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कन्नड़ साहित्यकार सिद्धलिंगय्या: क्रांतिकारिता से सांस्कृतिक इयत्ता तक

 

सर्वेश कुमार मौर्य


कोरोना महामारी से लगातार जूझ रहे देश में कर्नाटक से भी एक बुरी खबर आ रही है; कन्नड़ साहित्य के प्रमुख हस्ताक्षर प्रोफ़ेसर सिद्धलिंगय्या जी अब हमारे बीच नहीं रहे. वे सातवें दशक में पूरी दुनिया में आयी क्रांतिकारी विचारों वाली उग्र युवा पीढ़ी के साथ साहित्य में आए क्रांतिधर्मा जनसाहित्यकार थे. वे कन्नड़ साहित्य के मोस्ट सेलिब्रेटेड साहित्यकार थे.

उनका जन्म 1953 में मनचनाबेले, मगादी तालुक, कर्नाटक में हुआ था. शुरुआती जीवन यहीं मनचनाबेले, मगादी में बीता था; जिसकी मार्मिक छवि हमें उनकी आरंभिक रचनाओं में मिलती है. बाद का जीवन बेंगलुरु सिटी के सबसे नटोरिअस स्लम श्रीरामपुरा में बीता. यह स्लम तब दलित घेटो के रूप में जाना जाता था. चोरी-चकारी करने वाले, चाकू-छुरी चलाने वाले, कच्ची-पक्की शराब बेचने पीने वाले लोगों से यह स्लम भरा हुआ था. यहाँ रहने और जीने वालों से अच्छे व्यवहार की उम्मीद करना बेमानी था. ऐसे ही स्लम में उनके माता-पिता ने बेहद कठिन परिस्थितियों में अपने बच्चों को पाला-पोसा. एक दड़बेनुमा कमरे में छ: सात भाई बहनों के साथ सिद्धलिंगय्या का जीवन शुरू हुआ. उनके पिता पास की ही कॉटन टैक्सटाइल मिल में दिहाड़ी मजदूर थे और मां आस-पास के मिडिल क्लास घरों में डॉमेस्टिक हेल्प का काम किया करती थी. इसी परिवेश में उन्होंने अपनी आरंभिक रचनाएँ लिखी. वे स्वयं बताते हैं कि उनकी आरंभिक रचनाएं श्रीरामपुरा की ग्रेव्यार्ड में बैठकर लिखी गयीं. इस स्लम के पास यही एक जगह थी जो उन्हें साहित्यिक एकाकीपन देती थी; जो उनकी रचनात्मकता के लिए संभवत बेहद जरूरी था.

आगे चलकर वे कर्नाटक राज्य की प्रमुख दलित आवाज़ बने. कर्नाटक कर्मचारियों और छात्रों ने मिलकर 1974 में दलित संघर्ष समिति (डीएसएस), जो आगे चलकर कर्नाटका दलित संघर्ष समिति के रूप में जानी गयी, बनाई. इसका उद्देश्य दलित उत्पीड़न और सामाजिक बुराईयों के प्रतिकार के साथ भूमिहीन दलितों को ज़मीन दिलाना, दलित स्त्रियों के साथ होने वाले दुर्व्यवहार के खिलाफ बोलना और सोये हुए दलित समाज के स्वाभिमान को जागृत करना था.

सिद्धलिंगय्या, बसप्पा कृष्णप्पा और केनकेरे बैलाप्पा सिद्धय्या इसके आरंभकर्ता और संस्थापक थे. 1974 में ही कन्नड़ साहित्य में प्रसिद्ध बांडाया आंदोलन की शुरुआत हुई. यह कन्नड़ साहित्य में एक प्रगतिशील विद्रोही साहित्यिक आंदोलन था. इसकी शुरुआत डी. आर. नागराज और शूद्र श्रीनिवास द्वारा हुई थी. इसका उद्देश्य सामाजिक रूप से प्रतिबद्ध साहित्य को बढ़ावा देना और कविता को सामाजिक व आर्थिक अन्याय के खिलाफ एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करना था. इस आन्दोलन का नारा ही था- लोगों के दर्द को आवाज देने वाले प्यारे दोस्त! कविता को तलवार बनने दो! (खडगवागली काव्य! जनारा नौविगे मिडिवा प्राणमित्रा).

डी.आर. नागराज द्वारा गढ़े गए इस नारे ने साहित्य की दशा और दिशा ही बदल दी. इस साहित्यधारा के साथ बहुत सारे साहित्यकार सामने आए; इसी आन्दोलन का विस्तार करते हुए सिद्धलिंगय्या आदि ने दलित-बांडाया आंदोलन की शुरुआत की. दलित-बांडाया आंदोलन के साहित्यकारों का कहना था- अपने भोजन को पचाने के लिए एंटासिड का सेवन करने वाले, बहुमंजिला इमारतों में रहने वाले, केवल कार और हवाई जहाज में यात्रा करने वाले तृप्त और पिलपिले लोगों द्वारा निर्मित साहित्य में हमारे लिए कोई आकर्षण नहीं है. ऐसे लोगों के लिए साहित्य एक सौंदर्य विलासिता है, जिसे समय को नष्ट करने के लिए लिखा गया है. ऐश्वर्यपूर्ण जीवन व्यतीत करने वाले पांच प्रतिशत टाटा-बिड़ला के लिए विरोध का साहित्य नहीं लिखा गया है. आज हमारा जुड़ाव भूखों, असहायों, होटलों के बाहर कूड़ेदानों में से खाने वालों, रेलवे स्टेशनों, बस स्टैंडों में रहने वाले बेघरों, भोजन और कपड़ों की चोरी करने वालों और बिना इतिहास के मरने वालों से है. सौंदर्यशास्त्र हमारे लिए प्राथमिक नहीं है. जब हमारी 60 प्रतिशत से अधिक आबादी गरीबी रेखा से नीचे रहती है, खेतों और कारखानों में अपना खून बहाती है और अज्ञानता में सड़ती है; जो कोई भी कहता है कि वह सौंदर्य सुख के लिए, या साहित्यिक मूल्यों के लिए लिखता है, उसे गैरजिम्मेदार ही कहा जा सकता है. (दलित लिटरेचर इन द एक्सरसाइज ऑफ़ फ्रीडम, एन इंट्रोडक्शन टू दलित राइटिंग. एड- के सत्यनारायना एंड एस थारु, नवयाना, 2013)

यह वह दौर था जब पूरी दुनिया में एक आक्रोशित पीढ़ी का उभार देखने को मिला. इसी दौर में अफ्रीकन-अमेरिकन साहित्यधारा में ब्लैक पैंथर मूवमेंट की शुरुआत हुई जिसकी प्रेरणा से भारत में दलित पैंथर मूवमेंट की शुरुआत हुई. कर्नाटक में यही प्रभाव दलित बंडाया मूवमेंट के रूप में देखने को मिला. यह आश्चर्यजनक नहीं की उस दौर की यह आग उगलने वाली पीढ़ी आगे चलकर सभी जगहों पर इतनी नरम हो गई कि सत्ता व प्रतिक्रियावादियों के साथ चली गयी. चाहे वह नामदेव ढसाल हों या सिद्धलिंगय्या सभी के बारे में यही आरोप लगा. ऐसा क्या हुआ कि इतनी उर्जा ऊष्मा तेज ताप ज्वाला से भरी पीढ़ी समझौतावादी हो गयी? इसे हम चाहे वैचारिक विचलन कहें या मध्यवर्गीय अवसरवाद लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि यह सब एक फेनोमेना की तरह हुआ. लगभग सबकी एक ही गति हुई. इसके लिए अलग-अलग तर्क दिए जा सकते हैं. यह भी कहा जा सकता है कि शुरुआत के दिनों में जो आक्रोश था वह इसलिए ठंडा पड़ गया कि दलित लेखकों का एक्सपोजर बढ़ा उनकी रीडरशिप डाइवर्स हुई इसलिए उन्हें अपनी रचनाओं में एक बैलेंसड एप्रोच अपनाना पड़ा. यह भी कि ये दलित साहित्यकार जिस पृष्ठभूमि से आए थे उसका असर शुरुआती दिनों में रहा आगे चलकर जब वे भी मिडिल क्लास का हिस्सा बन गये तो संभवतः मुख्यधारा के साहित्यकारों वाली बीमारी के शिकार हो गये.

यही बात सिद्धलिंगय्या की राइटिंग में भी दिखाई देती है. शुरुआती दिनों में होल मदीगारा हदु 1975 नाम से अपने पहले कविता संग्रह के साथ ही वे कन्नड़ साहित्य की दुनिया में दलितों की क्रांतिकारी आवाज के रूप में सामने आये. उनकी कुछ कविताएँ और गीत इकराला, ओडिरला, निन्ने दिन नन्ना जाना, ‘यारिगे बंटू येलिगे बंथु नलवत्तेलारा स्वतंत्र’ आदि क्लासिक हो गए. लेकिन बाद की रचनाओं होलेमादिगारा हादु (होलीया और मदिगा के गीत,1975), साविरारु नादिगालु (हजारों नदियाँ,1979), कप्पू कादिना, हादु (द सॉन्ग ऑफ द ब्लैक फॉरेस्ट,1982), आयदा कविथेगलु (चयनित कविताएँ, 1997), मेरावनिगे (जुलूस,2000), नन्ना जनगलु मट्टू इतारा कवितागलु (मेरे लोग और अन्य कविताएँ,2005), कुदिवा नीलिया कदलु(2017), ऊरु सागरवगी(2018) में उनका स्वर बदल गया. यही उनकी गद्य रचनाओं के साथ भी हुआ हैं. उनके अब तक तीन नाटक उपलब्ध हैं-पंचम(1980), एकलव्य(1983) और नेलसामा तथा अवतारगलु(1981), हक्किनोटा(1991) ग्रामदेवतेगलु, जनसंस्कृति और आ मुख ए मुख: आदि कुछ आलोचना और निबंध पुस्तकें इसका प्रमाण हैं.

उनका आरंभिक क्रांतिकारी गीत ‘यारिगे बंटू येलिगे बंथु नलवत्तेलारा स्वतंत्र’ बेहद प्रसिद्धि हुआ. यह गीत सवाल करता है कि 1947 में मिली भारत की स्वतंत्रता के वास्तविक लाभार्थी कौन हैं?- गीत की कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं- यह टाटा और बिड़ला की जेबों में आयी/ यह उनके मुँह में आयी/ जो लोगों को खा जाती है/ यह करोड़पतियों के कमरों में आयी/ ’47’ की आज़ादी, ’47’ की आज़ादी/ गरीबों के घरों में नहीं आयी/ यह प्रकाश की किरण भी नहीं लायी/ इससे दुख का सागर कम नहीं हुआ/ इसने समानता के फूल नहीं खिलाए. हाल के दिनों में एक बातचीत में सिद्धलिंगय्या ने अपने इस प्रसिद्ध गीत के बारे में कहा था- चालीस साल पहले की तुलना में आज इसकी पंक्तियाँ ज्यादा प्रासंगिक हैं, आर्थिक असमानताएँ बढ़ी हैं, गरीब दयनीय रूप में रहने को बाध्य हैं, किसान आत्महत्या कर रहे हैं, उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण लोगों के दुश्मन हैं. लेकिन इससे सबसे ज्यादा नुकसान दलितों का हो रहा है. निजीकरण के चलते उनकी दशा बदतर है, हमें अभी भी यह सवाल पूछने की जरूरत है-1947 की आजादी किसके लिए और कहां आयी? इसी तरह की उनकी एक अन्य कविता- द सॉन्ग; इसी तरह के आक्रोश को व्यक्त करती है- मारो सालों को, उजाड़ दो इनको/ इन सालों की खाल खींच लो जिंदा/ यही वे कहते हैं हमारे बारे में/ जो कहते रहते हैं एक ईश्वर है/ हालाँकि उस एक के लिए बनाए हैं इन्होने मंदिर अनेक/ वे कहते हैं हम सब उस की संताने हैं/ लेकिन वे जब भी हमें देखते हैं/ कूदते हैं, बिदकते हैं जैसे देख लिया हो उन्होंने साँप/ धिक्कार है! वे प्रवेश नहीं देते होटलों में/ घरों में, नहीं देते पानी/ जबकि वह कुत्ता जो हमारा गू खाता है/ उनके कमरों में सहर्ष जाता है. (अंग्रेजी अनुवाद सुमितिन्द्रा नाडिग और हिंदी अनुवाद सर्वेश कुमार मौर्य द्वारा).

सिद्धलिंगय्या की आत्मकथा- ऊरु केरी का पहला भाग 1997 में प्रकाशित हुआ. इसके अब तक तीन भाग आ चुके हैं. इसके अन्य भाग क्रमशः ऊरु केरी-2 2006 और ऊरु केरी-3 2014 में प्रकाशित हुए. 2003 में इसे प्रतिष्ठित संस्था साहित्य अकादमी ने भी छापा है. इसका अंग्रेजी अनुवाद भी ए वर्ड विद यू वर्ल्ड नाम से प्रकाशित है. इसका हिंदी अनुवाद भी उपलब्ध है. जिसका अनुवाद गांव-गली नाम से कन्नड़ और हिंदी साहित्य के मर्मज्ञ प्रो. टी.वी. कट्टीमनी ने किया है. हिंदी संस्करण वाली आत्मकथा में सिद्धलिंगय्या ने आरंभिक जीवन से लेकर कॉलेज के जीवन-संघर्ष को दर्ज किया है. इस आत्मकथा में अय्यनोरू के खेत, चतुर मामा, गोपाल स्वामी छात्रावास, मिल मजदूर और विचारवादी परिषद नाम से अध्याय हैं.

आत्मकथा के प्रथम अध्याय- अय्यनोरू के खेत में वे बताते हैं; गांवों में जमीदारों और ऊंची जाति के लोगों का बोलबाला था और इन्हीं ऊंची जाति के भूस्वामियों के यहां दलित गुलामी और बंधुआ मजदूरी करते थे गांव में जातिवाद और अस्पृश्यता अपने विकृत रूप में थे. उत्तर भारत की तरह ही दक्षिण भारत के कर्नाटक के गांवों में भी दलितों के घर गांव के किनारे अंतिम छोर पर थे. दलितों के साथ अमानवीय व्यवहार होता था. पानी जैसी बुनियादी चीजों के लिए भी ख़तरनाक अलगाव थे. एक बेहद मार्मिक और दिल दहला देने वाला प्रसंग इसी अध्याय में है. वे लिखते हैं- एक बार जब हम अपने माता-पिता को आवाज लगाने के लिए दीवार पर उकडू बैठे थे तो हमने एक आश्चर्यजनक घटना देखी. दो लोग अपने कंधों पर हल का जुआ उठाए अय्यनोरू के खेत जोत रहे थे और एक अन्य आदमी उनके पीछे चलता हुआ उन्हें हांक रहा था. दो लोगों को बैलों की तरह हल खींचते और तीसरे को उन्हें धमकाते-हाँकते देखना बड़ा अजीब लग रहा था. आगे चलकर वे ये खुलासा करते हैं उनमें एक बैल की जगह उनके पिता जुते थे. वे बताते हैं वे बड़े कठिन दिन थे. दिन-रात हाड़-तोड़ मेहनत करने के बाद भी भरपेट भोजन नहीं मिलता था. कई बार भूस्वामियों की गुलामी करते हुए जो जूठन मिलती थी; उससे ही गुजारा करना पड़ता था. अपनी इस आत्मकथा में अगले अध्यायों में वे नकली उदारवादियों की असलियत, समाज में व्याप्त अंधविश्वास, धार्मिक पाखंड, अस्पृश्यता स्त्री जीवन आदि की कई परतें खोलते हैं. यह आत्मकथा अपनी पूर्णता में सत्ता-व्यवस्था का विरोध करती है. (गांव-गली, लेखक-सिद्धलिंगय्या, अनुवादक-प्रो.टी.वी. कट्टीमनी, वाणी प्रकाशन, दिल्ली).

जैसा कि मैंने पहले भी कहा कि अपनी बाद की रचनाओं में उनका स्वर काफी बदल गया. वे सिर्फ नर्म ही नहीं हुए बल्कि ईश्वर वगैरह की बातें करने लगे अवतारागलू इसका उदाहरण है. इस रचना में दलित देवी बेहद गुस्से के साथ धर्मस्थला के मंजूनाथा (ऊँची जाति के मान्य देवता) को पत्र लिखती है कि उसे लंबे समय से उपेक्षित किया गया है. उसके लिए मंदिर बनाने का कोई मतलब नहीं है क्योंकि उसके गरीब भक्तों के पास भी छत नहीं है. कुल मिलाकर दलितों की ओर से देवी देवताओं से जिस किस्म की बातचीत की गई है वह एक किस्म की धार्मिक सांस्कृतिक लाइन है; जिसे कुछ लोग ब्राह्मणवादी सामाजिक संरचना के विरोध के रूप में भी व्याख्यायित कर सकते हैं; हालांकि यह अंबेडकराइट पॉलिटिक्स से एकदम अलग लाइन है.

इस संदर्भ में यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि दलित राइटर्स के यहां इस तरह के जो सांस्कृतिक स्ट्रगल दिखाई देते हैं उसका रूट भी डॉ. अंबेडकर के यहां है. शायद इसीलिए पूर्ववर्ती और परवर्ती अंबेडकर में लोग अपने मतलब का चुनाव कर लेते हैं.

अपनी बदली हुई मनोदशा के बारे में बेहद ईमानदारी से सिद्धलिंगय्या ने बताया है- शुरुआती दिनों की रचनाओं में जो ऊर्जा आक्रोश और संघर्ष दिखाई देता है वह उस दौर के लोगों के संघर्ष से प्रेरित है, उसका आधार वही है. मैं इस मनोदशा में काफी दिनों तक लेखन करता रहा लेकिन आने वाले समय में मुझे इस तरह की नारेबाजी की बोरियत हुई; जो मुझे मार रही थी. तब मेरे भीतर बहुत सारे संदेह पैदा हुए. यह सवाल मन में आया कि जीवन सिर्फ मनुष्य तक सीमित नहीं है; एक छोटे पौधे, छोटी नदी, हवा, तितलियां और पंछी भी जीवन रखते हैं उन्हें भी जीने का हक है; केवल पुजारी ही नहीं देवता भी अपने सर्वाइवल के लिए संघर्ष कर रहे हैं. (फ्रॉम पॉलीटिकल रेज टू कल्चरल अफर्मेशन: नोट्स ऑन द कन्नड़ दलित पोयट-एक्टिविस्ट सिद्धलिंगय्या, डी.आर. नागराज, इंडिया इंटरनेशनल सेंटर क्वार्टरली वॉल्यूम 21 नंबर-4 विंटर 1994 पेज,15-26)

इंडियन सोशल साइंसेज की जाति अध्ययन की धारा मुख्यतः दो फिलोसॉफिकल स्कूल मानती रही है- पहला स्कूल इंटीग्रेशनिस्ट लोगों का है जो यह मानते हैं कि दलित लोग ऑर्गेनिकली हिंदू सोसायटी के साथ जुड़े हुए हैं और उन्हीं के साथ उनके अस्तित्व को देखा परखा जांचा जाना चाहिए. दूसरा स्कूल इस्क्लूसिविस्ट्स का है जिनका मानना है कि दलित लोगों की अपनी सांस्कृतिक इयत्ता है. इसके साथ एक तीसरा इमर्जिंग स्कूल भी है जो दलित कल्चर को इन दोनों का द्वंदात्मक मिक्सचर मानता है. हालांकि इसका बेहद कम प्रभाव दलित आंदोलन पर पड़ा है लेकिन इधर इसकी बातें भी होने लगी हैं. ऐसा जान पड़ता है अपने परवर्ती लेखन में सिद्धलिंगय्या इसी धारणा के समर्थक बन गए थे.

जो भी है वे एक बड़े साहित्यकार थे. उन्हें 2019 में कर्नाटक सरकार द्वारा कन्नड़ में सर्वोच्च साहित्यिक पम्पा पुरस्कार से सम्मानित किया गया. 2018 में बीबीएमपी द्वारा नृपतुंगा पुरस्कार, 2007 में हम्पी विश्वविद्यालय द्वारा नादोजा पुरस्कार, 1986 में कर्नाटक सरकार द्वारा कर्नाटक राज्योत्सव पुरस्कार तथा 1998-99 में कर्नाटक राज्य फिल्म पुरस्कार (सर्वश्रेष्ठ गीतकार) फिल्म ‘प्रतिभातने’ के गीत हसीविनिंदा सत्थोरू के लिए दिया गया. उन्होंने फरवरी 2015 में हासन जिले के श्रवणबेलगोला में आयोजित 81वें अखिल भारत कन्नड़ साहित्य सम्मेलन में अध्यक्ष की भूमिका निभायी. यह उल्लेखनीय है कि इस भूमिका में चुने जाने वाले वे पहले दलित लेखक थे. बातो को कहने का उनका अपना ही स्टाइल था. सटायर और ह्यूमर का वे बेहद इस्तेमाल करते थे. इस मामले में वे अद्वितीय थे.

हाल ही के दिनों में टीएनएम को दिए एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था- हमें राजनीतिक स्वतंत्रता है. लेकिन सामाजिक और आर्थिक बंधन अर्थात जाति और वर्ग से मुक्ति के बिना यह राजनीतिक स्वतंत्रता निरर्थक है. जब अम्बेडकर ने संविधान का मसौदा तैयार किया, तो उन्होंने संविधान सभा में कहा कि अगर आर्थिक और सामाजिक असमानता के सवालों को संबोधित नहीं किया गया, तो उत्पीड़ित लोग संसद की संस्था को नष्ट कर देंगे… आप देख रहे है, हमें अभी भी स्वतंत्रता नहीं है. वे अपने समय के पर्याप्त पढ़े जाने वाले और पापुलर साहित्यकार रहे तथा बैंगलोर विश्वविद्यालय में कन्नड़ के प्रोफेसर रहे. मात्र 34 वर्ष की बेहद कम् उम्र में 1988 में, कर्नाटक विधान परिषद के सदस्य बने और दूसरी बार 2006 पुन: इस पद के लिए नामित हुए. उन्होंने स्लम से लेकर विधान परिषद् की यात्रा की. वैचारिक विचलन फिसलन के बाद भी उन्होंने दलित जनपक्षधरता कभी नहीं छोड़ी. उनका जाना दलित साहित्य ही नहीं कन्नड़ साहित्य के साथ भारतीय साहित्य की अपूरणीय क्षति है.

उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि!

 

(डॉ. सर्वेश कुमार मौर्य, जन्म- आज़मगढ़, उत्तर प्रदेश, स्कूली शिक्षा गाँव से, जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, दिल्ली से एम ए, एम. फिल व पीएच डी.
एम. फिल व पीएच.डी में शोध के विषय क्रमशः -‘यथार्थवाद और दलित साहित्य चिंतन’ तथा ‘अफ़्रीकी-अमेरिकी साहित्य और हिंदी दलित साहित्य: तुलनात्मक अध्ययन’. अख़बार व पत्र पत्रिकाओं में नियमित आलोचनात्मक लेखन

प्रकाशित कृतियाँ
यथार्थवाद और हिंदी दलित साहित्य (आलोचना), हिंदी दलित एकांकी संचयन, दलित नाटक की सैद्धांतिकी, दलित नाट्क की आलोचना, दलित लोक नाटक, साहित्य और दलित दृष्टि (संपादन), दलित मुक्ति दर्शन, दलित साहित्य चिंतन, दलित साहित्य विमर्श (सह-संपादन)
‘जनतंत्र के पक्ष में’ सीरिज के अंतर्गत12 पुस्तकों का सम्पादन।

सम्प्रति: एनसीईआरटी के रीजनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ एजुकेशन, मैसूर में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर
मोबाइल: 9999508476
ईमेल : drsarveshmouryancert@gmail.com sarveshkumarmauryajnu@gmail.com)

 

 

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