समकालीन जनमत
कविता

हूबनाथ पांडेय ने अपनी कविताओं में व्यवस्था की निर्लज्जता को बेनक़ाब किया है

मेहजबीं


हूबनाथ पांडेय जी जनसरोकार से जुड़े हुए कवि हैं। उनकी अभिव्यक्ति के केन्द्र में व्यवस्था का शोषण तंत्र है, प्रशासन द्वारा परोसा जा रहा झूठ प्रोपेगेंडा का सजीव चित्रण है। व्यवस्था पूंजीपति वर्ग को लाभ पहुँचाती है और ग़रीब तबक़े के आदमी का ख़ून चूसती है, मज़दूर वर्ग का शोषण करती है। देश आज़ाद होने के बाद भी आम आदमी ग़रीब मज़दूर की आर्थिक स्थिति में कोई ख़ास बदलाव नहीं आया है। हूबनाथ जी अपनी संवेदनशील अभिव्यक्ति के माध्यम से व्यवस्था और पूंजीपति वर्ग की निर्लज्जता को प्रस्तुत करते हैं ‌।

हर तानाशाह
आख़िरकार एक दिन
अपनी मौत मरता है

उसके बाद
उसे याद किया जाता है
बड़ी शर्मिंदगी
पूरी घृणा के साथ

क्योंकि
हर तानाशाह
बुनियादी रूप से
होता है अमानवीय

हालाँकि
इन्सानियत का
सबसे ज़ोरदार नारा
वही बुलंद करता है

दिनों-दिन महंगाई बढ़ती जा रही है, ग़रीब मज़दूर आदमी की बुनियादी ज़रूरतें भी पूरी नहीं होती। उनके पास पर्याप्त पैसा नहीं है, वे मर रहे हैं भूख से, बीमारी से, सदमे से। प्रशासन के पास इस ग़रीबी भुखमरी बेरोजगारी के लिए कोई योजना नहीं है। वे लगातार पूंजीपति वर्ग को फ़रोग़ देने में लगे हुए हैं। गिने-चुने कुछ पूंजीपति वर्ग के लोग फल-फूल रहे हैं। सत्ता और पूंजीपति वर्ग दोनों मिलकर जनता का शोषण करते हैं। अपने वैभव का जमकर प्रदर्शन करता है। अंबानी के बेटे बेटी की शादी उदाहरण है, कि कैसे लूट-खसोट से इकट्ठा किया धन अपनी शक्ति प्रदर्शन में खर्च किया जाता है।

हूबनाथ पांडेय जी ने अपनी कविता ‘निर्लज्ज मेव जयते’ में नाटकीय और व्यंग्य शैली में पूंजीपति वर्ग की इस बेशर्मी और निर्लज्ज आचरण का वर्णन किया है।

अलकापति कुबेर ने
फ़ुरसत के पलों में सोचा

कि चलो
स्वर्ग के देवताओं को
बताया जाए
ऋषियों तपस्वियों को
दिखाया जाए

के वे कितने दरिद्र हैं
कितने तुच्छ हैं
कितने निर्वीर्य हैं

धनाधिराज कुबेर ने
अपने पुत्र के स्वयंवर की
घोषणा की
मौखिक नहीं
लक्ष मुद्राओं के
आमंत्रण पत्रों से

शासक का काम है जनता की मूलभूत सुविधाओं में सुधार करना, उन्हें बुनियादी सुविधाएं रोजगार स्वास्थ्य शिक्षा संबंधी सुविधाएं उपलब्ध कराना। पिछले एक दशक में बड़ी तेजी से शासकीय कार्य प्रणाली में बदलाव आया है। सत्ताधारी दल जनता को मूलभूत सुविधाओं के बजाय नफरत, विभाजनकारी सोच, झूठाट प्रोपेगेंडा उपलब्ध करा रहा है। लोगों के पास रोजगार नहीं है, ग़रीबी है भुखमरी है। हंगर इंडेक्स में हमारा देश बहुत निचले पायदान पर पहुंच गया है। प्रशासन का ध्यान इधर नहीं जाता, वो इतिहास बदलने में लगा हुआ है। ऐतिहासिक स्थानों के नाम बदलने को महत्वपूर्ण समझता है। जनता के टैक्स के पैसे नाम बदलने पर खर्च किए जाते हैं। नाम बदलने की राजनीति से किसी का कोई आर्थिक सामाजिक शारीरिक लाभ नहीं होता। सिर्फ़ लोगों में एक-दूसरे के लिए नफरत पैदा होती है। हूबनाथ पांडेय जी ने अपनी अभिव्यक्ति में इस विडंबनापूर्ण परिस्थिति का वर्णन किया है।

वे इतिहास को
समझ रहे हैं
बच्चे का डाइपर

बदल रहे हैं
अपनी सुविधानुसार

हूबनाथ पांडेय जी की अभिव्यक्ति में मरते हुए मिटते हुए लोकतंत्र का दर्द है। अपने लाभ के लिए राजनैतिक दल लगातार लोकतंत्र की हत्या कर रहे हैं। उनके पास जनता के लिए विभाजनकारी नफरती सोच है, लाठीचार्ज है। चारों ओर अमानवीय परिस्थितियाँ हैं। किसान मज़दूर युवा वर्ग जनांदोलन कर रहा है। हूबनाथ पांडेय जी एक ज़िम्मेदार कवि की तरह अपनी कविताओं में वर्तमान में घटित असाधारण आर्थिक सामाजिक राजनैतिक परिस्थितियों को प्रस्तुत कर रहे हैं।

लोकतंत्र
जब सड़ने लगता है
तंत्र से लोक का विश्वास
मरने लगता है

न्याय शिक्षा सुरक्षा
बाज़ार की गोद में
मचलते हैं
तब किसान और मज़दूर
तपती ज़मीन पर
नंगे पावों चलते हैं

और अनपढ़
अशिक्षित
भावुक जनता
किसी चमत्कार की उम्मीद में
धर्मतंत्र की शरण में जाती है

हूबनाथ पांडेय जी अपनी कविताओं में लगातार फासिस्ट ताकतों का चेहरा प्रस्तुत करते हैं। किसान को खेतों में होना चाहिए, वे ठंड में सड़क पर जनांदोलन करते हैं। युवा वर्ग को कक्षा में होना चाहिए, वे सड़क पर जनांदोलन करते हैं। गंगाजमुनी तहज़ीब को ख़त्म कर सत्ता नयी राष्ट्रवादी परिभाषा रच रही है। जिसके केन्द्र में फासिस्ट व्यवस्था को जनता पर थोपना है। विविधता वाले देश में एक देश एक भाषा एक जाति एक रंग की बात लगातार थोपने की कोशिश ज़ारी है। हूबनाथ पांडेय जी ने अपनी कविता ‘होली मुबारक’ में ऐसी ही परिस्थितियों को उजागर किया है।

होली रंगों का पर्व है
वे रंग
जो सियासत की क़ैद में
छटपटा रहे हैं
और जिनके माथे पर
राजनीतिक दलों के
झंडे मढ़ दिए गए हैं

होली
जिनका पर्व है
जिनकी वजह से है
जब तक उनकी ज़िंदगी
बदरंग है
बदहाल है
तब तक
मेरे लिए
होली मनाना
हराम है

हूबनाथ पांडेय जी ने अपनी रचनाओं में युद्ध की विभिषिका का भी संजीव चित्रण किया है। युद्ध ने कभी मनुष्य को कभी लाभ नहीं पहुँचाया, हमेशा मनुष्यता की हत्या की है।

युध्द एक खेल है
युद्ध एक उन्माद है
युद्ध एक स्पर्धा है

धर्म की स्थापना है
अधर्म का नाश है
न्याय का प्रतीक है

युद्ध मर्दानगी है
युद्ध गौरव है
युद्ध अभिमान है

मनुष्य होने की
सार्थकता है
राष्ट्रवाद की
सफलता है
बाक़ी सब
निरर्थकता है

कुदरत की सबसे सुंदर कृति मनुष्य है, मनुष्य के पास शरीर है मस्तिष्क है हृदय है। उसकी मर्ज़ी है अपने शरीर मस्तिष्क का प्रयोग विश्व बंधुत्व के लिए प्रयोग करे, मानव कल्याण के लिए करें या फिर सृष्टि के विनाश के लिए प्रयोग करे, मानवता की हत्या के लिए करे। मनुष्य की भूख लगातार बढ़ रही है। उसकी भूख और प्यास अब सिर्फ़ खाद्य पदार्थ से नहीं बुझती, उसको चाहिए मनुष्य की लाशें, ताज़ा ख़ून, मलबा, धुँआ..। अपनी भूख और प्यास मिटाने के लिए वो निर्माण कर रहा है बम का मिसाइल का प्रमाण बम का। वो युद्ध का निर्णय लेता है। पिछले सौ वर्षों में अनगिनत युद्ध हुए। इन युद्धों में लोग मरे महामारी फैली। युद्ध की विभिषिका दिल दहला देती है। मगर इस दिल दहला देनी वाली परिस्थितियों से मनुष्य को कोई सबक़ नहीं मिलता। संवेदना ख़त्म हो गई है। वर्तमान समय की स्थिति यह है कि बच्चों पर बम गिराए जाने लगे हैं अस्पताल में बम गिराए जाने लगे हैं। हूबनाथ पांडेय जी की अभिव्यक्ति के केन्द्र में मनुष्य है और उससे जुड़ी समस्याएँ हैं। युद्ध की विभिषिका का भयानक चेहरा है। उन्होंने अपनी कविता में बेमौत मारे जा रहे मासूम बच्चों की हत्या का चित्रण किया है।

शहर के बीचोंबीच
खलिहान में
भूसों की तरह बिखरे थे
नन्हें मुन्ने बच्चों के
क्षतविक्षत शव
शर्म से सिकुड़े
आसमान के ठीक नीचे

वर्तमान समय की आर्थिक सामाजिक राजनैतिक परिस्थितियों को जानने के लिए हूबनाथ पांडेय जी की कविताएँ पढ़ी जा सकती हैं। आइये पढ़ते हैं हूबनाथ पांडेय जी की कुछ महत्वपूर्ण कविताएँ।

 

हूबनाथ पांडेय जी की कविताएँ

1. निर्लज्जमेव जयते!

अलकापति कुबेर ने
फ़ुरसत के पलों में सोचा

कि चलो
स्वर्ग के देवताओं को
बताया जाए
ऋषियों तपस्वियों को
दिखाया जाए

के वे कितने दरिद्र हैं
कितने तुच्छ हैं
कितने निर्वीर्य हैं

धनाधिराज कुबेर ने
अपने पुत्र के स्वयंवर की
घोषणा की
मौखिक नहीं
लक्ष मुद्राओं के
आमंत्रण पत्रों से

निर्बुद्धि कुबेर ने
धरती के सभी सम्राटों
राजाधिराजों, देवों
यक्षों गंधर्वों अप्सराओं
किन्नरों विद्याधरों को
आहूत किया
धर्मध्वजाधारी धर्माचार्य तक
कुबेर की चौखट पर
नाक रगड़ने पहुँच गए
क्योंक उनके मठ
धर्म से कम
धन से अधिक
संचालित होते थे

तीनों लोक में
कोई ऐसा श्रेष्ठ
मेरुदंडविहीन महात्मा नहीं बचा
जो इस राजसूय यज्ञ की
जूठन चाटने न जुटा हो

कुबेर ने
उन सभी के
बहुमूल्य वस्त्राभूषणों
छप्पन भोगों
सत्तावन ऐयाशियों की
परिपूर्ण व्यवस्था की

समस्त पृथ्वी पर
जो भी भोग्य था
जो निधियाँ थीं
जो सिद्धियाँ थीं
सभी एक छत्र के नीचे
जड़मति कुबेर के
चरण पखार रही थी

धरती के दूसरे छोर पर
लोग भूख से बिलबिला रहे थे
कीड़े मकोड़े की तरह रेंग रहे थे
दुधमुँहें बच्चे
साफ़ पानी के अभाव में
तड़प-तड़प कर दम तोड़ रहे थे
रोज़ी के अभाव में
लोग घरबार छोड़ रहे थे
किसान अनाज की फ़िक्र में
बंजर ज़मीन गोड़ रहे थे

जबकि
कुबेरसुत के पाणिग्रहण में
महान देवगण
आकंठ ऐसे डूबे थे
मानों मैले के ढेर में
लिथड़ा सूअर
स्वर्गिक आनंदातिरेक से
मदमाया नाच रहा हो

देवराज इंद्र तक
अपनी झबरी पूँछ हिलाते
ज़बान लपलपाते
वर वधू के समक्ष
दुहरे हुए जा रहे थे

इस तरह
सिर्फ़ चार दिनों के उत्सव में
कुबेर ने
न सिर्फ़ अश्लीलता की
नई परिभाषा गढ़ी
बल्कि
समस्त मानव जाति के
दुर्बल शरीर से
वस्त्र नोंच कर
सबको
बच्चे बूढ़े जवान
सभी को
सभी के सामने
नंगा कर दिया

और बता दिया
कि धन के आगे
धर्म, विद्या,संस्कृति
नैतिकता,तपस्या,अध्यात्म
सत्ता,शक्ति,राष्ट्र
सभी कुछ
कौड़ी के तीन हैं

महान देश की
विशाल प्रजा
खटमल मच्छर
तिलचट्टों की तरह
सिर्फ़ मरने के लिए ही
जनमती है
और बुद्धिजीवियों
कलाकारों की पूरी जमात
धनपशुओं की जूठन पर
पलती है !

 

2. होली की मंगलकामनाएँ

होली
किसानों का पर्व है
उन किसानों का
जो अपने बुनियादी हक़ के लिए
राजधानी की सीमा पर
नाराज़ बैठे हुए हैं

और उनके श्रम की उपज पर
निर्लज्ज नागरिक
गुझिया ठूँस कर
ठंढई में मस्त हैं

होली रंगों का पर्व है
वे रंग
जो सियासत की क़ैद में
छटपटा रहे हैं
और जिनके माथे पर
राजनीतिक दलों के
झंडे मढ़ दिए गए हैं

इन रंगों से
अब डर लगता है
न जाने कब
सीने पर सवार होकर
दूसरे रंगों के विरुद्ध
मुझे भीड़ में खड़ा कर दें
और कहें
कि उनके सिवा
सारे रंग हैं नक़ली

सचमुच
अपनी दुनिया के
इकरंगे होने की
भयावह कल्पना से
डर जाता हूँ मैं

मेरी दुनिया में
एक ही रंग
एक ही कानून
एक ही झंडा
और एक ही गुंडा हो
यह मुझे मंज़ूर नहीं

होली
जिनका पर्व है
जिनकी वजह से है
जब तक उनकी ज़िंदगी
बदरंग है
बदहाल है
तब तक
मेरे लिए
होली मनाना
हराम है

पर बुरा न मानिएगा
आपको होली की
सलज्ज शुभकामनाएँ !

 

3. उस एक दिन

एक दिन
जब हमारा देश
विकसित हो जाएगा

सड़कों पर नहीं होंगे
फेरीवाले
खेत में किसान
और फैक्टरियों में मज़दूर
नहीं होंगे

महानगर के
ख़ूबसूरत जिस्म पर
नहीं होंगे दाग
झुग्गी झोपड़ियों के
नाले और गटर
रेंगते हुए नहीं समाएँगे
समुंदर की आगोश में

ट्रैफिक सिग्नल पर
भीख माँगते बच्चे
हिजड़े और अपंग
तथा मूँगफलियों के ठोंगे
फलों के डिब्बे टाँगे
दिहाड़ी वाले नहीं होंगे

एसी ट्रेनों में नहीं आएँगी
रिबन,क्लिप,कंघी
बेचनेवाली बच्चियाँ

रेलवे ट्रैक के किनारे
मँहकेंगी सुगंधित
फूलों की क्यारियाँ
और वड़ापाव-चाय की
बदशक्ल गुमटियाँ
गुम हो जाएँगी

गाँवों में चमचमाती सड़कें
जगमगाते मॉल
चहचहाते स्कूल कॉलेज
लहलहाते अस्पताल होंगे

न कोई भूखा होगा
न कोई बीमार
न कोई बेरोज़गार

उस एक दिन के लिए
वे सभी
जो उस दिन नहीं होंगे
वे कहाँ होंगे
किस हाल में होंगे
और किसके भरोसे होंगे

यह अभी तक
किसी को भी नहीं पता

वे होंगे भी
या वे होंगे ही नहीं
यह अभी तै होना बाक़ी है

क्योंकि
वे लोग
जो होंगे उस विकसित देश में
फ़िलहाल
मसरूफ़ हैं
देश के विकास में

तब तक
प्रतीक्षा कीजिए
आप कतार में हैं !

 

4. नग्नमेव जयते

भोजन की कोई आस न हो
तो कई दिनों का भूखा
कुछ भी खा लेता है

जैसे ही नंगे को
अहसास होता है
अपने नंगेपन का
वह सड़क पर से
कुछ भी उठाकर
नंगई ढांप लेता है

देह की तरह
विचारों का नंगापन भी होता है
जैसे ही विचारशून्यता
या विचारों की अनिवार्यता
पता चलती है
वैचारिक नंगा
आसपास इफ़रात में पड़े
कैसे भी विचार
झट से टाप लेता है
और विचारों का नंगापन
ढांप लेता है

नंगेपन के अहसास से खीझा हुआ
वस्त्र को ही देह समझ लेता है

वैसे
जिनकी आत्मा नंगी हो चुकी हो
उनका नंगापन
दुनिया के सारे वस्त्र
मिलकर भी ढांक नहीं सकते

ऐसे लोग
जितने अधिक
जितने ख़ूबसूरत
जितने कींमती
वस्त्र धारण करते हैं
उतने ही और नंगे होते जाते हैं

कहते हैं
ऐसी ही नंगई से
भगवान हारते हैं

और भगवान का हारना
हर बार
पूरी इन्सानियत को
नंगा कर जाता है !

 

5. युद्धम् शरणम् गच्छामि

अपने मुल्क़ में
वे मर रहे थे
भूख और ग़रीबी से

उनके भाग्य से
छींका टूटा
और दो बड़े मुल्क़ों में
युद्ध छिड़ गया

अब मिलने लगे
मरने के पैसे

इतने पैसे
कि मरनेवाले के पीछे
जीनेवाले
जी सकें इज़्ज़त से

सौदा मँहगा क़तई नहीं
परिवार में
एक का मरना
पूरे परिवार को
जिलाने के लिए काफ़ी था

पूरे देश ने
शुक्रिया अदा किया
उस ईश्वर का
जिसकी मर्ज़ी से
युद्ध अब भी ज़ारी है

और उन मुल्क़ों का भी
अदा किया शुक्रिया
जो किसी हाल में
युद्ध रोकने को
राज़ी नहीं

युद्ध
उन्हीं के लिए मुफ़ीद नहीं
जिनके पेट भरे हैं
उनके लिए भी नियामत हैं
जिनके पेट ख़ाली हैं !

 

6. तानाशाह

इतिहास बताता है

हर तानाशाह
आख़िरकार एक दिन
अपनी मौत मरता है

उसके बाद
उसे याद किया जाता है
बड़ी शर्मिंदगी
पूरी घृणा के साथ

क्योंकि
हर तानाशाह
बुनियादी रूप से
होता है अमानवीय

हालाँकि
इन्सानियत का
सबसे ज़ोरदार नारा
वही बुलंद करता है

हर तानाशाह
घनघोर झूठ बोलकर
उसे सच साबित करता है
क्योंकि सच
तब तक कर चुका होता है
आत्महत्या

और सच की हत्या के जुर्म में
न्याय को दी जा चुकी होती है

7. तमसोगमयम्

वह बिलकुल अकेला था

और चारों ओर था
सिर्फ़
और सिर्फ़ अंधेरा

अंधेरे के सिवा
कुछ भी नहीं

उसने कहा –
रौशनी!

और सारा ब्रह्मांड
रौशन हो गया

फिर उसने
दस दिनों में बनाई
पूरी दुनिया

सारे जीव जंतु
कीड़े मकोड़े
जलचर थलचर
नभचर उभयचर

चराचर जगत
उस एक अकेले ने रचा

और ग्यारहवें दिन
आराम की गरज़ से

एक मुल्क़ में
प्रधानसेवक बन गया

तब से
न मुल्क़ को चैन
न उसे

इससे तो
वह अंधेरा ही अच्छा था

यह सोचकर
वह चल पड़ा
अंधेरे की ओर

अपनी बनाई
दुनिया को लेकर

यह कहते हुए –

ज्योतिर्मातमसोगमयम्

यह तो अच्छा हुआ कि
अंधेरे के गर्त में
गिरने से पहले
कुछ लोग जाग गए !

 

8. सियासत

कितनी ख़ूबसूरत
कितनी दिलकश हो
बिलकुल जादूभरी

तुमसे होकर गुज़रते ही
धर्म जैसी पवित्र
सर्वकल्याणकारी अवधारणा भी
इतनी घटिया, गंदी और लिजलिजी हो जाती है
कि धार्मिक होने के अहसास से ही
घिन आने लगती है

माँ और पिता जैसा
धरती और आसमान जैसा
नि:स्वार्थ प्रेम करनेवाला
ईश्वर
डरावने राक्षसों की तरह
हदसाने लगता है

माँ की गोद सा
महफ़ूज़ और सुकूनबख़्श
मुल्क़
श्मशान की तरह
भयावह हो जाता है

इतनी सिफ़त
इतनी करामात
इतना जुनून
कहाँ से लाती हो

किस मिट्टी से बनाती हो
सियासतदाँ
कि देखने में लगें
फ़रिश्तों जैसे
और मात करे शैतान को

फ़ुरसत मिले
तो कभी यह भी बताना
मेरी प्यारी सियासत
कि इक्कीसवीं सदी में
इतनी प्रगति कैसे कर ली !

 

9. अहिंसा परमो

आंँखों पर
राष्ट्रवाद की
काली पट्टी बांँधे

विनाशक हथियारों की
अगली पाँत में
खड़े होने से पहले

बुद्ध और महावीर की
सारी प्रतिमाओं को
ढँक दें

उस महाभारत को
ज़मीन में गहरे दफ़्न कर दें
जो चीख़-चीख़कर कहता है

युद्ध समाधान नहीं
किसी भी समस्या का

इस युद्ध में
जो सबसे बहादुर था
वह निहत्था था

जबकि सारे शस्त्रधारी
एक-एक कर मारे गए

जो बचे
वे मरों से भी बदतर

दुर्भाग्य से यह सच है कि
हत्यारी ताक़तों का वर्चस्व
पूरी दुनिया में है

हत्या
उनकी विवशता नहीं
व्यवसाय है

धरती पर
जितनी भी हाय है
दरअसल
वही उनकी आय है

बस एक बार
हथियारों की होड़ से
बाहर खड़े होकर देखें

कि हम कहाँ खड़े हैं
और कहाँ होना चाहिए था

जिस पर हँस रहे हैं
उस पर रोना चाहिए था

इतनी भी समझ आ जाए
तो न जाने कितने
मुरझाए चेहरों पर
ख़ुशियों के बादल छा जाएँ

फिर भी
हत्यारों की भीड़ में
खड़े होकर
सीना चौड़ा ही करना है

तो माफ़ कीजिएगा
मुझे आपसे
कुछ भी नहीं कहना है !

 

10. अधर्मतंत्र

लोकतंत्र
जब सड़ने लगता है
तंत्र से लोक का विश्वास
मरने लगता है

न्याय शिक्षा सुरक्षा
बाज़ार की गोद में
मचलते हैं
तब किसान और मज़दूर
तपती ज़मीन पर
नंगे पावों चलते हैं

और अनपढ़
अशिक्षित
भावुक जनता
किसी चमत्कार की उम्मीद में
धर्मतंत्र की शरण में जाती है

तथाकथित धर्म का उत्थान
विवेक और चिंतन की मृत्यु है
धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र में
ईश्वर ही सबसे बड़ा शत्रु है
जो अपने महल चुनवाता है
और प्रजा को
गिद्धों और कुत्तों से
नुचवाता है

इसी धर्म के
घिनौने दलाल
अपनी आढ़त पर
निरीह और असहाय जनों की
श्रद्धा को तौलते हैं

मूर्खतापूर्ण
अहंकारी बोली बोलते हैं

और उनके भड़ुवे
भेड़ बकरियों की तरह
हाँक लाते हैं
हज़ारों लाखों की भीड़

जिन्हें दिखाए जाते हैं
कभी पूरे न होनेवाले
काल्पनिक सपने
जिसके नीचे
कुछ पल के लिए ही सही
दब जाती है
उनकी मुफ़लिसी बदहाली

शोषण अन्याय और भूख
प्रवचनों की बाढ़ में
बह जाते हैं

रह जाते हैं
बस ख़ाली तंबू
बिखरे चप्पल
और मासूम बेकसूर लाशें
जिनपर सरकारी मुआवज़े का
चिथड़ा कफ़न डालकर
ढँक दिया जाता है

धर्म का झंडा
शासन के डंडे पर चढ़कर
लोकतंत्र के ताबूत में
गड़ जाता है !

 

11. फ़रमान

सुल्तान का फ़रमान है

सल्तनत के
ख़ासोआम को
हाकिमो हुक्काम को
इत्तिला दी जाती है

कि सभी
बूढ़े बच्चे जवान
मर्द औरत सभी
अपने माथे के बीचोंबीच

अपना नाम
अपना मज़हब
मज़हब का फ़िरका
फ़िरके की तफ़सील

मोटे हर्फ़ों में
नए महीने की
शुरुआत से पहले
ज़रूर गुदवा लेंगे

गुदवाई का ख़र्च
आलीजाह सुल्तान के
ख़ज़ाने से चुकाया जायगा
ताकि रिआया पर
ग़ैरज़रूरी बोझ न पड़े

पर्दानशीनों को
हिदायत दी जाती है
कि हिजाब इस क़दर
इस्तेमाल हों
कि सूरत ढँकी रहे
लेकिन माथा खुला रहे
जिससे सरकार
अवाम के मज़ाहिब से
वाक़िफ़ रहे

अगर ज़रूरत पेश आई
तो उन जानवरों के
जिस्म पर भी
ऐसी ही इबारतें होंगी
जो उनके मालिकान के
माथे पे दर्ज हैं

सल्तनत के
आलिमो फ़ाज़िल
औ साइंसदाँ
लगे हैं एक ऐसी खोज में
कि फलों और सब्ज़ियों के भी
मज़हब और फ़िरके
तै कर लिए जाएँ
अनाजों पर लिखे जाएँ
मज़ाहिब उन सभी के
जो इनके वजूद के
ज़िम्मेदार हैं

दरख़्तों और परिंदों
को भी इक रोज़
इनमें शामिल करने की तजवीज़ है

सल्तनत
अवाम की शख़्सियत पर
किसी पर्देदारी के ख़िलाफ़ है
इस सल्तनत में
जो भी है
जैसा भी है
एकदम साफ़ है

सल्तनत
बिल्कुल नहीं चाहती
कि किसी भी शख़्स का मज़हब
ग़ैरमज़हबी हरकतों से
नापाक हो

अवाम के अख़लाक़
और उसकी जन्नत की फ़िक्र
जितनी इस सुल्तान को है
इन्सानियत के किसी दौर में
किसी को भी नहीं रही

जिस्म तो फ़ानी है
इक रोज़ दफ़्न हो जाना है
असल चीज़ तो है मज़हब
और इतनी अहम शै के लिए
क़ीमत तो चुकानी ही पड़ेगी

जहाँ ऊपरवाले के
मुफ़्त में दिए गए पानी, हवा और
मिट्टी तक की क़ीमत
चुकानी पड़ती है

तो पाक मज़हब के लिए
क्यों नहीं !

 

12. बापू

एक बात मेरी समझ में
नहीं आ रही

एक ही फ़िक्र
मुझे खाए जा रही

कि तुम्हारे
वसुधैवकुटुंबकम् में
कैसे पूरी वसुधा समा जाती थी

और मेरी वसुधा
दो चार कुटुंबों के बाहर
क्यों नहीं निकल पा रही

तुम्हारी दृष्टि
पाँत के आख़िरी जन तक
कैसे पहुँच जाती थी

जबकि
मैं अपने स्वार्थ के बाहर
दृष्टिहीन हो जाता हूँ

तुम चुप रहते हो
और कितना कुछ
कह जाते हो

मैं दिन रात चीखता हूँ
पर सब निरर्थक
सारहीन

सुरक्षा के सभी साधन
पूरी तरह त्याग कर
तुम कितने निर्भय

और मैंने
दुनियाभर के साधन
भरपूर जुटाए
फिर भी डरा-डरा -सा

तुम सिर्फ़ एक लंगोटी में
कितने सभ्य
कितने शालीन

और मैं
दिन में दस बार
बेशकीमती परिधान
बदलकर भी

इतना नंगा
इतना निर्लज्ज
और इतना घिनौना
क्यों लगता हूँ

एक तुम ही हो
जो मुझे
सही उत्तर दे सकते हो

मैं तुम्हारे उत्तर की
प्रतीक्षा करूँगा
बापू !

 

13. संशोधन

यदि
संविधान में
एक संशोधन किया जाए
कि चुनाव में
वही खड़ा होगा

जिसके परिवार से
कभी भी
कोई भी
देश के लिए
शहीद हुआ हो

तो सोचिए

वर्तमान संसद के
कितने लोग
खड़े हो पाएँगे
अगले चुनाव में!

 

14. इतिहास

वे इतिहास को
समझ रहे हैं
बच्चे का डाइपर

बदल रहे हैं
अपनी सुविधानुसार

कविता को इतिहास
इतिहास को कविता
में बदलकर
अपनी प्रतिभा पर
हो रहे हैं मुग्ध

आत्ममुग्धता के
भयावह दौर में
बुद्धिजीवियों की भूमिका

बच्चों के जन्मपर
नाचनेवाले किन्नरों से
ज़रा सा नीचे है

क्योंकि उनके नाचने में
सुर तो बचा है

धूमिल ने
जिसकी पूँछ उठाई
वह मादा ही नज़र आया

पर मुझमें साहस नहीं
पूँछ उठाने का
कही रहा सहा भ्रम भी
न टूट जाए

मूढ़ता के मौसल पर्व में
इतिहास देवता को
ज़रख़रीद लौंडी
सम़झनेवाले

उस धूल से ज़्यादा नहीं
जो अक्सर जमी रह जाती है
ऐतिहासिक वास्तु की
सीढ़ियों पर

इस गोधूलि बेला में
जबकि गायें लौट चुकी हैं
अपने थानों को
और सारा आसमान
हँकड़ाए साँड़ों के
दबंग खुरों से सिरजी धूलों से
ढँक गया है

तुलसी के चौरे पर
थरथराता दिया
अपनी ताक़त भर लड़ रहा है

माँओं ने भींचकर
जकड़ रखा है बच्चों को
बंद किवाड़ों के पीछे

कहीं कुछ भी साफ़ साफ़
नज़र नहीं आ रहा

ऐसे में घबराने की
कोई वजह नहीं

इतिहास
बदल नहीं रहा
सिर्फ़ करवट बदल रहा है

 

15. मुसोलिनी

अपने समय का
सबसे महान
राष्ट्रभक्त मुसोलिनी

इतना महान
कि वह स्वयं
राष्ट्र बन गया

राष्ट्र का अपमान
मुसोलिनी का अपमान
मुसोलिनी का अपमान
राष्ट्र का अपमान

ऐसा पहली बार हुआ
किसी नेता ने
राष्ट्र का सर्वोच्च शिखर छुआ

राष्ट्र बन जाने के बाद
मुसोलिनी ने ढूंँढ़े
राष्ट्रद्रोही
उन्हें सज़ा-ए-मौत दी

फिर एक दिन
राष्ट्र को अहसास हुआ
कि एक व्यक्ति
कैसे पूरा राष्ट्र हो सकता है

उसके बाद की कथा
इतिहास में दर्ज है
व्यक्ति का राष्ट्र होना
एक राष्ट्रीय मर्ज़ है

जिसका इलाज
जितनी देर से होगा
राष्ट्र उतने दिन बीमार रहेगा

अब यह राष्ट्र को तै करना है
कि राष्ट्रीय मर्ज़ को
कितने दिन तक सहना है

 

16. युद्धम् शरणम् गच्छामि

युध्द एक खेल है
युद्ध एक उन्माद है
युद्ध एक स्पर्धा है

धर्म की स्थापना है
अधर्म का नाश है
न्याय का प्रतीक है

युद्ध मर्दानगी है
युद्ध गौरव है
युद्ध अभिमान है

मनुष्य होने की
सार्थकता है
राष्ट्रवाद की
सफलता है
बाक़ी सब
निरर्थकता है

उन सभी के लिए

जिनकी रोटियाँ
सुरक्षित हैं
जिनके घर महफ़ूज़ हैं

जो भविष्य के प्रति
आश्वस्त हैं
और वर्तमान में मस्त हैं

जिनका कोई अपना
न सीमा पर है
न युद्ध के मैदान में
न बरसती मिसाइलों की
हद में
न फटते बमों की
ज़द में

जिनके पास
ख़ूबसूरत लफ़्फ़ाज़ियाँ हैं
उनकी भाषा में
युद्ध की शाबासियाँ हैं

दरअसल
वे ख़ूँख़्वार गिद्ध हैं
जिन्हें
फटती खोपड़ियों
उधड़े माँस के लोथड़ों
लहू के फ़ौव्वारों से
बारूद की घिनौनी गंध से
बेइंतहा लगाव है

हक़ीक़त में
इस तरह की पूरी कौम
इन्सानियत के सीने पर
एक सड़ा हुआ घाव है
सदियों से
जिससे मवाद रिस रहा है

वीरगाथाओं का चारण
श्मशान की चौखट पर
न जाने कब से
माथा घिस रहा है

और पूरी मानवता को
लहूलुहान कर रहा है !

 


कवि हूबनाथ, जन्मस्थान : वाराणसी
रिहाइश : सांताक्रुज, मुंबई
शिक्षा : एम ए (हिंदी) पीएचडी (हिंदी)
प्रोफ़ेसर, मुंबई विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग से सेवा निवृत

प्रकाशन : कौए, लोअर परेल, मिट्टी हिंदी में, सराब उर्दू में, पच्चीस कविताएँ बांग्ला में प्रकाशित।
अकाल, मातृदेवो भव, कहाँ है माहिष्मती शीघ्र प्रकाश्य।

महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी के संत नामदेव पुरस्कार से सम्मानित तथा प्रियदर्शिनी फाउंडेशन से सम्मानित।
सिनेमा के लिए संवाद लेखन तथा सिनेमा अध्ययन एवं गांधी विचारों पर लेखन एवं चिंतन।

सम्पर्क: 9969016973

ई मेल: hubnath@gmail.com

 

टिप्पणीकार मेहजबीं, जन्म 16/12/1981. पैदाइश, परवरिश और रिहाइश दिल्ली में पिता सहारनपुर उत्तरप्रदेश से हैं माँ बिहार के दरभंगा से। ग्रेजुएट हिन्दी ऑनर्स और पोस्ट ग्रेजुएट दिल्ली विश्वविद्यालय से, पत्रकारिता की पढ़ाई जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय

व्यवसाय: सेल्फ टीचिंग हिन्दी उर्दू अर्बी इंग्लिश लेंग्वेज

स्वतंत्र लेखन : नज्म, कविता, संस्मरण, संस्मरणात्मक कहानी,फिल्म समीक्षा, लेख

सम्पर्क: 88020 80227

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