समकालीन जनमत
कविता

स्त्री जीवन के यथार्थ को दर्शाती मंजुला बिष्ट की कविताएँ

सोनी पाण्डेय


 

मैं अक्सर सोचती हूँ कि पुरुषवादी समाज में हमेशा से औरतों का आंकलन ऐसा क्यों रहा कि वह कहने को विद्या की देवी है और बड़े पैमाने पर शिक्षा से वंचित , वह धन की देवी है और घर की अर्थव्यवस्था मर्दों के हाथ में रहती है, वह शक्तिस्वरूपा है और नौ दिन इसी रूप में पूजी जाती है जबकि आम औरतें हर तरफ शक्तिहीन हैं और अनेकों शारीरिक , मानसिक हिंसा का शिकार होती हैं।यही हाशिये के समाज का कटु सत्य है जिसे तमाम स्त्रीवादी लेखिकाएँ अपने अपने ढ़ंग से अपनी रचनाओं में व्यक्त कर रही हैं। इसी कड़ी में मंजुला बिष्ट लिखती हैं-

एकांत में
रोने का सबसे अहमक तरीका यह है
चीखें इतनी जोर से
कि आत्मा न्यूनतम रीत जाए
लेकिन बगलगीर दीवार भी बेख़बर रहे;
नहीं,नहीं !
मैंने किसी को कपड़ा मुँह में ठूँसकर रोने की सलाह बिल्कुल न दी है..

उपरोक्त काव्य पंक्तियों के आधार पर हम कवयित्री की काव्य दृष्टि को सहज रूप से अनुभव कर सकते हैं कि कविता का तेवर क्या है। सदियों से औरतों को आँसू छिपाने का संस्कार माँए देती आ रही हैं। पति की मार, उपेक्षा, गाली को सहकर औरतों को हर हाल में आँसू पी कर दुनिया के सामने हँसने मुस्कुराने का कुशल अभिनय करती हैं। उनके इसी सहनशीलता की पराकाष्ठा को देख वैदिक पुरुष ने कहा होगा “त्रियाचरित्रम् दैवो न जानामि”, और अपने ही कथन की अनगिन कुव्याख्या सदियों से स्त्री के विरोध में करता चला आया है किन्तु मंजुला बड़ी बेबाकी से इस परम्परा का विरोध करती हैं और लिखती हैं कि वह नहीं चाहतीं कि कोई स्त्री मुँह बन्द करके रोए। मंजुला की काव्य दृष्टि व्यापक है, वह प्रकृति से लेकर मानव जीवन के विविध पक्षों की पड़ताल अपनी कविताओं में करती हैं। वह वर्तमान समय के राजनैतिक परिवेश पर अपनी कविता में सवाल खड़ें करती हैं और लिखती हैं-

इन दिनों मेरे देश में
गली-गली पहचान-परेड चल रही है

हर पहला आदमी
दूसरे आदमी को कम देशभक्त कह रहा है
और दूसरा आदमी अपने खेमे में
पहले को अधिक देशद्रोही घोषित कर चुका है

इन दोनों से दूर नुक्कड़ पर खड़ा तीसरा,चौथा,पाँचवाँ..
जो व्यक्ति मौजूद है
वह जानता है 
अगर बोलेगा 
तो धुरविरोधी/धुर समर्थक कहा जायेगा
इसलिए उसे चुप रहना ही श्रेयस्कर लगता है ..
उसकी चुप्पी को गद्दारी, कायरता और मौकापरस्ती भी कहा जाता है।

मंजुला की कविताओं में अनुभव की गहनता है तथा साथ ही समय की पड़ताल करने की दृष्टि भी है। आपकी कविताएँ उम्मीद जगाती हैं।

 

मंजुला बिष्ट की कविताएँ 

 

  1. यथोचित बहन

साथिन ने बताये थे
कुछेक किस्से
कि स्कूल-कॉलेज के दिनों में
कैसे वह भाई की प्रेमिकाओं तक
छिटपुट-पुरचियाँ पहुँचाती रही थी

वह अब भी पहचानती है
लगभग उन सभी प्रेमिकाओं के नाम-पते
और राज़ कुछ उनके मध्य के

ये सब बताते हुए
पहले तो लम्बी शरारती मुस्कान थिरकी
फ़िर लगा
जैसे गझिन उदासी कांधों पर उतरी आई है
पूछा तो
पल्लू झाड़कर उठ खड़ी हुई

अब इतनी भी भुलक्कड़ मैं भी नहीं
कि याद न रख सकूँ
उसकी वो दीन-हीन कपकँपी
जो नैतिक शास्त्र की किताब के बीच
मिले एक खुशबूदार गुलाबी ख़त से छूटी थी

जिसे सिर्फ एक बार ही देखा..
आधा-अधूरा पढ़ भी लिया था शायद
फ़िर तिरोहित किया
ऐसा उसकी एक साथिन ने फुसफुसाया था

ऐसे अवसरों पर उसे
भाई याद आ जाता था
“तू अगर गलत नहीं तो…पूरी दुनिया से लड़ लूँगा!”

उस गर्वोक्ति को मन ही मन दुहराते हुए
उसने हर बार
प्रेम को बहुत गलत समझा
और दुनिया को प्रेम-युद्ध की मुफ़ीद जगह!

लेक़िन भाई की प्रेमिकाओं के पते बदस्तूर याद रहे।

 

  1. निषिद्ध अनुनय

एकांत में
रोने का सबसे अहमक तरीका यह है
चीखें इतनी जोर से
कि आत्मा न्यूनतम रीत जाए
लेकिन बगलगीर दीवार भी बेख़बर रहे;
नही,नहीं !
मैंने किसी को कपड़ा मुँह में ठूँसकर रोने की सलाह बिल्कुल न दी है

महफिलों में
हँसने की सबसे संकोची घटना वह है
मन्दम लय में ऐसी हँसी झरती रहे
कि आप देहातीत हो खिल उठें
लेकिन निराशा को भी गफ़लत होती रहे
उसके दुःखों पर हँसना अभी भी अभेध काम है;
नहीं,नहीं!
मैंने अट्टहास पूर्व किसी गलदश्रु की तरफ पीठ करने को नहीं कहा है

नफरतों के मध्य
प्रियस बनने का सबसे निष्कूट प्रयास यह है
प्रेम करे इतना मंदबुद्धि होकर
कि स्वयं की पहचान के प्रति भी कौतुक बने रहें
भूखा-प्यासा भेड़िया आपको हमशक़्ल न पुकारे कभी
नहीं,नहीं
मैंने आपको प्रेम में अधिक शील-नागरिक होने की विनती नहीं की है

शिक्षालयों में
बेस्ट-टीचर अवार्ड को चूमने से पहले
उठा लें एक बहिष्कृत छात्र का झुका सिर
रोक दें किसी चपल मासूम की तरफ
आपके मार्फ़त फुसफुसाए हतोत्साहन मन्त्र को;
नहीं,नहीं!
मैंने आपको व्यक्तिगत कुंठाओं तज अधिक शिक्षित होने को ताक़ीद नहीं किया है

वाचनालयों में
सर्वविदित कृति की उबाऊ प्रतीक्षा से पहले
उस दराज़ की तरफ़ अवश्य टहल आएं
जहाँ किसी पदचिह्न अंकित होने की सूचना न हो
सृजन की उन बन्द यज्ञशालाओं पर वातायनों से रोशनी न गिरी हो
नहीं,नहीं!
मैं अपठित रही अभिव्यक्तियों हेतु सदाशय बने रहने की गुंजाइश नहीं बता रही हूँ।

 

  1. सन्दर्भ की सीमा

आकाश को निहारते हुए
हमनें सूरज की नियमित प्रतिक्षाएँ की हैं
चाँद से सर्वाधिक बातें -शिकायतें
और तारों के बारे में बताया गया
कि वे पुरख़े दोस्त और कुछ अजनबी हैं
ग्रह-नक्षत्रों को तो शौकिया नजूमी ने भी अधिक समझा दिया
एलियन,उल्कापिंड,उड़नतश्तरी भय-कौतूहल भरते रहे
जबकि आकाश,
हर सिर की सुविधाजनक छतरी भर हो सकता था
जिसे व्याख्यायित करना
किसी मनुष्य और विज्ञान के हाथ में नहीं था

जब कविताओं ने
समुद्र को प्रेमिल पुरुष की उपाधि दी
जो वह हर नदी के लिए
स्त्री होने की अंतिम घोषणा बनी
जबकि वे पिता-पुत्री भी हो सकते थे!
भला..कई स्त्रियों के प्रेम में पड़ चुके
एक प्रेमी की छाती के दुःख,दुश्वारियां
पुत्री के पिता से बढ़कर क्या होते होंगे!
समुद्र की नीली गर्वित देह
प्रेम के उछाह-विछोह से नहीं
पिता द्वारा पुत्रियों को विस्तीर्ण आकाश सौंप देने का परिणाम है

आभासी-सभाओं में
अपने घर के पुरुषों को बारहा गरियाती
स्त्री की पीठ ठोकते स्वतंत्र-स्नेही पुरुषों ने
यदि अपने घर लौटकर
चुप रहती स्त्रियों को खूब प्रेम किया हो !
नहीं पूछा हो उनसे कारण
कुछ देरी से लौटने का
नहीं खंगाले हो चुपके से
उनके सोशल मीडिया के
कुछ मजाकिया /अबूझे कमेन्ट-रिप्लाई
तो वह गरियाती स्त्री अपने उद्देश्य में ख़ूब सफल है!

 

  1. अंतिम बचाव

बन्धु!
कैसे करोगे मुक़ाबला
अपने पीछे भागती वैचारिक हिंसक भीड़ का

अल्लाओगे तो वे तत्क्षण सजग हो उठेंगे
चीखोगे तो वे मासूम अनभिज्ञ बन जायेगें
सार्वजनिक मान-मनोवल की तो ख़ैर
वे नौबत ही न आने देंगे

तो फ़िर बचाव क्या है,बन्धु!
अंतिम बचाव !!

बचाव वही है
जो बचपन में माँ की मार से बचने के लिए करते थे
उस हिंसक भीड़ के सम्मुख नतशिर हो बैठ जाना!

यदि उसके सारे हथियार लज्जित न भी हों
तो भी तुम्हारे बचने की एक फ़ीसदी संभावना है!

भीड़ में से कुछेक जरूर
या तो तुम्हें छोड़ देंगे
या तुम्हें बख़्सने पर दम्भी हुँकार भरकर प्रशस्ति-पत्र पाएंगे

भीड़ का प्रहार एकमेव होता है
लेक़िन टूटते वे कड़ियों में ही हैं
इसलिए डरो नहीं…मुक़ाबला करो,बन्धु!

 

  1. नींद तुम्हारे लिये क्या है!

नींद के बगैर नरम बिछौना-सिरहाना क्या है
यह उनसे पूछो;
जिन्हें बारहा दस्तकों,चुप्पियों भरी करवटों के बाद यह अपूर्ण मिलती है
जो सुबह किसी पाखी की फड़फड़ाहट से नहीं जगते हैं
शिशु की दूधिली उबासियों से कंपित नहीं होते हैं
वे अपनी देह की बासी आह से अपने लोक में लौटते हैं
औषधियों के असर खत्म हो जाने से चिलकते हैं
अपने ही स्मृतिवन में दिग्भ्रमित पथिक बन जाने से उचकते हैं।

और
बगैर नरम बिछोने-सिरहाने के नींद क्या है ;
यह उस ईमानदार मजूरी से पूछो
जो ताउम्र आत्मा को भार विहीन रखने में खर्च होती है
उस फौजी से पूछो
जो घर लौटकर नंगी खाट पर खर्राटा भरता है
त्यौहार पर आई उस बेटी से पूछो
जिसकी सबसे ज्यादा ज़रूरत एक शांत टेक होती है

उन संततियों से पूछो
जो भरे ग्रीष्म में तुलसी-पत्र के सूखने मात्र से
पितृ-दोष की आशंका के चलते सूखे पत्ते से नहीं कांपते हैं

नींद तुम्हारे लिए क्या है…यह स्वयं से पूछो
पूछो तो ज़रा !

 

  1. आपत्ति पर खेद है!

कवि को आपत्ति है कि
जो पत्थर पर नहीं चढ़ा कभी
वह पहाड़ों पर चर्चा करता है

जिसने कभी नदी का पानी चखा तक नहीं
वह उसकी विलुप्ति की आशंका पर घबराया हुआ है

जिसने देखा नहीं जी भर के कभी आकाश को
वह क्षितिज के नये ककहरे को गढ़ना चाहता है

जिसके लिए धरती का अर्थ ‘पर्सनल प्लॉट’ रहा हो
वह सरहदों की निर्मम शहादतों पर फुफकारता है

जिसके कभी हाथ नहीं झुलसे दो पत्थरों की चिंगारी से
वह दुनिया में बढ़ती बारूदी-हवा पर रुदाली-प्रलाप करता है

कहो कवि!
क्या तुम्हें मात्र उन दो व्यक्तियों के लिए भी आपत्ति है ;
जो इन सभी के बारे में पढ़-सुन कर
एक तो अथाह शर्मिंदा है
और दूसरा
पहाड़,नदी,आकाश,धरती और वायु के प्रेम में पड़ चुका है।

मुझे तुम्हारी आपत्ति पर खेद है,कवि!

 

  1. वह चुप क्यों है!

इन दिनों मेरे देश में
गली-गली पहचान-परेड चल रही है

हर पहला आदमी
दूसरे आदमी को कम देशभक्त कह रहा है
और दूसरा आदमी अपने खेमे में
पहले को अधिक देशद्रोही घोषित कर चुका है

इन दोनों से दूर नुक्कड़ पर खड़ा तीसरा,चौथा,पाँचवाँ..
जो व्यक्ति मौजुद है
वह जानता है
अगर बोलेगा
तो धुरविरोधी/धुर समर्थक कहा जायेगा
इसलिए उसे चुप रहना ही श्रेयस्कर लगता है ..
उसकी चुप्पी को गद्दारी,कायरता और मौकापरस्ती भी कहा जाता है

लेक़िन वह चुप है!

वह चुप है
ताकि वह स्वयं को ढाढ़स बंधा सके कि
वह अभी भी इस अर्थ में
अपने देश का एक आम नागरिक है..
जिसे कुछ लोग शक्ल,नाम और पते से पहचानते हैं

और जानते हैं..समझते भी हैं कि

अनेक मौक़ों पर
देश-प्रेम का मतलब;
गरिमामयी चुप्पी भी हो सकती है
कंठ में उबलती घुटन भी हो सकती है
बाजुओं की फड़कती नसें भी हो सकती है
आँखों के नमक को गटक जाना भी हो सकता है

इसलिए वह चुप ही है..और
उसके इर्दगिर्द पहचान-परेड चालू है।

 

  1. ओ गर्विता!

“बीज में स्वाद कहाँ से भरता है
उसने गमले से झाँकते धानी पत्रों को चूमा
” मिट्टी,लोहे व स्वेदकणों से
वे स्वेदकण..जो मेहनत और आकाश के माथे से  बरसते हैं !”

“अच्छा!फिर बीजपत्रों की उम्र कैसे तय हो।”
उसने बाँहों को फरफराते हुए कहा
“कुछ मिट्टी,जल और दृष्टि भर आकाश ही तो चाहिए!”
“ऐसा क्या!”उसकी फैली बाँहों पर जिज्ञासा हुई

“इस परवाज़ के दायरे क्या हैं!”
उसने मेरी तर्जनी को क्षितिज की तरफ खींचा
“जहाँ तक मेरे अपनों का साथ है!”
“अगर उनका साथ न मिलें तो”

वह पीछे हटकर …दो कदम आगे कूद गई !!
दवाब से छूटी हुई स्प्रिंग की तरह !
भूखे चीता की माफ़िक मुस्तैद!
क्या गरिमामयी ..क्या ओजपूर्ण भावभंगिमा!!

फ़िर मनीप्लांट की वर्द्धिरत शाखाओं को जाँचा
“आपके प्लास्टिक नेट को लाँघती एक कोमल शाखा बॉलकनी से बाहर लहरा रही है!”

“ओह,नो!”मैं मुट्ठी भींच सावधान हुई

वो गर्विता हँस पड़ी
फ़िर आगे बढ़कर…
उस शाखा को नोंच गमले में खुरपी से रोप दिया
“कुछ दिनों बाद यह फ़िर हवा के साथ लहरायेगी, कब तलक काटोगे!”

“ओ गर्विता!”
तुम सही हो
इतना ही तो चाहिए होता है..
विद्रोहिणी न बनने के लिए!”
मैंने मुट्ठी खोलनी शुरू की।

 

 

(मंजुला बिष्ट कवि और कहानीकार हैं,विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं व ब्लॉग्स में प्रकाशित हैं। कुमाऊँ यूनिवर्सिटी से बीए और मुंबई यूनिवर्सिटी से बीएड।जन्मभूमि उत्तराखंड,कर्मभूमि राजस्थान है। प्रथम कविता-संग्रह शीघ्र प्रकाश्य है।
सम्पर्क:-8209933491
Mail:-bistmanjula123@gmail.com

 

टिप्पणीकार सोनी पाण्डेय। पहली कविता की किताब “मन की खुलती गिरहें”को 2015 का शीला सिद्धांतकर सम्मान, 2016 का अन्तराष्ट्रीय सेतु कविता सम्मान, 2017–का कथा समवेत पत्रिका द्वारा आयोजित ” माँ धनपती देवी कथा सम्मान”, 2018 में संकल्प साहित्य सर्जना सम्मान, आज़मगढ से विवेकानन्द साहित्य सर्जना सम्मान, पूर्वांचल .पी.जी.कालेज का “शिक्षाविद सम्मान”,रामान्द सरस्वती पुस्तकालय का ‘पावर वूमन सम्मान’ आदि से सम्मानित कवयित्री सोनी पाण्डेय का ‘मन की खुलती गिरहें’ (कविता संग्रह) 2014 में और ‘बलमा जी का स्टूडियो’ (कहानी संग्रह)2018 में प्रकाशित इसके अतिरिक्त कुछ किताबों का संपादन. पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन.

ईमेल: pandeysoni.azh@gmail.com

ब्लाग: www.gathantarblog. com)

 

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