समकालीन जनमत
कविता

रोमिशा की कविताओं में मैथिल स्त्री का अंतर्जगत बहुत मुखर है

रमण कुमार सिंह


हाल के वर्षों में जिन युवा कवयित्रियों ने मैथिली साहित्य के क्षितिज पर अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज की है, उनमें रोमिशा प्रमुख हैं। अपनी वैचारिक परिपक्वता, अनूठे शिल्प और संवेदनात्मक गहराई से उन्होंने बहुत कम समय में अपनी पहचान बनाई है।

रोमिशा की कविताओं में आसपास के परिवेश के साथ स्त्री, खासकर मैथिल स्त्री का अंतर्जगत बहुत मुखर और जीवंत रूप में सामने आया है। प्रेम और स्त्री विमर्श रोमिशा की कविता का केंद्रीय विषय है, लेकिन मिथिला की स्त्रियों के सामने खड़ी अन्य चुनौतियों पर भी उसकी तीखी नज़र है।

रोमिशा की कविताएँ रचनात्मकता के उस विरल क्षण में उपजी हैं, जो एक घरेलू स्त्री को गृहस्थी की व्यस्तता में मुश्किल से ही मिल पाता है। उसकी कविता का शिल्प आकर्षक तो होता ही है, उसकी काव्यात्मक अभिव्यक्ति भी बहुत ईमानदार, संवेदनशील, सघन, कोमल और एकाकी है।

रोमिशा की कविताओं में समाज और रिश्ते, दोनों पर सूक्ष्म व्यंग्य का प्रहार है। रोमिशा की कविता स्त्री-पुरुष संबंधों के मर्म तक पहुंचने की ईमानदार कोशिश है, जहां गैर-बराबरी स्वतः स्पष्ट है।

इनकी कविताएँ पुराने और चालू मुहावरे से अलग मिथिला की स्त्रियों के संदर्भ में स्त्री मुक्ति का एक अलग आख्यान रचती हैं। इनकी काव्य-नायिकाएं पुरुष अथवा परिवार नामक संस्था की विरोधी नहीं, बल्कि पूरक और सहचर बनना चाहती हैं।

स्त्री-पुरुष संबंधों के अंतर्जगत को उजागर करने वाली रोमिशा की कविताएँ मैथिली कविता में स्त्री-चेतना का प्रखर स्वर है।

लेकिन रोमिशा की कविताओं की परिधि केवल स्त्री की दुनिया तक ही सीमित नहीं है, इसकी कविता का काव्य-फलक बहुत विस्तृत और विविधवर्णी है। रोमिशा की कविताओं में जाने कितनी सदियों से आर्तनाद करती मैथिल स्त्रियों का स्वर अनुगूंजित होता सुनाई देता है।

रोमिशा की कविता में वैचारिक प्रखरता, असहमति का साहस और प्रेम की कोमलता का स्वर स्पष्ट सुनाई देता है, जिसे व्यापक हिंदी
जगत के सामने परोसते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता हो रही है।

रोमिशा की आठ मैथिली कविताओं का हिंदी अनुवाद

(अनुवादक: रमण कुमार सिंह)

 

1. स्वप्न

लोग कहते हैं
खुली आंखों से
सपने देखना ठीक नहीं
पर क्या कोई भी आंख
दिखती है आपको
सपने से खाली?

चारों तरफ उड़ते
इच्छाओं के पेड़ के पत्ते
होते हैं सपने
जिसकी जमीन जैसी
उस पर इच्छाओं के वैसे ही पेड़

इसलिए किसी का सपना
दो वक्त की रोटी
तो किसी का स्विस चॉकलेट
किसी के सपने में पसरा बाजार
तो किसी का सपना तन ढकने का जुगाड़

किसी को पहुंचा देता है सपना
अपने देस-कोस से मीलों दूर
कोई अपने ही घर में रहता है गुम
सपने पूरे करने में उलझा

क्या खेल है यह सपने का
कि वह भी आता है आंखों में
हैसियत देखकर
और मन में बेचैनी भर
देखता रहता है मुस्करा-मुस्करा कर
गांव से शहर तक परेशान हुए
तपते मनुष्य के बेचैन चेहरे को

इच्छाओं की तीक्ष्ण धूप
माथे पर उकेर देती है झुर्रियां
आंखों के कोनों से हमेशा
झांकती रहती है अनहोनी की आशंका
होठों से रेत की तरह
फिसलता रहता है झूठ
सच को बेघर करते हुए
घुसता है स्वप्न जीवन में।

 

2. प्रेम में होना

कितना आनंददायी होता है प्रेम में होना
जैसे रुई की तरह बिल्कुल हल्का हो जाना
कभी धुएं की तरह उड़कर
खुद को अनंत विस्तार देना
फैलकर पसर जाना
किसी की सांस को स्वयं में उतार समवेत कर लेना
और फिर कभी अश्रांत हो जाना
रात के अंतिम पहर तक तारे गिनना
बादलों में प्रियतम के अनगिनत चित्र बनाना
और भोर में अस्पष्ट बेचैनी से भर उठना
हरेक उन्मुक्त दृष्टि से बचना
हंसते हुए पलों में प्रीत का दर्द रोना
कितना मुश्किल होता है
प्रीत में निर्बंध हो जाना
जबकि प्रेम में होना
स्वतः निर्बंध हो जाना है।

 

3. उगते सूरज को

रात चांद आया था मेरे पास
मेरे सिरहाने रख गया
कुछ टूटे हुए सपने
मैं समेटती रही रात भर
विखंडित सपनों के पंख
हृदय डूबता रहा
आंखें तैरती रहीं
सुबह की आहट तक
मंद पड़ चुकी थी चांदनी
मैंने आकाश को साक्षी बना
उत्सर्ग कर दी अपनी भावनाएं
गुलाबी अक्षरों में
उगते हुए सूरज को।

 

4. बिना कहे बिना सुने

बिना कहे बिना सुने भी
हो सकती हैं ढेर सारी बातें…

आश्वस्त हूं कि न मैं कहूंगी न तुम्हीं कभी
मगर फिर भी
बेला, जूही, कचनार अथवा हरसिंगार की तरह
महका रहेगा रोज रात्रि का स्वप्न

हम कभी एक नहीं हो पाएंगे
मगर बने रहेंगे एक-दूसरे के पथ-प्रदर्शक
जिससे जीवन में खिलेगी नई कोंपल
शाम की उदासी में शब्द रचने लगेगा कविता

थोड़ा पानी, थोड़ी हरियाली
चिड़िया-चुनमुनी की आवाज
नदी का कलरव, समुद्र की बेचैनी
चांद की कला
चटकदार रंगों से चित्रित जीवन-चित्र
जो कभी स्मृति नहीं बन पाएगा
क्योंकि हमारा प्रेम नहीं उलझेगा कभी
जीवन जीने के ब्योंत में।

 

5. चलो गांव की ओर

वसंत के आने भर से
सब कुछ खिल नहीं जाता है
नए पत्ते नए फूल मगर
जीवन में नया उल्लास नहीं

किसान परती खेत की तरफ
देखता है टुकुर-टुकुर
जिसकी हरियाली वह भूल गया है
कोयल की आवाज अब
मीठी नहीं लगती है…

सारे नौजवान भाग गए हैं
शहर की सड़क पर…
किसान को अब भी
भागना नहीं आता है
वह रास्ता निहार रहा है
कभी किसी दिन सारे पंछी
लौट आएंगे खेत की तरफ
शहरों के उत्थान का तिनका मुंह में दबाए
गांव में घोंसला सजाने के लिए
फिर से वसंत के उल्लास के लिए
अपनी माटी के विकास के लिए।

 

6. सुनो लड़की

सुनो प्रेम में डूबी हुई लड़की
नवंबर की आधी रात को
कभी घर से निकलना
तो शरद पूर्णिमा में नहाए
धवल आकाश को देखना
और फिर अपने पैरों तले फैली
हरी दूब को उखाड़ना
उसे अपने होंठो तक लाकर
आहिस्ता से चूम लेना
क्योंकि उसे आता है
चांद के आंसुओं को
पावस ओस बनाकर आंचल में सहेजना

तुम एक लंबी गहरी सांस लेना
अपनी इच्छाओं के पंख फैलाना
और प्रेम की ऊंची उड़ान पर
उड़ जाना, मगर रखना ध्यान
ये पंख गौरैये या कबूतर के
पंखों की मानिंद कोमल न हों
क्योंकि प्रेम के आकाश में
समाजिक निगाह के पैने हथियार होते हैं
और वे सब खतरनाक शिकारी

इसलिए अपने पंखों को
किसी फाल्कन की तरह मजबूत बनाना
ताकि घायल होने के बाद भी
लौट सको तुम धरती पर
मुमकिन है यह सब करते हुए
कांपे तुम्हारा मन केले के पत्ते की तरह
थर्राए जीवन के नाव की पाल
हवाओं के सख्त थपेड़ों से
दुनिया भर के कोलाहल में
कभी न आए तुम्हारे प्रेमी की आवाज
क्योंकि शब्द से खेलते हुए लोग
भूलने लगे हैं शब्दों के मायने

तुम चांद की ओर दृढ़ता से देखना
उसमे अपने प्रियतम को ढूंढना
और एक उज्ज्वल स्वीकृति की
तेज पुकार के साथ कहना
कि तुमने किया है प्रेम
बेशक बह रहे होंगे तुम्हारी आंखों से
पश्चात्ताप के निर्मल आंसू
लेकिन कभी इन आंसुओं में
बहने नहीं देना अपना वज़ूद

तुम्हारी यह पुकार पहुंचेगी
तुम्हारे आंसुओं के साथ
किसी समुद्र किनारे बैठी
प्रेम की देवी अफोदिता के पास
और वह समुद्र के झाग के साथ
तुम्हारे आंसुओं को मिलाकर
बना देगी एक ताबीज तुम्हारे लिए
जिसे पहन तुम भी बन जाओगी
अफोदिता-सी निर्विकार।

 

7. स्त्रियां सीख रही हैं

बहुत गहरे उतर चुके हैं
आंखों में कुछ रेशमी ख्वाब
तुम बेशक नए पहरे लगाओ
उस खुदमुख्तार स्त्री की सोच पर
करो कोशिश उन्हें फिर से सहेजने की
घर में किसी बेजान खिलौने की तरह
जिससे भूल जाए वह अपने लिए
ईजाद की गई नई राह

स्त्रियां बहुत झेल चुकी हैं
पुरुषों की कामुकता और क्रूरता
प्रेम के नाम पर
अब तो बस वे सीख रही हैं
स्वप्न देखना अपने लिए
किसी निर्मम हाथ से अपना हाथ हटा
अपनी संपूर्णता में स्वयं पर
उस प्रेम का लेप लगाना सीख रही हैं वे
जो रहने दे एक मानवी के रूप में जिंदा उसको

अपनी नदी बन चुकी आंखों में
उतार रही हैं वे सपनों की कश्ती
जिससे जीवन की लहरों पर
हिलकोरे लेते हुए सुन सकें
जीवन के उन सरगमों को
जिसे दबा दिया गया था
दुनियां के कोलाहल में
और स्वयं उसने भी
उस जीवन के भय से
बना ही लिया था
स्वयं को चट्टान कि
कभी पिघल ही न सके
वह मोम की तरह
और कभी न बन सके
उसकी कोई अपनी आकृति

लेकिन आज खोल रही हैं वे
अपने कानों को
चुप्पी के विलाप पर
अट्टहास करते हुए

सुनेंगी अब वे केवल
अपने लिए जीवन संगीत
और कठोर यथार्थ से इतर
अपनी कल्पना में अपने लिए
निर्भीक हो गुनगुनाएंगी
अपना जीवन राग
घर की एक खिड़की खुलेगी
उसके हिस्से की चांदनी के लिए
आखिर चांद तो सबका है न
और उसी चांदनी को भर स्वयं में
उड़ जाएंगी वे
गढने अपना नया आकाश।

 

8. चन्द्रस्नान

उसने किया प्रेम और
रोज रात प्रेमी के नाम का
दिया जलाकर उतार ली
नजर चांद की

उसने प्रेम किया और
अपने होठों को बुदबुदाते हुए
लिखे कुछ अल्फाज दुआओं के
और आहिस्ता से हवा को
उसकी दिशा में फूंक दिया

प्रेम करते हुए उसकी चंद
पसंदीदा किताबें इस तरह पढीं
जैसे पढ़ता हो कोई धर्मग्रंथ

कोहरे से ढकी खिड़की के शीशे पर
उसका नाम लिखा और शर्मा गई

हर दिन की तल्खियों के खिलाफ
अपनी आंखों में उसकी तस्वीर उतारी
और चूमा ऐसे जैसे
कुमुदिनी चूमती है चांदनी
जैसे सूर्य की रश्मियों पर
खोल देता है कमल अपनी पंखुरियां

प्रेम करने के दौरान
उसे भरा कविताओं में ऐसे
जैसे बादल भरता है
पहाड़ को अपने अंक में

और इस तरह से धीरे धीरे वह
डूबती गई प्रेम में
पार करने के लिए
जीवन की नदी…।

——————
(रोमिशा मैथिली की युवा कवयित्री हैं। उनका एक संग्रह फूजल आंखिक स्वप्न प्रकाशित हो चुका है, जिसके लिए उन्हें मैथिली साहित्य महासभा सम्मान मिल चुका है। वह दिल्ली में रहती हैं और फिलहाल
दूसरे संग्रह की पांडुलिपि तैयार करने में जुटी हैं। उनसे romisha094@gmail.com और  9810882109 पर संपर्क किया जा सकता है।

टिप्पणीकार एवं अनुवादक रमण कुमार सिंह गणपति मिश्र साहित्य साधना सम्मान से सम्मानित हैं, हिंदी तथा मैथिली कविता में एक चर्चित नाम हैं और अमर उजाला अख़बार में उप-संपादक के पद पर कार्यरत हैं. सम्पर्क : 9711261789)

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