्मेदार और जोरदार तरह से उघाड़ देती है इतिहास के उन काले धब्बो को जिन्हें वक़्त कभी धो नहीं पाया ,जो अभी भी पड़े है समाज और समझ पर
निकिता की भाषा भी बहुत जागरूक है वो अभिव्यक्ति के लिए जब जरूरी समझती है ,अंग्रेजी के शब्दों के इस्तेमाल से हिचकिचाती नहीं
क्योकि उसकी कविताओं की मूल वस्तु बहुत स्पष्ट बहुत तत्पर है ,इसलिए ही वो भाव को जिस भी शब्द या भाषा मे पूर्ण पाती है ,उसी में लिखती है
निकिता अपने ही शब्दों में कुछ बहुत सुंदर लिखना चाहती है पर समकालीन सच्ची बदसूरती को अनदेखा नहीं कर सकती
मुझे निकिता की कविताएं बहुत अच्छी लगीं ,उन्हें मेरी शुभकामनाएं!
निकिता नैथानी की कविताएँ-
1. मैं एकलव्य हूँ
मैं एकलव्य हूँ
अभिशापित बनाया गया हूँ
इस व्यवस्था के द्वारा
हमेशा से दबाया गया है मुझे
कुचला गया है मेरे विचारों को
मेरे सामर्थ्य व सपनों को तोड़ कर
खड़े किए जाते रहें हैं
कई अर्जुनो के महल
समय व इतिहास ने इतना
लंबा सफर तय कर लिया है
लेकिन मै जहां का तहां खड़ा हूँ
बस फर्क इतना है कि
राजा के स्थान पर मंत्री
गुरुकुल के स्थान पर विश्वविद्यालय
गुरु के स्थान पर प्रशासन और
अंगूठे के स्थान पर आत्महत्या…।
2. मेरे गांव की सड़क
____________________
एक वक्त
जब नहीं थी मेरे गांव में सड़क
मुश्किलों से भरा होता था रास्ता
और धार* के उस पार थे
बाज़ार , हस्पताल और सड़क
तब मेरे गांव के लोग
जुड़े थे एक दूसरे के सहयोग से
तब आस पास के गांव जाने में
नहीं लगती थी थक
बल्कि होता था उल्लास
अपने ही दूसरे परिवार से मिलने का
एक धात* पर एक साथ
खड़ा हो जाता था पहाड़
पहाड़ की मुश्किलें बांटने के लिए
तब बच्चे जाते थे दूर स्कूल
बनाते हुए चार पांच गांव से रिश्ता
शरारतों से भरा सफ़र और
गुरजी का आदर…
वो दूर का स्कूल करता था उनके भीतर
प्रकृति , समाज, ज्ञान , प्रेम और
पहाड़ का समन्वय
मगर जब उस दिन
आई मेरे गाँव में सड़क
तो साथ लाई शहर की गंध
एक ऐसी गंध
जिस पर मोहित होकर
एक एक कर गांव छोड़ गए
मेरे गांव के लोग
कभी न लौटने के लिए
और जो बच गए
वो भी इसी उम्मीद में है कि
किसी दिन कोई आयेगा और
वे भी चले जाएंगे
उसी सड़क से शहर की ओर….
और इसके बाद
अब भी मौजूद है मेरा सड़क वाला गांव
कुछ शहर वालों की याद में और
कुछ खंडहरों में…..
*1- पहाड़ के दूसरी तरफ
2- एक आवाज़ पर
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3.खोदो पहाड़
खोदो पहाड़
और मिटा दो सबकी हस्ती
जंगल मानव सबकी बस्ती
खोदो पहाड़
बांध बना कर रोक दो नदियां
और बहा दो खून की धारा
तोड़ के पत्थर शिखर उजाड़ो
पर्वत रेगिस्तान बना दो
खोदो पहाड़
गांव छोड़ दो शहर बसाओ
जल जंगल के दाम बताओ
मुंह खोल कर खड़े हैं मालिक
कब निगले कब निगल पचाएं
शहर गया मजदूर मरा और
गांव रहा मजदूर मरा
खोदो पहाड़
वो नहीं तुम सच्चे मालिक
लौट के आओ और जुट जाओ
सब मिल कर के पहाड़ बचाओ
और मिटा दो उनकी हस्ती
जो थे चले मिटाने
आप और हम की जंगल बस्ती
खोदो पहाड़
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4. कुछ बोल दे
रोकी हुई धारों की बाधा खोल दे
क्यों सहम बैठी है गंगा?
कुछ बोल दे
खोई कहां तेरी छलकती चाल वो
खोई कहां तेरी उफनती धार वो
क्यों तेरा उजला सा जल धुंधला गया
क्यों तेरे भीतर का सब मरता गया
आख़िर कब तलक चुपचाप घुटती जाएगी
अब तो अपनी सांस का प्रतिशोध ले
क्यों सहम बैठी है गंगा?
कुछ बोल दे
आज तू अपनी अदालत खुद लगा
और बुला दे समय और इतिहास को
और भागीरथ पे ज़रा इल्ज़ाम रख
क्या यही दिन को दिखाने वास्ते
कर तपस्या लेके आया था यहां?
अब सोच मत बस फैसला तू बोल दे
क्यों सहम बैठी है गंगा?
कुछ बोल दे
अगर सच में इतनी उच्च है ये सभ्यता
तो तेरी हालत क्यों बेचारी हो गई?
अगर जीवन यहीं से उठ के दुनिया में गया
तो मृत्यु के रस्ते पे क्यों तू खो गई?
मत भूल अपने कुटुम्ब की तू जेष्ठ है
अपनी बहनों को लेकर साथ फिर सैलाब कर
अब तो प्रलय का रास्ता तू खोल दे
क्यों सहम बैठी है गंगा?
कुछ बोल दे
कहते हैं जो मां हर एक क्षण तुझे
वो खोदते है रेत तेरे पेट से
वो काटते है तेरे वृक्ष रूपी केश को
वो चमचमाने के लिए अपने आलीशान घर
निचोड़ते हैं देह तेरी अंत तक
अब तो अपनी भावना का बांध तोड़ दे
अब तो होकर विकराल तू हुंकार दे
अब सहमना छोड़ गंगा
कुछ बोल दे
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5.
(i) डोम
एक डोम कौन होता है?
वह जिस पर जन्म लेते ही
लगा दिया जाता है
जाति का लेबल
अछूत होने का ठप्पा
जिसे कर दिया जाता है सीमित
गांव के आखरी छोर पर
जिसके छूने मात्र से
अपवित्र घोषित कर दी जाती है
माटी,मानुष,पत्थरों और भोजन भी
जिसका सम्मान कोई मायने नहीं रखता
वह मेहनत करता है ताकि
समाज प्रगति करे और जीवन चलता रहे
और समाज प्रगति के नियम बनाता है
उसे रोकने के लिए ताकि
वह न बन पाए समाज का हिस्सा
और सदियां बीत गई
लेकिन वो आज भी कर रहा है संघर्ष
अपनी पहचान और अपने सम्मान के लिए…
2. औरत
एक औरत कौन होती है?
जो जन्म लेते ही बन जाती है
परिवार की झूठी इज्ज़त
उठा लेती है नैतिकता का बोझ
अपने कंधों पर
ढल जाती है पारिवारिक और
सामाजिक दायित्व निभाने के ढांचे में
जिसे सदैव बताया जाता है
कि कितना तुच्छ है उसका जीवन
और कितनी बड़ी है उसके जीवन को
मिटाती हुई समाज की प्रतिष्ठा
कि उसका स्वयं का कोई अस्तित्व नहीं
कि उसे रहना है सदैव
दूसरों के संरक्षण में
मान- मर्यादा के साथ और
वह आज तक तलाश रही है
अपना अस्तित्व
चिता की आग में…
(iii) डोम और स्त्री
जब एक डोम और एक स्त्री
होते हैं प्रेम में
तब वे गहराई से समझते हैं
एक दूसरे की
भावनाओं की गहराई
सम्मान की कीमत और
सबसे बढ़कर प्रेम को
प्रेम जिसके बल पर
वो लड़ जाते हैं
समाज के ठेकेदारों से
जातियों के और मजहबों के रखवालों से
बिना जान की परवाह किए
तब वे करते हैं शुरुआत
एक नई दुनिया की
जो परे होती है घृणा,
अपमान और बेड़ियों से
जहां सब बांटकर खाते हैं
रोटियों को
जहां नहीं मरा जाता किसी को
जाति, धर्म या इज्ज़त के नाम पर…
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6. चिड़िया
मेरी खिड़की पर बैठी चिड़िया
गीत मधुर गाती है
हैं उम्मीदें अब भी जग में
मुझको बतलाती है
कटु स्वप्नों से भरी निशा भी
अतः बीत जाती है
नया सवेरा लेकर किरणे
आख़िर आ जाती हैं
मेरी खिड़की पर बैठी ………..
माना हमने जीवन में इस
दुख है कठिनाई है
दो चेहरों के लोग यहां पर
ना कोई हम राही है
लेकिन यही सोच कर क्या
जीवन को त्यक्त करोगे?
या खुद से भी लड़ कर के
स्वयं का मान करोगे?
सुनो विपदाओं में पड़ कर ही
मनुज संभल पाता है
और कंटकों के मध्य ही
पुष्प महक पाता है
मेरी खिड़की पर बैठी……….
है नहीं संभव इस जग में की
तुम बिना गिरे उठ पाओ
जब निकल पड़ो घर से तब
बिना भटके मंजिल पा जाओ
मत समझो अपनी दुर्बलताओं को
अपनी हार
सुख और दुख तो अपने मन के
आते जाते मेहमान
मेरी खिड़की पर बैठी…….
प्रकृति सृष्टि का मूल
ब्रह्म का मूल है ये तुम जानो
आदर करो अब भी वरना
प्रलय को तुम स्वीकारो
पर एक बात है जो जीवन में
गांठ बांध कर रखना
प्रकृति मां को भी अपनी
मां के आंचल सा रखना
जीवन है वो उसको साधो
तुम स्वयं संभल जाओगे
एक दूजे का हाथ पकड़ कर
ही तुम तर पाओगे
मेरी खिड़की पर बैठी……
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7. लिखना चाहती हूं
मैं लिखना चाहती हूं
अपनी कलम से एक ऐसी कविता
जिसमें जिक्र हो रंगों का, प्रेम का,
सुंदरता का, आदर्शों का, उच्च कोटि
की सामाजिक सभ्यता का,मानवीय संस्कृति का……….
लेकिन जब लिखना शुरू करती हूं
तो शब्द खुद ब खुद चले जाते हैं
उन बेरंग सपनों की तरफ़ जिन्हें
संभाले हुए बेबसी से फिरती हैं
हजारों आंखे हर तरफ
उन माननीयों की तरफ़
जो अपनी घृणित सोच के ऊपर
ओढ़े हुए हैं हर रंग के सुंदर सुंदर लबादे
ताकि दिखा सकें स्वयं को श्रेष्ठ
उस प्रेम की तरफ़ जो
स्वार्थ से इतर कुछ भी नहीं
उस समाज की तरफ़ जो
जो आदर्श होने का दिखावा तो करता है
परन्तु भीतर से खोखला है
सभ्यता और संस्कृति के दिखावटी
कपड़ों के भीतर बैठा हुआ
बिलकुल नंगा समाज
और जब कहा जाता है मुझे
लिखने को इस संस्कृति पर
एक महागाथा
तब विचलित सी हो जाती हूं
यह सोच कर कि
विध्वंश मेरे लिखने से होगा या
न लिखने से………..?
_________________________
8. दिये कहां जलाएं आख़िर?
दिये कहां जलाएं आख़िर?
रोशनी से जगमगाते घरों में
या अंधेरे से भरे हुए दिलों में
पकवानों से महकती रसोई में
या भूख से भरे खाली कटोरों में
दिये कहां जलाएं आख़िर?
मखमली रजाइयों से भरे कमरों में
या ठंड से ठिठुरते फुटपाथों में
प्यार की गर्माहट से भरे रिश्तों में
या उदासी से भरे हुए सिरहानो में
दिये कहां जलाएं आख़िर?
आसमां छूती इमारतों में
या घृणा में खोती बस्तियों में
चमचमाते हुए मॉल रेस्तरां में
या मरते हुए किसान के खेतों में
दिये कहां जलाएं आख़िर?
रूढ़ियों का घर बन चुके मंदिरों और मस्जिदों में
या ज्ञान कि लौ संभाले हुए दम तोड़ते स्कूलों में
लगातार फलती हुई विलासिता में
या रोज़ कटते हुए पेड़ों के मातम में
दिये कहां जलाएं आख़िर?
शहरों की तरफ़ रुख करते लोगों में
या दिन ब दिन वीरान होते गांवों में
हर तरफ़ लगातार बढ़ते शोर में
या शांति से एक छोटे से छोर में
दिये कहां जलाएं आख़िर???
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9. मेरे दोस्त मेरे प्यार
मेरे दोस्त मेरे प्यार किसी एक दिन जब
घनघोर वर्षा के बाद बादल समेट लेंगे अपने आंसू
जब थम जाएंगी गुस्से में सब कुछ तबाह करती हवाएं और फिर से छूने लगेंगी मेरे गालों को
जब बुझने लगेगी जंगलों में धधकती आग
जब लोग नोचना छोड़ देंगे धरती की छातियों को
और बंद हो जाएगा उनसे रिसता हुआ खून
जब मासूम आंखे बेबसी से तकना छोड़ देंगी गिरे हुए रोटी के टुकड़ों को
जब मां की सदियों से उदास आंखे मुस्कुरा उठेंगी
मेरे प्रिय
उस दिन बैठूंगी मैं किसी पेड़ के नीचे
जिसके आस पास खिले होंगे मुस्कुराते हुए फूल
और लिखूंगी एक प्रेम पत्र
और उसमें करूंगी हर उस पल का ज़िक्र जब हम साथ रहे या नहीं रहे
कि तुम्हारी आंखों में देखते हुए कितनी बार भुलाया है मैंने खुद को
कि तुम्हारा स्पर्श कैसे चेतना का संचार करता था मेरे भीतर
कि तुम्हारी बाहों में सिमटना और तुम्हारे होंठों को अपने माथे पर महसूस करना कोई अलौकिक घटना थी
कि मेरे बिखरे हुए जीवन को कैसे समेट लेते थे तुम्हारे शब्द
और हर वो बात जो अनकही सी रह गई कहीं मगर
मेरे दोस्त
हो सकता है वो दिन कभी ना आए
हो सकता है न लिख पाऊं मै कोई प्रेमपत्र
या यूं कहें कि मै रहूं ही ना कहीं
पर मेरे प्रिय
तुम निराश न होना , उम्मीद मत छोड़ना
क्यों कि जब जब बरसेगा पानी और चलेंगी हवाएं
तो तुम्हें महसूस होगी मेरे शब्दों की महक………..
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10. नदी
नदी को समझने की कोशिश में कुछ पंक्तियां की किस तरह सदियों से निरंतर बहती हुई , आम और खास की लिए समान रूप से देखभाल करती हुई आज किस हालत में पहुंच गई है –
“ नदी ”
वह जो समय का इतिहास
कहती जा रही है
वह नदी है जो लगातार
बहती जा रही है
जिसके जल से पुष्पित
पल्लवित जीवन हुआ
जिसके तटों पर
सभ्यताएं गीत गाती हैं
जो अपने प्रेम की छाया में
सबको समेटे जा रही है
वह नदी है जो
लगातार बहती जा रही है।।
जिसने देखा है उठ के
ख़ाक होना सभ्यताओं का
जिसने देखा है होता खेल
सिंहासन का सियासत का
कि जिसके रेतीले आंचल को
चीरा है हथियारों ने
कि जिसके प्राण को रक्तिम किया
मासूमों कि जानों से
वह आज भी उस मंजर पर
तड़पती जा रही है
वो नदी है जो
लगातार बहती जा रही है।।
कि जिसने देखी है
मासूम सी अल्हड़ जवानी
सर पर गागरी पैरों में
छम-छम पायल बजाती
कि जिसकी हंसी की
खनक से था पनघट महकता
वह भर के आंख में आंसू
उस दिन चुपचाप आई
वह नदी की गोद में
अबतक सिसकती जा रही है
वह नदी है जो
लगातार बहती जा रही है।।
जिसने देखा है महकना
बसंती हवा का
जिसने देखी है छटा
बरसात की फुहारों की
जिसके किनारों पर बहारें
झूम उठती थी जब
उठता था में में ज्वार और
मिल जाती थी अकस्मात नजरें
वह शर्मो हया से भीगती
पलकों में ठहरी जा रही है
वह नदी है जो
लगातार बहती जा रही है।।
कि जिसने हमको
जीवन दिया दर्शन दिया
कि जिसने जगत को
दान में अमृत दिया
उसी का स्वर समस्त
शक्ति से निचोड़ डाला
उस का कंठ अपनी
हथेलियों से घोंट डाला
फिर भी वो मां है
हमको सहती जा रही है
वह नदी है जो
लगातार बहती जा रही है।।
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11. देखती हूं सोचती हूं
देखती हूं सोचती हूं
पहले किसको सूली पर चढाऊ?
इस अदालत कटघरे में
पहले किन देवों को लाऊं ?
एक ये हैं जो
जला देते हैं तुमको प्रेम कहकर
एक वो थे जो
जलाने को परीक्षा कह रहे थे
कल के हत्यारों को तुमने
मान दे भगवान माना
तो आज कैसे दानवों का
नाम उनको दे सकोगे?
एक ये हैं जो
तुम्हारी अस्मिता को चीरते हैं
एक वो थे जो छल कपट से
हरते तुम्हारा मान सदियों
कल के दरिंदों को तुमने
दे छमा सम्मान माना
तो आज कैसे नीचता का
नाम उनको दे सकोगे ?
इस तरह तो यह सभ्यता ही
कटघरे में है समाई
कौन दोषी कौन सच्चा
कैसे किसी को कह सकोगे?
देखती हूं सोचती हूं
पहले किस को सूली पर चढाऊ?
इस अदालत कटघरे में
पहले किन देवों को लाऊं ?
(निकिता नैथानी का कविता की दुनिया में यह पहला कदम है, समकालीन जनमत नई प्रतिभाओं को हमेशा से मंच देता आया है। हम उनका भी ख़ैरमकदम करते हैं। पाठकों की टिप्पणियाँ का स्वागत है।
निकिता ने 8 वीं कक्षा तक गांव (उत्तराखंड) में पढ़ाई की उसके बाद दिल्ली में दिल्ली विश्वविद्यालय से राजनीतिक विज्ञान में ग्रेजुएशन किया और वर्तमान में हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल यूनिवर्सिटी श्रीनगर से एम ए कर रही हैं। ग्रेजुएशन के दौरान छात्र राजनीति में सक्रिय भागीदारी एवं थियेटर का अनुभव भी किया। टिप्पणीकार ज्योत्स्ना मिश्रा पेशे से एम बी बी एस डॉक्टर हैं और स्त्री रोग विशेषज्ञ हैं और समकालीन कविता का उभरता हुआ नाम हैं।)
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