अमरेंद्रनाथ त्रिपाठी
प्रेम इन कविताओं में आवर्ती विषयवस्तु की तरह है। इसी के जरिये रचनाकार अन्य जरूरी संवेदनात्मक पक्षों पर भी मुखर हुआ है।
एक तरफ स्त्री के प्रेम की नैसर्गिकता है तो दूसरी तरफ पुरुष के प्रेम की अस्वाभाविकता व चालाकी। इसे बातचीत के लहजे में सीधे-सीधे व्यक्त होता देखा जा सकता है: ‘तुम निहायत ही पक्के खिलाड़ी रहे!’ प्रेम में छले जाने का अहसास है लेकिन छलने वाले की तरह खुद को बना लेने की या बदला लेने की कोई कोशिश नहीं। ग्लानि होती है लेकिन वैसा या उसी की तरह कैसे हुआ जाय जिससे शिकायत है। इसलिए लड़कियां पहाड़ सा जटिल दुःख पाल ले रहीं:
ये सच है कि प्रेम केवल
लत पड़ जाने तक ही साथ रहता है
ये और भी सच है कि लड़कियाँ
दुःख पाल कर लेतीं पहाड़ सा जटिल
दग्धता कविताओं में वक्रोक्ति का रूप भी लेती है। जहाँ रूपकों में उस दशा को व्यक्त कर दिया जाता है जो घटा है। मसलन इस रूपक में देखें, निर्मम गले को नरम कहने की वक्रोक्ति सहज है:
मेरी मन्नत उसके गले के ताबीज की गाँठ से भी
ज्यादा सख्त और कसी हुई थी
और उसका गला इतना नाजुक रहा
कि उसे गाँठें चुभने लगी थीं आजकल
सो उतार अलग कर दिया गया मेरा प्रेम
बेअसर गई दुआओं सी बेकदरी में
‘एक दिन अचानक’ और ‘बैलेंस्ड जिंदगी’, इन दोनों कविताओं को साथ-साथ पढ़ा जा सकता है। एक स्त्री में एक दिन अचानक परिवर्तित हुआ जो दिखता है उसे धीरे-धीरे बैलेंस्ड किया गया है। उसकी बाकायदे ट्रेनिंग हुई है। ट्रेनिंग देने वाले अपने ही हैं। इतने अपने कि ‘लीगल रेपिस्ट’ शब्द ना-वाकिफियत के शब्द-सन्दर्भ के साथ फूट पड़ा। जिंदगी में बैलेंस का चरम है यह।
यह वैसे ही नहीं है जैसे खाने में नून-मिर्च-मीठे का बैलेंस। दुःख का पहाड़ इसी का नतीजा है। इसी पहाड़ से दबी एक दिन अचानक वह बदल चुकी होगी। जिस वक्रोक्ति की चर्चा ऊपर हुई है वह ‘एक दिन अचानक’ कविता में भी द्रष्टव्य है। बैलेंस्ड जिंदगी के लिए जैसी ट्रेनिंग दी गयी है, वह कामयाब होगी:
सारे काम अचानक से ही
बिलकुल ठीक से पूरे किया करेगी
फिर भूल जाएगी वो बेबात ही
चहक कर खिलखिला देना
रचनाकार ने कहीं कविता में निदानात्मक होकर यह कहने की कोशिश नहीं की है कि ऐसा है तो लड़कियां ऐसा करें। जिसने ऐसा किया है, वह खुद पछतायेगा या अभाव महसूस करेगा ऐसा आशय कविताओं में मिलेगा।
यद्यपि यह भी स्त्री-पक्ष की भलमनसाहत की तरफ से सोची गयी बात है जोकि उसकी स्त्री-अभिव्यक्ति के रूप में ठीक भी है। उधर का यही सच हो जरूरी नहीं। लेकिन कविताओं में कहीं बचाव का सुझाव नहीं दिया गया है। यह त्रासदी तो कविता ही नहीं जीवन की भी त्रासदी है। ‘सोच लें और उदास हो जाएं!’
प्रेम की तरफ से उठी हुई भावनाएं व चिन्ताएं कविताओं में पितृसत्तात्मक लक्षणों को पहचानने व उन्हें उघाड़ने में व्यापक होती जाती हैं, विस्तार लेती जाती हैं। सवाल उठाया जाता है कि क्यों अब तक की संस्कार-दीक्षा एकतरफा रही।
वह सिर्फ पुरुष-केंद्रित रही। उसी के लिए सारे विधान बने। परम्परागत कहावत को प्रश्नविद्ध करती ‘औरत के मन की राह’ की ये पंक्तियाँ देखी जानी चाहिए:
आदमी के दिल का रास्ता उसके पेट से
होकर गुजरता है
बेटियों को हर बार ये तो बतला दिया
पर औरत के दिल को जाने वाली राह को क्यूँ
लगा कर पाबंदियों के ताले सबने बिसरा दिया
बच्चों के लालन-पालन में भी पितृसत्तात्मक काइयाँपन देखा जा सकता है। बेटे के साथ दूसरा भाव। बेटी के साथ दूसरा। ‘चिरैया’ कविता में वह झूठी खुशी अनावृत हुई है जिसमें खुद जिया जाता है और संतान को जिलाये भी रखा जाता है।
जन्म के बाद से ही जिसे ‘चिरैया-सोनचिरैया’ कहा जाता है उसकी सच्चाई यह है कि उस चिरैया की उड़ान स्वप्न ही रह जाती है। हकीकत में उसे पिंजड़ा ही मिलना है। यह अहसास अपनी मां से मुखातिब हुआ है:
बड़ी भोली रह गयी
कबहुँ न जान पाई
उड़ जाने का मतलब
ब्याह नहीं होता है री माई
इस पिंजड़े में ‘मायके से वापस आईं औरतें’ भी तैनात हैं। ‘रण में उतरे सैनिकों सी’ युद्धरत! यहां उन्हें उसके लिए सारी लड़ाई लड़नी है जो युद्धक्षेत्र में उनका सहधर्मी नहीं है। अपनी ‘खुद की सेनापति’ उन्हें ही बनना है। ऐसा युद्ध जिसे कभी ख़त्म नहीं होना है। पीढ़ी दर पीढ़ी शहीद होते जाना है:
इनके युद्ध ख़त्म न हुए
मरके शरीर अकड़ गया सारा
घी लगाओ कोई बदन पर
खुश्क कितना हुआ जा रहा
जैसे रात के अँधेरे को चीरता सुबह का प्रकाश प्रकट होता है वैसे ही उत्पीड़ित जिंदगी में नयी पीढ़ी के रूप में बदलाव की रोशनी दिखाई देने लगी है। ‘निम्बोरी’ अब अपना मतलब बदलने को है। वह ‘मीठी निम्बोरी’ हो रही। अपनी माई से वह जिंदगी की सारी कड़वाहट छीन लेने की वचनबद्धता के साथ संवादरत है। माई जो बेटे की आस में आधी होती जा रही, उसकी समझ वह बदल रही है। भविष्य के लिए एक सुन्दर सन्देश है, मां की उक्ति: ”माफ़ करना मुझे / मेरी मीठी निम्बोरी”।
बबली गुज्जर की कविताएँ
1. बोधिवृक्ष
कविताएं बदन के किसी जड़ हिस्से में
नहीं कर पाती हैं पुनः जीवन संचार
कविताएं धमनियों में जमा रक्त कणों को
नहीं कर पाती हैं कभी महीन तरल
कविताएं सुन्न हथेलियों को
नहीं महसूस करा सकती हरकतें
कविताएं स्टेनोसिस हुई नसों के लिए
स्टेंटिंग बन नहीं कर पाती हैं कोई मदद
कविताएं नहीं भर पाती हैं
रसोईघर के रीते कनस्तर
कविताएं नहीं जोड पाती हैं
टूटते हुए लोग, टूटते हुए घर
कविताएं नहीं ला पाती हैं वापस
अलविदा कहकर गए लोगों को
लेकिन कविताएं ज़रूरी हैं
धरती पर जीवन बचे रहने के लिए
मानवता का धरम बने रहने के लिए
हाथों पर प्रेमियों के नाम रचे रहने के लिए
…..कविताएं ज़रूरी हैं…
कविताएं लिखी- पढ़ी जानी चाहिए
ताकि सालों बाद जब कोई प्रेमी
खोले किसी किताब को
तो पन्नों के बीच उगा मिले
कोई घना हरा बोधिवृक्ष
कविताएं कही- सुनी जानी चाहिए
ताकि जब कवियों के हाथ
थक जाएं कविता लिखते लिखते
पिंडलियाँ दुःख जाएं,
प्रेम का पीछा करते करते
तो उसी वृक्ष तले बैठकर सुस्ता सकें
आत्मा को मिले फिर जन्म लेने का बल..
ताउम्र अकेले रहे प्रेमी बिता सकें सुकून में
कविताओं संग ज़िन्दगी के कुछ आखिरी पल…
2. नदी होने का लिहाज
एक धुंधली सी याद में
मुझे स्मरण है ये
उसने मुझसे एक रोज़ कहा था
‘तुम बिल्कुल नदी सी हो’
और ‘लहर’ नाम के सम्बोधन से
अनेकों बार पुकारा था मुझे
लेकिन एक महीन बात
भूली नहीं हैं आत्मा
कि वो बिल्कुल पहाड़ों सा था
इतना ही विशाल
इतना ही जटिल
कहीं सुगम महसूस होता
कहीं सागरमाथा सा कठिन
उसने दर्शनशास्त्र में महारत हासिल की हुई थी
बातों की ऐसी मीठी खुशबु फैलाता
जिसमें मंत्रमुग्ध होकर अक्सर मैंने
विस्मृत कर दिया अपने नदी होने का लिहाज
मैं न तो गांधारी थी, न कोई कानून की देवी
फिर भी जाने क्यूँ आंख मूंद पीछे चल दी उसके
उसके दिखाए रास्तों पर चली
उनके बनाए बीहड़ों में फंसी
कभी चली मिलोंमील बेख़ौफ़
कभी हारकर ज़िन्दगी से
शान्त हो उसके सीने पर आ थमी
मैं भूगोल में कमज़ोर थी
इसलिए ज़रा सी बात समझने में
एक बरगद सा घना समय लग गया
कि नदी को याद रखनी होती हैं
नदी बने रहने की सीमाएं
रुकना उनकी प्रकृति के विरुद्ध है
न हो बेशक दूर देस तक बहने की इच्छाएं
उसने जीवन नियमों से जिया था
इसलिए अचानक छोड़ दिया एक रोज़ मुझे
एक गहरे खारे समंदर में
मानों नाराजगी में कोई प्रेमी
झटके से हटा दे सीने लगी प्रेयसी को
सम्भलने का वक्त दिए बिना
छुड़ाकर हाथ दूर कर दिया खुदसे
लड़खड़ाती हुई मैं
आ गिरी ज़मीन पर
खो गई समंदर की गहराई में
और खत्म कर दिया अपना नाम
अपने नदी होने का अस्तित्व
3.
मेरी मन्नत उसके गले के ताबीज की गांठ से भी ज्यादा सख्त और कसी हुई थी
और उसका गला इतना नाज़ुक रहा
कि उसे गांठे चुभने लगी थी आजकल
सो उतार अलग कर दिया गया मेरा प्रेम
बेअसर गई दुआओं सी बेकदरी में
प्रेम की स्वीकृति के लिए
नहीं कहनी होती तीन ‘कुबूल है’ की हामी
न ही बिछड़ते समय किया जाता है आगाह
सपनों की नदियों को नहीं मिलते कभी
सच्चाई के समंदर
नींद की कोई शक्ल होती
तो नामालूम कितने लोग उसके प्रेम में बौराए होते
कामदेव का कोई रंग होता
तो यकीनन उसके बाएं गाल पर बने तिल सा गाढ़ा भूरा ही रहता
उसने चाँद पर अक्सर मेरा नाम लिखा
मैंने मेहँदी में उकेरा कई बार हमारे नाम का मेल
पर ईश्वर निर्दयी था,
उसने समय की किताब पर
दो अलग पृष्ठों पर अंकित किए हमारे भाग्य
ईश्वर से याद आया
कल सारी रात मंदिर से घण्टियों की तेज़ आवाज़ आती रही
आवाज़ से याद आया,
कभी कभी मेरा गला रुन्धकर इतना भर्रा जाता है कि तुम्हारे एक नाम के बीच
आ जाती हैं दो बार सिसकियाँ
तुम्हारे नाम के विच्छेद की गूंज से
सीने में एक हूक सी उठती है
तुम्हारे नाम की संधि लिख
श्लोक आयतों सी पढ़ती हूं
गला तर करने के बाद
पुनः बुदबुदाती हूँ तुम्हारा नाम कई बार
तब कहीं अधीर मन पाता है सुकून की टेक
एक तुम्हारे नाम मात्र टूट जाने की पीड़ा से
जल उठता है मन मेरा इतना
तुम तोड़ कर एक प्रेम से लबालब हृदय
कैसे जी पा रहे हो इतना सामान्य जीवन !
4. नवकी दुल्हिन
बरसों बाद लौटी बिटिया
विस्मय में पड़ टटोल रही घर
ताक रही आंगन दालान छत चौबारा
कौन ले कर आए बीता वक्त दोबारा
अम्माँ तुम ई छुटका कमरा में काहे रहने लगी
उ बड़की बैठकी में ही रहती न??
और ये कैसी साड़ी पहनी है?
माथे से ज्यादा सलवटें हैं इसमें..
बाबा के जाए बाद, सिंगार उतारना था
मुस्कुराहटें न बन्द कर देनी थी डिबिया में
उ सब छोड़ लाडो तू बता
ठाठ से रहती हैं न ससुराल में?
आँखों में उतर आता अचानक सावन
बरस जाने को आतुर पलक घटाएं
राजकाज कहानियों में होता था री माई
दुःख पहाड़ सी बड़ी कथा, किसको बताएं
कि एक लड़की मेमनों और जुगनुओं के पीछे भागते भागते
कभी पहुंच जाएंगी इतनी दूर
मुश्किल हो जाएगा मुड़ कर वापस लौटना
नैन रिसते रहे, हलक भरता रहा
दिल भारी और हल्की पड़ती नजर त्योंरी
भरे गलों से गईं, लौटी खाली नैनों से
दुःख नज़रों से कह दिए
ठहाके लगा कर बहनों से
उनका जीवन कठोर था
इतना कठोर जितनी होती है सिल की ठेक
इतर बितर कर किनारे कर दी गईं
तू ज्ञान न बाँट, बस रोटियां नर्म सेंक
बचपन का पसंदीदा खेल
जिसमें बनती वो दुल्हन
बचपने में किया गया
सबसे झूठा प्रपंच
नवकी बहु पानी ला
नवकी बहु मंदिर जा
देह चमके, चेहरा दमके
सबका भोजन हुआ, आ अब खा
ये दुल्हिन शबद
कौनो राजकुमारी के लिए न बना था री माई
घर की बहु होवे है बस खूंटे की गाय
जल का लौटा सिला उठ जल्दी अँधेरी सुबह
स्याह रात में ही फिर बिस्तर पर जाए
अभी न जाएंगे सावन- सावन सुन लेओ
कोई दुःख सुने , बांच ले रोम रोम से पीर
तरसे नैनन बहे को, कंठ रुंधा रुंधा सा
बारिशों में भीगने को है मन कितना अधीर
5. भरपाई
उसने कुल दफा
हजार बार, मेरा हाथ थामा
सैंकड़ों बार, मुझे चूमा
दसियों बार, सीने से लगाया
पर छोड़ कर सिर्फ एक बार ही गया!
कुछ चीजों की न पुनरावर्ती होती है
न भरपाई!
6. चिरैया
बाबा चिरैया कहते उसको
सबकी प्यारी सोन चिरैया,
अम्मा बुलबुल कहती जब
तो इठला जाती सुनकर
उ देखो दूर फैला गगन
उहाँ ही उड़ जाएगी रे तू
कबहुँ न लौट के आवेगी
बुलबुल झूम उठती
बादलों के ख्याल से ही
लेकिन जब उड़ने को
पंख फैलाती वो कभी
तो टोक दी जाती सदा
उसे पंखों का गुण देखना था
हवा को काटकर पंखों की धार से
जाना था एक बार बादलों के पार
उसे इंतज़ार रहा जीवनभर
उड़ान के दिन का, आज़ादी का..
हाँ घरौंदे बसाना होता है
हर बुलबुल के लिए ज़रूरी सा
ताकि वापसी की राह बनी रहे
लेकिन उड़ान भरना भी तो
कितना ज़रूरी होता है ना??
माई जहां तू भेजी है न
उ आसमान न है मेरा
मुझे कोटर चाहिए थी
कोई बंद कोठरा नहीं
बिन उड़े ही जाने क्यों
कुतर दिए गए सारे पंख
बड़ी भोली रह गई तू
कबहुँ न जान पाई
उड़ जाने का मतलब
ब्याह नहीं होता है री माई
7. बेलेंसड ज़िन्दगी
तुम्हारे झुक जाने भर से
नहीं झुक जाएगा
दुनिया भर का
झूठा अहम
तुम्हारे जल जाने भर से
नहीं भस्म हो सकेंगी
बरसों पुरानी रीति
तुम्हें लगता है
कि तुम पहली
या आखिरी पीड़ित औरत हो
तुम्हें लगता है
मृत्यु सब ठीक हो जाने का नाम है??
तुम बरसों प्रेम के नाम पर
ठगी गयी हर जगह
वो पिता जिसे नोच लेनी थी
हर उठती निगाह को
उसने तुम्हें सौंप दिया
एक सरकारी कर्मचारी को
लीगल रेपिस्ट
शब्द से नावाकिफ रही आजीवन
तुम्हें सादा दाल
कहकर लगाए गए दोस्तों में कहकहे
चिकन बिरयानी सी लड़कियां
ललचाती रही तुम्हारा मन
उड़ जाने को आतुर
पायलों के बोझ में दबी
तुम आज नहीं मर रही हो
तुम जी ही कब रही थी
तुम्हें जीना सिखाया ही न गया
तुम्हें सिखाया गया
दबना, झुकना
और हामी में हिला देना गर्दन
दर्द मत बताना
आँख मत उठाना
सीने में भरी आग सारी
दुपट्टे में अपने दबाना
ट्रेनिंग चलती रही
चाय बनाने से शुरू होकर
दाल-भात, सब्ज़ी-तरकारी
तुम्हें बस इतना समझ लेना था
नून मिर्च मीठे के बैलेंस सीख लेने भर से
ज़िंदगी बेलेंसड नहीं हो जाती मेरी जान..
8. नक्शे
ये क्या सारा समय
नक्शे बनाते रहते हो
थोड़ा नज़र और कलम को
आराम भी तो दिया करो
तुम भी तो सारा वक्त
कविताएं लिखती रहती हो
उसने एक आँख ऊपर कर
गर्दन मटकाते हुए जवाब दिया
सारे कागज़ कलम नक्शे एक तरफ कर
उसने मुझे अपने पास खींचा
कभी डांटा तो तपती धूप सा लगा
कभी बारिशों सा बरस मन मेरा सींचा
उसकी कलम का रंग
उसकी आँखों जितना गहरा था
एक दिन मेरे दाहिने काँधे पर
बना दिया उसने उल्का पिंड सा तिल
और बाएं काँधे पर पूरी सावधानी से
उकेर दिया एक सम्पूर्ण नक्शा
जानती हो तुम एकदम जंगली हो लहर
बिना नियम कानून समाज रिवाज के जीती हो
तो मेरा नाम सुनामी रख दो ना
कहकर मैं बहुत देर तलक खिलखिलाई
मैं कभी अपने जंगली होने की सीमाओं
और उसके शहरी होने की वर्जनाओं को
दो अलग अलग भागों में न कर सकी
एक भावनात्मक तूफ़ान में
बादलों के घिरते ही हुई अंधेरे
और विचारों की मुठभेड़ में
तीव्र बिजली की कड़कड़ाहट संग
वो मेरी आँखों से मरीचिका सा ओझल हो गया
मैं उसे ढूंढने दरबदर भटकी
न शहर के कायदे जानती
न शहरी लोगों के तौर तरीके
नुकसान फायदे पहचानती
भीड़ भरी सड़कों पर चलने में हिचकती
तंग अँधेरी गलियों में भटक भटक सिसकती
पीठ पर बने उल्कापिण्ड
अचानक सुलगने लगे थे,
मैंने काँधें पर गढे नक्शे पढ़ने की
बेहिसाब असफल कोशिशें की
पर न बांच पाई उसकी कूट भाषा
दुनिया का हर प्रेमी
प्रेम के रोमांचक पहर में
प्रेमिकाओं की पीठ पर
उकेर जाता है एक तिलिस्मी
कभी न मिल पाने वाला नक्शा
और जंगल सी बेपरवाह
बेतरतीब, बेवजह प्रेम करने वाली लड़कियां
ताकती रह जाती हैं उम्र भर
अपनी सूनी, खाली, कोरी हथेलियाँ
9. मायके से वापस आईं औरतें
अचार की डिबिया में
ले आई माँ की खुशबु
बाबा की दी हुई भेंट को छुपाए
पर्स के कोने की जेब में
कसके चैन लगाए
मायके से वापस आईं औरतें
रण में उतरे सैनिकों सी
सेंडिल पहन डगमगाती
मुंह फेर कौर चबाती
कमर कसती है
पायल गड़ती हैं
काजल चुभता है
लाली घिनाती है
पल्लू ढक कर
दूध रहें पिलाती
दुपहरी की झपकी में
नींद में बनाती योजना
अपनी खुद की सेनापति
ऊंघती चावल बीनती
झुरमुट खो जाते
आँख लगाए ढूंढती
धुरमुट बन जाती
मिर्च साबुत नमक कूटती
इनकी रणनीति हल्दी चून धनिया
रूपये पैसे को गिनती दस बार
बन जाती गल्ले पर बैठा बनिया
इस बार ले आएंगे
एक गैस चूल्हा हम
खों खों कर आंच जलाती
घुटने लगा है दम
इनके युद्ध खत्म न हुए
मरके शरीर अकड़ गया सारा
घी लगाओ कोई बदन पर
खुश्क कितना हुआ जा रहा
ये सपने देखती रहीं
एक बड़का टेपरिकॉर्डर
एक नथनी गोल मोती जड़ी
पीहर जाए को खरीद लें स्कूटर
मन जमा, आंख रिसती रहीं
कोई औरत माँ के बाद सीने न लगी
कैसे समझाएं, किसको बतलाए
भर भर हाथ चुडियां पहन लेने से
नहीं छनक उठती बेआवाज़ हुई ज़िन्दगी
10. नदी का आसरा
तुम्हारे हिस्से आई
दुनिया भर की तवज्जो
और तमाम फिक्रमंद अहसास
और मेरे हिस्से आया
एक अकेला इंतज़ार
मैं बचपन से ही ऐसे खेल में
कच्ची रही थी सदा
अपने पाले में सबसे कमजोर
सबसे अकेली, सबसे कमतर
वो किताबों के ऊपर रखी
गुलाबी गुड़िया न जाने कैसे
वक्त के साथ हो गई स्लेटी,
मैं पंखे से टकराई
उस अधमरी चिड़िया सी
बाट जोहती हूँ नीली बारिशों की
मैं वो नदी थी
जिसकी नियति था
ठोकर खाकर
उमड़-घुमड
बहते-थमते
जैसे तैसे
तुम तक पहुंचना
तुम समंदर से गहरे थे
शायद इसीलिए इतने खारे भी
उस रोज़ जब तुम
मेरी पनाह में रहकर भी
नहीं थे मेरे करीब
मैं समझी नहीं थी ये
कि कुछ रास्ते
बिछड़ जाने के लिए मुड़ते हैं..
रिश्तों और कविताओं पर
लगाई गई वैधता की पाबंदियां
उनकी खूबसूरती तबाह कर देती हैं
तुम्हारी जरूरत और आदत
बनने की ख्वाहिश में
मैंने झुठला दिया तुम्हारे मुझसे
दूर चले जाने का
वो उबकाई लाने वाला सच
मैं भूल गई थी
नदी को चाहिए होती है
समंदर की पनाहें
समंदर न माँगता, नदी का आसरा
11. दर्द
‘दुधमूहों को सीने से चिपकाए
पिसती- पिसाती रही सदा ही
थकान को थकाती रहीं फिर भी
न कोई दुखती कमर पर रगड़ें बाम
का री महुआ, का हुआ था तुझको
कल रात काहे इतना कराह रही थी
सुख दुख बाँटने की चीज होत पगली
काउ से बताती नहीं क्यों मन की पीर
आंगन बुहारती, खूंटों पर पानी धरती
दुबार पर बैठी दादी को देती काढा
हल्की पड़ चुकी थी मुस्कुराहट क्यों
रंग चेहरे का पड़ने लगा था गाढ़ा
शुष्क होती मन की धरा बेचैन निगोड़ी
पर वो बस अचार की बर्नियां सुखाती
उ पांच दिन तुम छू कर न जानों पीड़ा
छठी रोज़ लाली बिंदी कर तुमको लुभाती
का री ललिया देख तो ज़रा तनि जाके
कई रोज़ से भूरी कुतिया न घर आई
भारी पेट लिए घूमती रही बाहर भीतर
कौन गर्त में जाने बेचारी जा कर ब्याई
बड़ी पीड़ा होवत बालक जने में बिटिया
भर कटोरा गर्म दूध का, गुड़ लेई मिलाय के
उसकी पीड़ा न जान सका उसका परमेश्वर
ई लाने जान लेती दर्द बकरी बिल्ली गाय के
12. ब्याह की उमर
कूल्हों पर जमने लगी है उम्र
गदराई सी हो चली कमर भी
वो निकल तो जाती है सूरज छुपे
पर रहता है अब अजीब सा डर भी
सम्भल कर चला करो थम कर ज़रा
दो पग इधर दो पग उधर जो चल दी
ये पिछले दो बरस बडे ही सलाखें हुए
कहकहों पर क्यों उसके लगी पाबंदी
दहलीज़ों पर पसार कर पैर जब
रोई थी वो मेले में जाने को एक रोज़
चुप करा दी क्यों सदा मूरख मानकर
क्यों न हल्दी लगी जब दुखी खरोंच
किसी रोज़ तुम्हारे देह से गुज़रने पर
उसने सजा लिए अनगिनत सपने
परायों से वजह ढूंढती सुकून की वो
क्यों भूल गयी जाने अपने भी नही अपने
उम्र से पहले क्यों धंस गई मटोल आँखें
सोचा कभी क्यों उतर आया उनमें बसन्त
हल्दी सी होती देह में दुखन क्यों इतनी
क्यों टकटकी लगाए देखे आकाश अनन्त
चौदह बरस की झोंक दी चूल्हे में
कसे कुर्ते भी न और न आई जवानी
ये ब्याह की उमर कैसे फिर आई जल्दी
कुछ बरस और रुक जाती मरजानी
13. निम्बोरी
निम्बोरी नाम था उसका
हद दर्जे की अड़ियल
बाप से भिड़ गई थी
माई की खातिर
“बापू जो पीकर आओगे
तो फिर दल्लान में पड़ी
चारपाई पर ही लेटना होगा”
बाप से ज़बान लड़ाती है
दादी ने तुरन्त डपट लगा दी
बापू से नहीं अम्मा
एक शराबी आदमी से…
साSSSSSली
मेरे बच्चों को भड़काती है
नशे में धुत्त भर्राई आवाज़
और आगे बढ़ता हुआ हाथ
वही आवाज़ जिसे सालों से
चादर के भीतर से ही
सुनते हुए गुज़ार दिया था
डरता सा कांपता बचपन
सिमट कर पोटली बना शरीर
माथे पर उगती पसीने की बूंद
आज बोल तो दिया उसने
लेकिन पैर कांप रहे उसके
ठीक वैसे ही जैसे प्रार्थना के समय
डर गई थी सुविचार सुनाते हुए
कोई तो आये जो घुटनों को
हाथ धर के स्थिर कर दे!
माई को ज़मीन से उठाकर
खटिया पर बिठाते हुए बोली
माई तू अकेली न है अब
तेरी निम्बोरी तेरे जीवन से
सारी कड़वाहट छीन लेगी,
बेटे की आस में
आधी होती माई के
हलक में आकर अटक गई
वो सारी पुत्र प्राप्ति की प्रार्थनाएं
सिर पर हाथ धर कर
चंद लफ्ज़ निकल पाए मुंह से
“माफ़ करना मुझे,
मेरी मीठी निम्बोरी”
14. खोना
खोना क्या होता है
ये उस दिन पता चलेगा
जब वो तुम्हारे बिना
रहना सीख जाएगी
तुमसे बात करे बिन
नहीं होगी उसको बैचनी
नहीं रूठेगी फिर कभी
कि तुम मनाओ करके जतन
जानते हो इस बार जब तुम गये
पीड़ा उसकी वैसे तो कम न थी
तुमने सिर्फ इतना खोया अबके
आंखें उसकी पहले सी नम न थी
तुम जियोगे लेकर संग अपने
कभी न दर्ज होने वाली शिकायतें
फिर कभी न करेगा इंतज़ार कोई
सुनाओगे किसे सब अपनी रिवायतें
दर्द गवारा था सारा ही उसे
हर पल तुम्हारे सदके जिए
उसे सारे ज़ख्म मंजूर थे प्रेम में
लेकिन गैरों के न, सिर्फ तुम्हारे दिए
तू उसके कहकहों में ए जानाँ
न देख पाए कभी वो उतरा चेहरा
दिलों के बीच न थी दुरी इतनी कभी
न था हिचकियों का कहकहों पर पहरा
क्यों गये पास तुम उसके इस कदर
वो खुश थी न पहले भी अकेले
उसे कब थी तमन्ना भीड की कभी
न चाहिए थे मुस्कुराते लोगों के मेले
उसे चाहिए थी पनाह तुम्हारी
दिल ने माँगा फकत तुम्हारा साथ
कभी जान लेते कैसे गुज़रता दिन
कितनी स्याह हो गयी है हर रात
कोई जा रहा है देखो अकेला
एक उम्र खर्च कर इंतज़ार में
टूट चुका है बेइन्तिहाँ ए जानां
अपना सब गवां कर तेरे प्यार में
15. देह
जब तुम लिखोगी
कोई नमकीन कविता
वो ललचाते आएंगे
ढूंढने उसमें तुम्हारी देह
डर में लिखी कविता में ढूंढेंगे तुम्हें
किसी अँधेरी दिल की गली में
कुलमुलाती उँगलियों के लिए
तुम्हारा ठंडा झुकता सा कांधा
तुम दर्द लिखोगी जब
मरहम तले आएँगे पास
तुम चीखकर चिल्लाओगी
वे सिर्फ देह कहेंगे, देह सुनेंगे
कोई समझ पाया है भला
साँसों में महकती प्रीत कभी
रूदन किसी कविता में सुनना
शब्दों में खोज पाना खोई ज़िन्दगी
कभी किसी स्त्री के हाथों पर
गिनना जले हुए दागों के चिन्ह
इतने बरस में सम्पदा के नाम पर
बटोरे हैं दसियों देह के ज़ख्म
कोई तो सुने गूंज कहीं कभी
सिसकती हुई कहीं खुशियां
मिट्टी के जिस्म में बंधी जाने
कितनी सख्त हैं कसती बेडियां
देह के बंधनों से उन्मुक्त
पढ़ लेना एक कहानी
गढ़ लेना मन में एक
नायिका कोई मुझ सी ही
पर मत ढूंढना मुझमें कभी
कहीं तुम्हारी बनाई छवि को
क्यों चंद कविताओं में तुम
जान लेना चाहते हो कवि को
16. एक दिन अचानक
एक दिन अचानक
वो तुमसे रूठना छोड़ देगी
और तुम्हें पता ही न चलेगा
वो जो रूठ जाती थी अक्सर
मेहंदी का रंग हल्का रह जाने पर भी
मूक हो जाएगी
कलाई पर पड़े निशानों के रंग से भी
विचलित न होगी फिर
या चंद लम्हों के लिए भी जब तुम
कभी नज़रों से दुर हो जाते थे
तो कितनी बेचैन हो उठती थी वो…
वो तुम्हारे देर रात तक लौटने पर भी
नही करेगी कोई सवाल फिर…
सारे काम अचानक से ही
बिल्कुल ठीक से पूरे किया करेगी
फिर भूल जाएगी वो बेबात ही
चहक कर खिलखिला देना
वो फिक्र में तुम्हारी
कॉल न करेगी बीसियों बार
तुम्हें देकर सारे अधिकार खुद पर
तुम पर हक जताना छोड़ देगी
वो बन जाएगी ऐसी
जैसी तुम चाहते हो फिर
खो देगी खुद को
तुम्हें पाने की जद्दोजहद में
जैसे ‘तुम’, ‘तुम’ न रहे हो
एक दिन ‘वो’, ‘वो’ न रहेगी
समझ लेना उस दिन उसे,
हो सके तो छू कर देखना उसे
महसूस करना उसकी उदासी
झांक कर देखना उन आंखों में
जिनमें कभी डूब जाया करते थे तुम
वो आंखें क्यों धँसती जा रही हैं
क्यों वो समंदर बन गई हैं
नाप कर देखना उस रोज
उसकी नाभि की नहीं,
आंखों की गहराई
एक दिन अचानक…
17. औरत के मन की राह
कोई मुकर गया जन्मों के वादों से
कोई बैठा रहा कर भरोसा
जाने वालों की वापसी के इरादों पे
कोई पत्थर बन गया कैसे दिल कठोर हो गया
कोई रो रो कर इतना बहा कि जैसे मोम हो गया
माथे पे उसके, तुम्हारा नाम न हुआ
मेहँदी में कभी कोई छुपा पैगाम न हुआ
वो हाथ की लकीरें नहीं मिटा सकती थी
अपनी सोई तकदीर नहीं जगा सकती थी
मुहब्बत की पैमाइशों में
एक तन की ख़ाक उड़ाना काफी नहीं है
पर खानदानों की लाज बचाना भी तो
कोई गुस्ताखी नहीं हैं
प्रेम में पड़ी लड़कियों से मांगे गए क्यों हर बार
लोकलाज करने, पगड़ी बचाने के वादे हज़ार
उसके जिस्म पर चढ़ा दिया लाल रंग का पहरा
कैसे छूटेगा मोह का रंग पिछला था बहुत गहरा
जो गहरा सच था वो हर राज़ तो माँ है जानती
क्यूँ नहीं खुश बेटियां, अब क्यूँ बयान हो मांगती
किसी जलते हुए मन की पीड़ा को
जलते जिस्म की भस्म में दबाना आसान लगा
प्रेम दूर कर, छीन ली पैरों तले की धरा तुमने
फिर कौन कौन जाने उनपर आसमान बना
प्रेम की मूरतों ने ही, प्रेम दूर कर दिया
बेटियां न पलट कर आ सकीं
और न आगे कभी जा सकीं
इस कदर क्यों मजबूर कर दिया
लड़कियां मंदिर की दहलीज पर,
माथा रगड़ने के लिए नहीं बनी हैं
बेटियां अपने हिस्से के सुख खोकर,
दुनिया भर के बोझ ढोने के लिए नहीं जनी हैं
आदमी के दिल का रास्ता उसके पेट से होकर गुजरता है
बेटियों को हर बार ये तो बतला दिया
पर औरत के दिल को जाने वाली राह को क्यूँ
लगा कर पाबंदियों के ताले सबने बिसरा दिया
(बबली गुज्जर (3 नवम्बर 1990) की कलम नई है, बबली गुज्जर दिल्ली की मूलनिवासी हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय से मास कॉम्युनिकेशन की पढ़ाई की है। फोटोग्राफ़ी का शौक़ है।
टिप्पणीकार अमरेंद्र नाथ त्रिपाठी वर्तमान समय में अपनी अवधी कविताओं के लिए पहचाने जाते हैं. नोटबंदी पर सम्पादित अपने अवधी कविता संग्रह ‘समकालीन अवधी साहित्य में प्रतिरोध’ के लिए यह काफ़ी चर्चित रहे हैं. इन्होंने कुंवर नारायण के दूसरे कहानी संग्रह ‘बेचैन पत्तों का कोरस’ का संपादन किया, अवधी की ऑनलाइन पत्रिका ‘अवधी कै अरघान’ के संपादक हैं और पाटलिपुत्र विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक भी हैं.)
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