मीता दास
बंगाली साहित्य की प्रमुख लेखिका नबनीता देब सेन 81 साल की थीं। पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित लेखिका ने 7/11/19 गुरुवार की शाम 7.30 बजे अपने ही पैतृक निवास ‘भालोबाशा’ में अंतिम सांस ली। वह लंबे समय से कैंसर से पीड़ित थीं।नवनीता देब सेन, नरेन देव और राधारानी देवी की बेटी थीं उनके माता पिता भी मूलतः कवि थे। वह नोबल पुरस्कार प्राप्त अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन की पत्नी थीं | वह जादवपुर विश्वविद्यालय कोलकाता में तुलनात्मक साहित्य की प्रोफेसर थीं। उनकी दो बेटियाँ हैं , अंतरा देव सेन और नंदना सेन।
उनकी रचनाएँ कई देशी और विदेशी भाषाओँ में अनुदित हुई हैं | उनका पहला काव्य संकलन ‘प्रथम प्रत्यय और प्रथम उपन्यास’ 1959 में प्रकाशित हुआ और ‘आमी अनुपम’ 1976 में प्रकाशित हुआ | उन्हें उनकी आत्म जीवनी ‘नटी नबनीता’ के लिए 1999 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया |
दिवंगत प्रख्यात साहित्यकार नबनीता देव सेन को सन 2000 में पद्मश्री से भी सम्मानित किया गया था |
नबनीता जी बचपन से ही एक सांस्कृतिक वातावरण में बड़ी हुईं । गोखले मेमोरियल गर्ल्स स्कूल में स्कूली शिक्षा पूरी की। उन्होंने लेडी ब्रेबॉर्न कॉलेज, प्रेसीडेंसी कॉलेज, जादवपुर विश्वविद्यालय, हार्वर्ड विश्वविद्यालय, इंडियाना (ब्लूमिंगटन) विश्वविद्यालय और कैंब्रिज विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा प्राप्त की। अपने छात्र जीवन के दौरान, वह प्रतिष्ठित कवि बुद्धदेव बोस और सुधींद्रनाथ दत्त की प्रिय थीं।
वे संन 1975 से 2002 तक जादवपुर विश्वविद्यालय में तुलनात्मक साहित्य में प्रोफेसर रहीं और लंबे समय तक विभाग में कुछ प्रमुख कार्य भी किये | इसके अलावा, उन्होंने संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोप के कुछ विश्वविद्यालयों में विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में पढ़ाया भी | उनके जाने से साहित्यिक बिरादरी एक शोक का माहौल निर्मित हो गया है |
नबनीता देब सेन मुख्यतः प्रेम और रिश्तों के अभूतपूर्व संवेदनाओं के स्वर को मुखर स्वर देने में माहिर रहीं । उनकी रचनाओं में प्रेम , सुख , दुख , पीड़ा स्नेह , प्रकृति का इतना सुंदर मेल दिखता है जो कईयों में नही मिलता ।
सुख में सुख को भोगती हुई कोमल , शांत मासूम नजर आती हैं वहीं प्रेम में कलकल करती नदी की तरह उत्साहित , प्रफुल्लित और अपना सर्वांग सौंपते हुए भी नहीं हिचकिचाती और विरह की पीड़ा में भी कोसती हुई नही दिखती बल्कि याद दिलाती है कि उसने उनसे कब क्या कहा और अगर वह सच न करे या हिम्मत न हो या उसे महत्व न दे दो खुद ही पूरा कर लेगी वह सपना , बगैर कोसे ।
प्रेम को सहते पीड़ा को झेलते , विरह को छलते हुए भी एक मुस्कान उनके चेहरे पर ही नही उनकी रचनाओं में भी स्पष्ट दिखलाई पड़ती है । उन्हें अपने निवास का नाम भी रखा *भालोबाशा * यानि प्रेम ।
उनकी कविताओं , उपन्यासों में कहीं भी टूटकर , बिखर जाने या फिर द्वेष में एक प्रतियोगिता की भावना नहीं दिखती । सहज सरल शब्दों और वाक्य विन्यास में वे हर द्वंद चाहे वह मानसिक हो या शारीरिक या फिर सैद्धान्तिक कभी भी उन्होंने सामने वाले को छोटा दिखाकर खुद को बड़ा या फिर बदले की भावना नही झलकाई बल्कि एक सुलझे हुए तरीके से रचनाओं में पिरो कर अपने को भी शीर्ष तक पहुंचने की अभिलाषा जाहिर की कि मुझे सहारे के बगैर भी जीना और शीर्ष छूना पसन्द है ।
मैं हारूंगी नही , हाथ नही फैलाऊंगी , प्रेम की भीख नही मांगूंगी । प्रेम करूंगी , प्रेम बांटूंगी और उन्होंने मरते दम तक सिर्फ प्रेम ही बांटा । संसार मे भी और रचनाओं में भी ।
अफसोस मैं उनके इस प्रेम और स्नेह से वंचित रह गई । दूर जो रहती थी । पर वे मुझसे कभी दूर नहीं जा सकती उनकी रचनाएं और उनके चेहरे की दृढ़ प्रेमिल मुस्कान मुझे हरदम यह एहसास दिलाता रहेगा कि प्रेम और स्नेह के लिए करीब होना जरूरी नही । प्रेम और मानविक संबंधों की डोर हवाओं के परों पर चलकर हर चाहने वालों तक पहुंचती है ।
उनकी कविताओं को अनुदित करते वक्त लगा ही नहीं की मैं उनसे कभी नहीं मिली । उनकी रचनायें उनकी ही तरह एक खुली हुई किताब ही है । मैंने जो कुछ जाना उनकी रचनाओं में ही जाना । मेरे लिए वे एक बांग्ला की अमृता प्रीतम ही हैं ।
एक वीडियो किसी ने फेसबुक पर शेयर किया यह उनकी अंतिम यात्रा का दृश्य था इस यात्रा में मुझे कई गणमान्य लोगों के बीच स्वनामधन्य कवि शंख घोष भी गमगीन दिखे । नबनीता दीदी की देह रजनीगंधा के फूलों से ढका हुआ था और उनको घेरे कई सुधिजन उपस्थित थे और सभी के मुख से रवीन्द्रनाथ के गीत उच्चारित हो रहे थे । प्रेम और स्नेह की मूर्ति को अंतिम यात्रा में प्रेम और स्नेह की होती वर्षा देख मन बिछुड़ने का गम भूल उस प्रेम की मूर्ति का चेहरा ही निहारती रह गई । नबनीता जी हमारे बीच हमेशा रहेंगीं । उनके जीवन का एक बड़ा भाग शांतिनिकेतन में ही गुजरा इसलिए रवींद्रनाथ उन्हें प्रिय थे इसलिए उनके स्नेहधन्य करीबी लोगों ने रवीन्द्र संगीत ही गा कर उन्हें विदा किया ।
उन्होंने ढेरों पत्र – पत्रिकाओं में अपना विपुल साहित्य रख छोड़ा है हम जैसे पाठकों के लिए , जो उनसे बेहद स्नेह और श्रद्धा रखते हैं | और उनकी यही कालजयी लेखन प्रजन्म को मंत्र मुग्द्ध करेगी और अपनी अगली पीढ़ी को भी सौंपने का भार जरूर निभाएंगी |
(यहाँ नवनीता जी की बांग्ला कविताओं का मीता दास द्वारा किया गया हिंदी अनुवाद प्रस्तुत किया जा रहा है)
नवनीता देब सेन की कविताएँ-
1. पिंजर में बिंधा हुआ है
पिंजर में बिंधा हुआ है
नशे का जहर बुझा काँटा
हिसाब यहां सब टालम टाल है
भीषण अभिशाप से आसमान और मिट्टी काँप रही है
धुएं से ढक रहा है चारों दिशाएं
पलक झपकते ही उड़ जाता है ठिकाना , घर – द्वार
पुराने चीन्हे – पहचाने आखर सब
अब चिट्ठी आने पर कौन पढ़ेगा
भाषा तो भूल ही गई हूँ प्रेम की
जाने कब इस मैदान में खुली हवा खेले |
आग में जल जाये सन – तारिख
मैं तो बैठी हुई हूँ घुटनों पे सर रख
देखने कि माँ का चेहरा था कैसा ?
पिंजर में बिंधा हुआ है नशे का जहर बुझा काँटा
हिसाब सभी टालम टाल है
माँ तुम जागी हुई हो न ? माँ तुम जिन्दा हो न !
पैरों के नीचे वह शरीर किसका है !
2. फिर गौरैया
मुझे तुम मत कहना फिर परी बनने
मैं और परी नहीं बन पा रही
किसी भी प्रहर में नहीं |
चंद्रलोक में मुझे लगता है भय ,
और निर्जनता बेहद भारी ….
तुम्हारी दुहाई है !
मेरे ह्रदय में और चाँदनी नहीं बची
सूर्य लोक में लिपटकर बंधा हुआ है मन ….
मुझे तुम
गौरैया
ही बनने देना | |
3. पहाड़
कोई कहता है या नहीं कहता है ,
पर तुम सब जानते हो |
फिर भी है कहीं पहाड़
छोटी बात , बड़ी बात ,
छोटे दुःख , बड़ी – वेदना
सब कुछ पीछे छोड़कर
बड़ा सा है एक हँसी का पहाड़ |
एक दिन
उसी पहाड़ पर घर बनाऊँगी तुम्हारे ही संग ही |
लोग कुछ भी कहें , न कहें , वह तुम जानो ||
4. घर
इस बरामदे से उस बरामदे ,
इस कमरे से , उस कमरे
सिर्फ भाग रही हूँ मैं |
एक ही घर है और उसमे कमरे ही कितने हैं , गिनती भर ,
इसलिए आखिरकार घूम – घूम कर
जहाँ से शुरु किया था वहीँ थक कर लौट आई |
दीवार की तस्वीर जितना भी रंगीन हँसी हँसे,
फर्श पर पड़ती छाया लेकिन उसका विरोध करता है |
कितनी तेज – तेज आवाज चीत्कार होते हैं इस घर में ,
काँच होते हैं टुकड़े – टुकड़े , बर्तन – भांडों की होती है उठापटक ,
प्रचंड कलह में उन्मत्त हो इस घर के दरवाजे – खिड़की – छत – दीवार – दालान भी |
मैं भागते – भागते एकदम थककर अपना आँचल बिछाकर
इस उन्म्मत फर्श पर लेट जाती हूँ | |
{ 3 मई 1966 , कलकत्ता }
5. शेष अंक
अँधेरा अमावस बन कर
आकर खड़ा हो जाता है
और ढक लेता है मन को
उसकी यंत्रणा को वे छू – छू कर
नयनो में चरण रेणु रख देते हैं |
फिर भी कहती हूँ , बिनती है मेरी
अभी न जाना , यदि आओ —
तो
देऊल में आग जल उठती है जिसके ,
न हो तो शेषांक ही देख जाओ |
टिप्पणीकार और अनुवादक मीता दास का जन्म 12 जुलाई सन 1961, जबलपुर { मध्य प्रदेश }
शिक्षा बी.एस.सी विधा हिंदी भाषा & बांग्ला भाषा में कविता , कहानी , लेख , अनुवाद और संपादनप्रकाशित ग्रन्थ ” अंतर मम” काव्य ग्रन्थ , बांग्ला भाषा में 2003 में, नवारुण भट्टाचार्य की कविताएं ( अनुवाद – मीता दास ) प्रकाशित, भारतीय भाषार ओंगोने ( अनुवाद हिंदी कवियों का बांग्ला भाषा मे अनुवाद – मीता दास ) प्रकाशित , ” पाथुरे मेंये ” {बांग्ला काव्य संकलन } प्रकाशित, हिंदी कवि अग्निशेखर की कविताओं के बांग्ला अनुवाद – मीता दास प्रकाशित, नवारुण भट्टाचार्य की कविताओं के अनुवाद (अनुवाद – मीता दास ) शीध्र प्रकाशित, सुकान्त भट्टाचार्य की कविताओं का अनुवाद (मीता दास ) शीघ्र प्रकाशित। आकाशवाणी रायपुर से 25 वर्षों से लगातार स्वरचित कविताओं का प्रसारण, दूरदर्शन रायपुर से कविताओं का प्रसारण, भोपाल दूरदर्शन से गीतों का प्रसारण)