समकालीन जनमत
कविता

घुँघरू की कविताएँ प्रेम के अनगढ़ रूप और सामाजिक संवेदना से भरपूर हैं

निरंजन श्रोत्रिय

घुँघरू की कविताओं में प्रेम और संवेदनों को लेकर एक अलग-सी कमनीयता है वह भी ज़िद के साथ। एक युवा कवयित्री प्रेम को लेकर मानो डूब-सी गई है-मीराँ की तरह। वह प्रेम में भाव-विभोर होती है, रोती-बिलखती है, कई बार पगलाती भी है लेकिन फैंटेसी में जीने वाली इस कवयित्री के लिए प्रेम एक पैशन की तरह है। एकांत के निजी क्षणों में वे मौन को एक स्पर्श में और स्पर्श को एक शिकायत में तब्दील कर देती हैं। इस तरह से चुप्पी और स्पर्श दोनों ही प्रेम के इन क्षणों में एक अनिर्वचनीय अर्थवत्ता पाते हैं। इतना जुनून कि वे प्रेम में प्रियतम का चश्मा भी फोड़ने को उद्यत है ताकि उसके ही चश्मे (दृष्टि) से दुनिया को देखा जा सके।

बाज़ारवाद और मतलबपरस्ती के इस समय में जब हर रिश्ता स्वार्थ के घेरे में घिरा हो-ऐसा परस्पर समर्पण प्रेम को अपने मूल निस्वार्थ रूप में उद्घाटित करता है। ‘जल’ कविता में भी प्रेम का समर्पण और अनुकूल वेदनीयता है। यहाँ प्यास अदम्य इच्छाओं की स्थितियों का बयान करती हैं-‘ नानी की कहानी याद आ रही थी/ प्यासे शरीर को छोड़ आत्मा प्यास बुझाने निकल जाती है/ लेकिन आत्मा अभी शरीर का बोझ ढो रही थी।

तमाम बखानों के बाद कवयित्री का यह निष्कर्ष कि ‘प्यासे की प्यास नम आँखों से बुझती है’ एक बार फिर प्रेम की तरलता को मार्मिकता से प्रकट करता है।

‘ढोलपुर स्टेशन’ एक अलग मिजाज की कविता है जिसमें सामाजिक विसंगतियों और विद्रूपताओं को एक सहज कटाक्ष के साथ उभारा गया है। इस व्यंग्य या ‘विट’ में एक स्थानीयता भी पसरी हुई है। संस्कार और संस्कृति के नाम पर समाज में प्रचलित शोषण और दोहरे मानदण्डों को यह कविता निर्भीकता से बेपरदा करती है। ‘पहाड़पन’ कविता में एक कहावत के माध्यम से प्रकृति की आंतरिक विराटता और उसके समक्ष मनुष्य के बौनेपन को रेखांकित किया गया है। यह कविता बताती है कि प्रकृति अपने स्वरूप में ही विशाल है। उसकी विराटता को कमतर नहीं किया जा सकता। यह भी कि पहाड़ (वह यहाँ प्रतीक भर है) को खोदना, काटना या ठेलना आसान नहीं है। किसी विराट व्यक्तित्व की विराटता उसके हर रेशे, हर कोशा में होती है। ‘आँख की जाँच’ कविता में एक दृश्य-बन्ध है। ‘आई टेस्टिंग’ की प्रक्रिया के जरिये यहाँ प्रेम में प्रियतम की अनुपस्थिति को रेखांकित किया गया है। यहाँ जाँच की मशीन पर आँखों का रोगी नहीं बल्कि प्रेम की रोगी बैठी है। ‘कष्ट में है देवता’ में आस्तिकता को लेकर एक गहरा कटाक्ष है। भक्ति और धर्म के नाम पर किये जाने वाले क्रिया-कलापों पर यहाँ एक प्रहार है इस मंशा के साथ कि धर्म और अध्यात्म इन बाह्य पाखण्डों में नहीं बसता-‘थक चुका है देवता/ साटन वस्त्र त्याग वह सूत नहीं पहन सकता/ भक्तों के अतिशय प्रेम से उसे निमोनिया हुआ है।’

‘जलकुम्भी’ कविता एक राजनीतिक कविता है जिसमें समकालीन मीडिया की भूमिका को लेकर तीखे सवाल हैं। सत्ता और प्रचार तंत्र के गठजोड़ और मीडिया की लोकतंत्र में सार्थक भूमिका के बीच के ‘गैप’ को यह कविता भलीभांति पहचानती भी है और प्रकट भी करती है। इनकी कविता में राजनीतिक दृष्टि और प्रतिबद्धता को भी स्पष्ट देखा जा सकता है।  घुँघरू की इन कविताओं में प्रेम का अनगढ़ सच है लेकिन संवेदनों के घनत्व के साथ। उनकी कविताओं को पढ़ना मानो निश्छल-निर्मल-पारदर्शी जल को अँजुलि में भर कर निहारना है।

घुँघरू की कविताएँ

1. सुनो-1

जब भी मिलना ऐसे मिलना
वहाँ कोई शब्द ना हो

भरभराई आँखों से मिलना
केश को हाथों में समेटना
उम्र को आँखों में
मौन को इस समय स्पर्श में ढालना
स्पर्श को शिकायत में

समय और प्रेम के वेग में
मैं अपने शिकायती स्पर्श से तोड़ दूँ
तुम्हारे हाथ की अस्थियाँ

तब सूरज को पिघला कर और
चाँद को गरमा कर
ठंढा-गरम का सेंक दूँ
ऐसा चिकित्साविधान में कहा गया है प्रिय

टूटी अस्थियों पर चाँद-सूरज का सेक लेते हुए
तुम्हारी मुस्कुराहट जैसे
जमीन पर सुबह की बेला में
गिरे ताजे फूल

2. सुनो-2

चलो इस दुनिया के मानचित्र से
बाहर ले चलती हूँ तुम्हें
सुनाना अपने मौन का वृत्तांत
रस्ते में
मैंने बनाए थे तुम्हारे कुछ चित्र
उनमें से एक खा गई थी मैं
तुम्हारे मौन से अच्छा कागज का स्वाद था

मेरा द्वंद्व और तुम्हारी समझदारी मिलाकर
चलो कोई बेवकूफी करते हैं
मैं तुम्हें सूँघ मूर्छित हो जाऊँ और तुम
बंदूक की गोली-सी अपने भीतर उतार लो मुझे

फोड़ दूँ तुम्हारा चश्मा
कि कभी मेरे ही चश्मे से देखो ना जरा
कह सको तो कह देना पागलखाने के डाक्टरों
यह पगली नहीं
किसी एक दिन

और तब मैं तुम्हें कर सकूँ
इतना ही प्रेम तो बस

कहो
ठीक है ना

3. जल

लबालब भर जाती प्रेम से
तब
अलस्सुबह चार बजे
नींद से झकोड़ तुम पिला देते पानी

नाक से कण्ठ तक ऐसे सूखता
जैसे गरमी में पौधा

प्यास से तड़पते हुए गिरने ही वाली थी
ऊँचे पहाड़ से
कूदने ही वाली थी अब सूखे-अंधे कुएँ में
पानी खोजते दस मील और भटकना था अभी

नानी की कहानी में
प्यासे शरीर को छोड़
आत्मा निकल जाती थी प्यास बुझाने
लेकिन यहाँ आत्मा शरीर का बोझ ढो रही थी

मुँह से कण्ठ तक फरवरी दौड़ रहा था
जल बसंत लेकर आया था
फूल खिले थे चेहरे पर
प्यासे की प्यास
नम आँखों से बुझती है

4. ढोलपुर स्टेशन

वीरान ढोलपुर स्टेशन पर
15-16 की नववधू लाल सितारे की साड़ी में
सेमल के फूल-सा ध्यान खींचती है

बेंच से दस कदम दूर अनुभवहीन नववधू
घूँघट काढ़े
गर्दन-पीठ झुकाए
तीन इंच हील के सेंडल पर
संस्कृति संभाले
ट्रेन को पीठ दिखाए बैठी है

छोटी बैंच उसकी गृहस्थ दुनिया संभाले है
एक बड़ा टीन बक्सा
एक सूटकेस
एक डोलची
एक बास्केट
एक ससुर और एक जेठ

पास खड़ा सजीला पति
पैरों की ठोकर से कुछ कहता उसे
नववधू घूँघट खींच
मुँह घुमा ब्लाउज से लिहाज का बटुआ निकालती है
उघड़ी कमर, पेट, पीठ, स्तन को बैंच पर बैठा संस्कार घूरता है
मानव सभ्यता बटुए के पैसे से उसे खाने देती है
शर्म और संकोच संस्कृति को रोकती है
इंसानियत पैरों की ठोकर से पुनः आग्रह करती है
आदर्श नारी गर्दन हिला संस्कार बचा लेती है
परम्परा की दोपहरी में तीन इंच की हील पर
संस्कृति तब थक जाती है
देवता बीड़ी पी थकान मिटाता है

सामने बैठा व्यक्ति चहक कर न्यूज़ पढ़ता है
अगले दस वर्षों में पूरे देश में दौड़ेगी पटरी पर बुलेट ट्रेनें

मैं देखती हूँ
सौ वर्ष पीछे के देश को खिड़की से बाहर
संस्कृति अब सुरक्षित थी

5. पहाड़पन

किसी ने पहाड़ खोद
निकाली थी चुहिया

माँझी ने पहाड़ काट
बनाया था रास्ता

शमशेर के व्यक्ति ने
कुहनियों से ठेला था पहाड़

मैं उखाड़ रही पहाड़
जड़ के साथ

पहाड़ टूट कर भी रह जाते
पठार, चट्टान, पत्थर, कंकड़
नहीं बन पाते मिट्टी

यही तो है पहाड़ का
पहाड़पन

6. आँख – जाँच

जाँच मशीन पर रख ठोड़ी
टिकाया माथा जैसे
कांधे पर तुम्हारे
डॉक्टर कहता -लम्बा ..दूर तलक देखो
एफिल टावर-सा दिखता कुछ उस मशीन में

डाक्टर फिर कहता है-नींद पूरी लो
गाजर और आँवला भी
गाजर एक सौ बीस रूपये किलो
आँवला सौ रूपये
सोच रही थी
एफिल टावर के पास की हरियाली
और ग्लोबल वार्मिंग के बारे में

डाक्टर झल्लाकर फिर कहता
कुछ पल बगैर पलक झपकाए
दूर तक नहीं देख सकतीं

तब मैंने सोचा तुम्हारी आँखों को
देखा
लम्बा…दूर…सबसे दूर..निर्निमेष

डाक्टर बोला मुस्कुरा कर
हाँ अब ठीक है!

7. कष्ट में देवता

टनकता है सिर मंदिर के बड़े घण्टों से
आँखें भी जलती हैं धूप दीपों से
नहीं सुहाती गंध
मुट्ठी भर अगरबत्तियों की

घुट रहा देवता मन्नत के धागों से
तुलसी के सीने में फांस है
अगरबत्तियों के गुच्छे की
पत्ते पर सिंदूर की टीस

थक चुका है देवता
उसके आलते का रंग फैल चुका है
साटन वस्र त्याग वह सूत नहीं पहन सकता
भक्तों के अतिशय प्रेम से उसे निमोनिया हुआ है

बड़ा बेबस है देवता
वह नहीं रख सकता स्नेह भरा हाथ किसी के सर
वह नहीं बाँध सकता मुट्ठी
ना ही रो सकता फफक कर
ईश्वर नहीं जानता कि
जिंदगी के सिवा भी ज़िंदगी में कुछ है
वो पत्थर है
मैं इंसान हूँ
बस देवता बनने ही वाली हूँ

8. जलकुंभी

होरी-हल्कू हैरान हैं
‘फांस’ का मोहन सूखे की चपेट में है
एक कृषि प्रधान देश में

लोकतंत्र का चैथा खम्भा
जलकुम्भी है
जिसका तना खोखला है

‘रस्सी जल गई बल नहीं गया’
कहावत पड़ रही झूठी किसान के जीवन में
फसल जल रही उनकी
और फंदे की रस्सी के बल हुए जाते मजबूत

सत्ता मेंहदी लगा कर बैठी सुकून से
जिस पर डिजाइन है विकास के मॉडल की

सुर्ख़ खून लगा है देखो
हाथों पर नहीं
मुँह पर उनके।

9. भरोसा
वृद्ध पत्रहीन नग्न गाछ पर बना
कौवे का घोसला है

किसानों का भरोसा है
निश्चित ऋतु चक्र में वृष्टि
फसल का समय से तैयार हो जाना
और इस वर्ष तो कर्जमुक्त हो ही जाना।

भरोसा,
एक सूखी नजरों से दूसरी सूखी नजरों
का मिलकर भींग जाना है

भरोसा
एक हारे दोस्त के काँधे को थाम लेना है
एक हताश व्यक्ति के काँधे पर हाथ रखना है
एक चिड़चिड़े व्यक्ति के काँधे पकड़ प्रेम से बिठाना है

भरोसा
चिड़िया-चुनमुनों का
गाँधी, बोस,रवीन्द्र की मूर्त्तियों के काँधे पर बैठ जाना है ।

कोई पंछी कब बैठ सकेगा
इसी भरोसे के संग !
कोई उखड़ा व्यक्ति कब रख सकेगा अपना
काँधा, इसी भरोसे के संग!
गुजरात के विराट ‘लौह-पुरुष’ के बुत पर !
जो अपनी ही भव्यता में एकाकी खड़े होने
को अभिशप्त है ।

10. उदास लड़के

उदास लड़कों को फूल नहीं भेजे जाते
उन्हें कॉफ़ी पर भी नहीं बुलाया जाता
उदास लड़के रोते भी नहीं
उनकी प्रेमिकाएँ भी शायद ही होती हों।

उदास लड़के अक्सर
कर्मठ या निठल्ले हो जाते हैं
थकन और ऊब से भरी उनकी यात्राएँ
आह-ओह-उफ् के साथ चलती रहती हैं।

यही सही वक़्त है जब
उन्हें अगाध प्रेम किया जाए
प्रगाढ़ आलिंगन किया जाए
फूल भेजे जाएँ उन्हें।

उन्हें कॉफ़ी पर बुलाया जाए
हथेली पर सिगरेट की जगह
कैंडी रखकर
उसकी खिलखिलाहट सहेज ली जाए।

लेकिन उदास लड़कों का हासिल यह नहीं होता
नज़रों से ठेला हुआ दुत्कार मिलता है उन्हें अक्सर
मन के भीतर भीतर-सा कुछ नहीं होता—
उदास लड़कों के।

11. तुम्हारे होने की इच्छा

तुम्हारे होने की इच्छा
हृदय में समाए
मैंने हरा रंग चुना

धरा ने
धरा है अपना हृदय
प्रकृति के रंग-रूप में
वैसे ही तुम्हें सोचते हुए
फूट पड़ता है हृद में कोई बीज
और फैल जाता है
बरगद की जटाओं की भाँति
सम्पूर्ण देह में हरे शिराओं की तरह

प्रेम में रंगों के लाल-गुलाबी परंपरा को
तोड़ते हुए
मैंने हरा रंग चुना
हरा रंग परिवर्तन का
हरा रंग प्रारंभ का
हरा रंग सावन का
हरा रंग प्रेम-पीर के
साधारणीकरण का

इंसान ने बनाए तब
हरा रंग धर्म का
हरा रंग कर्म का

इस सृष्टि चक्र में
जब सब नष्ट हो जाएगा एक दिन
तभ भी हरियाली रह जाएगी कुछ शेष
मेरे प्रेम की तरह
कुछ पर्वतों पर
कुछ जंगलों में
कुछ मेरे अंदर
यही जीवटता है मेरे प्रेम की

सतपुड़ा के जंगल हों या सुंदरबन
अमेजॉन जंगल से अफ्रीका के जंगल तक
तुम महसूस सको तो महसूसो
इस हरीतिमा में फैले
इन हरछौण रंगों की गमक
इनकी पत्तियों की धमक

पेड़ के आँसू
जंगल ही समझ सकते
कोई वनस्पति-वैज्ञानिक नहीं।

हरे रंगों में डूबी लड़की
प्रेम कविता लिखती हुई
नागफनी के फूल बन जाती है
तब उसका शूल ही
प्राणदायिनी है उसके लिए

घने काले और वीभत्स समय में भी
मैं हमेशा बनी रहूंगी तुम्हारी नजरबट्टू
हरे नागफनी की तरह
यही जीवंतता है मेरे प्रेम की ।।

12. इसी बीच

इस बीच एक बिल्ली अचानक
मेरे किताबों वाले कमरे से निकली और
वह पहले से कुछ ज्यादा विनम्र हो गई

इस बीच एक कुत्ता आजकल प्रतिदिन
मेरे पास बैठता और
वह पहले से ज्यादा वफादार हुआ

ठीक इसी बीच एक साँप मेरे पास से
सरसराता हुआ सा गुजरा और
फुँफकारना छोड़ पहले से
थोड़ा सभ्य हुआ

इन सब घटनाओं के ही बीच
जब एक दिन घास और फूलों के पीछे मैं
कुछ बच्चों को सुना रही थी गाँधी की स्वदेश प्रेम की कहानियाँ तब
कुछ छछूंदर सात घर छछूआना छोड़
अपने घर को सुंदर बनाने में लग गए

मैं कौन हूँ?
मैं लोक हूँ
मैं जनता हूँ
मैं सिर्फ आँकड़े या आधार कार्ड का नम्बर नहीं
कोई इस देस के राजा को मेरे सामने लाओ

ठीक इसी बीच.

कवयित्री घुँघरु परमार

जन्म-21 जुलाई,  भागलपुर(बिहार)

शिक्षा – पटना विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में स्नातक एवं स्नातकोत्तर, पत्रकारिता एवं बीएड
संप्रति- शोधार्थी (भागलपुर विश्वविद्यालय)

प्रकाशन – देश की महत्वपूर्ण पत्र–पत्रिकाओं में कविताओं का प्रकाशन। कुछ आलेख एवं समीक्षाएं भी प्रकाशित।
डिजिटल क्षेत्र में साहित्यिक पेज और ब्लॉग पर कविताएँ प्रकाशित

बांग्ला की प्रतिष्ठित कुछ पत्रिकाओं में बांग्ला भाषाओं में कविताओं का अनुवाद प्रकाशित

देश के कुछ महत्वपूर्ण साहित्यिक आयोजनों में भागीदारी

“हिंदुस्तान” कविता लेखन में प्रथम पुरस्कार
संपर्क पता – घुँघरु परमार, सिद्धा टाऊन, फ्लैट नम्बर-ऑटम-110, नारायणपुर, राजारहाट
पश्चिम बंगाल – 700136

मोबाइल -7004981616
ईमेल पता – ghunghru.parmar@gmail.com

टिप्पणीकार निरंजन श्रोत्रिय ‘अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान’ से सम्मानित प्रतिष्ठित कवि,अनुवादक , निबंधकार और कहानीकार हैं. साहित्य संस्कृति की मासिक पत्रिका  ‘समावर्तन ‘ के संपादक . युवा कविता के पाँच संचयनों  ‘युवा द्वादश’ का संपादन  और शासकीय महाविद्यालय, आरौन, मध्यप्रदेश में प्राचार्य  रह चुके हैं. संप्रति : शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, गुना में वनस्पति शास्त्र के प्राध्यापक।

संपर्क: niranjanshrotriya@gmail.com)

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