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आत्‍मीयता का रंग और लोक का जीवट : इरेन्‍द्र की कविताएँ

कुमार मुकुल


आत्‍मीयता इरेन्‍द्र बबुअवा की कविताओं का मुख्‍य रंग है। इस रंग में पगे होने पर दुनियावी राग-द्वेष जल्‍दी छू नहीं पाता। भीतर बहती आत्‍मीयता का रस विपरीत परिस्थितियों में भी बिखरने-टूटने नहीं देता आसानी से। उनकी कविताओं से गुजरते यह पता चलता है कि यह आत्‍मीयता इरेन्‍द्र ने ग्रामीण लोक की संगत में हासिल की है –

वे जो लोकगीतों की तरह होते हैं
लू में रहने, चलने के
आदी होते हैं।

कवि के भीतर का यह आत्‍मीय रंग बाहर भी यही रंग ढूंढता है और थोड़ा कम भी मिले तो खुश हो जाता है। कि ज्‍यादा रोशनी चौंधियाने लगती है –

थोड़ा कम प्यार भी

पनापन

लंबे समय तक बनाए रख सकता है!

आत्‍मीयता का यह रंग सहज ही नहीं आता। भीतर सम की दृष्टि होने से ही इसका रचना में प्रकट होना संभव होता है। ऐसे में अपनी पीड़ा बाकी जमात की पीड़ा से मिलकर एक हो जाती है और अपने पराये का अंतर मिट जाता है –

जब मैं निकलता हूँ

काम की तलाश में

सारे लोग
अपनों जैसे दिखते हैं।

इरेन्‍द्र की ये कविताएं एक आत्‍मीय व्‍यक्ति की सच्‍ची व निश्‍छल पुकार की तरह हैं, एक तलाश है जो खुद से शुरू होकर सब तक जाती है और फिर खुद को सब के आइने में देखती है –

वह पानी-भरा आकाश था

या आकाश-भरा पानी था
जिसकी आँखों में मैं हर क्षण झाँकता
अपना अक्स ढूँढ़ता था

अकस्मात्
एक छोटी-सी बूँद
फिर एक
और फिर समूचे में
मैं ही मैं था
और मेरे पीछे तारों-भरा टिमटिमाता।

आत्‍मीयता का यह ग्रामीण लोक जीवट से भरा है। यह वह लोक है जिसकी स्त्रियों का जीवट पुरूषों के पौरूष को बल प्रदान करता है।

‘बोआम के पीछे सांप’ इरेन्‍द्र की अपेक्षाकृत लंबी काव्‍यकथा है। जिसमें एक कमरे में जाड़ा काट रहे दंपति का सामना एक गेंहुअन सांप से होता है जो जाकर आलमारी में बोआम के पीछे छिप जाता है।

दंपति सहमा सोचता है कि इतनी रात गये किसे पुकारे मदद को, कौन आएगा। इस जाड़े में कैसे, कहां काटे रात। तब पत्‍नी अकारी ले आगे बढती है और सांप को मार डालती है। इस कविता को पढते मुझे अपनी मां याद आती है जिसे मैंने बचपन में लाठी से सांप मारते देखा था –

पर यार पति, क्या करती वह
कि उसने किसी साँप को नहीं
मारा एक भय को, बस एक भय को
जो डस सकता था उसके पति को!

 

इरेन्‍द्र बबुअवा की कुछ कविताएँ

1. लू

जेठ-बैसाख की लू

सौ तीखी मिर्च के समान लगती है
बेवजह दी गई गाली जैसी भी

जिन्हें लू में रहने, चलने की हिम्मत नहीं
वे क्या तो बाँझ खेत की तरह होते हैं
घुन लगे बीज की तरह
कि कितने लू में जीने का जोश लिए
ध्रती को सींचते रहते हैं
रिक्शे-ठेले पर
अपने घर-परिवार की भूख
ढोते रहते हैं

वे जो लोकगीतों की तरह होते हैं
लू में रहने, चलने के
आदी होते हैं

यह तो वाक़ई में सच है, भाई
जिन्हें लू की आदत लग जाती है
हर मौसम मे जी लेते हैं

वैसे कितने सारे ऐसे भी होते हैं
जिनकी आदत में लू तो होती है
लेकिन वे लू की आदत में नहीं होते

इसलिए वे
अपने ढेर सारे अधूरे सपने छोड़
मर जाते हैं एक दिन
फिर लू में
उनके अधूरे सपने करते हैं सफ़र!

 

2. थोड़ा कम भी

नहीं है ज़रूरत
परदे के पार रोशनी को
देखने के लिए
परदा हटाना

थोड़ी कम रोशनी में भी
दिख सकती है साप़फ-साप़फ
बिना चमक-दमक के
कुएँ में तैरती मछलियाँ
एक क़तार में लौटते शाम को
अपने घोंसले की ओर पक्षी

थोड़ी कम रोशनी से
मिला सकते हैं आँख
ले सकते हैं सुकून की साँस
थोड़ी कम हवा में भी

थोड़ा कम प्यार भी
अपनापन
लंबे समय तक बनाए रख सकता है!

 

3. शक

किसी को मेरे प्यार पर शक है
शक है मेरी सच्चाई पर
किसी को मेरे मैं पर शक है
शक है
मेरी ख़ामोशी और अकेलेपन पर
किसी को मेरे भूत, वर्तमान, भविष्य पर शक है
शक है किसी को
काँपते हाथों से लिखी गई कविता पर

मैं खड़ा हूँ
कई एक शकों के घेरे में

मुझे इन घेरों पर शक है!

 

4. पिछड़ा

मैं पीछे ही नहीं
बल्कि पिछड़ा हुआ भी हूँ
ऐसा मेरे आगे वाले
कहते हैं अक्सर
कराते हैं एहसास

और मैं
क्या करूँ, क्या कहूँ
उनकी इस बात पर
अक्सर करता हूँ उनका अभिनंदन

हाथ जोड़ कर!
सिर झुका कर!

कि आप
सच कह रहे हैं
देखिए, मैं कितना
पिछड़ा हुआ हूँ!

 

5. तैयार रहो

देश बदल रहा है
तैयार रहो

बदलने के लिए
रहन-सहन, खान-पान, अपना नाम
संस्कृति, सभ्यता, अपनी जाति, धर्म
अपने गाँव, शहर का पता

कि जाने कौन सी सुबह
देश बदल जाए, सोओ अपने देश में
और आँखें खुलें तो पाओ कि हो
किसी ऐसे नए देश में जहाँ प्रवासी
नागरिक जैसे हो

जहाँ लगेगा
कि अब जीना होगा डर-डर कर
उनके तौर-तरीक़े और इशारों पर, और जीना
सीख भी गए, तब भी महसूस तो करोगे ही न
कि पाँवों तले ज़मीन, ज़मीन
नहीं लग रही, और

आसमान भी आसमान
नहीं लग रहा…!

 

6. रोप

पसीने से तर-ब-तर
आम का पौध रोप रहे हैं काका
ऊपर बादल नहीं
नदी कोसों दूर
रोप रहे खुरपी से
माटी कोड़

काका कहेंगे
पौध जब बन जाएगा एक पेड़
कभी उसके नीचे सुस्ताते
हमने सींचा है इसे अपने पसीने से

और तब उनकी सारी थकान
बिला जाएगी
मन-ही-मन हहरेंगे

तब-तब,
किसे पता होगा
आज काका सुस्ता रहे हैं
अपनी जि़न्दगी में ख़ूब!

7. पिछड़ा

मैं पीछे ही नहीं
बल्कि पिछड़ा हुआ भी हूँ
ऐसा मेरे आगे वाले
कहते हैं अक्सर
कराते हैं एहसास

और मैं
क्या करूँ, क्या कहूँ
उनकी इस बात पर
अक्सर करता हूँ उनका अभिनंदन

हाथ जोड़ कर!
सिर झुका कर!

कि आप
सच कह रहे हैं
देखिए, मैं कितना
पिछड़ा हुआ हूँ!

8. उम्र का पत्थर

हर शाम जब लौटता हूँ वापस कमरे में
बिस्तर पर रूह रख
कुर्सी पर बैठता हूँ
और सुस्ताते हुए पलके मूँद लेता हूँ

बहुत चुप सन्नाटे से
झरती है आवाज़ की अँजोरिया
काँप जाता हूँ सुनकर
कोई पूछता है सवाल-
‘‘आज कितना सपफर तय किया?

कितना रास्ता तय किया है
मेरे दोस्त मैंने

इस पृथ्वी पर यह मेरी उम्र का बाईसवाँ
पत्थर दरका है
जहाँ मुझे पहुँचना है
वहाँ बिछे कितने पत्थरों पर
कितनी चोटें अभी होनी हैं
उन पर और कितनी ओस गिरनी बाक़ी है!

 

(कवि इरेन्द्र बबुअवा का जन्म स्थान – ग्राम-भकुरा, पोस्ट-लौहार फरना, जिला-भोजपुर आरा, बिहार है ।
 इग्नू से हिन्दी साहित्य में एम. ए.
महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित होती रही  हैं। आकाशवाणी से कवितापाठ कर चुके हैं. पिछले पांच वर्षों से लगातार पाक्षिक साहित्यिक आयोजन  कर रही  “हुत” संस्था के  संयोजक हैं।
टिप्पणीकार कुमार मुकुल जाने-माने कवि और पत्रकार हैं. राजस्थान पत्रिका के सम्पादकीय विभाग से सम्बद्ध हैं.)

 

 

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