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रिक्त स्थान और अन्य कविताएँ: इन कविताओं से गुज़रते हुए प्रेम और कोमलता की बहुत सारी तहों से हमारा साबिका पड़ता है

प्रियदर्शन


ऐसी कई किताबें हैं जिन पर पिछले दिनों लिखने की इच्छा होती रही लेकिन लिखना टलता रहा। शिवप्रसाद जोशी का कविता संग्रह ‘रिक्त स्थान और अन्य कविताएं’ कई महीने पहले मिला था। सोचता रहा कि इन पर लिखूंगा। फिर ख़याल आया कि मैं न सही, कोई और तो लिख देगा। लेकिन शायद सोशल मीडिया में यह रिवाज बन गया है कि जब तक लेखक या कवि खुद अपनी चर्चा कराने का यत्न न करे, जब तक वह शिकायत न करे कि उस उस पर किसी लेखक, समीक्षक, आलोचक, आयोजक की नज़र नहीं है, कि उसका कोई गॉडफादर नहीं है, तब तक उस पर कोई ध्यान ही नहीं देता।

तो आज लगा कि यह संग्रह अचर्चित न गुज़र जाए, इसलिए कम से कम इसका उल्लेख तो कर ही डालूं। शिव प्रसाद जोशी की तरह उनकी कविताएं भी मद्धिम आवाज़ में बोलती हैं। शायद यह भी एक वजह है कि इस वाचाल समय में वे कुछ अलक्षित सी रह गई हैं। वैसे कई लोग यह मानते हैं कि कविता में मौन या चुप्पी या मितकथन समाजविमुख कलावाद का लक्षण है। लेकिन कई बार बड़ी कविता या गहरी संवेदनशील कविता शायद चुप्पी के इसी कुएं से निकलती है। इसे चुप्पी या मौन कहना भी ठीक नहीं है। इसमें आवाज़ होती है लेकिन उसे ध्यान से और धीरज से सुनना पड़ता है। जब आप इसे सुनते हैं तब अचरज से पाते हैं कि वह कविता आपके लिए कितना सारा कुछ संजो रही है जो तेज़ी से फिसलता जा रहा है।
वैसे मौन या चुप्पी के इस खेल को शिवप्रसाद जोशी ने एक अलग अंदाज़ में साध रखा है। आप एक बार इस अंदाज़ को समझते हैं और चौक जाते हैं कि जिसे आप मद्धिम आवाज़ की कविता समझ रहे थे, वह तो बहुत बोलती है, उसके बहुत मुखर सामाजिक और राजनीतिक आशय हैं।

शिवप्रसाद जोशी अक्सर किसी बहाने से कोई और बात कर जाते हैं। वे मौसमों पर लिखते हैं, लेकिन शिशिर, ग्रीष्म, वसंत, हेमंत उनके लिए अलग-अलग तरह के फूलों के खिलने या झड़ने की ऋतुएं नहीं हैं, मन उनका कहीं और बसा है, कविता उनकी कुछ और कह रही है। मसलन, उनके यहां हेमंत कुछ ऐसी स्मृति जगाता है- ‘वर्षा के बाद और शिशिर से पहले / वह इतना बेआवाज़ आया / जैसे मेरी हत्या का समाचार / मेरी थरथराहट पर जुमले फेंके गए / गटर में मेरे उतरने की विडंबना को / मेरा अध्यात्म कहा /नाइंसाफ़ी से जब मेरी हड्डियां थरथराईं / फौरन मुझे गिरफ़्तार कर लिया‌!’ और बारिश को वे कुछ इस तरह लिखते हैं- ‘चाबुक की तरह बरसती है / या काटती है तलवार की तरह / टीवी पर छाताधारियों की बहस / भीगी हुई गाय कितना देर रहेगी / खून से भीगे हुए मनुष्य के पास।’

तो यह बात कहने की एक अलग शैली है। जो दृश्य में नहीं है, जो शब्द में नहीं है, लेकिन जिसकी गंध, जिसके ख़तरे का एहसास किसी भी मौसम में पीछा नहीं छोड़ता, वह यहां चुपचाप मौजूद है। इस शैली में शिवप्रसाद जोशी ने कई मार्मिक और मारक कविताएं लिखी हैं। एक छोटी सी कविता है ‘गिरना’- ‘जनवरी में सफ़दर गिरा / दिसंबर में मस्जिद / दरमियान गिरा पड़ोस / अर्थ और मर्म क्यों न गिरते / कायरता और शर्म के साथ / आंसू गिरते रहे / किसी ने कहा: अरे आसमान तो नहीं गिरा / हम गिरते चले गए / एक साल से दूसरे साल में।’

क्या अब भी शिवप्रसाद जोशी की राजनीतिक पक्षधरता या वैचारिक प्रतिबद्धता में कोई संदेह रह जाता है? बात कहने का उनका अपना नितांत निजी तरीका है- जिसमें वे कम से कम शब्दों से अधिकतम अर्थ निकालते हैं और उन्हें उन असंभव लगते लक्ष्यों तक प्रक्षेपित कर देते हैं जो अन्यथा हमारी दृष्टि से ओझल रहते हैं। बहुत मामूली संदर्भों से बहुत वेधक स्मृतियों तक पहुंचने का यह काम दरअसल शिल्प का नहीं सरोकार का मामला है। ‘साइकिल’ नाम की एक छोटी सी कविता शृंखला है जिसकी पहली कविता कुछ ऐसी है- ‘खाना खा लो आवाज़ आई रसोई से / तो मैं निकल आया / कई हजार किलोमीटर जाने के लिए / मुझे कौन सा चलानी थी साइकिल / कहीं पहुंचना था जल्द से जल्द / इस कमरे से उस कमरे में ही तो जाना था / कौन सा मरना था रोज़।’ तो कविता इस तरह भी होती है- आपकी स्मृति के उस कोने को कुरेदती हुई जहां एक त्रासदी की न मिटने वाली तस्वीरें हैं।

कृपया यह न समझें कि शिव प्रसाद जोशी की सारी कविताएं संक्षिप्त वक्तव्यों जैसे इसी शिल्प में हैं। उनके यहां कहन के और भी ढंग हैं- मद्धिम आवाज़ कहीं कातर भी होती है और कहीं तीखी भी, लेकिन वह शब्द और संयम की मर्यादा नहीं भूलती। शायद यह शैली से ज़्यादा अभ्यास का मामला है- हर बात को अपनी तरह से महसूस करते हुए उसे व्यक्त करने का। मंगलेश डबराल और विष्णु खरे की स्मृति में लिखी उनकी कविताएं अगर अन्यतम नहीं तो भी विशिष्ट हैं। ये कविताएं पढ़ते हुए खयाल आता है कि कोरी भावुकता उनके काव्य परिसर में निषिद्ध है। महाश्वेता देवी को भी वे अपने ख़ास अंदाज़ में याद करते हैं। जोशीमठ और उत्तरकाशी की बात करते हुए भी वे उस आंतरिक विध्वंस को पकड़ते हैं जिसकी स्थूल परिणतियां हमें गिरते हुए पहाड़ों और पत्थरों में दिखाई पड़ती हैं। इन सभी कविताओं से गुज़रते हुए प्रेम और कोमलता की बहुत सारी तहों से भी हमारा साबिका पड़ता है। यह खयाल आता है- बल्कि कवि ख़ुद बताता है- कि कवि की अपनी आवाज़ एक बड़ी विरासत की देन है-‘नदी की स्मृति से मैंने जलाई आग / पत्थर की स्मृति से उठाई रात / घास की स्मृति है से हवा को छुआ / बचपन की बारिश में हुआ तरबतर /घर की स्मृति में पाया प्रकाश / घास है मेरी रूह / फेडू का उदास पत्ता मेरी पीठ/ दूर अंधेरे में टिमटिमाता एक तारा / मेरी सुबह।’

 

रिक्त स्थान और अन्य कविताएं: शिवप्रसाद जोशी, काव्यांश प्रकाशन, 150 रुपए

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