गीतेश सिंह
अभी कुछ सप्ताह पहले जब हम त्रिलोचन को याद कर रहे थे, तो उनकी एक कविता लगातार ज़ेहन में चलती रही -कविताएँ रहेंगी तो/ सपने भी रहेंगे/ जीने के लिए/ सपने सभी को/ आश्वासन देते हैं/ भंवर में झकोरे खाती नाव को/ जैसे-तैसे उबार लेते हैं/कविताएं सपनों के संग ही/ जीवन के साथ हैं/कभी-कभी पांव हैं /कभी-कभी हाथ हैं ।
जब यह कविता लिखी गई होगी तब से अब तक वक्त बहुत बदल गया है । या यूं कहें कि बहुत मुश्किल हो गया है । मुश्किल इतना कि जो बाजार के काम का नहीं वह गैर जरूरी है, और जो सत्ता पर सवाल करता है उसके चुप रहने में ही भलाई है । जो कविता त्रिलोचन के लिए हाथ पाँव थी, मुकुल सरल तक आते-आते वही ‘प्राण’ बन जाती है, कि कम से कम कवि को आत्महत्या से बचाती है।
‘जब तक कविता है मैं
आत्महत्या नहीं करूंगा’
मुकुल सरल की कविता नाउम्मीदी के अंधेरे में उम्मीद की किरण है । नई राह को कुछ गलियां हों, बंद न हों सब रास्ते बल्कि कुछ खिड़कियां खुलती हों नई और बेहतर दुनिया की ओर ।
मुकुल के यहां औरतों के हक-ओ-हकूक की लड़ाई पारंपरिक शब्दावली और परिभाषाओं से नहीं,बल्कि बेहद सरल किंतु सधी हुई भाषा में नुमाया होती है। ‘न वह पंजों के बल खड़ी होती है और न घुटनों के बल झुकती है, इसीलिए उसका कद बड़ा है।’
मुकुल की कविता सवाल उठाती है । और यह सवाल उठाना आज के दौर में कितना मुश्किल है यह कोई छुपी बात नहीं है । जब सत्ता जनता के मूल सवालों को नेपथ्य में डालने को लगातार मजहबी और राष्ट्रवादी नैरेटिव चला रही हो और सत्ता प्रतिष्ठानों से लेकर बड़े बड़े मीडिया हाउस इसी नैरेटिव को आक्रामक तरीके से आगे बढ़ा रहे हों, ऐसे में जनता के सवालों को उठाना कविता की प्राथमिक जिम्मेदारी है, जिसे मुकुल सरल बखूबी निभाते हैं ।
इसीलिए पूछो जरा
जो फर्ज था पूरा किया ?
जो कर्ज था वह क्या हुआ ?
जो दावे थे सब भूल थे !
जो वादे थे क्या झूठ थे ?
मुकुल के यहां शिल्प की समृद्ध विविधता है ।आपकी नज्में और गजलें भी प्रगतिशील मूल्यों की संवाहक हैं । यह सत्ता के रचे भ्रम जाल, फिरका परस्ती और झूठ के महल पर सीधा वार करती हैं ।
मुकुल सरल की कविताएँ कोई मुरव्वत नहीं बरततीं, बल्कि सीधे सवाल और सच बयानी इनकी खासियत है जो इनकी गजलों में अपने खास तेवर के साथ अभिव्यक्त होती हैं ।
‘खंजर बदल दिया कभी सीना बदल दिया,
फिर देखिए उन लोगों ने मुद्दा बदल दिया ।’
हालांकि जिस सर्व सत्तावादी समय से हम गुजर रहे हैं, वहां महज आईना दिखाने से काम नहीं चलने वाला । जब प्रगतिशील ताकतों के एक हिस्से में भी गहरी निराशा पैठी हो और जन सरोकारों की लड़ाई लगातार मुश्किल होती जा रही हो तो संघर्ष की नई राहें, नए हथियार तलाशने ही होंगे ।
‘सौ सौ युद्ध और भी लड़ने होंगे
हाथ हथियार में ढलने होंगे
नया दौर नई साजिश है
कुछ नए तौर भी गढ़ने होंगे ।’
जन्म : नगीना, ज़िला बिजनौर, उत्तर प्रदेश
प्रकाशन : उजाले का अंधेरा (कविता संग्रह- 2011)
और बताओ ‘अच्छेलाल’ ! (व्यंग्य कविता),घर वापसी (बहस नाटक), विभिन पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित, संप्रति : समाचार संपादक, न्यूज़क्लिक न्यूज़ पोर्टल
ई-मेल : mukulsaral@gmail.com
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