समकालीन जनमत
कविता

नताशा की कविताएँ स्त्रीत्व का अन्वेषण और उनका विस्तार करती हैं

विपिन चौधरी


कविता उस मानवीय संस्कृति का नाम है जिसका सीधा संबंध संवेदनाओं से है, इस लिहाज़ से वर्तमान समय में कविता जैसी विधा सबसे अधिक मायने रखती है. तमाम कलाओं की तरह कविता भी मनुष्य मात्र के भीतर एक आर्द्रता को महफ़ूज रखने की पुरज़ोर कोशिश करती है इसी के चलते हर कवि संवेदनशीलता को अपनी असली ताकत समझते हुए कोई खूबसूरत सी कविता रचता है.

हमारी संवेदनाओं और कल्पनाओं को बेहद कुशलता से परिभाषित करने वाली कविता-विधा को अपनाने वाली स्त्री रचनाकार इसके संग साथ से इतनी सहज दिखाई देती है. अच्छी कविता के पाठक इस सच्चाई को सहज ही जान लेते हैं.

युवा कवयित्री नताशा की कविताएँ संवेदनशीलता के इसी अहसास से रूबरू करवाती हैं. ये कविताएँ उन संवेदनाओं की बांह कस कर पकड़े हुए है जिन्हें भौतिकता तमाम मायाजाल फेंकने के बाद अपने साथ नहीं ले जा सकी है. नताशा की कविताओं में स्त्री भाषा के जाने पहचाने तेवर हैं जिनसे किसी भी पाठक का एक सहज रिश्ता बन जाता है.
कितनी तो स्मृतियाँ हैं
स्त्रियों के जीवन में छोड़े जाने को लेकर
कहाँ तक गिनाऊँ
लड़कपन छोड़ा
पीहर छोड़ा
छोड़ी न जाने कितनी शाम विदाई की
कोख में ( छोड़ना )

संसार भर की स्त्रियों के हिस्से में ये ही विडंबनाएँ हैं जिसके शाश्वत सत्य होने में अब तनिक भी संदेह नहीं रहा. ज्यों-ज्यों इन सच्चाईयों को स्त्री अपनी चेतना द्वारा समझ-बूझ लेती है त्यों-त्यों उनका दुख और गाढ़ा होता जाता है. मगर वे अब सुकून में हैं क्योंकि कई सत्य उनकी आँखों के सामने आ चुके हैं और अब वे पहले की तरह अँधेरे में और अनजान कतई नहीं हैं,
तुम्हारे स्पर्श और मेरी त्वचा के बीच जो बाधा है
दरअसल वही मुझे असभ्य नहीं होता देता ( पानी के स्पर्श के लिए त्वचा उतारती हूँ)
या फिर निम्नलिखित पंक्ति,
मेरे एकांत पर तुम्हारे छेनी हथौड़े की सहजता
सलामत रहे (वही)
या यह
कैसे खट्टे हो गए होंगे वे अंगूर
जो तुम्हारे हिस्से से बाहर रहा ( वही)

स्त्री के गृहस्थ जीवन में कितने ही ऐसे बिम्ब कविता का हिस्सा बन जाते हैं जो बरसों स्त्री की आत्मा में घर किये रहते हैं. समय के साथ वह अपनी चेतना की रोशनी में पितृसत्ता के तमाम दुश्चक्रों को देख लेती है और उनसे दूरी बना लेने के बाद ही लिखती है,
तोड़ती हूँ तुम्हारे
निरंकुश नियम और शर्तें
जो तुमने लागू किये थे मुझ पर
और अपने इस फैसले पर
मुझे तुम्हारे मुहर की जरूरत नहीं ( जिंदा हूँ)

नताशा की कविताएँ स्त्री जीवन की मुकम्मल तस्वीर पेश करने के साथ एक सजग नागरिक की आइडेंटिटी को भी प्रतिबिंबत करती हैं जो अपने आस पास की सामाजिक आर्थिक और राजनैतिक सरोकारों पर मुस्तैदी से नज़र टिकाए हुए है. पिछले दिनों के घटनाक्रम को इस कविता में बखूबी देख सकते हैं,
ईश्वर जितना इन दिनों कमज़ोर हुआ
पहले कभी नहीं हुआ
जितना बदनाम हुआ
पहले कभी नहीं
ईश्वर की इतनी खरीद-बिक्री
पहले कभी नहीं हुई
ईश्वर न्याय से न्यायलाय पहुँचा
अभी भी
ईश्वर पर फैसला आना बाकी है ( ईश्वर -3 )

आज ईश्वर का बाज़ार गर्म है हर कोई ईश्वर का इस्तेमाल कर रहा है उसे धो बिछा रहा है. आज ईश्वर इतना सहज सुलभ है कि सब कोई उसे खरीद रहे है. इस खरीद फरोख्त ने मनुष्य के जीवन उसकी सोच को और पीछे धकेल दिया है.

आधुनिक डिजिटल युग के मशीनीकरण और मानवीय संवेदनाओं के बीच जो रस्साकशी है और सामाजिक अन्याय के प्रति चिंता के अलावा स्त्रीत्व का अन्वेषण और उसका विस्तार नताशा की कविताओं का अहम हिस्सा हैं ये अवयव ही उसकी कविताओं को और अधिक स्थिरता और गंभीरता प्रदान करने में सहायक सिद्ध होंगे ऐसी आशा है और उसकी कविताओं का यह रचाव ही संसार भर की तमाम स्त्रियों के उस लिखे जाने वाले इतिहास का हिस्सा बनेगा जहाँ हर मुखर और संवेदनशील अपना अलहदा और निजी इतिहास अपनी संपूर्ण गरिमा के साथ लिखा जा रहा है.

 

नताशा की कविताएँ

1. वेटिंग रूम में विक्षिप्त 

उसने यातना की रस्सी से बाँधी अपनी भूख
थाली की देह खरोंची
जैसे ठीक किया हो देश का नक़्शा
इस ठौर के पूर्व
उसने आँखो ने विदा किए अनगिनत स्वप्न
और स्मृति की मिट्टी में दफ़्न की तमाम ख़्वाहिशें

अब बारिश उसे जलाती है
धूप में टटाती हड्डियों पर नाखून गड़ाता है
बहुत से अपने लोग जो कभी आए नहीं नज़दीक
उन्हें देता रहा गालियों
करता रहा सज़ाएं मुकर्रर
पिछली बारिश में आख़िर
उसका प्रेम भी लौट गया खाली हाथ
लगता है
वह झुण्ड से भटके यात्री की पीठ था
जिसपर दगाबाज़ खंजरों के दाग़ थे
या दंगे बलवे से बच निकला कोई शक
जिसका मलिन पड़ना भी खत्म होने का बन न सका निमित्त

वह घर में खिंची दीवार की नालायक संतति था
या छिटकी हुई कोई ईट
ढह चुके खंडहरों का

मैं पूछना चाहती थी
कि तुम्हारी हंसी का लापता स्त्रोत कहाँ है
वो राज किस ताले में बंद है
जिसे केशों ने नोच तुम नाखूनों पे मसल रहे हो
है कोई आधार
जिसपर तन सके तुम्हारी रीढ़
कोई पैन
जिसे वाजिब कॉलम में भरकर
पा सको पात्रता का कोई सर्टिफिकेट
मैं पूछती उसका केयर ऑफ
मकान नंबर
या जिला जवार
कि बरबस मुझे याद आया
इस प्लेटफॉर्म पर ट्रेन दो मिनट ही रुकती है ।

 

2. द वेस्टलैंड पढ़ने के बाद

सुबह बंद किवाड़ पर नष्ट हो रही थीं किरणें
इरादतन  तय था
निर्बाध नींद के प्रेम से दिन की शुरुआत हो !
पिछली रात और उसके पूर्व की दो और रातें
वेस्टलैंड की रेत से दबकर मर गई
इस ख़बर से बेख़बर
न जाने सभ्यता किस भ्रम की सुश्रुषा में व्यस्त है
एक ऐसी उथल- पुथल से भरी सुबह
कि बेडरूम से रसोई तक तूफानी रात का महागीत चलता रहा
ख़ुद को बचाए रखने की ज़द में यह दिन
दूसरी बीमारियों का इलाज़ करता रहा
और तीसरी बीमारी से मर गया

बौखलाई दुपहर में अधमरी इच्छाएं
और अर्धरात्रि के शीघ्रपतन की खीझ से ऊब
पीटता रहा पड़ोसी घर की स्त्री  को

इस अनमनी सुबह ही आई मनहूस ख़बर
कि न्यूज़ एंकर की चीख सुन
लौट गए प्रवासी पक्षी समय के पूर्व
लौट गए  गुलाबी पैरों वाले हंस
हरे गहरे रंग की आंखों वाले जंको पक्षी
लौट गई है
यूरोपियन चितकबरी फ्लाई कैचर
मैं भी लौट गई अपनी मरुभूमि में
चैत का एक अनमना दिन यूं ही गुजर गया ।

 

3. भरोसे से बाहर 

उनकी कृपा से बचना
जो आवश्यकतानुसार बटखरे का वज़न बदले
तराजू की क्षमता परखे बिना

उस क्रोध के नमक को
अपने धैर्य का जल मत देना
जो अपने खारेपन से विषाक्त कर दे तुम्हारा स्वाद

उस आलोचना पर कुंठित होने के बजाए
सहला देना आलोचक की पीठ
जो द्वेषपीड़ित भावना से हो अवगुंठित

उस प्रशंसा को चने की झाड समझ झटक देना
जिसकी जिह्वा लिप्सा के द्रव से गीली हो
संभव है
यह सब घटित हो रहा हो तुम्हारे आस-पास
पर यह असंभव नहीं
तुम बन सकते अपवाद !

 

4. मंत्रणा

प्रेम के क्षण में बुदबुदाए गये मंत्र
काट देंगे तमाम विध्न बाधाएं
ताप के दिनों में उग आएगी छाया तुम्हारे देह की
आस – पास स्मृतियों के घने जंगल भी

लेकिन ध्यान रहे अघोरी !
बेवजह कंटक कुरेदने की ज़िद व्यर्थ है
जो हृदय की बिवाइयों में गुम है

पत्तियां धूप के कहर से नहीं डरती
डरती हैं वसंत के घात से
सागर निचोड़ चार बूँद जमा किए मैंने
उर्वरता के भग्नावशेष पर उग रही हूँ फिर से !

 

5. पानी के स्पर्श के लिए त्वचा उतारती हूँ

तुम्हारे स्पर्श और मेरी त्वचा के बीच जो बाधा है
दरअसल वही मुझे असभ्य नहीं होने देता

प्रेम प्राप्य है असभ्यताओं ,लांछनाओं में ही
यह जीवन इसी ग्लानि की भेंट चढेगा
अलभ्य चीजों के इतिहास में दर्ज़ होगा प्रेम

मेरे एकांत पर तुम्हारे छेनी हथौड़े की सजगता सलामत रहे
चोट के अनुपात में किसी खाने फिट नहीं बैठती
मेरी आत्मा को इतना घिसा है तुमने

मेरी नींद एक खरगोश है
तुम्हारी मांद की रखवाली के सुख में जागता
एक कमजोर की रखवाली पर हंसोगे तुम
जबकि नींद से हारा हुआ व्यक्ति ही सबसे  कमजोर होता है
यह मानोगे नहीं

कैसे खट्टे हो गये होंगे वे अंगूर
जो तुम्हारे हिस्से से बाहर रहा
इधर उतनी ही तीव्रता से उतरता रहा मेरे भीतर
शर्करा तुम्हारे प्रेम का
वास्तव में यह जो तुमसे छूटा है
वह कोई मुहावरा नहीं
अधूरा महाकाव्य है
जिसमें असंख्य मुहावरों के अर्थ
गहन वाक्यों के सहचर हैं

तुमने जो छोड़ा है इसका दुःख ना भी करूं तो चलेगा
लेकिन कह नहीं सकती
मिठास का अम्लीय विस्थापन तुम्हें मुक्त करे ना करे !

 

6. छोड़ना

हम छोड़ देते हैं रोज़ ज़रूरी बात
वे छोड़ देते हैं अपनी सूची में मेरा नाम शामिल करना
मैं जिरह नहीं करती इस आश्वस्ति मेें
कि छूटे हुए लोगों की भी एक सूची होती है
मेरे 39वें वसंत में भी वह अधूरी इच्छा शामिल है
कि छोड़ जाते कागज़ का कोई टुकड़ा मेज़ पर
तुम्हारे देर लौटने से पहले मैं जान जाती
कि तुम देर से लौटोगे

मुझे रोज़ घर छोड़ते – छोड़ते
तुमने छोड़ दिया यह रस्ता
मैंने भी छोड़ दिया आख़िर
तुम्हारी राह तकना

कितनी तो स्मृतियां हैं
स्त्रियों के जीवन में छोड़े जाने को लेकर
कहां तक गिनाऊं
लड़कपन छोड़ा
पीहर छोड़ा
छोड़ी न जाने कितनी शाम विदाई की कोख में

गौतम ने छोड़ा उस स्त्री को
जो बुद्धत्व का रहस्य जान सकती थी
राम ने छोड़ा जानकी को
जिसने छोड़ दिया था वैभव प्रेम के पीछे

तुम कहते हो बार-बार
कि छोड़ो ना
जाने दो
पानी में रहकर मगर से बैर कौन करे
तो याद रखना
पानी में रहकर मगर से बैर नहीं करोगे
तब भी नहीं बचोगे
जब तक पानी बचाने की ज़िद नहीं होगी तुममें
इस ज़िद को मत छोड़ना

एक कापुरुष छोड़ देता है बलात्
स्त्री की देह पर अनगिन घाव
एक प्रेमी घाव पर रख चुंबन
छोड़ देता है महीनों ना भूली जाने वाली स्मृति

पृथ्वी छोड़ रही है अक्ष
पक्षी छोड़ रहे हैं वृक्ष
नदिया छोड़ रही है रेत

शायद छोड़ दे ग्लेशियर अपने भार के ज़िद को
तोड़ दे अनुबंध ओज़ोन की सघनता
जो धरती का कवच है !

 

7. काली घाट की सीढ़ियाँ 

अनगिन घाट हैं पटना की गंगा के
एल सी टी घाट से लेकर रानी घाट तक
टिके नहीं कहीं हम इस घाट से इतर

हमारी दौड इन्हीं सीढिय़ों से शुरु हुई
खत्म भी हुई यहीं
दरस परस की तमाम प्रकियाओं की साक्षी यह सीढियां
संग साथ की आंच से तप्ती बुझती

लहरें तब तक निहारती थी आँखे
जबतक उतर न आए बूँद गालों पर
तट पार करती नौकाएं ओझल होने तक

आषाढ की बारिश में मल्लिका कालिदास के साथ
हमारी देह भींगती दरभंगा हाऊस की इन्हीं सीढिय़ों पर

दो जोड़ी पाँव
उतरे थे असंख्य बार इन्हीं सीढियों से

लौटे जितनी बार हम
अलग-अलग दिशाओं में

नदी थोड़ा और करीब
आती चली गई थी ।

 

8. ईश्वर 

1
सबके अपने-अपने ईश्वर थे
अपने तर्क अपने पक्ष थे
सभी गुनहगार ईश्वर की निगरानी में थे ।

2
उन्हीं गुनहगारों में एक मैं
अपने लिये ईश्वर तलाशती रही
जिसे अपने एकांत में पूज सकूँ
मेरी गलतियों का साक्षी वह
मुझे माफ़ करता रहे

3
ईश्वर जितना इन दिनों कमजोर हुआ
पहले कभी नहीं
जितना बदनाम हुआ
पहले कभी नहीं
ईश्वर की इतनी खरीद -बिक्री
पहले कभी नहीं हुई
ईश्वर न्याय से न्यायालय पहुँचा
अभी भी
ईश्वर पर फैसला आना बाकी है !

4
तुम्हारे मृत होने की घोषणा भी
उतनी पीड़ादायक नहीं  थी
जितनी तुम्हारे जीवित होने के प्रमाण हैं
तुम्हारी जगह हर घर में है
रहते तुम कहीं नहीं हो ।

 

9. प्रतिबद्ध नागरिक 
हम सूखे पर कुछ नहीं कहेंगे
क्योंकि हम पानी  वाली जगह में रहते हैं

आग लगने की खबर से फर्क नहीं पड़ता
बशर्ते कि वह दूसरे शहर में लगी हो

हम मैदानी इलाके वाले बर्फ की चोटियों पर संभलकर जाएँगे
बारिश के मौसम से बचकर

हम दंगों में घर बंद कर लेंगे
कर्फ्यू के नियम नहीं तोड़ेंगे

हम सचेत सलज्ज नागरिक
जलते हुए देखेंगे देश को टीवी पर
खाली कर देंगे पूरा मैदान
कि भर जाए मुर्दों से ।

हमारे पास धर्म है
जो भूख में भी बहेगा नसों में

मौत के बाद की भी रखेगा इंतज़ामात

इस तरह हम खुद को बचा लेंगे
और कहेंगे सबकुछ ठीक है।

हकले को गूँगा बना देना ही
इस वक़्त का न्याय है

अगली संततियों के लिए
एक ही सत्य बचेगा
कि धरती के नीचे कुछ नहीं
सिवाए मंदिर मस्जिद के

वह पानी की खोज में निकलेगा
और धूसर मिट्टी की गर्द में दब जाएगा

पसीने में बह निकलेगा उसकी देह का मलबा
वह दूर दूर तक रक्त से भींगे मैदानों में
प्रेम की अफवाहें उड़़ायेगा !

 

10. जिंदा हूँ
तोड़ती हूंँ तुम्हारे
निरंकुश नियम और शर्तें
जो तुमने लागू किये थे मुझ पर
और अपने इस फैसले पर
मुझे तुम्हारे मुहर की ज़रूरत नहीं
साँप अपने विष से सांप है
विष के बिना तो बस सपेरे का रोजगार है
और जितना मारा जाता है सांप का विष
उतना ही बढ़ता है सपेरे का रोजगार भी
माफ करना
तुम्हारे इस करतब में
मैं शामिल नहीं
मुझे नीचे ही गिरना होगा
तो चाहूंगी वहां गिरना
जहां की ज़मीन में खाद पानी हो
खुरपी कुदाल से
जहाँ की मिट्टी को चोट नहीं लगती
मेरा नीचे गिरना भी
तुम तय नहीं कर सकते
मुझे कृत्रिम ही होना है
तो होना चाहूंगी
किसी गुर्दे , हृदय
या आँख नाक कान  के रूप में
जहाँ बचा रहेगा ज़िंदा होने का एहसास
जहाँ से मैं देख रही हूं तुम्हें
तुम्हारे पीछे बस दीवार है
जहाँ से तुम देख रहे  मुझे
मेरे पीछे हैं
तुम्हारे निरंकुश नियम और शर्तें
तोड़ते हुए असंख्य लोग !!

 

11. कुल्हाड़ी

कुल्हाड़ियों से प्रेम है जिन्हें
उन्हें हरेपन से होती है ईर्ष्या
प्रहार में पाते अनंतिम सुख
जंगल की नसें टटोलते
जा बैठते उन्हीं  डालों पर
जिन पर होती है नज़र कुल्हाड़ी की

कोई सीख नहीं आती काम उनके
तमाम मुहावरे त्याग
अपने पैर कर देते हैं दूसरों के हवाले
लेकिन कुल्हाड़ी नहीं छोड़ते ।

इधर बदले हैं कुल्हाड़ियों ने कुछ रूप
सर्वनाम और पर्यायवाची भी
लेकिन नहीं बदली क्रियाएं काटने
काटते चले जाने की
जिन घरों में  नहीं हैं बंदूके न ही बहुमंज़िला इमारतें
टुक टुक देखते उन घरों के चूल्हे कुल्हाड़ियां
जो बंधक हैं रसूखदारों के

कुल्हाड़ी उनका प्रेम नहीं

ज़रूरत है

गिर रही कुल्हाड़ियां अनवरत
मनुष्यता पर
स्वतंत्रता पर
पृथ्वी बचाने की ज़द में लगे वृक्षों पर

गिर रहे हैं तंबू
पैनी हो रही कुल्हाड़ियों  की धार

कुल्हाड़ी प्रेमियों के झोले में
आसानी से पा जाती है जगह हाईटेक कुल्हाड़ियां
दरबारों में घुसते प्यादों के साथ
और चूक मात्र से जीभ पर कर देते वार
यह भी नहीं जानते
वह हत्या तो कर सकती है
पर काट नहीं सकती जीभ !

 

 


 

 

 

कवयित्री नताशा, जन्म-बिहार। पुस्तक – बचा रहे सब
रचनाएँ प्रकाशित- कई प्रतिष्ठित ब्लाग्स पर रचनाएँ प्रकाशित
सम्मान- हंस कविता सम्मान, भारतीय भाषा पुरस्कार, फणीश्वरनाथ रेणु पुरस्कार (पटना वि.वि.), वुमन एचीवर्स अवार्ड इत्यादि

सम्पर्क: 9955140065

संप्रति-अध्यापन
संपर्क-vatsasnehal@gmail.com

 

टिप्पणीकार विपिन चौधरी समकालीन स्त्री कविता का जाना-माना नाम हैं। वह एक कवयित्री होने के साथ-साथ कथाकार, अनुवादक और फ्रीलांस पत्रकार भी हैं.

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