कल्पना मनोरमा
कविता क्या है? कोई मुझसे पूछे तो मैं यही कहूँगी कि कविता एक निहायत ज़रूरी ज्योतित आवाज़ है. जो पहले उसे जगाती है जिसके हृदय में अँकुरित होती है. बाद में जो उसे अंगीकार करले उसे भी. जैसे मुर्गा पौ फटते देखने के बाद भी बांग लगाता है. दरअसल मुर्गा न संसार को जगाता है न ही भोर को कदाचित वह स्वयं को सचेत करता है. फिर उसी के जाग्रत होने में जो ज़िद्दी सुअक्कड़ होते हैं वे भी जाग कर भोर का आनन्द लेने लगते हैं. जिस प्रकार तकनीक का वितंडावाद हमारे सामने अबोध-अनछुए मौलिक जीवन को निगलने को खड़ा है कल्पना पन्त की कविताएँ इसकी चिंता करती दिखाई पड़ती है.
सब ओर तैनात सुख स्वप्नों के सौदागर
चंद तराशे परिणामों की चमक में
बहुत सी अनमोल संभावनाएं धूमिल पड़ जाती हैं,
सब ओर तैनात सुख स्वप्नों के सौदागर
रंग बिरंगे पोस्टर टांगे चलते हैं…..
उनकी ज्वाला में नौनिहाल जलते हैं
सोच रही हूँ..
तुम किनके हो मेरे देश?
यह सही है कि बाजारवाद और पूंजी का हमला पिछले कुछ वर्षों में अधिक प्रभावशाली हुआ है. जिस प्रकार बाजार हमारी बुनियादी जरूरतों का ठिकाना हुआ करता था लेकिन उसने हमारों घरों में घुसकर हमारी चेतना पर कब्ज़ा जमा लिया है. आज कविता की मनुष्य के जीवन में हिस्सेदारी को बहुत आलोचनात्मक ढंग से व्याख्यायित नहीं किया जा सकता. कविता हमारे जीवन में सर्वोपांग व्याप्त है.क्योंकि जीवन के उतार-चढ़ाव जब बेहद तिक्त और अनुभवहीन होने लगते हैं तब कविता चुपके से आकर हमें सहारा भी दे जाती है. मनुष्य की उद्दाम जिजीविषा की तरह. दुनिया चाहे कुछ भी कहे लेकिन कल्पना पंत को एक ऐसे ब्रश की तलाश है. जिससे वे दुनिया को सुंदर रूप दे सकती हैं .
कंक्रीट निगल रहा है
पीला रंग
बड़ी तिजोरियों में है
बाकी रंग भी
अंधेरे में घुल गए हैं
मुझे इन रंगों को उनकी
सही .
…जगह में लाने वाले
ब्रश की तलाश है.
बीसवीं सदी के सातवें दशक में पाश की कविता पंजाबी भाषा में एक विस्फोट की तरह सामने आई और पाश का काव्य बिम्ब ज्यादातर एक सशक्त राजनितिक और क्रांतिकारी कवि के रूप में स्थापित हुआ .दरअसल कविता का आत्मसंघर्ष बहुत कुछ बाह्य संघर्षों का ही अंतर्लोक होता है.कभी-कभी कविता हमारी जुबान बन जाती है. जो बातें हम कह नहीं पाते कविता चुपचाप कह जाती है और हम हल्के हो जाते हैं .कवि कविता के समानांतर चलता है. न आगे न पीछे जो मुद्दे कविता के होते हैं वही मुद्दे घटित-अघटित यथार्थ के होते हैं .ये बात कल्पना पंत जानती हैं. तभी तो वे अपनी ‘परछाई’ कविता में कहती हैं.
बेचैन धरती घूमती है
घूमते हैं बेचैन ग्रह
चक्राकार घूमते हैं चक्के
इच्छाएं कम नहीं होती
इच्छाओं की फांस तले
ग्रहों, उपग्रहों की भांति
घूम रहे हम सब
जहाँ से चलते हैं
फिर वहीं पहुँच जाते हैं
सुबह के अख़बारों के दर्शनीय
श्रीमंत सांझ ढले जब घर जाते हैं
अपनी ही परछाई से डर जाते हैं.
कविता के हृदय में एक तरह का आवेग होता है, एक दोलन होता है, अगर वह नहीं है तो कविता छोटी-बड़ी पंक्ति का कोई अनपहचाना हुआ गद्य है. जो न रस देता है और न ही कोई समझ उत्पन्न करता है. दरअसल पंक्ति पर पंक्ति उठती कविता अपने में समय का एक ऐसा एकांत बुनती है.जो भयानक चीखों से भरा होता है.जब की वह अनुभव नितांत कवि का व्यक्तिगत होता है लेकिन जब वह कविता में ढल जाता है तब लोक का हो जाता है. हर एक काल खंड की अपनी चुनौतियाँ होती हैं .चाहे वह यथार्थ चेतना हो या सौन्दर्यबोध या फिर भाषा की संस्तुतियाँ कविता हमेशा मुठभेड़ की स्थिति में रहती है.
हे ययाति!
दिनों -हफ्तों, महिनों, वर्षों सदियों, युग-युगांतरों
तुम्हरा वर्धन
मासूम कन्दराओं
प्रासादों, अट्टालिकाओं, बस्तियों और झुग्गियों तक
न जाने कितने-कितने पुरुओं को
तुम्हारी लालसा ,ठगती रही है
दूर करते
जीवनास्वाद से
हे ययाति!
मेरा प्रश्न तुम! तुम! सुनो
जिस प्रकार कविता और जीवन की समझ बढती जाती है उसके प्रति संवेदनशीलता बढ़ने लगती है. कविता ऐसी होनी चाहिए जब उसे पढ़ा जाए वह हमारे हृदय को सहूलियत दे सके हम दो मिनट अपने को भूल सकें. जबकि कविता समस्त जीवन को अंकित नहीं कर पाती है.फिर भी एक मजबूत त्वरा दे जाती है. मुझे लगता है कविता उसी प्रकार हमारे इर्दगिर्द मौजूद रहती है जिस प्रकार एक माँ अपने नवजात शिशु के. कल्पना पंत की कविता पढ़ते हुए लगता है कि वे जीवन में त्वरा उत्पन्न करने का माद्दा रखती हैं. आप यूँ सृजनरत रहें. अस्तु..!
कल्पना पंत की कविताएँ
1.प्रत्यक्षदर्शी
झूठ के
गवाह कौन हैं
सत्य कहाँ मौन है?
सुना है कि गुप्त द्वारों में
कई-कई हाथ आंख कान और नाक
निकल आये हैं ——–
कुछ दशकों में
कई जोड़ी पाँव
बे- चहरे कई-कई दाँव
सुना है कि तेज भागती ज़िन्दगी
सिक्कों और अदृश्य तख्ते ताउसों की होड़ में
ज़िन्दगी को पीछे छोड़ आगे निकल आयी है,
हमारी महत्वाकांक्षाओं की सीढ़ियां!
हमारी ही अगली पीढ़ियां
अंकों के ऊंचाई पर पहुंच
अखबारों की सुर्खियों में छा
अगले बरस इतिहास हो जातीं हैं
चंद तराशे परिणामों की चमक में
बहुत सी अनमोल संभावनाएं धूमिल पड़ जाती हैं,
सब ओर तैनात सुख स्वप्नों के सौदागर
रंग बिरंगे पोस्टर टांगे चलते हैं…..
उनकी ज्वाला में नौनिहाल जलते हैं
सोच रही हूँ..
तुम किनके हो मेरे देश?
पापारात्ज़ी जिनकी एक्सक्लूसिव तस्वीरों की जुगत में हैं?
या जो रोज सुबह से सांझ जीने की सांसत में है
इसलिए जबकि मैं लिखना चाहती हूँ खेत
सुदूर फैल जाती है रेत
हस्तियां मनाती है मंगल
दूर तक उजड़े दीखते हैं जंगल
नदी किनारे सजते हैं शामियाने
लुट जाते हैं प्रकृति के आशियाने
लहराते हैं रेशमी परिधानों के संजाल
पीछे झांकने लगते हैं कंकाल
एक ट्रेन धड़धड़ाती हुई गुज़र जाती है
और पटरी पर रोटियां छितर जाती हैं.
2. परछाई
बेचैन धरती घूमती है
घूमते हैं बेचैन ग्रह
चक्राकार घूमते हैं चक्के
इच्छाएं कम नहीं होती
इच्छाओं की फांस तले
ग्रहों, उपग्रहों की भांति
घूम रहे हम सब
जहाँ से चलते हैं
फिर वहीं पहुँच जाते हैं
सुबह के अख़बारों के दर्शनीय
श्रीमंत सांझ ढले जब घर जाते हैं
अपनी ही परछाई से डर जाते हैं.
3. आजा़दी का जश्न
उत्तर पश्चिम के आकाश में
घिर आये हैं गिद्ध
उनके बड़े बड़े डैने
सूरज को ढक रहे हैं
साथ-साथ उड़ रहे हैं शिकारी पक्षी
आजा़द पखेरूओं के दल में हाहाकार है
शिकारियों ने
उनमें से अधिकांश के पंख काट डाले हैं
धरती पर गिरते
वे गिद्धों की नज़र में हैं
नन्हे -नन्हे चिंचियाते स्वर
करुण आर्तनाद में तब्दील हो रहे हैं
यह सभ्यता की कहानी है
और हम बाईसवीं सदी में हैं
आओ दोस्तों!
हम आज़ादी का जश्न मनाएं.
.
4. राम की अग्नि परीक्षा
वन प्रांत में,
पांवों में गड़ने वाले कंटको को
अपने ही हाथों से निकालती
हृदय की टीस को दांतों से दबाती
मैथिली का मन राम के साथ के वनगमन की स्मृतियों घिर जाता है,
सोचती हैं जनकनन्दिनी
उस समय उनके पदों से कंटकों
को निकालते कमलनयन के चारु नयन डबडबाये थे
यहाँ भी विजन वन है
वही तीक्ष्ण कंटक
वही वन पशु
क्या राजा राम को
वनवासी राम की प्रिया
के कष्टों की स्मृति
नहीं हो आती होगी
क्या एक निमिष भर के लिए भी
राजा राम ने सोचा होगा
कि लोकोपवाद रानी के लिए था
राम की प्रिया
मुक्त थी जिससे
पिता की आज्ञा पालन के लिए
वनगमन करने वाले रघुनंदन के
हृदय में
क्षण भर के लिए जागी होगी
पति के साथ के लिए राजसुखों का
त्याग करने वाली संगिनी की छवि?
क्या उमड़ आयी होगी
उनके मन में प्रिया के संग
राजपाट छोड़
वन में कुटी बना रहने की
भावना ?
5. यातनाएँ बोलतीं हैं
हे ययाति!
दिनों -हफ्तों, महिनों, वर्षों सदियों, युग-युगांतरों
तुम्हरा वर्धन
मासूम कन्दराओं
प्रासादों, अट्टालिकाओं, बस्तियों और झुग्गियों तक
न जाने कितने-कितने पुरुओं को
तुम्हारी लालसा ,ठगती रही है
दूर करते
जीवनास्वाद से
हे ययाति!
मेरा प्रश्न तुम! तुम! सुनो
तुम्हारी कामनाओं का रथ अप्रहित
काल को पददलित करते
क्यों संक्रमित होता रहा है?
आज हम हैं
यातनाओं के चिह्न अपने
वक्ष पर ले भोगते
रौरव नरक को
रात की विकरालता में
अभिशप्त परछाइयां विचरतीं
खंडित स्वप्नों की कोख में पल रहा विद्रोह
न जाने कब जगेगा
कब व्यथित एकलव्य
लहू को पोंछ
क्रुद्ध हो
प्रतिशोध लेगा
दाराशिकोह
उठेगा
आंधियां अंगडाइयां ले
जल उठेंगीं
दिशाओं के धूम से मरुधर उठेंगे
जाग उठेगा वह अकिंचन
मृत्यु सम यातनाओं का
प्रतिद्रोह लेकर
तुम्हारी अप्रतिहत कामनाओं
को दलेगा
काल की परछाइयों के बीच…
नव सूरज उगेगा!
यातनाएं बोलतीं हैं.
6. कविता के रंग
मैं कविताओं में सातरंग
•••लिखना चाहती हूँ,
पर स्याह रंग बिखर जाता है;
दुनिया के कई हिस्से
……..उस रंग
से अंधेरे की किताब लिखते हैं
मेरे देश में रहते हैं
………कई फिरके़
इंसान नहीं मिलते
वे लाल रंग की जगह
का़बिज कर लेते हैं
और किसी के खून से
उसे इस क़दर भर देते हैं कि
प्रेम के रंग
………के लिए जगह
नहीं रहती
आसमान अब
धुंए से काला है
समंदर का नीलापन
विकास के पास
गिरफ्तार है
हरे रंग को
कंक्रीट निगल रहा है
पीला रंग
बड़ी तिजोरियों में है
बाकी रंग भी
अंधेरे में घुल गए हैं
मुझे इन रंगों को उनकी
सही .
…जगह में लाने वाले
ब्रश की तलाश है.
7. काश ज़िन्दगी
आधी रात हो चुकी है
सितारे चांद के अनुशासन में
अपना -अपना अधूरा सपना
बुन रहे हैं
अब जबकि सूरज के कोरोना को भी
छू लिया गया है
तब भी मुझे चांद कन्हैया का चंद खिलौनौ ही नजर आता है
और सूरज के साथ उसका रथ
हालांकि अज्ञेय के शब्दों में बहुत पहले ये उपमान मैले हो गये हैंं
सोच रही हूँ
हमें खोज लेने है ब्रहमांडों के परे कई
और ब्रहमाण्ड
डार्क मैटर
अल्फा सेंटौरी में भी बस्तियाँ बसा लेनी हैं
पर कविता की भाषा में चांद को खिलौना ही रहने दें तो कैसा हो
सपनों पर
कल्पनाओं के मासूम सवारों का
थोड़ा सा हक़ बचा रहे
तो बचे रहेंगे सपने
दांत से टूट जाने वाले अखरोट
मुंह में घुल जाते गुड़
सी कविता
औ कविता
सी हो काश
ज़िन्दगी!
कवयित्री कल्पना पन्त, अध्ययन- नैनीताल अध्यापन- वनस्थली विद्यापीठ राजस्थान में प्रवक्ता हिन्दी के पद पर एक वर्ष कार्य तदनन्तर लोक सेवा आयोग राजस्थान से चयनित होकर राजकीय महाविद्यालय धौलपुर तथा राजकीय कला महाविद्यालय अलवर में तीन वर्ष और 1999 में लोकसेवा आयोग उ० प्र० द्वारा चयन के उपरान्त बागेश्वर , गोपेश्वर एवं ऋषिकेश के रा०स्ना०मेंअध्यापन, मई 2020 से सितबंर 2021 तक रा० म० थत्यूड़ में प्राचार्य पद पर,वर्तमान में श्रीदेव सुमन विश्वविद्यालय के त्रषिकेश परिसर में आचार्य
लेखन- पुस्तक-कुमाऊँ के ग्राम नाम-आधार सरंचना एवं भौगोलिक वितरण- पहाड प्रकाशन, 2004
कई पत्र पत्रिकाओं में कविताएँ, लेख, समीक्षाएँ एवं कहानियाँ प्रकाशित
यू ट्यूब चैनल-साहित्य यात्रा
ब्लाग- मन बंजारा, दृष्टि
सम्पर्क: 8279798510
ईमेल: kalpanapnt@gmail.com
टिप्पणीकार कल्पना मनोरमा, कानपुर विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में परास्नातक एवं बी.एड. इग्नू से एम.ए (हिंदी भाषा), सम्प्रति-अध्यापन व स्वतंत्र लेखन, प्रकाशित कृतियाँ – प्रथम नवगीत संग्रह -“कबतक सूरजमुखी बनें हम” “बाँस भर टोकरी” काव्य संग्रह “ध्वनियों के दाग़” कथा संग्रह शीघ्र प्रकाश्य। साझा प्रकाशित संग्रहों में रचनाएँ प्रकाशित-‘सारांश समय का, कानपुर की काव्य संस्था वाणी के माध्यम से ‘जीवन्त हस्ताक्षर-2’, ‘जीवन्त हस्ताक्षर-3’, ‘जीवंत हस्ताक्षर-4’, भावों के मोती, नई सदी के नवगीत, समकालीन गीत कोष, सूरज है रूमाल में साझा लघुकथा संग्रह दृष्टि एवं पर्यावरण में लघुकथा में सहभागिता. कई भारतीय, अंतर्राष्ट्रीय और ई-पत्रिकाओं में प्रकाशन जारी| निज ब्लॉग कस्तूरिया का संचालन व सम्पादन|
प्राप्त सम्मान- दोहा शिरोमणि 2014 सम्मान, वनिका पब्लिकेशन द्वारा (लघुकथा लहरी सम्मान 2016), वैसबरा शोध संस्थान द्वारा (नवगीत गौरव सम्मान 2018), प्रथम कृति पर- सर्व भाषा ट्रस्ट द्वारा (सूर्यकान्त निराला 2019 सम्मान ) आचार्य सम्मान (जैमिनी अकादमी पानीपत हरियाणा, 2021)
सम्पर्क: kalpanamanorama@gmail.com